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જૈન ગ્રંથમાળા O EEसाहेन, मापनगर
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5272008
वाड-यात्रा।
लेखक:आचार्यदेव-मट्टारक-श्रीमद्श्री विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज।
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श्रीराजेन्द्रप्रवचनकार्यालय-सिरिज़ ४७
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श्रीसौधर्मबृहत्तपागच्छीय श्री श्री १००८ भट्टारकआचार्यदेवश्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजप्रसादीकृतमेरी गोड़वाड़-यात्रा।
[संघवर्णन सहित]
FEE XXXSSSSSSSSSSSSSSCIEL
PRESSEXSSSOSO
हिन्दीपद्यकवि-मुनिश्रीविद्याविजयजी के सदुपदेश से
. प्रकाशकवृद्धशाखीय-ओसवाल-संघवी-देवचंदजी पुखराज
चुन्नीलाल आनन्दराज रामाजी जैन । मु० भूति, पो० तखतगढ़ ( मारवाड़) ___ व्हाया, एरनपुरा रोड़ ।
श्रीवीरनिर्वाणसं० २४७० । प्रथम विक्रमसंवत् २००१ 18 श्रीराजेन्द्ररिसंवत् ३८ । संस्करण। । सन् १९४४ इस्वी 18
मूल्य वांचन-मनन श्रीमहोदय प्रिन्टींग प्रेस-दाणापीठ-भावनगर में प्रो० शा० गुलाबचंद लल्लुभाईने मुद्रित किया ।
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हार्दिक धन्यवाद ।
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शा० ताराचन्दजी मेघराजजी साहेब
मु० पावा (मारवाड़) निवासी। भूति (मारवाड़) से सेठ देवीचन्दजी रामाजी के द्वारा निकाला गया गोड़वाड़ जैनपंचतीर्थी का । संघ जहाँ जहाँ जाता रहा, संघ के पहुंचने से पहिले
ही आप वहाँ के स्थानीय संघ के द्वारा पूर्ण प्रबन्ध कराते रहे-जिससे संघ को हर तरह की सुविधा रही । आदि से अन्त तक आप संघ-सेवा का लाभ है लेते रहे और संघपति को समय समय पर योग्य । सहयोग देते रहे हैं। आप एक उत्साही, समयज्ञ
और सेवाभावी परम-श्रद्धालु सज्जन हैं। श्रीवर्धमान जैनबोर्डिंगहाउस-सुमेरपुर की समुन्नति का विशेष श्रेय भी आपको ही है। इस निःस्वार्थ सेवा के लिये हम भी आपको वार-वार धन्यवाद देते हैं । शमिति ।
संघवी-पुखराज देवीचंदजी जैन ।
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संघवी देवीचंद रामाजी के ज्येष्ठ पुत्र
श्री महोदय प्रेस-भावनगर.
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संघवी देवीचंद रामाजी के पौत्र
शा. चुन्नीलालजी साहेब । 00000000000000000000 0. श्री महोदय प्रेस-भावनगर.
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o भूमिका।
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भारत का प्राचीन इतिहास आज क्रम-बद्ध नहीं मिलता है, इससे हमको बड़ा नीचा देखना पड़ा रहा है । कोई हमारी सभ्यता को ५००० वर्ष से अधिक प्राचीन मानता है और कोई हमको तीन हजार वर्ष के पूर्व असभ्य होना सिद्ध करता है । अर्थ यह है कि प्रत्येक इतिहासकार अपनी अपनी मनमानी हमारे विषय में अनुमति दे रहे हैं । यह सब क्यों ?, इसीलिये कि हमारे पूर्वजोंने सदा इतिहास की ही अवज्ञा नहीं की, वरन् इतिहास के तत्वों को भी वे सदा ठुकराते रहे, या यों भी माना जा सकता है कि इस ओर उनका ध्यान ही न गया हो। कुछ भी हो किसी के अतीत का इतिहास न मिलना उसके वर्तमान के लिये अमंगल है। वर्तमान की जड़ भूत में और भविष्य के लक्षण वर्तमान में होते हैं। यों तो संसार के किसी भी प्रदेश का क्रम-बद्ध इतिहास आज नहीं मिलता, परन्तु इस बात से किसी प्रदेश को इतना दुख नहीं जितना भारत को है। भारत का लाखों वर्षों पूर्व सभ्य होना इसके साहित्य से प्रकट होता है। परन्तु साहित्य दो सहस्र वर्ष से अधिक प्राचीन लिपि-बद्ध
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नहीं - यही इसकी लक्षों वर्ष पूर्व की सभ्यता को मनाने में अड़चन आ जाती है । इतिहास की दृष्टि से सचमुच सम्राट् अशोक का स्थान बहुत ही ऊँचा है । अशोकने अपने राज्य में स्थान स्थान पर शिलाओं पर, स्तूपों पर, मीनारों पर अनेक आदेश खुदवा कर इतिहास के बीज डाले । इसके पश्चात् तो फिर यह अभिरुचि बढ़ चली और आज तक बढ़ती चली आ रही है । बस, हमारा जो कुछ इतिहास मिलता है वह अशोक के बाद ही मिलता है । अब तो कवि अपने काव्य में स्वयं अपना परिचय लिख देते हैं । राजा, महाराजा, राष्ट्रपति, देश के उद्धारक, सुधारक सभी के क्रम-बद्ध जीवन लिखे जा रहे हैं । यात्रीगण अपनी महत्व - पूर्ण यात्राओं का वर्णन अख़बारों और पुस्तकों में प्रकाशित करवा देते हैं । यह सब वर्त्तमान इतिहास की रक्षा के लिये बहुत सुन्दर उपाय हो रहा है । भविष्य में हमारा इतिहास इसी सामग्री पर तो बनेगा और वह एक मात्र सच्चा होगा |
भारत एक जाति का नहीं है। जैन, बौद्ध, सिख, हिन्दू, इसाई, पारसी, यहूदी, मुसलमान और न मालूम कितनी अन्य जातियों का यह आवास है और सभी जातियाँ अपनी मुख्यता रखती है । फिर धर्म भी सब के भिन्न हैं । अतः सब का अस्तित्व भी और अधिक भिन्न है । सभी
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के प्रयास अपना अपना महत्वपूर्ण अस्तित्व बताने के लिये बहुत जोरों पर हो रहे हैं और होना भी उचित है । अनेक व्यष्टियाँ ही तो एक समष्टि है। किसी भी एक जाति का इस ओर इस प्रयास में शिथिल रहना आगे लिखे जानेवाले इतिहास के निर्माण में अड़चन पैदा करना है । प्रस्तुत पुस्तक इस दृष्टि से कितनी महत्वपूर्ण है । यह वह ही समझ सकता है जिसने कभी इतिहास के इतिहास पर विचार, मनन किया हो - कलम उठाई हो, इतिहास की अनिवार्य आवश्यकता उपादेयता समझी हो । अगर इसी प्रकार हमारे आचार्य, यात्री एवं मुनिवर अपनी महत्वशाली यात्राओं का प्रकाशन करते रहेंगे तो इतिहास की दृष्टि से ये हमारा महान् उपकार कर रहे हैं और इसी दृष्टि से भविष्य के लिये भी ये महान् सेवा कर रहे हैं । विशेष कर इतिहासकारों के लिये यह बड़ी लम्बी दूर तक सहायक होगा ।
आचार्यदेव - श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने ' मेरी गोड़वाड़ - यात्रा' पुस्तक प्रकाशित करवा कर जैन इतिहास की इस दृष्टि से बड़ी सेवा की है। मैं आचार्यदेव की इस ऐतिहासिक पुस्तक का बड़ा समादर करता हूँ । बस, अन्त में इतना और लिख कर विराम लिया जाता है कि सं० १९९९ मगसिरसुदि ७ को भूति से संघ का प्रयाण हुआ, उसके मिति वार मुकाम इस प्रकार हुए
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७८ कोशिलाव | ५ सुमेर ३०, पो० सु० १-२ ९.१० विरामी | ६-७-८ देसूरी
मुडारा ११-१२ खिमेल ९-१० घाणेराव ३-४ वाली
१३ स्टेशन रानी ११ सादड़ी । ५.६-७ खुडाला १४-१५ वरकाणा १२-१३ राणकपुर ९-१०-११ सांडेराव पो०व०१ नाडोल १४ सादड़ी . ११-१२ बावागाम २-३ नाडलाई
| १३ भूति खुडाला से संघ के साथ में मुनि श्रीलक्ष्मीविजयजी तथा मुनि श्रीविद्याविजयजी भूति गये । आचार्यदेव जाकोड़ा, सुमेरपुर आदि गाँवों में हो प्रतिष्ठा कराने के लिये बलदूट तरफ पधार गये।
मु० बागरा
कं० दौलतसिंह लोढा 'अरविन्द'
ता. १०-६-४४
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प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरेभ्यो नमः । मेरी गोड़वाड़-यात्रा।
जिनेश-सिद्धाः शिवभाव भावाः,
सुसूरयो देशकसाधुनाथाः। अनाथनाथा मथितोरुदोषा,
भवन्तु ते शाश्वतशर्मदा नः ॥ १॥ १ इतिहास में जैनतीर्थों का स्थान___ तीर्थ छोटा हो या बड़ा, परन्तु उसमें किसी अपेक्षा से प्रत्येक भाव का कुछ न कुछ अस्तित्व अवश्य है। समष्टि ऐसी ही छोटी बड़ी अनेक व्यष्टियों का ही योग है। भारतीय शिल्प-कला, बौद्धशिल्पकला, सनातन-शिल्प-कला, यवन-यौन-मुगलशिल्प कलायें उसके व्यष्टिरूप प्रमुख अवयव हैं और प्रत्येक में एक दूसरे से सादृश्यता अधिक अंशों में है और होनी भी चाहिये । परम्परागत प्रभाव को कौन नहीं मानता? । प्रत्येक कला में, व्यवसाय में, धन्धे में तथा संसार के निरन्तर उत्तरोत्तर चलनेवाले,
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बढ़नेवाले प्रत्येक कर्म - कार्य में यह प्रभाव रहता ही है और इसीका नाम विकाश या उन्नति है । यवन - यौन- मुगल- शिल्प-कलायें पहिले की कलाओं से कई शताब्दियों पीछे की हैं, अतः ये कलायें जैन, बौद्ध, वैदिक शिल्पकलाओं से प्रभावान्वित होअधिक या कुछ अंशों में कोई विस्मय-पूर्ण नहीं । इतिहासकार यह भी मान चुके हैं कि बौद्धधर्म जैन एवं वैदिक धर्म के पश्चात् संभूत हुआ है । तब भला जैन एवं वैदिक शिल्प-कलाओं से पूर्व बौद्धशिल्पकला का अस्तित्व कैसे स्वीकार किया जा सकता है ?, अब रही जैन एवं वैदिक शिल्पकलायें, सो इनका भूत अनन्त है । कौन धर्म इन दोनों में से पूर्व का है अब तक निर्णय रूप से नहीं कहा गया । इसलिये हम भी यहाँ यह नहीं कह सकते कि इन दोनों में से कौनसी कला प्रथम दूसरी कला के अस्तित्व से प्रभावान्वित हुई । लेकिन इतना स्पष्ट है कि एक दूसरी को इन्होंने पर्याप्त अंशों में आदान-प्रदान किया है, या यों कह दिया जाय तो भी अत्युक्ति नहीं हो सकती कि कुछ अंशों को छोड़ कर जैन एवं सनातन वैदिक-कलायें एक ही हैं । भारतवर्ष में प्रत्येक शिल्पकला धर्मस्थानों में, स्मारकों में, स्तूपों में, गुफाओं में एवं शिलालेखों
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में अधिक स्पष्ट, पुष्ट एवं जीवन-प्राप्त हुई हैं। सनातन धर्म की दृष्टि से जितना महत्व जगन्नाथपुरी, काशी, सारनाथ, सोमेश्वर, बद्रीनाथ का है, उससे उतना ही अधिक महत्व जैनधर्म की दृष्टि से मथुरा, सांची, सारनाथ, वनारस, सम्मेतशिखर, शत्रुजय, गिरनार, आबू आदि धर्मस्थानों का है।
