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अतिशय गम्भीर अज्ञानगर्त में गिरे हुए पामर प्राणियों का सदुपदेश द्वारा समुद्धार करना।
विश्वपूज्य आचार्यदेव सरिसम्राट् महान् ज्योतिर्धर प्रभुश्रीमद्-विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज भी उसी ' अलौकिक-विभूति' में से एक हैं-जिनकी तेजोमयी अनुपम आभा के आविर्भाव होते ही संसार आलोकित हो गया, विषमवादियों का सार हीन दूषित वातावरण प्रभावशालिनी प्रतिभा से अस्तंगत हो गया, अनैतिकता-मय साम्प्रदायिक कलह शान्त हो गया, प्रलयंकर अघटित घटनाओं का उदर छिन्न-भिन्न हो गया, गादनिद्रा में प्रसुप्त भारतीय जनों के जीवन में उत्साह वर्द्धक चैतन्यतामय नव जीवन का संचार हो गया, अज्ञानता, दौर्जन्यता, पारस्परिक वैमनस्यता, दौहार्दता, अकर्मण्यता, अपटुता, आकुलता, आलस्यता, अमानुषिकता, दीनता आदि का सर्वनाश हो क्रमशः अभिज्ञता, पारस्परिक प्रणयता, सौहार्दता, कर्मण्यता, कार्यपटुता, अनाकुलता, दयार्द्रता, मानवता आदि का प्रादुर्भाव हो गया, स्वार्थान्धता का हास हो परार्थता ( परोपकार ) का उदय हो गया । शास्त्र मर्मज्ञ धर्मतत्वज्ञ विज्ञानविज्ञ आदि इस · अलौकिक-विभूति' की आभा के आलोक में आलोकित हो उठे, उनकी अन्तर्वृत्तियाँ (मानसिक-चेष्टाएँ) इस आभा से प्रज्वलित हो सहसा सजीवता को प्राप्त हो गई, उनकी मनोकामनायें ( अभिलाषाएँ) सफलशील बन
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