विदेशीय शिल्पकला-शास्त्रियोंने इन स्थानों में प्रकट हुई दोनों कलाओं की भूरी भूरी प्रशंसा की है। बंगाल की एशियाटिक सोसायटी का इस दृष्टि से कार्य अधिक महत्वपूर्ण है। यहाँ हम एक दूसरी शिल्पकला को तुलनात्मक दृष्टियों से देखने नहीं बैठे हैं, अगर ऐसा किया जाय तो एक रामायण खड़ा हो सकता है । हमारा आशय इतना ही है कि जैन-शिल्पकला का भाव भारतीय शिल्पकला के इतिहास में कितना महत्व रखता है ? । ____ यह सब जानते हैं कि पांडव, एलोरा और एजेन्टा की गुफाओं का कितना महत्व है और यह भी सब जानते हैं कि इन्हें पहिले एक स्वर से बौद्धशिल्पकला के नमूने बतला दिये गये थे। लेकिन अब अधिकाधिक शोध-खोज से यह भ्रमवश कहा हुआ प्रतीत होने लगा है। इन गुफाओं में कुछ
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नमूने ऐसे भी मिलते हैं जो तथागत बुद्ध के पूर्व के कहे जाते हैं। इन सब कारणों को लेकर शिल्पशास्त्री बहुत कुछ अंशों में इन्हें जैन शिल्पकला की ज्वलन्त सम्पत्ति कहने को प्रस्तुत हो रहे हैं, ये हैं जैन-शिल्पकला की ही सम्पत्ति । उदयगिरि, खण्डगिरि की गुफाओं का क्या महत्व किसी भार• तीय अन्य गुफाओं से शिल्पकला की दृष्टि से कमती है । दक्षिण देश में आई हुई बाहुबलजी की विशाल-काय ५७ फीट ऊँची एक ही पत्थर की बनी हुई मूर्ति भला किस शिल्पवेत्ता को आश्चर्य में नहीं डाल देती है। ऐसी एक मूर्ति ग्वालियर और वढवानी राज्य में भी है, जिन्हें देख कर आश्चर्य में रह जाना होता है। शत्रुजय, सम्मेतशिखर एवं आबू तीर्थों की मन्दिरों व ढूंकों की बनावट, सजावट देख कर यात्री जितने मुग्ध होते हैं, उतने अन्यत्र कहीं भी नहीं । यह सत्य है कि संसार में इस दृष्टि से इस प्रकार के बने हुए दृश्य अन्यत्र हैं ही नहीं, यह देख कर ही अनुभव किया जा सकता है। आबू का मन्दिर तो राजा कुमारपाल के समय में जो ११ वीं शताब्दि में हुआ, बना हुआ है। कितना सुन्दर, मनोरम एवं सराहनीय है। यह हम लिख नहीं सकते।
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इन सब का अर्थ यह है कि अगर भारतीय शिल्पकला में से जैन शिल्पकला का स्थान हटा दिया जाय तो शेष कलेवर पंगु, प्राणहीन एवं नग्न हो जाता है । जैन-शिल्पकला का भारतीय शिल्पकला में बड़ा शक्तिभर स्थान है। तीर्थों में, पर्वतों में, नगरों में, ग्रामों में, उपवनों में बियावान बिहड़ बनों में, खण्डहरों में, भूगर्भ से निकलनेवाले अवशिष्ट प्रतीकों में दूध में सफेदी के समान मिला हुआ जैन-शिल्पकला का प्रभाव है । अब पाठक ही विचारें कि जैन-शिल्पकला का क्या स्थान हो सकता है ?। २ जैनों की तीर्थस्थापत्य कला का उत्कर्ष
वैसे तो धर्म-तीर्थों की स्थापना संसार में सर्वत्र मिलती है । यूरोप, अमेरीका, जापान आदि देशों में भी धर्म-स्थान विशेष सुन्दर, भव्य, महादीर्घकाय और कला के सजीव नमूने बने खड़े हैं। परन्तु भारत के तीर्थस्थानों के बनाने में एक दूसरा ही ध्येय प्रधान रहा है जो अन्यत्र संसार में कहीं गौण रूप में और कहीं नहीं भी रहा है। हमारे यहाँ तीर्थों की स्थापना से तीर्थङ्करों के, महापुरुषों के, अवतारों के स्मारक बनाये रखने के साथ साथ
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उससे एक ओर कार्य लिये जाने का ध्येय विशेष या प्रधान रहा है जो अन्यत्र देशों के धर्मस्थानों में देश-काल-स्थिति के प्रभाव से ही भले थोड़ा बहुत अंशों में स्पर्श कर सका है। वह ध्येय है वैभव, सामाजिक-स्थिति, सभ्यता, गौरव, उत्थान, उच्चता और इष्ट के प्रति अपार भक्ति, श्रद्धा इन धर्म-स्थानों के शरीरों के प्रति रोम-रोम से उद्भाषित हो । सर्व-प्रधान ध्येय था ये धर्म स्थान साथ में ही शिल्पकला के अनन्यतम उदाहरण एवं आदर्श हों। जितना द्रव्य भारतवर्षने अपने इन तीर्थस्थानों में व्यय किया है उतना द्रव्य तो क्या उसका सहस्रांश भी किसी देशने व्यय नहीं किया। मुहम्मद गजनवी के आक्रमणों का मुख्य ध्येय इन स्थानों से द्रव्य अपहरण कर गजनी को सम्पन्न एवं समृद्ध बनाने का था। अन्य मुसलमान आक्रमणकारियों का भी यह ध्येय प्रधान या गौण रूप से सदा रहा है और इन तीर्थस्थानों से अपार धनराशि वे ले गये हैं जिसका इतिहास साक्षी है। भारत धर्म के पीछे लुब्ध रहा है, इसने अपने धर्मस्थानों को सर्वस्व भेट किया है । भला फिर वे धर्मस्थान कैसे गौण या दीन रह सकते हैं ।
जैनसमाजने अपेक्षाकृत धर्म-स्थानों को
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विशेष महत्व दिया है, कला और समृद्धि दोनों दृष्टियों से स्मृति रूप से आज भी सहस्रों श्रीसंघ प्रतिवर्ष इन तीर्थों की यात्रा को निकलते रहते हैं और इन तीर्थों में अपार धनराशि एकत्रित होती रहती है, जो तीर्थ-मन्दिरों के जीर्णोद्वार में व्यय होती रहती है । सम्राट्-संप्रति, चन्द्रगुप्तमौर्य, कुमारपाल, जावडशाह, कर्माशाह, जगडूशाह, पेथड़शाह, झांझणशाह, वस्तुपालतेजपाल, थीरुशाह आदि महापुरुषोंने कितने संघ निकाले और इन तीर्थों के जीर्णोद्धार में कितना धन व्यय किया यह लिखने की आवश्यकता नहीं। तीर्थों की वर्तमान जाज्वलता को देख कर ही अनु मान लगाया जा सकता है । कहने का आशय यह है कि जैन-तीर्थों में शिल्पकला उत्तरोत्तर निखरती रही है और इसका प्रत्यक्ष प्रभाव हुआ है जैनधर्म का विस्तार और स्थायित्व । ३ यात्रा की आवश्यकता और पारमार्थिक लाभ__ प्राणी एक यात्री है और यह संसार एक यात्रास्थल है । जीवन का एक एक दिन यात्रा का एक एक दिन है । यात्री गृहस्थ बन जाता है जब कि वह एक स्थान पर गृह बाँध कर रहने लग जाता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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है - यही धर्मभ्रष्टता है, कर्त्तव्योन्मुखता है, मूढ़ता है, इससे मोह का पारावार अनन्त बढ़ जाता है, माया छा जाती है, कषाय-क्लेश घर कर लेते हैं और हम अपना यात्रीपन विस्मृत कर जाते हैं । इसको ही हम परिग्रह कहते हैं । परन्तु फिर भी हमारी आत्माओं में कभी कभी यात्रा करने के भाव जाग्रत हो जाते हैं और उनका लक्ष्य केवल मोटे मोटे प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों के दर्शन, स्पर्शन करने मात्र का होता है । जितना बने उतना भी जीवन में उत्तम है ।
भविष्यवेत्ताओंने, हमारे महोपकारकोंने, तीर्थङ्करोंने हमारे इसी मोटे ध्येय के पूर्ण करने के लिये तथा उसे उपयोगी एवं अभिलषित फलदायक बनाने के लिये तीर्थों की स्थापना की और करवाई और इस प्रकार तीर्थयात्रा की क्रिया एवं आत्मा को जीवित एवं पुष्ट रक्खा ।
यह मानी हुई बात है कि हम जब यात्रा के लिये घर से निकलते हैं, उस समय हमारे मन, भाव, वचन कुछ दूसरे ही रंग ढंग में हो जाते हैं जो थोड़े बहुत हमारे आत्मा सत्यधर्म (स्वभाव) से मेल खाते हैं । घर में जहाँ हमारे में कषाय,
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लोभ, मोह, माया, अज्ञान, प्रधान बन गये थे, स्वार्थ की एक मात्र परिधि में हमारा जीवन जी रहा था, अब यात्रा के समय हमारे उसी मानस में कषाय, क्लेश, लोभ, मोह शिथिल एवं मन्द पड़ जाते हैं और परोपकार, धर्माचरण, एवं सदाचार के भाव जाग्रत बन जाते हैं जो हमारे कर्मबन्धन को ढीला करनेवाले, उसे काटनेवाले हैं। यह देखा गया है कि जो मनुष्य घर पर कोड़ी कोड़ी का लेखा रखता है, न खाता है और न व्यय करने देता है, वह ही पुरुष धर्मतीर्थों की यात्रा के अवसर पर लाखों रुपये बहा देता है। कितने ही दीन, हीन उसकी दया से राव बन जाते हैं, सुखी हो जाते हैं । वह स्कूल, शफाखाने, अनेक समितियों में अपार धन प्रदान करता हुआ देखा गया है । इससे कितना महोपकार होता है इसकी अधिक विवेचना करने की आवश्यकता नहीं । कहने का तात्पर्य यह है कि तीर्थयात्रा पथोन्मुखीयों को पथ पर लाती है और हमें अपना कर्तव्य सुझाती है। हमारे में जो जागरुक होते हैं वे इस अवसर पर लाभ उठा जाते हैं और परमार्थ भी उपार्जन कर लेते हैं। इतिहास एवं मनोरंजन की दृष्टि से तो तीर्थयात्रा करना आवश्यक है ही, परन्तु पारमार्थिक लाभ
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प्राप्त करने का भी यह एक मुख्य साधन है, इसमें शंका नहीं । इस विषय पर पूर्व के लेखों में भी कुछ प्रकाश यत्र-तत्र डाला गया है और आगे के लेखों में भी पाठकों को मिलता रहेगा । जितने से हमारा अर्थ पूर्ण हो जाता है, उतना ही लिख कर इसे छोड़ दिया जाता है। ४ श्रीसंघों का निष्क्रमण और लक्ष्मी का
सदुपयोगतीर्थयात्रा एवं श्रीसंघ-निष्क्रमण में कोई विजातीयता नहीं, दोनों ही एक है । प्रथम से द्वितीय विशाल, व्यापक व सामूहिक होता है। श्रीसंघ हमारे सिद्धान्त के अनुसार वह जन-समूह है जिसमें तीर्थयात्रार्थ जाने की भावना से श्रावक, श्राविका, साधु एवं साध्वियें चारों सम्मिलित हों और एक आचार्य संघ के अधिष्ठाता हों, तथा सारा श्रीसंघ एक संघपति की आज्ञा में संचारण करता हो । धर्म की प्रसारणा केनिमित्त, तीर्थों के दर्शन-- लाभ पाने के, दर्शन-स्पर्शन करने के अर्थ से श्रीसंघ-निष्क्रमण की आयोजना व व्यवस्था किसी एक व्यक्ति की ओर से होती है । सहचारी लाभ पे होते हैं--धर्म का विस्तार एवं प्रसार कैसे हो?,
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संघवी देवीचंदजी को व उनके पुत्रों को संघमाला पहिराने का दृश्य । 0000000000000 श्री महोदय प्रेस-भावनगर.
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इस समय धार्मिक वातावरण कैसा है ? और क्या सुधार अपेक्षित है, समाज की आर्थिक, सामाजिक-स्थिति किस प्रकार है ?, और सुन्दर है तो अधिक बनाने के लिये क्या किया जाय ?, विकृत है तो क्या उपाय काम में लिये जायें ? जिससे वह सुन्दरं, शोभनीय एवं समृद्ध बन जाय । आदि अनेक उपयोगी, हितकर साहित्यिक, सामाजिक, धार्मिक, दैशिक विषयों पर विचार करने का, तथा सामूहिक एवं रचनात्मक कार्य करने का अवसर मिलता है । मुख्य लाभ है धन का सदुपयोग । यह लक्ष्मी चंचला, विनश्वर, भंगुर एवं क्षणिक है। यह किसी के यहाँ न आज तक स्थिर पाई गई है और न पाई जायगी । भला लक्ष्मीपति हो कर अगर मानवने पैसे का सदुपयोग करने की भावना को अवकास न दिया तो कहना चाहिये वह अन्धकार में ही रहा, अपने भविष्य से अनभिज्ञ रहा।
भारत में ही क्या, संसार भर में जैन श्री. संघ की अधिक ख्याति है, इसके उद्देश्य, ध्येय, कार्य-कलाप सब अपेक्षाकृत, अधिक प्रशंसनीय, अनुकरणीय एवं एकान्त धार्मिक होते हैं । दीन,
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अपाहिजों की सहायता करना, धर्मशालाओं में, धर्मस्थानों में, उनके स्थायित्व के निमित्त धन देना, याचकों की याचना यथाशक्ति पूर्ण करना. विद्यालयों में हितकारी समितियों में, चिकित्सालयों में, दैशिक अदैशिक सभाओं में ध्येय व जीवन संसार के कल्याणार्थ हो द्रव्य-दान करना, आदि. अनेक उपकार के कार्य करना श्रीसंघ के कर्तव्यों में सम्मिलित हैं। फिर भला इस अवसर से बढ़ कर लक्ष्मी के सदुपयोग करने का कौनसा अवसर उत्तम हो सकता है ?।
जैनधर्म का ही विस्तार क्या, सभी धर्मों के विस्तार इसी प्रकार के आयोजनों से, सम्मेलनों से होते आये हैं। हम देखते हैं कि प्रतिवर्ष वैष्णव, सनातन, बौद्ध, आर्यसमाज, ईसाई, पारसी, यहूदी मुसलमान सब के संघ एकत्रित होते हैं और धर्मोनति करना यह सब ही का प्रमुख प्रस्ताव रहता है । इसके साथ ही अन्य भी हितकर प्रस्ताव रहते हैं, परन्तु इतर धर्मावलम्बियों पर इन सब का कितना गहरा प्रभाव पड़ सकता है यह सोचने का विषय है ? । इन्हीं यत्नों से धर्म, समाज का विस्तार, गौरव बढ़ सकता है यह सत्य है। वह द्रव्य
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तो फिर कृत-कृत्य है जो इन यत्नों को सफल बनाने में व्यय होता है और वह मानव तो देव है जो अपने द्रव्य का इस प्रकार उपयोग कर रहा है। ५ प्राचीन काल में संघ-निष्क्रमण___ अब यहाँ हम आपको प्राचीन समय में श्रीसंघ किस प्रकार निकलते थे ?, उनकी शोभा, प्रतिष्ठा, विशालता एवं प्रभाविकता कितनी सचोट व सजीव होती थी, तथा उनसे इष्ट एवं धर्म के प्रति कितनी गहरी श्रद्धा, अपार भक्ति एवं प्राणी-समाज के प्रति कितना असीम आनन्द, स्नेह एवं प्रेम जागृत होता था ?, यह बतलाने की चेष्टा करेंगे । साथ में ही आपको इन पंक्तियों से भूतकाल के वैभव, गौरव, सामाजिक, राष्ट्रीय, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक एवं मान सिक स्थितियों का भी भली-भाँति परिचय मिल जायगा।
भगवान् श्रीपार्श्वनाथ के पूर्व का इतिहास हमारे समक्ष नहीं है और जो कुछ उपलब्ध है वह न्यून है । अगर अधिक भी है तो भी इस दृष्टि से हमारे ध्येय की पूर्ति करने में अक्षम है । भग
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वान् श्रीमहावीर के समय में जैनधर्म पुनः जाग्रत हुआ और भगवान महावीर का संपूर्ण तीर्थङ्करजीवन इसी के लिये हुआ। उनके निर्वाण के पश्चात् मौर्यवंशी शासकों में से अधिक जैनधर्मावलम्बी थे । जिनमें से सम्राट्-चन्द्रगुप्त एवं सम्राट्-संप्रति के नाम अधिक उल्लेखनीय हैं ! सम्राट्-चन्द्रगुप्तने भद्रबाहु की अध्यक्षता में तथा सम्राट् संप्रतिने आर्यसुहस्तिसूरिजी की तत्वावधानता में विशाल संघ निकाला था । जिसमें लाखों श्रावक, श्राविका एवं हजारों मुनिसमुदाय से आचार्य संमिलित थे। स्वर्ण-रजत के मन्दिर जिनमें रत्न, पन्ना, माणिक, स्वर्ण आदि की निर्मित प्रभु--प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित थीं। अगणित हाथी, रथ, चतुरंगसेन्य एवं अन्य वादन थे। तीन तीन कोश के अन्तर पर पड़ाव पड़ते जाते थे । जहाँ संघ का टिकाव होता वहाँ अमरपुरी बस जाती थी, देवमन्दिरों के घंटारव से वह पुरी देवलोक को भी लजित करती थी। भोजनशालाओं की बहु संख्यकता, दानशालाओं की अगण्यता, धर्मशालाओं की बहुलता एवं हाटमालाओं की प्रचुरता एक अद्भुत का ही आभाष देती थी। श्रीसंघ के दर्शनार्थ आनेवाले अपार जन-सागर के योग से वह पड़ाव एक जनोदधि
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के समान प्रतीत होता था। ऐसा मालूम पड़ता था कि समस्त संसार एक ही स्थल पर एकत्रित हो गया है। श्रीसंघ का वैभव, संसार की असारता को नष्ट कर रहा है, रंकता को उन्मूलित कर रहा है
और बचे हुए हीन एवं दीनों को संपन्न बनाने की प्रत्येक चेष्टा कर रहा है। श्रीसंघ की ऋद्धि एवं संपन्नता का अनुभव वह ही कर सकता है जिसने उसे देखा हो या वैसी कल्पना करने की शक्ति रखता हो। ऐसे संघ एक ही नहीं, अनेक निकल चुके हैं जिनका ऐतिहासिक दृष्टियों से अपार महत्व है। सम्राट्-विक्रमादित्य सम्राट्-खारवेल, महाराजा-कुमारपाल आदि की तीर्थ-यात्राओं का भी ऐसा ही वैभव एवं गौरव रहा है। __मंत्री, श्रेष्ठि, और शाहों में से भी अनेकने अभूतपूर्व, अश्रुत श्रीसंघ निकाल निकाल कर अपने द्रव्य एवं वैभव का सदुपयोग किया है। इनमें जावड़शाह, कर्माशाह, जगडूशाह, विमलशाह,
१ सिद्धसेनदिवाकर की अध्यक्षता में विक्रमादित्य के निकाले हुए संघ में ६६९ चैत्य, ५००० आचार्य, १४ मुकुटबद्धराजा, ७ लाख श्रावककुटुम्ब, १ क्रोड १० लाख ९ हजार गाड़ियाँ, १८ लाख घोड़े, ७६०० हाथी और क्रोड़ों पदाति, एवं हजारों रसोइया थे । (श्राद्धविधिटीका ५ वां प्रकाश )
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आभूशाह, वाग्भट, वस्तुपाल-तेजपालं, पेथडकुमार, झांझनकुमार, आदि के नाम विशेष गण्य हैं। चरित्रों में, प्रबन्धों में, कथाकोशों में, रासों में, चोपाइयों में एवं तीर्थमालाओं में इनके संघ-निष्क्रमण की यशगाथा आज तक अमर रूप से विद्यमान है
और इतिहास का मुख समुज्वल कर रही है । इनके संघों में लाखों यात्री, हजारों मुनिपुङ्गम, एवं सहस्रों हाथी, घोड़े, रथ, पायदल साथ में थे। अपार खर्च, अपार द्रव्य-व्यय होता था। अब आप ही उन संघों के वैभव का, उनकी जनविशालता का एवं अपार प्रबन्ध और अपार परिग्रह का अनुमान लगा लीजिये और फिर इनसे जैनधर्म की उन्नति
१ इसके निकाले हुए संघ में ७०० जिनालय, १५१० जिनप्रतिमा, ३६ आचार्य, ९०० सुखासन, ४००० गाडियाँ, ५००० घोड़े, २२०० ऊंट, ९९ श्रीकरी, ७ प्रपा, ७२ जलवाहक, १०० कटाह, १०० हलवाई, १०० रसोइया, २०० माली, १०० तंबोली, १३६ दुकानें, १४ लोहकार और १६ सुतार थे।
२ इसके प्रथम यात्रा संघ में २४ दंतमय-१२० काष्टमय चैत्य, ४५०० गाडिया, १८०० वाहन, ७०० पालखी ५०० पालुषिक, ७०० आचार्य, २००० साधु, ११ दिगम्बरमुनि, १९०० श्रीकरी, ४००० घोड़े, २००० ऊंट, ७ लाख भावकादि थे । उपदेशतरंगिणी ४ तरंग )
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का, विस्तार का, उदारता का, प्रौढता एवं समृद्धता का परिचय पाते हुए के साथ-साथ सामाजिक एवं आर्थिक-स्थिति का भी पता लगा लीजिये ।
आज भी आबू का जैनमन्दिर विमलशाह एवं वस्तुपाल तेजपाल के स्वधन्य नामों को मुक्ताक्षरों में प्रगट कर रहा है, इतिहास के पृष्ठों की बात तो अन्यत्र रही । श्रीसंघों के निष्क्रमण ऐतिहासिक हैं, केवल कथात्मक एवं कल्पनात्मक नहीं। इनके वर्णनों से हमें भूत का गौरव, प्रतिष्ठापन एवं संपन्नता को जानने में बड़ा सहयोग मिलता है । स्थानाभाव के कारण अब इसको इतना ही पर्याप्त समझना चाहिये। ६ जैनधर्म की दृष्टि से मरुस्थल का महत्व___ वैसे तो भारत के सम्पूर्ण शरीर के रोम-रोम में जैनत्व एवं जैनधर्म के तत्व समाये हुए हैं । कहीं आगे, कहीं पीछे और कहीं एक साथ। उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त, युक्त प्रदेश, पंजाब भगवान् पार्श्वनाथस्वामी के मुख्य-कार्य-क्षेत्र रहे हैं । बंगाल, विहार, उड़ीसा, युक्तप्रदेश ये भगवान् महावीरस्वामी के मुख्य विहार-स्थल थे। पूर्व के तीर्थङ्करोंने सर्व भारत के प्रत्येक अङ्ग वङ्ग को स्पर्श-दान दिया है । परन्तु आज दुःख के साथ कहना पड़ता है कि अतिरिक्त मालवा, यू.पी., गुजरात, सौराष्ट्र एवं राजपूताने के
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अब भारत के इतर प्रदेशों में जैन-आबादी नाम मात्र को शेष रही है और इनमें भी मुख्य मरुस्थलप्रदेश है जहाँ जैन-आबादी अधिक है। मालवा एवं गुजरात के तथा राजपूताने के शेष प्रान्तों के जैनबन्धुओं में सभी अधिकांश बन्धु मरुस्थल-प्रदेश के प्रवासी हैं। मुख्यतया ओसवाल, श्रीमाल एवं पोर वाल ये बन्धु तो मूल-निवासी मरुस्थल के ही हैं।
भगवान महावीरस्वामी के कछ ही वर्षों पश्चात आचार्य स्वयम्प्रभसूरि एवं आचार्य रत्नप्रभसूरि का पदार्पण मरुस्थल-प्रदेश में हुआ। आचार्य स्वयम्प्रभसूरिने श्रीमालपुर ( भीनमाल ) के राजा को बोध देकर जैन बनाया और राजा के साथ अन्य उच्च वर्ण भी जैन बने जो श्रीश्रीमाल एवं प्राग्वाटवंश से बननेवाले जैन पोरवाल कहलाये। तत्पश्चात् आचार्य रत्नप्रभसूरिने उपकेशपुर के महीप को प्रतिबोध देकर जैन बनाया और उस नगर के अधिकांश निवासी भी विशेष कर ब्राह्मण, क्षत्रीय, एवं वैश्य सब के सब आपके उपदेश को श्रवण कर जैन बने और ओसवाल कहलाये । बाद में मरुस्थल में जैनाचार्यों का आवागमन निरन्तर होता ही रहा और इस प्रकार जैनानुयायियों की गणना बढ़ती ही गई । यहाँ तक कि मरुस्थल का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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कोई भी ऐसा ग्राम या नगर नहीं बचा जहाँ कोई जैन न हो। आप मरुस्थल को उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम एवं शेष चार कोणों में देख लीजिये कि जैनधर्म का प्रभाव कितना है ?। आबू के जैनमन्दिर जो मरुस्थल की दक्षिण-सीमा के छोर पर हैं, कितने भव्य, अनुपमेय एवं प्राचीन हैं। मध्य में कापरडा का विशाल चौमुखी गगनचुम्बी चैत्यालय आज भी अपना पूर्व गौरव उन्नत-मुख किये प्रगट कर रहा है । फलोदी का चैत्यालय वहाँ पर युगों पूर्व पड़े प्रभाव को प्रतिभाषित कर रहा है। ____ इधर कोरंट, ओसिया, नाकोड़ा, जाकोड़ा, वामनवाडा, भांडवपुर, सेसली तथा जालोर के अतिप्राचीन मन्दिर यवन-यौन-मुसलमान आक्रमणकारियों के आघातों को सहन करके शीत, आतप एवं वात के निरन्तर होनेवाले प्रहारों को झेल करके भी आज जैन-धर्म के गौरव को यथावत् रखने के लिये तथा भूत का गौरवपूर्ण इतिहास बने हुए अपना अस्तित्व रक्खे हुये हैं। गोड़वाड़ प्रान्त की पंच-तीर्थी भी मरुस्थल पर पड़ी उस प्राचीन प्रभाव को प्रकट करने के लिये प्रमाण रूप अपनी उसी जाज्वल्यावस्था में आज भी खड़ी हैं। इतना ही नहीं मरुस्थल पर जैन-बन्धुओं का कितना
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गौरव एवं वैभव अंकित है यह ओसवाल, पोरवाल जाति के इतिहास से भलीभाँति भारत के हतिहासज मानते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि मरुस्थल का महत्व जैन-धर्म के विकाश के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है।
दो हजार से ऊपर वर्ष हो चुके जब स्वयम्प्रभसूरि, रत्नप्रभसूरि आदि जैनाचार्योंने मारवाड़ प्रान्त में पदार्पण किया था, इस विषय का आव श्यक उल्लेख हम ऊपर के लेखों में कर आये हैं। इन महापुरुषों के अविरल प्रयत्न से तथा आगे आनेवाले महदाचार्यों की बढ़ती हुई तत्परता एवं श्रमशीलता से जैनधर्म मारवाड़ प्रान्त में राष्ट्रीयधर्म बन गया था। विक्रम की छठी शताब्दि में मरुस्थल जैनधर्म की दृष्टि से प्रमुख प्रांत था । __गोड़वाड़ जिसका विशद् एवं शुद्ध नाम गौद्धार है इसी मरुस्थल की दक्षिण-पूर्व सीमा पर स्थित है। गोड़वाड़ इस समय मारवाड-जोधपुर राज्य का एक विभाग है। इससे पहिले इस भाग पर मेवाड़ के राणाओं का आधिपत्य रहा है । जैनधर्म मारवाड़ के इस प्रान्त में अपेक्षाकृत अधिक संपन्न, उज्वल, एवं विस्तार युक्त रहा है । इसी की पुष्टि हम यहाँ अपनी गोड़वाड़-प्रान्त की तीर्थयात्रा के वर्णन से
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जो विक्रमाब्द १९९९ में हमने भूति (मारवाड) से शा. देवीचन्द रामाजी के तरफ से निकले हुए श्रीसंघ के साथ में की थी, अनेक शिलालेखों के उद्धरणों से, ऐतिहासिक प्रमाणों से, तथा अपनी आखों देखी जैन-मन्दिरों की शिल्पकला के प्रतीकों से तथा जैनमन्दिरों की प्राचीनता से करेंगे।
गोड़वाड़-प्रान्त इस समय दो भागों में विभक्त है । एक देसूरी परगना और दूसरा बाली परगना । इतिहास के पृष्ठों के अनुसार इस प्रान्त पर सर्व प्रथम चौहानों का तथा उसके पश्चात् सोलंकियों का और तत्पश्चात् उदयपुर के महाराणाओं का आधिपत्य रहा है। संवत् १८२६ में यह प्रान्त महाराजा विजयसिंहजी के अधिकार में आया । उस समय से अब तक यह उन्हीं के वंशजों के अधिकार में है। देसूरी यह हकूमत का कस्बा है। जोधपुर से यह ८४ मील के अन्तर पर सूकड़ीनदी के किनारे एक पार्वतीय उपत्यका में अवस्थित है । वर्षा-ऋतु में इस नगर की मनोहारिणी छटा अवलोकनीय है। नये ढंग के बने हुए भवनों के वाससे इसकी शोभा और भी अधिक बढ़ गई है। इस परगने का क्षेत्रफल ७१० वर्गमील है।
बाली यह भी रमणीय नगर है। जोधपुर से दक्षिण में आया है। चौहानों के समय में इसकी राजShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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धानी नाडोल थी। मेवाड एवं गुजरात के शासकों पर भी यहाँ के चौहानराजाओं की धाक थी। इस समय बाली परगने का क्षेत्रफल ८३४ वर्गमील है। यहाँ से एक पक्की सड़क फालना, सांडेराव हो पाली तक चली गई है। बाली कसबे में कुल आबादी दो हजार घरों के करीब है-जिनमें ओसवाल-पोरवाड़ जैनों के ५५० घर आबाद हैं । यहाँ हाकिम कचहरी
और पोस्ट ऑफिस भी है । गोड़वाड़ परगना इतर परगनों से उपजाऊ, धर्मभावना से भावित और जैनतीर्थ-धामों का केन्द्र है। यहाँ के जंगलों में झाड़ी भी काफी है-जिनमें नीम, बंबूल, आम, आवल, केर, पीलू, आदि के वृक्ष अधिक हैं। खेतों में प्रायः सभी जाति के धान्य पैदा हो सकते हैं, परन्तु जुआर, बाजरी, चने, गेहूँ बहुतायत से पैदा होते हैं। ७ गोड़वाड़ प्रान्त में जैन आबादी वाले गाँव___ इस परगने में कुल ३६० गाँव आबाद हैं उन सभी का वर्णन लिखने का अवकाश इस पुस्तकरूप ट्रेक्ट में नहीं है । इसलिये यहाँ जैन-आबादीवाले गाँव, उनमें जैनों की घर-संख्या, जिन-मन्दिर, मूलनायक के नाम, जैनधर्मशाला, और उपाश्रय आदि की परिचायक तालिका दे दी जाती है जो संक्षिप्त हाल जानने के लिये काफी है।
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गाँवों के नाम
जिनालय
मूलनायक प्रतिमाजी
घमशाला उपाश्रय पोरवालघर ओसवालघर
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१ सादड़ी' ५२ चिंतामणि पार्श्वनाथादि ४ २ मादा
१ श्रीपार्श्वनाथ ३ राजपुर १ श्रीसुपार्श्वनाथ ४ घाणेराव' १२ आदिनाथ आदि ५ सोडा १ श्रीपार्श्वनाथ ६ देसूरीगढ़ ४ ऋषभदेवादि
४१००१०० ७ सुमेर १ श्रीशान्तिनाथ ८ गोंथी ९ वागोल १ श्रीपार्श्वनाथ १० मगरतलाव १ धातु-चोवीसी ११ पनोतो १ श्रीशान्तिनाथ १२ कोट सोलं- पार्श्वनाथ, कियाँरो
५२ जिनालय १ १३ जोजावर
श्रीवासुपूज्य १४ ओनो
श्रीशान्तिनाथ १५ करणवा १६ ढालोप १ श्रीऋषभदेव १७ पृथ्वीराजरो गुड़ो १८ नाडोल ४ श्रीपद्मप्रभ आदि १४ २५
१ यहाँ जैन होस्पिटल, विशाल न्यातिन्योरा, जैन विद्यालय, संतोषविद्यालय, कन्याशाला आदि भी हैं । २ राणकपुर के रास्ते पर एक । ३ विद्यालय, गोशाला भी है। ४ यहा हाकिमकचहरी, सरकारीस्कूल, पोस्ट आदि भी हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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१९ किसनपुरा २० खारला १ श्रीशान्तिनाथ २१ जीवनवड़ी १ श्रीमल्लिनाथ २२ सोवलता १ श्रीशान्तिनाथ २३ पावुजीरी देवली |१श्रीशान्तिनाथ २४ सालरिया १ श्रीचन्द्रप्रभ २५ जबाली
महावीरस्वामी २६ ईटदरा . श्रीशान्तिनाथ २७ खोड़
श्रीशान्तिनाथ ।
श्रीआदिनाथ २८ नाडलाई श्रीआदिनाथादि २९ मोटो डायलानो १ श्रीऋषभदेव ३० निपल
श्रीचन्द्रप्रभ ३१ केसुली ३२ रामाजीरो गुड़ो १ धातु-चोवीसी ३३ गेनड़ी १ धातु-चोवीसी ३४ पिलोवणी १ धातु-चोवीसी ३५ सिवास १ धातु-चोवीसी ३६ खिमाड़ो चांपा.
वतारो १ श्रीशान्तिनाथ ३७ वणदार ३८ सुंगड़ी ३९ रायपुरियो ४० पोंचेटिया १ श्रीशान्तिनाथ ४१ जेतसिंगरोगुड़ो १ श्रीऋषभदेव ४२ भादरलाउ | श्रीपार्श्वनाथ ४३ दुगरिया १ श्रीऋषभदेव
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|४४ सुमेसर-स्टेशन ४५ नीबाड़ा ४६ बुसी १ महावीरस्वामी ४७ टायवाली १ सिद्धचक्रगट्टा ४८ दादावसी १ श्रीशान्तिनाथ ४९ बिजोवा' १. चिंतामणि पार्श्वनाथ ५० नांदाणा
श्रीशान्तिनाथ ५१ रानी-स्टेशन १ श्रीशान्तिनाथ ५२ रानी-गाँव १. श्रीशान्तिनाथ ५३ खिमेल २ श्रीशान्तिनाथ।
श्रीआदिनाथ । ५४ विरामी
श्रीशान्तिनाथ ५५ घणा
१ श्रीऋषभदेव ५६ लांपोद १ श्रीपार्श्वनाथ ५७ चांणोद १ श्रीशान्तिनाथ ५८ विठुड़ा १ धातु-चोवीसी ५९ एंदलारो गुड़ो १ श्रीपार्श्वनाथ ६० किरवो
सिद्धचक्रगट्टा ६१ जेतपुरा ६२ बालराई
श्रीचन्द्रप्रभ ६३ सांचोड़ी
श्रीपार्श्वनाथ ६४ मांडल
श्रीपार्श्वनाथ ६५ ढोलांरो गुड़ो १ श्रीऋषभदेव ६६ सांडेराव |२| श्रीऋषभदेव
श्रीशान्तिनाथ | ६७ दुजाणा
|१| श्रीचन्द्रप्रभ १ यहाँ न्यातिन्योरा, सरकारीस्कूल, कन्याशाला, पाठशाला भी है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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६८ वलाणा | १ | श्रीचन्द्रप्रभ ६९ कोशीलाव २. श्रीशान्तिनाथ] १ ७५/१५०
श्रीपार्श्वनाथ ७० पावा
श्रीशान्तिनाथ ७१ कवलां
श्रीसंभवनाथ ७२ भूति
महावीरप्रभु।
श्रीऋषभदेव । ७३ वरदड़ो
श्रीशान्तिनाथ।
श्रीआदिनाथ । ७४ कवराड़ो
श्रीचन्द्रप्रभ ७५ रोडलो
श्रीआदिनाथ ७६ पिसावो १ श्रीचन्द्रप्रभ ७७ बाबागाँव १ श्रीसंभवनाथ ७८ दौलपुरा ७९ खिमाड़ो राणावतारो
श्रेयांसनाथ ८० बाली' २ श्रीआदिनाथ।
| श्रीपार्श्वनाथ ८१ सेसली
दादापार्श्वनाथ | ८२ बोया
श्रीशान्तिनाथ १ उदयपुर-महाराणा की महाराणी बालीकुंवरी के नाम से यह बसाया गया। यह भी किंवदन्ती प्रचलित है कि बाली नामक चोधरानीने सब से प्रथम यहाँ निवास किया इससे इसका नाम 'बाली' पड़ा । यहाँ सरकारी होस्पिटल, स्कूल, पाठशाला, कन्याशाला भी है। २ यहाँ विक्रम सं० ११८७ आषाढ़सुदि २ शनिवार के दिन संघवी-मांडणने सात लाख रुपया व्यय करके भव्य जिनालय बनवाया और उसकी भ० श्री आनन्दसूरिजी से प्रतिष्टा करवाई। पार्श्वनाथप्रतिमा के कारण ही यह सेसली नाम से प्रसिद्ध हुआ । मांडण ढालावत था, अतः प्रतिवर्ष इस मन्दिर पर उन्हींके वंशजों के तरफ से धजा चढ़ाई जाती है। ढालवतों के घर खिमेल आदि गाँवों में आबाद हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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८३ खुडाला श्रीधर्मनाथ
१ १२/१९०/ ८४ फालना-स्टेशन १ श्रीपार्श्वनाथ ८५ पोमावा
| श्रीशान्तिनाथ ८६ कोलीवाड़ा श्रीशान्तिनाथ ८७ पेरवा
श्रीशान्तिनाथ ८८ बीजापुर
श्रीसंभवनाथ ८९ रातामहावीर' महावीरस्वामी ९० बीसलपुर श्रीधर्मनाथ ९१ सेवाड़ी
श्रीवासुपूज्य ।
महावीरप्रभु ९२ लुणावा
श्रीपद्मप्रभ ।
श्रीऋषभदेव । ९३ लाठारा
श्रीऋषभदेव ९४ मुडारा ३ श्रीशान्तिनाथ ९५ कोट वालियांरो १ श्रीशान्तिनाथ ९६ धुणी १ श्रीशान्तिनाथ ९७ लासरो गुड़ो १ गोड़ीपार्श्वनाथ ९८ सिन्दरु |१| श्रीशान्तिनाथ
१ प्राचीनकाल में यहाँ 'हस्तितुण्डी' नामकी नगरी आबाद थी-जिसके अवशेष अब भी विद्यमान हैं। ओसवालों में जो हथुडियाराठौर कहाते हैं वे यहीं के आदि निवासी हैं । वर्तमान में वीरप्रभु की प्रतिमा लालरंग की होने से इसका नाम 'राता-महावीर ' पड़ा है । अब यहाँ पर मन्दिर के सिवा आबादी बिलकुल नहीं है । २ यह मन्दिर चोवीस जिनालय है। दूसरा गृहमन्दिर है जिसमें मूलनायक पार्श्वनाथ और चन्द्रप्रभस्वामी हैं। तीसरा मन्दिर बाह्योद्यान में सांडेराव जानेवाली सड़क के वायें किनारे पर शिखरबद्ध है, इसमें आदिनाथ की प्रतिमा स्थापित है।
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८ गोडवाड - पंचतीर्थी और संघ का निष्क्रमण --
अब हम अपने मनोनीत विषय पर प्रकाश डालेंगे | गोड़वाड़-प्रान्त में वरकाणा, नाडोल, नाङलाई, सुमेर, घाणेराव, सादड़ी, राणकपुर, जूनाखेड़ा प्रमुख एवं अति प्राचीन स्थान हैं । इनका वर्णन हम अपनी तीर्थयात्रा की मिति के क्रमानुसार पाठकों के समक्ष रक्खेंगे । इससे हमारी तीर्थयात्रा का भी पाठकों को कुछ-कुछ परिचय मिल जायगा तथा विषय की व्यापकता बढ़ जाने से कुछ आवश्यक बातों का उल्लेख करने का भी यथोचित अवसर हमे भी मिल जायगा ।
श्रीसंघ का निष्क्रमण सं० १९९९ मार्गशीर्ष शुक्ला ९ नवमी को भूति (मारवाड़) से हुआ । इस संघ के संघपति शाह देवीचन्द रामाजी ( भूतिनिवासी ) थे । यह संघ कोशीलाव, बरामी गाँवों के संघ - स्वागत को लेता हुआ तथा वहाँ के जिनालयों में धन-प्रदान करता हुआ एकादशी को खिमेल नगर में आया । द्वादशी को प्रातःकाल संघपति के • ओर से तथा सायंकाल को सौधर्म बृहत्तपागच्छीय संघ के ओर से प्रीतिभोजन हुये । त्रयोदशी को संघ रानी - स्टेशन पहुंचा। रानी के जैनबन्धुओंने
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संघ का भारी स्वागत किया। दोनों पक्षों की ओर से स्वामिवात्सल्य हुए। संघपति की ओर से यहाँ के जिनालय में उचित द्रव्य भेट किया गया ।
रानी बी. बी. एण्ड सी. आई. रेल्वे का स्टेशन है। इसकी रोनक दिन दिन बढ़ती जा रही है । यहाँ शाहूकारों की ६० दुकानें हैं। नई आबादी ठीक स्टेशन के पास आ जाने से विशेष सुन्दर प्रतीत होती है। आबादी के मध्य में भगवान् शान्तिनाथ स्वामी का आया हुआ भव्य एवं सौधशिखरी मन्दिर संरक्षक के समान खड़ा हुआ प्रतीत होता है। १ श्रीवरकाणा-तीर्थ
चतुर्दशी को संघ वरकाणातीर्थ पहुँचा । वरकाणा का प्राचीन एवं आदि नाम 'वरकनकपुर' या 'वरकनकनगर' बताया जाता है। यहाँ का जिनालय घावन देवकुलिकाओं से युक्त तथा भगवान् पार्श्वनाथ-चैत्यालय के नाम से विख्यात है। श्रीपार्श्वनाथ प्रभुकी प्रतिमा बड़ी ही आनन्दप्रदा है। सपरिकर होने से यह अधिक भव्य प्रतीत होती है। प्रत्येक कुलिका में भी तीन तीन प्रतिमायें प्रतिष्ठित हैं। सिंह-द्वार के दोनों ओर सुमेरु-शिखर के दो जिनालय हैं, जिनमें चतुर्मुखी मूर्तियाँ विराजमान हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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ऐसा कहा जाता है कि वरकनकपुर सम्राट्-संप्रति के समय में एक प्रसिद्ध नगर था और सम्राट्ने यहाँ भगवान् पार्श्वनाथ का मन्दिर बनवाया था। मुस. लमान आक्रमणकारियों के हमलों से नगर एवं मन्दिर नष्ट-भ्रष्ट हो गये और फिर सैकडों वर्षों की धूलने उन खंडहरों को पूर्ण तथा आच्छादित करके भूगर्भ की एक वस्तु बना दी। इस प्रकार दृष्टि-पथ से लुप्त हुए एवं भूगर्भ में समाये हुये वरकनकपुर के ऊपर कालान्तर में एक छोटासा ग्राम आबाद हो गया। कहते हैं कि एक गडरिये को अपना गृह बनाते समय भगवान् पार्श्वनाथ की यह प्रतिमा प्राप्त हुई। कोई कोई कहते हैं कि उस गडरिये को स्वप्न आया और उसने फिर भूमि खोद कर मूर्ति निकाली। खैर कुछ भी हो, यह तो सत्य है कि मूर्ति भूमि में से प्राप्त हुई । मूर्ति की बनावट अति-प्राचीन प्रतीत होती है और सम्राट-संप्रति की बनवाई कई मूर्तियों से मिलतीझुलती है। सम्राट्-संप्रतिने करोड़ों मूर्तियें बनवायी थीं और इस प्रकार संप्रति के काल में अधिक अभ्यास से मूर्ति का आकार-प्रकार एक विशिष्ट एवं निश्चितरूप धारण कर चुका था। अगर हम उस समय की बनी हुई मूर्तियों की कला को संप्रति-मूर्ति-कला
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के नाम की संज्ञा दें तो भी कोई अनुचित नहीं। शिल्पकला का सूक्ष्म विज्ञ ही इस तथ्य को अधिक स्पष्ट कर सकता है।
गडरिये को मूर्ति प्राप्त हुई है-जब यह समाचार इधर उधर फैले तो दादाई और बीजोवा के संघने एक छोटा मन्दिर बना कर उस मूर्ति को पुनः प्रतिष्ठित की। महाराणा कुंभा के समय दादाई में रहनेवाले श्रीमालपुर के एक शाहूकारने वर्तमान बावन कुलिकाओं से अलंकृत सौधशिखरी भव्य मन्दिर बनवाया जो शिल्पकला की दृष्टि से अद्वितीय एवं नमूना है। इसके लिये मेवाड़ के महाराणाओं के समय समय पर दिये गये ताम्रपत्र और माफीपत्र भी यहाँ की पेड़ी में विद्यमान हैं।
ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि दादाई और बीजोवा के रूप में वरकनकपुर नष्ट-भ्रष्ट हो कर विभक्त हो गया। दादाई और बीजोवा की स्थिति इस अनुमान को प्रबलता से पुष्ट करती है। यह भी सत्य है कि वरकनकपुर प्राचीन एवं समृद्ध नगर था, इसीलिये इसका इतना महत्व गोड़वाड़ में रहा, और है । आज भी गोड़वाड़ की पंच-तीर्थी में वरकाणा-तीर्थ प्रमुख है । इस समय यहाँ जैन का घर एक भी नहीं है, परन्तु फिर भी
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गोड़वाड़ प्रान्त की जैन पंचायत का यह मुख्य स्थान है और गोड़वाड़ - प्रान्तीय जैनों के सफल प्रयत्न से यहाँ पर एक श्रीपार्श्वनाथ - जैनबोर्डिंग नामका विद्यालय चल रहा है जिसमें शिक्षण मिडल कक्षा तक का दिया जाता है और ३०० विद्यार्थी विद्या-लाभ प्राप्त कर रहे हैं । यह भ्रम उनका अत्यन्त ही सराहनीय है । इस प्रयत्न से इस तीर्थ की ख्याति अधिक पुष्ट एवं जाग्रत बन गई है । धीरे धीरे पुनः अपने उसी प्राचीन गौरव की सीमा पर पहुंच रही है । यात्रियों की सुविधा के लिये यहाँ एक विशाल दो मंजिली धर्मशाला भी है । संघपतिने यहाँ के जीर्णोद्धार - खाते तथा बोर्डिंग खाते में अच्छी रकम की भेट की ।
२ श्री नाडोल - तीर्थ
पौषकृष्णा प्रतिपदा को श्रीसंघ प्रयाण कर नाडोल पहुँचा और यहाँ के संघने उसका भारी जुलुश के साथ प्रशंसनीय स्वागत किया । यहाँ जैनों के २०० घर आबाद हैं और प्राचीन ढंग के चार उपाश्रय हैं। सम्राट् - संप्रति का बनवाया हुआ भगवान् श्रीपद्मप्रभस्वामी का मन्दिर बड़ा विशाल और चित्ताकर्षक है । दूसरा राजा गन्धर्वसेन का
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बनवाया हुआ भगवान् श्रीनेमिनाथ प्रभु का जिना - लय भी बड़ा मनोरम है । इसके दहिने तरफ सप्तखण्डा भूमिगृह है। कहा जाता है कि तपागच्छीय श्रीमानदेवसूरिजीने इसी भूमिगृह में विराजमान हो कर सप्रभावक 'लघुशान्तिस्तव' की रचना की थी जिसके पाठ करने और तन्मंत्रित जल - सिंचन से शाकम्भरी संघ में प्रचलित महामारी रोग मिट गया था । तीसरा श्रीऋषभदेव - प्रभु का शिखरबद्ध और चौथा श्रीपार्श्वनाथ- प्रभु का घर देरासर जिनमें तीन तीन प्रतिमायें प्रतिष्ठित हैं । यहाँ के पतित खण्डहरों तथा पतितावशिष्ट वापिकाओं से पता लगता है कि किसी समय यह समृद्ध नगर होगा ।
३ श्री नाडलाई - तीर्थ
द्वितीया को श्रीसंघ नाडलाई पहुंचा, और सस्वागत उसने नगर में प्रवेश किया । नाडलाई का शुद्ध एवं प्राचीन नाम नारदपुरी है, नाडलाई यह
१ एकत्र तत्र पृथिवीं प्रविलोक्य पृथ्वीं. सोऽवीवसन्नगरमृद्धिमयं स्वनाम्ना ।
भुव्यत्र नारदपुरीति पुरी गरीयः, श्रीस्तैलबिन्दुरिव पाथसि पप्रथे सा ॥ २६ ॥
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उसका अपभ्रंस है । विजयप्रशस्ति महाकाव्य के प्रथम सर्ग में लिखा है कि नारदमुनिने मेवाड़देश के विशाल भूमि-पट को देख कर वहाँ अपने नाम से ' नारदपुरी ' नामक नगरी बसाई और वह उसी नाम से सर्वत्र प्रख्यात हुई । उसमें श्रीकृष्णजी के पुत्र प्रद्युम्नकुमारने समीपवर्त्ती पर्वत के ऊपर उत्तुंग सशिखरी जिनालय बनवा कर उसमें श्रीनेमिनाथस्वामी की कल्पलता के समान अक्षय्य सुख देनेवाली प्रतिमा विराजमान की । नारदपुरी के निकटवर्त्ती ऊँचे ऊँचे शृङ्गों (शिखरों ) से जेषैल नामक
२ प्रद्युम्नसंज्ञमधुजित्तनुजेन यत्राभ्यर्णावनिधशिखरे जिननेमिचैत्यम् ।
निर्मापितं पथि दृशोस्तदुपैतिरम्य
मद्यापि च स्फुरति तन्महिमा महीयान् ॥ २७ ॥ नव्याञ्जनद्युतिपदं प्रतिमां च तत्र,
चैत्ये न्यधाद् भगवतः स हृदीव तं स्वे ।
साद्यापि दैवतलतेव हितार्थहेतु:, साक्षाच्छिवासुत इवैत्यतुलं प्रभावम् ॥ २८ ॥ ३ उत्तुङ्गशृङ्गसुभगः पुरि यत्र धत्ते, शोभां समीपभुवि जेषलसंज्ञशैलः । मूर्द्धाप्ररुद्धविबुधाध्वनि यत्रयाभ्यो
दग्वर्त्मनाऽटति रखी रथभङ्गमीरुः ॥२९॥
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पर्वत अपूर्व शोभा को धारण कर रहा है। बस, यह तो मानना ही होगा कि यह नगरी अति प्राचीन है। भूगर्भ से निकलनेवाली प्रतिमाओं एवं खण्डहरों से भी इस नगर की प्राचीनता सिद्ध होती है। सोनगिरा सरदारों की राजधानी बनने का भी इसे सौभाग्य प्राप्त हुआ है। इनका उस समय का बना हुआ किला भी खंडहर रूप में विद्यमान है। आज भी इस नगर की प्राचीनता एवं जाज्वल्यता इसकी मन्दिरावली से स्पष्ट दृष्टिगत होती है । आज यहाँ जैनों के अति-वल्प घर रह गये हैं, फिर भी इसकी महत्ता कम नहीं है। थोड़ा वर्णन यहाँ हम प्रायः सभी जिनालयों का देंगे, जो परिचय के लिये काफी होगा।
१ नगर के पश्चिमी द्वार के बाहर भगवान् आदिनाथ का बड़ा एवं सौधशिखरी जिनालय है। पहिले इसमें महावीरस्वामी और बाद में मुनिसुव्रतस्वामी की प्रतिमा प्रतिष्ठित थी, परन्तु उसके लुप्त हो जाने से वर्तमान प्रतिमा भगवान् आदिनाथ की विराजमान की गई। यह सब परिकर के लेख से प्रकट होता है। वर्तमान प्रतिमा श्वेतवर्ण की है
और तीन फुट ऊँची है । इसके अतिरिक्त ग्यारह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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प्रतिमायें और भी इसमें विराजमान हैं जो प्राचीन एवं मनोरम हैं। ___ इस जिनालय के विषय में एक विस्मयपूर्ण दन्त-कथा भी प्रचलित है और उसका कुछ दिग्द. र्शन शिला-लेखों में भी मिलता है कि षण्डेरकगच्छीय आचार्य यशोभद्रसूरि और शैवयोगी तपे. श्वर के मन्त्र-प्रयोगों के विषय पर वाद-विवाद हुआ और शर्त की कि सूर्योदय के पहले कूकडे का शब्द होते ही अपने ध्येय को स्थगित कर देना । दोनों ही मन्त्रज्ञोंने अपनी-अपनी मन्त्रज्ञता प्रकट करने के लिये पालाणीखण्ड (खेड़नगर) अथवा किसी किसी के मत से वल्लभीपुर से जो काठीयावाड़ प्रान्त का एक बहु-समृद्धि पूर्ण नगर था, अपनेअपने मत के विशालकाय मन्दिर आकाश में उड़ाये और दोनों में यह निश्चय ठहरा कि दोनों में से जो भी प्रथम जाकर निश्चित नियम के अनुसार नाड. लाई में अपना मन्दिर स्थापित करेगा, जीता हुआ माना जायगा। आचार्य जब योगी से आगे निकल गये तो योगी को चिन्ता होने लगी। योगीने कूकड़े का रूप धारण किया और बोलना प्रारम्भ किया। आचार्यने समझा सूर्योदय होना चाहता है, अतः वे रुक गये । परन्तु कहीं सूर्योदय के लक्षण प्रतीत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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नहीं हुए । आचार्य इस विषय में कुछ समय तक बैठे रहे कि इतने में योगी भी अपना मन्दिर लेकर नाडलाई में आ गया। निदान सूर्योदय का समय हो जाने और कूकड़े का शब्द हो जाने पर योगीने ग्राम में तथा आचार्यने ग्रामके बाहर थोड़ी दूरी पर मन्दिर स्थापन कर दिये। सोहमकुलपट्टावली-कारने इस घटना का संवत् १०१०, और लावण्यसमय. रचित-तीर्थमाला में ९५४ लिखा है।
नाडलाई के चोहानराव-लाखण के वंशजों को आचार्य यशोभद्रसूरिने प्रतिबोध देकर जैन बनाये और उनका भण्डारीगोत्र कायम किया था । उक्त आदिनाथ-जिनालय के एक शिला-लेख से जान पड़ता है कि यशोभद्रसूरि-संतानीय आचार्य ईश्वरसूरिजी के सदुपदेश से मन्त्री सायरने और उसके वंशजोंने उक्त मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया था। अन्तिम उद्धार महाराणा जगतसिंह के शासनकाल में सं०१६८६ वैशाख सुदि८ शनिवार के दिन श्रीविजयदेवसूरि के उपदेश से नाडलाई के श्रीसंघने करवाया था।
२ द्वितीय जिनालय ग्राम के मध्य में है। ऐसा प्रतीत होता है कि नगरवासियों को दर्शन की
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विशेष सुविधा हो इस दृष्टि से संघने इसे बनवाया है । मन्दिर छोटा पर बड़ा मनोहर है । इसमें मूलनायक श्रीपार्श्वनाथप्रभु की एक हाथ ऊँची, श्वेतवर्ण प्रतिमा आस-पास दो प्रतिमाओं के सहित विराजमान है जो अर्वाचीन और दर्शनीय हैं। ___३ तृतीय मन्दिर शिखरबद्ध है। इसमें श्रीअजितनाथ भगवान् की पीतवर्ण, सपरिकर, एवं १२ हाथ बड़ी प्रतिमा विराजमान है ।
४ चतुर्थ जिनालय में श्रीपार्श्वनाथ भगवान की २ हाथ बड़ी श्वेतवर्ण प्रतिमा विराजमान है । इसकी प्राणप्रतिष्ठा संवत् १६५९ में जगद्गुरु श्रीविजयहीरसूरिजी के पट्टाधीश श्रीविजयसेनसूरिजीने की है। यहाँ के सब ही मन्दिरों में यह अधिक विशाल, ऊँचा एवं सुन्दर है । इसके मण्डप में १४ चौवीसी, एवं १ पंचतीर्थी है । इसकी सज-धज बड़ी ही मनोहारिणी है।
५ पश्चम जिनालय में भगवान् श्रीशान्तिनाथस्वामी की अतिभव्य प्रतिमा सपरिकर, एवं एक हाथ बड़ी है जो सं० १६२२ की प्रतिष्ठित है । मन्दिर सशिखर छोटा है, लेकिन बड़ा सुन्दर है ।
६ मन्दिर में भगवान् श्रीवासुपूज्यस्खामी की
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प्रतिमा सं० १७४९ की प्रतिष्ठित है जो एक हाथ ऊँची एवं बादामी वर्ण की है। इसके अलावा एक श्रीमहावीरप्रभु की प्रतिमा और भी है जो उक्त संवत् में ही प्रतिष्ठित हुई है। इनके अंजनशलाकाकार अंचलगच्छीय आचार्य श्रीधर्मसूरिजी हैं । यह जिनालय शिखरबद्ध एवं अच्छा मोहक है ।
७ वां जिनालय शिखरबद्ध है, इसमें मूलनायक गोड़ीपार्श्वनाथप्रभु की सर्वाङ्ग - सुन्दर, श्वेतवर्ण १ हाथ बड़ी प्रतिमा स्थापित है जिसकी प्राणप्रतिष्ठा सं० १७६७ में श्रीकुशलसूरिजी के हाथ से हुई है । इसके आस-पास श्रीपार्श्वनाथ और श्रीऋषभदेव भगवान् की भव्य दो प्रतिमा विराजमान हैं जिनकी अंजनशलाका सं० १३२४ में श्रीविजयरत्नसूरिजीने की है ।
८ वें सशिखर - जिनालय में मूलनायक भगवान् श्रीपार्श्वनाथस्वामी की सपरिकर, श्वेतवर्ण, एवं १३ हाथ बड़ी प्रतिमा प्रतिष्ठित है । प्रतिमा की मनोहारिता दर्शनीय है ।
९ वां श्री सिद्धाचल - सशिखर जिनालय जेबलपहाड़ पर स्थित है । यह सम्राट् - संप्रति का बनवाया कहा जाता है और इसकी बनावट है भी
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ऐसी ही। इस पर चढ़ने के लिये नीचे से मन्दिर तक पक्की सीढ़ियें बनी हुई हैं । मन्दिर के चतुर्दिक एक छोटासा दुर्ग है जो अब भग्नावस्था में है। इसके भीतर एक जलकुण्ड भी है जिसकी भी वही अवदशा है । मन्दिर की चार दिवारी अच्छी स्थिति में है । मूलनायक भगवान् श्रीआदिनाथस्वामी की प्रतिमा १३ हाथ बड़ी है और अति मनोहारिणी है । इसके दर्शन पूजन करने से सिद्धाचल के समान ही शान्तिलाभ प्राप्त होता है । इसकी प्राणप्रतिष्ठा महाराणा जगतसिंहजी के राज्यकाल में सं० १६८६ वैशाख सुदि ८ शनिवार के दिन जहाँगीर महातपा-विरुदधारक श्रीविजयदेवमूरिजी के कर-कमलों से हुई है।
१० वां जिनालय एक छोटी पहाड़ी पर है जो शिखरबद्ध और ग्राम से दक्षिणोत्तर दिशा में थोड़ी दूरी पर है। इसमें भगवान् श्रीनेमिनाथस्वामी की श्यामवर्ण, सपरिकर एवं १३ हाथ बड़ी सर्वाङ्गसुन्दर प्रतिमा मूलनायक रूप में विराजमान है। इसी कारण इसका नाम गिरनारटोंक और यादव (जादवा) पहाड़ी है। संवत् १६०७-८ में विजयहीरसूरि को पंन्यास और उपाध्याय पद इसी मन्दिर में दिये गये थे। सं० ११९५ आश्विन कृष्णा
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३० को यहाँ के ठाकुर राजदेवने बालदियों से प्राप्त होनेवाले कर का। वां भाग इस मन्दिर को अर्पण किया था ऐसा यहाँ के एक शिला-लेख से प्रगट होता है।
११ वां जिनालय सहसावन के नाम से प्रख्यात है जो जादवापहाड़ी से ४ फाग की दूरी पर एक पार्वतीय उपत्यका में स्थित है। इसमें नेमिनाथप्रभु के चरणविम्ब संस्थापित हैं। ये पादबिम्ब नये स्थापन किये गये हैं । इस स्थान पर विशेष झाड़ी नहीं है, किन्तु मार्ग चढ़ाव-उतारवाला जरा विषम है। श्रीसुमेर (सोमेश्वर ) तीर्थ
पंचमी को संघ का पड़ाव 'सोमेश्वर' हुआ। वर्त
१ ॐ नमः सर्वज्ञाय । संवत् ११९५ आसउजवदि १५ दिने कुजे अद्येह श्रीनाडूलडागिकायां महाराजाधिराज श्रीरायपालदेवे विजयीराज्यं कुर्वतीत्येतस्मिन् काले श्रीमदुजिततीर्थे श्रीनेमिनाथदेवस्य दीपधूपनैवेद्यपुष्पपूजाद्यर्थे गुहिलान्वयः राउ० ऊधरणसूनुना भोक्तरि ठ० राजदेवेन स्वपुण्यार्थे स्वीयादानमध्यात् मार्गे गच्छतानामागतानां वृषभानां शेकेषु यदाभाव्यं भवति तन्मध्याविंशतिमो भागः चन्द्रार्क यावद्देवस्य प्रदत्तः । अस्मद्वंशीयेनान्येन वा केनापि परिपंथना न करणीया, अस्मइत्तं न केनापि लोपनीयम् ।
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४८ मान में लोग इसको 'सुमेर' नाम से संबोधित करते हैं । यह नाडलाई से ६ मील दूर पूर्व-दक्षिण में अरबली के समीप सघन झाड़ी में है। किसी समय यह आबाद नगर था । यहाँ का वर्तमान सशिखर जिनालय भी ४०० वर्ष पूर्व का बना हुआ है । इसके निर्माता एक नाहरगोत्रीय ओसवाल थे जो इसी नगर के रहनेवाले थे। मन्दिर में भगवान् श्रीशान्तिनाथ की श्वेतवर्ण १ हाथ बड़ी प्रतिमा प्रतिष्ठित है। उनके आस-पास भी दो प्रतिमा विराजमान हैं। मन्दिर के चतुर्दिक् चारदिवारी है। कुछ वर्षों के पहेले पृथ्वीराज नवलखाने सराहनीय परिश्रम करके इसका जीर्णोद्धार करवाया है। इसके सामने पास ही यात्रियों के ठहरने के लिये एक धर्मशाला भी है और उसमें यात्रियों की सुविधा के लिये सर्व प्रकार का सुन्दर साधन है। कहा जाता है कि पहले यहाँ ओसवालों के अनेक घर आबाद थे, पर इस समय एक भी घर नहीं है। स्थान का एकान्तपन एवं वन की विहड़ता यात्रियों के हृदय में भय उत्पन्न कर देती है, परन्तु देसूरीसंघ का समस्त प्रबन्ध सराहनीय है कि जिसके कारण ऐसे विहड़ जंगल में भी मंगल है ।
षष्ठी को संघ का प्रस्थान 'देसूरीगढ़' के प्रति
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हुआ । देसूरीसंघने बड़ी सज-धज से आगत संघ का स्वागत किया। यहाँ पर संघ का पड़ाव ६-७-८ तक तीन रोज रहा । स्थानीय संघ और संघपति के तरफ से नवकारसियाँ हुई, एवं मन्दिरों में पूजायें भणाई गई। नगर के चतुर्दिक् दृढ़ शहरपना है । नगर में ओसवाल एवं पोरवाल जैनों के लग-भग २०० घर हैं। नगर में चार उपाश्रय, एक विशाल धर्मशाला, एवं चार जिनालय हैं। दो जिनालयों की देखभाल ओसवाल तथा दो की सार संभाल पोरवाल जैन करते हैं।
१ प्रथम मन्दिर शिखरबद्ध है, उसमें श्रीशान्तिनाथ प्रभु की प्रतिमा १ हाथ बड़ी श्वेतवर्ण है। मन्दिर में कुल प्रतिमायें ७ हैं। एक पंचलीर्थी तथा एक चौवीसी भी है।
२ द्वितीय शिखरबद्ध-मन्दिर में श्रीऋषभदेवप्रभु की प्रतिमा १४ हाथ ऊंची है और इसके अगलबगल में प्रभुपार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित हैं । इसमें कुल ४ प्रतिमा, चार पंचतीर्थी तथा दो चौवीसी हैं। ___३ तृतीय मन्दिर में चोमुख छत्री है जिसमें
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श्रीऋषभदेवजी, श्रीअजितनाथजी, श्रीनेमिनाथजी, एवं श्रीचन्द्रप्रभजी इन चार जिनेश्वरों की एक-एक प्रतिमा विराजमान है।
४ चतुर्थ मन्दिर में भगवान् श्रीपार्श्वनाथस्वामी की १४ हाथ बड़ी प्रतिमा प्रतिष्ठित है, यह मन्दिर शिखरबद्ध है। ४ श्रीमहावीर-मुछाला-तीर्थ___यहाँ से संघ प्रस्थान कर के नवमी को घाणेराव पहुँचा। यहाँ के श्रीसंघने हमारे संघ का बड़ी सजधज के साथ स्वागत किया। घाणेराव नगर अरवली पहाड़ के पश्चिमी ढाल पर निवसित है। सरकारी दफ्तर, स्कूल और नये बने हुये भवनों की सजावट से शहर की रोनक आकर्षक हो गई है । यहाँ कुल जैन-मन्दिर ११ हैं। इनके अतिरिक्त अन्य संप्रदायों तथा मतों के भी अनेक देवालय हैं । प्रातः एवं सायंकाल घंटारवों के मधुर नाद के स्वरों से युक्त हो कर नगर एक भक्त की वीणा का रूप बन जाता है। मन्दिरों के अतिरिक्त तीन बड़ी धर्मशालायें तथा ४ प्राचीन अर्वाचीन उपाश्रय भी हैं । यहाँ हमको दर्शकों की अधिक भीड़ रहने के कारण इतना अवकाश नहीं मिल सका कि हम
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प्रत्येक मन्दिर तथा अन्य ऐतिहासिक स्थानों के दर्शन - अवलोकन आलोचन करते ।
I
घाणेराव से ४ माईल पूर्व में 'महावीर - मुछाला ' नामका एक सशिखर भव्य प्राचीन जिनालय यह जिनालय सघन झाड़ी के बीच आया हुआ है । पाठकगण महावीर - मुछाला नाम पढ़ कर कुछ विस्मित होंगे कि ' मुछाला' नाम कैसे पड़ा ?, इसको भी यहाँ स्पष्ट कर देना उचित है । यह बात तो निश्चित है कि हमारे पूर्वजोंने इतिहास के तत्वों को कभी भी महत्व नहीं दिया । उनकी एक मात्र प्रवृत्ति काव्य-रचना में ही लगी रहती थी । अगर हमारे पूर्वज इतिहास तत्व को भी महत्व देते तो आज भारत के अतीत का इतिहास आधुनिक या किसी भी ढंग से लिखने में किञ्चित् भी अड़चन नहीं आती। यह अवहेलना सर्वत्र सर्व प्रकार कलाकौशल में व्यापक पाई जाती है । कहने का अर्थ यह है कि हमारे पास ऐसा तो कोई ठोंस एवं सत्य प्रमाण नहीं है कि हम जिसके आधार पर यह कह सकें कि महावीर - मुछाला नाम इस प्रकार पड़ा ?, इस विषय में एक दन्त-कथा प्रचलित है कि “ महावीर - मन्दिर की प्रतिष्ठा हो चुकने के कुछ वर्षो पश्चात् उदयपुर के महाराणा महावीरप्रभु के
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दर्शन करने के लिये अपने सामन्त समाज के साथ आये। महाराणाने तिलक करते समय केसरकटोरी में एक बाल (केश) देखा। उन्होंने व्यंगरूप से पास ही खड़े हुए पूजारी से कहा-प्रतीत होता है भगवान् मुछाले हैं। इस पर पुजारी के मुख से 'जी हाँ' शब्द निकल गया और कहा भगवान् समय समय पर इच्छा मुजब अनेक रूप धारण करते हैं। महाराणाने इस पर पूजारी से कहा कि मेरी इच्छा भगवान् के मूछ सहित दर्शन करने की है। हम यहाँ इसी निमित्त तीन दिन ठहरेंगे। इस अन्तर में हमें भगवान् अभिलषित रूप में ही दर्शन दें। इसके पश्चात् सब अपने अपने डेरे पर चले गये।
पूजारी बड़ी चिन्ता में पड़ा कि अब क्या करना चाहिये ? । निदान उसने यही उचित समझा कि इन तीन दिनों में घोर तप करना चाहिये, भगवान् अवश्य प्रसन्न होंगे और महाराणा को समूछ रूप धारण कर दर्शन देंगे। हुआ भी ऐसा ही । पूजारीने अन्न जल को छोड़कर अट्ठम का तप किया और प्रभु के ध्यान में तल्लीन हुआ। तीसरे दिन जब प्रात:काल लोग पूजा करने को भगवान् के मन्दिर में प्रविष्ट हुए तो क्या देखते हैं कि भगवान् समूछ
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वीर - वेश धारण किये हुए शोभित हो रहे हैं । तुरन्त वायुवेग से यह संवाद महाराणा तक भी जा पहुँचा और सब ही भगवान् के इस रूप में दर्शन कर बड़े आनन्दित तथा विस्मयान्वित हुये । परन्तु जो होनी होती है सो हो कर ही रहती है । महाराणा के किसी कर्मचारी को यह शंका हुई कि कहीं मूछ चिपकाई हुई तो नहीं है ?, उसने धृष्टता पूर्वक प्रभु की मूछ का एक बाल उखेड़ा | बाल के | उखड़ते ही दूध की धारा बह चली । इस पर उस नराधम को बड़ी लज्जा आई और महाराणा को भी बड़ा पश्चात्ताप हुआ, पर अब क्या हो सकता था । पूजारीने उस धृष्ट को यह शाप दिया कि तेरे कुल में सात पीढ़ी तक निर्मूछ पुरुष उत्पन्न होंगे । "
कुछ भी हो, कार्य के पूर्व कारण का या कभीकभी साथ भाव का होना तो अनिवार्य है ही । अगर यह प्रसंग जो हमने उपयुक्त समझा, संभव है अन्य को उपयुक्त प्रतीत न हो, लेकिन यह तो निश्चित ही है कि मुछाला नाम पड़ने के लिये कुछ इसी प्रकार का प्रसंग बना होगा । भगवान् की मूर्त्ति बड़ी विशाल, एवं पौने पांच हाथ ऊंची है । मूर्ति अधिक प्राचीन होने से विकलाङ्ग हो गई है । दोनों हाथों के मणिबन्ध के नीचे के भाग तथा
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दोनों कर्ण एवं गला भग्न है। यह काल की क्रूरता है या किसी आततायी का कुकत्य है। मन्दिर में कुल प्रतिमायें ५४ विराजमान हैं। प्रवेश-द्वार के भीतर प्रदक्षिणा भमती में दोनों बगल की एक देवकुलिका में श्रीमहावीरप्रभु की श्वेतवर्ण साढ़े चार फुट ऊँची प्रतिमा प्रतिष्ठित है जिसकी प्राणप्रतिष्ठा सं० १९०३ माधवदि ५ शुक्रवार के दिन तपागच्छीय शान्तिसागरसूरिने अहमदावाद में की है। द्वितीय वांये तरफ की देवकुलिका में श्रीमुनिसुव्रतस्वामी की सं० १८९३ की प्रतिष्ठित १३ हाथ ऊंची प्रतिमा स्थापित है । यहाँ चैत्रमुदि १३ को प्रतिवर्ष मेला लगता है जिसमें दूर-दूर के यात्री गण आते हैं। इसकी देखरेख घाणेराव संघ की पेढ़ी करती है। ५ श्रीराणपुर-तीर्थ
पौषकृष्णा प्रथम द्वादशी को हमारे संघ का पड़ाव सादड़ी हुआ । यहाँ के संघने संघ का प्रशं. सनीय स्वागत किया। गोड़वाड़ प्रान्त में सादड़ी . ओसवाल पोरवाल जैनों का केन्द्र माना जाता है
और यहाँ श्वेताम्बर जैनों के १००० घर आबाद हैं। शहर में मूलनायक श्रीपार्श्वनाथ भगवान् का सौध. शिखरी जिनालय ५२ देवकुलिकाओं से शोभित है
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जैन-शिल्पस्थापत्यकला का अद्वितीय उदाहरण स्वरूप
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गोडवाड़ पंचतीर्थी का शिरोमणि जैनतीर्थ-श्रीराणकपुर का त्रैलोक्यदीपक चतुर्मुख-धरणविहार ।
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जो एक हजार वर्ष से अधिक प्राचीन एवं बड़ा विशाल है। इसके अतिरिक्त बड़े उपाश्रय में श्री. पार्श्वनाथ का और एक धर्मशाला में श्रीपद्मप्रभ तथा श्रीऋषभदेव का एवं दो गृह-जिनालय भी हैं । यहाँ ९ उपाश्रय, २ धर्मशाला, १ लायब्रेरी तथा एक बड़े न्यातिन्योरे में आयंबिल-खाता, व्याख्या. नालय, साधुओं के ठहरने योग्य उपाश्रय और न्याति का विशाल भोजनालय भी है । सरकारीस्कूल, अस्पताल, पोस्ट ऑफिस, हाकिम कचहरी, कन्याशाला, पुस्तकालय आदि सभी साधन यहाँ पर उपलब्ध हैं। आणंदजी कल्याणजी की शाखापेढ़ी भी है जो स्थानीय और आस-पास के तीर्थ स्वरूप जिनालयों की सार-संभाल करती है।
द्वितीय द्वादशी को संघ यहाँ से प्रस्थान करके प्रसिद्ध तीर्थ राणकपुर पहुँचा। आणंदजी कल्याणजी की पेढ़ी के तरफ से स्वागत बड़ा शानदार हुआ। यहाँ उस समय यात्रियों की संख्या भी अधिक थी। संघपतिने जिनालयों में बड़ी सज-धज के साथ पूजायें भणाई, अंगीरचना-रोशनी के साथ सुमेरपुर-बोर्डिंग की संगीतमंडली के भजनों के साथ नृत्य कराये, एवं दो नवकारसी जीमन किये। भारी मानव-मेदिनी के बीच संघपति को संघमाला पह
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नाई गई । अन्त में संघपतिने सभी यात्रियों को श्रीफल की प्रभावना दे कर तीर्थोद्धार-कार्य तथा केसरखाता में निजोपार्जित लक्ष्मी का सद्-व्यय किया। इसी प्रकार नाडोल, नाडलाई, सुमेर, देसूरी, घाणेराव, महावीर-मुछाला, सादड़ी मुडारा, बाली, सेसली, खुडाला, सांडेराव आदि के जैनमन्दिरों तथा प्रचलित धर्मसंस्थाओं में उदार-दिल से रकम दे कर लाभ प्राप्त किया।
राणकपुर सादड़ी से ६ मील पूर्व-दक्षिण कोण में अर्वली पर्वत के पश्चिम भाग में आया हुआ है। विक्रम की १५ वीं शताब्दि में महाराणा कुम्भा के समय में नांदिया-ग्राम के धन्ना (धरणा) शाहने इसको बसाया था और उसमें ३००० श्वेताम्बरजैनों के घर आबाद थे । यद्यपि इस समय यह नगर खण्डहरों में रह गया है, तथापि मन्दिर की विशा. लता एवं महानता तथा उसकी शिल्पकला जिसकी प्रशंसा करते करते योरोपीय शिल्प-कला विशारद भी थक जाते हैं। जेम्स फरग्युस् साहब इसके अतीत वैभव एवं समृद्धि का दर्शकों के हृदय-पटों पर गहरा प्रभाव डालते हैं और लिखते हैं कि " इस जिनालय के स्तम्भों की रचना इतनी अलौकिक एवं आश्चर्यकारी है कि मुँह से वाह-वाह
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निकले बिना रह नहीं सकता तथा इसका प्रत्येक छोटा बड़ा भाग अपनी अपनी अलग विशेषता लिये हुये हैं । ऐसा शिल्प-कला का साकार प्रति. बिम्ब भारत में क्या दुनिया के किसी भी भूभाग पर मिलना दुर्लभ्य है। हमारे चर्च भी विस्तृत क्षेत्र को घेर कर बनाये जाते हैं तथा चौँ का आकाशचुम्बी होना तो एक धर्म समझ लिया गया है, परन्तु जब इस मन्दिर की विशालता तथा इसके ऊँचेपन को निहारता हूँ तो हमारे चर्च इसकी समता में बहुत नीचे रह जाते हैं।” मेह कविने इस तीर्थ की यात्रा करते समय सं० १४९९ में एक स्तवन बनाया है, उसमें लिखा है कि " श्रेष्ठि धन्नाशाहने देपाक नामक शिल्प-कला विशारद की निरीक्षणता में लगभग ५० शिल्पकारों एवं अन्य कतिपय शिल्पविज्ञों को रख कर उक्त मन्दिर बनवाया। इसके निर्माण में एक कोटी द्रव्य से भी अधिक खर्च हुआ है। इस मन्दिर के निर्माण के साथ-साथ धन्नाशाहने अजारी में, पिंडवाड़ा में और सालेर ग्राम में भी सौधशिखरी जिनालय बनवाये।"
ज्ञानविजयजी लिखित 'जैनतीर्थनो इतिहास' में लिखा है कि "धरणशाहने १४४४ स्तम्भवाला नकशीदार नलिनीगुल्मविमान के समान २० रंग
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मंडप युक्त त्रिमंजली चतुर्मुख त्रैलोक्यदीपक नामका मन्दिर बनवाया और उसकी ४ आचार्य, ९ उपाध्याय और ५०० मुनिपरिवार से तपागच्छीय श्रीसोमसुन्दरसूरिजीने सं० १४९६ में प्रतिष्ठाञ्जनशलाका की थी। इसमें लगे हुए शिला-लेख में गोहिलवंशीय ४० पेदियों के नाम हैं। इसके चतुर्दिक ८४ देवकुलिकायें बनी हुई हैं जो जुदे-जुदे समय में बनी हैं, और मन्दिर में भूमिगृह भी हैं। रंगमंडप में एक अधूरी नकशी का स्तम्भ है । कहा जाता है कि चितोड़ के राणाने इस स्तम्भ को बनवाना आरम्भ किया था, पर अधिक खर्च से घबरा कर उन्होंने अधूरा ही छोड़ दिया । जगद्गुरुश्रीविजयहीरसूरिजी महाराज के सदुपदेश से सं० १६४७ में इस मन्दिर का जीर्णोद्धार हुआ था।"
राणकपुर इस समय लुप्त अवस्था में भले ही
१ राणकपुरे राणकश्रीकुंभकर्णनिवेशिते नलिनीगुल्मविमानानुकारि--त्रिभुवनदीपकनामधारि--विश्वविश्वचेतश्चमत्कारकारिश्रीधरणाभिधव्यवहारिकारित चतुर्मुखविहारे स्वकरकमलदीक्षिताऽऽचार्यचतुष्टयी-परिवृत-तपागणाधिप-श्रीसोमसुन्दरसूरिपाणिप्र. तिष्ठित-श्रीयुगादिदेवप्रमुखानहतः, इति ।
विजयप्रशस्तिमहाकाव्यवृत्ति, द्वादशमः सर्गः ।
९.१२
।
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हो, परन्तु इसकी भूत-गौरव पूर्ण समृद्धि तो माननी ही पड़ेगी। ऐसा भी माना जाता है कि राणकपुर के भग्न होने पर सादड़ी, घाणेराव, मुडारा, लाठारा आदि वर्तमान नगर ग्राम बसे हैं । इस मत की पुष्टि इन नगरों के स्थलों को भली-भाँति देखने से भी अधिक होती है। जैसे हम सादड़ीनगर की स्थिति से विचार करते हैं तो सादड़ी से लगभग चार फांग के अन्तर पर एक विस्तृततल पर तीन शिखरबद्ध छोटे जिनालय विद्यमान हैं । इनसे दो मील की दूरी पर एक छोटी वापिका तथा प्याऊ है और फिर दो मील के आगे एक वापिका और मिलती है जहाँ आज कल यात्रियों की सुविधा के लिये प्याऊ भी बनी हुई है। इससे लगभग १६ मील की दूरी पर वर्तमान राणकपुर प्रसिद्ध तीर्थ है। इसी प्रकार का सम्बन्ध उपरोक्त सभी नगर ग्रामों से मिलाया जा सकता है । खैर कुछ भी हो, यह तो सिद्ध ही है कि राणकपुर एक समय अति समृद्ध एवं विशाल नगर रहा है ।
धनाशाहने राणकपुर के बसाने के साथ अन्य चार कार्य प्रारम्भ किये थे-१ वर्तमान त्रैलोक्यदीपक (धरणविहार), २ पौषधशाला जो मुख्यतया सोमसुन्दरसूरिजी के ठहरने के अभिप्राय से बना
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वाई गई थी और इन्हीं सोमसुन्दरसूरि के हाथों से वर्तमान तीर्थ-स्वरूप मन्दिर की प्राणप्रतिष्ठा भी हुई है । ३ दानशाला खुली रखना और ४ स्वयं अपने लिये एक उपयुक्त महालय निर्माण । इन चारों ही कार्यों में धन्नाशाह सफल-मनोरथ भी हुआ। चतुर्मुख त्रैलोक्यदीपक जिनालय के पश्चिम द्वार पर नित्य नियम से अभिनय होते थे, और पूर्व के द्वार पर विन्ध्याचलगिरि की दिवार का दृश्य था, उत्तर द्वार पर संघ दर्शनार्थ एकत्रित रहता था और दक्षिण द्वार पर पौशधशाला थी जिसका उल्लेख ऊपर हो चुका है।
राणकपुर का मन्दिर एक सघन वन में पहाड़ों की उपत्यकाओं के मध्य में आया है । जंगली हिंसक पशुओं का आज भी वहाँ बड़ा भय रहता है। यद्यपि आस-पास के विहड़ जंगल मैदान बना दिये गये हैं, तोभी भय तो विद्यमान ही है। राणकपुर-मन्दिर से घने जंगल में हो कर एक रास्ता दक्षिण-दिशा की ओर से मेवाड़ को जाता है । इस मार्ग में राणकपुर से दो मील की दूरी पर एक सर. कारी चौकी है और यहाँ से एक रास्ता उत्तर में भानपुरा को विहड़ वन में होकर जाता है। चौकी से द्वितीय मार्ग में आगे जाने पर एक आकिया
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उपनद (खार) मिलता है । इसके चढ़ाव पर एक प्राचीन दुर्ग है, उसकी सिंह- दिवारों पर 'महाभय, महाभय ' शब्द लिखे हुये हैं और है भी यह दुर्ग ऐसा ही । इससे राणकपुर स्थान की भयंकरता का भी अनुमान लगाया जा सकता है । इस दुर्ग से ७ मील दक्षिण-पूर्व में मेवाड़ का सायरा ग्राम आया है।
इस तीर्थ स्थान पर तीन जिनालय हैं - जिनमें से धरणविहार (त्रैलोक्यदीपक ) नामक जिमालय जिसके हेतु ही यह तीर्थ इतना प्रसिद्ध है, देखने में महान् शिल्पकला की दृष्टि में अनन्य है । हमको इतना तो अवकाश नहीं मिला कि जो हम नीचे लिख रहे हैं वह सब हम वहाँ अनुभव करते और फिर लिखते । लेकिन यहाँ हम श्रीसमयसुन्दरजी के लिखे हुए एक स्तवन के आधार पर जो उन्होंने अपनी तीर्थयात्रा के समय सं० १७१५ में बनाया था, कुछ यहाँ लिख देते हैं । त्रैलोक्यदीपक मन्दिर में ७२ देवालय हैं, एक अष्टापद शिखर है, २४ मंडप हैं, एक शत्रुंजय - शिखर है, १०० तोरण हैं, स्तम्भ दो हजार हैं जिन पर नाटक करती हुईं ५५२ पुत्तलिकायें हैं और कुल प्रतिमायें ४००० विराजमान हैं। पंचतीर्थी, समवसरण एवं नन्दीश्वरद्वीप
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की भी सांगोपांग रचनायें निर्मित हैं जो दर्शकों के हृदय को अत्यानन्दित करती हैं।
इस दृष्टि से आप ही बताइये, अगर आप वहाँ तक जा कर अनुभव नहीं कर सकते हैं तो मन्दिर कितना विशाल है और यह अपने तथा राणकपुर के भूत-गौरव के प्रति क्या संकेत करता है । इस समय भी मन्दिर का जीर्णोद्धार सादड़ी की आनन्दजी कल्याणजी की पेढ़ीने कराया है । इस कार्य में अभी तक ५-६ लाख रुपये व्यय हो चुके हैं और फिर भी हो रहे हैं। शिल्पकला के एवं धर्म के ऐसे तीर्थ-स्थान पर यह धन का सदुपयोग उनका अत्यंत ही सराहनीय है।
दूसरा जिनालय भगवान् श्रीपार्श्वनाथ का है। यह धरणविहार के ठीक सामने एक वाटिका के उत्तराभिमुख आया । इसमें मूलनायक की प्रतिमा २३ फुट ऊंची है और इसके अतिरिक्त ३८ प्रतिमायें और भी हैं। कहा जाता है कि इस मन्दिर को धन्नाशाह के मुख्य मुनीमने बनवाया है। शिल्पकला की दृष्टि से यह जिनालय भी प्रशंसनीय एवं दर्शनीय है।
तीसरा जिनालय भगवान् श्रीनेमिनाथ का है
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जो पूर्वाभिमुख और भव्य शिखरवाला है । यह धरण - विहार के सामने एक फर्लांग के अन्तर पर एवं नकशीदार है । इसको धन्नाशाह के एक मित्रने बनवाया है । किसी किसी का यह भी मत है कि त्रैलोक्यदीपक मन्दिर में कामकरनेवाले किसी कारीगर ने इसको स्वयं बनवाया है । द्वितीय और तृतीय जिनालय में एक-एक भूमिगृह है - जिनमें खण्डित प्रतिमायें सुरक्षित हैं। तीसरे मन्दिर में मूलनायक की प्रतिमा श्यामवर्ण की २ फुट् ऊंची है और इसके मण्डप में ६ प्रतिमा सर्वाङ्ग सुन्दर विराजमान हैं ।
इस मन्दिर के विषय में ' मारवाड़राज्य का इतिहास ' में लिखा है कि राणकपुर के एक मन्दिरं में नंगी और अश्लील मूर्त्तियाँ खुदी हुई हैं, इससे यह कोकशास्त्र बन गया है । लोगों को इसका यथार्थ नाम नहीं मिला तो इसको पातरियों का मन्दिर कहने लगे । पृष्ठ २८७ ।
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हम इस पर विशेष तो क्या लिखें, परन्तु इससे यह प्रतीत होता है कि ' मारवाड़ - इतिहास ' के इतिहासकार को जैन - साहित्य का, विशेष कर जैनइतिहास का और जैन - शिल्पशास्त्र का ज्ञान प्राप्त
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नहीं है, अतः वे ऐसा लिख गये। 'पातरियों' शब्द का प्रयोग उनके चरित्र का अंकन करता है। वे आधुनिक युग के उन पुरुषों में से मालूम होते हैं जिन्हें विशेषकर पातरियों के दृश्य देखने को मिलते होंगे और उन्हें यह वर्णन लिखते समय वह ही दृश्य याद रहा । वस्तु तो यह है कि इन नग्नचित्रों से अर्थ युगलिक-पुरुषों के उस पूर्वतम आदि प्राकृतिक रहन-सहन के स्वरूप से है जब वस्त्रावरण का व्यवहार भी नहीं चला था और न उनमें वे भाव ही अंकुरित हो पाये थे, जिन भावों को लेकर हम आज अपने अंगों को ढकते हैं । आदि पुरुष नग्न रहते थे, तदनन्तर बल्कल में अंग आच्छादन करने लगे और फिर वस्त्र से, यह तो सब ही इतिहासकार मानते हैं । परन्तु मालूम नहीं, मारवाड़ के इतिहास लेखक मानते हैं या नहीं ? । खैर, यहाँ इन नग्न चित्रों का अर्थ आदि युगलिक पुरुषों के रहन-सहन के स्वरूप ही दिखाने मात्र से है और कुछ नहीं।
वेहार के ठीक नैकट्य में एक श्वेताम्बर जैनधर्मशाला भी विशाल बनी हुई है और पहिले की है। साधुसमुदाय के उतरने के लिये इसीमें एक उपाश्रय भी है जिसमें दो कमरे हैं। दूसरी
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एक धर्मशाला और भी है जिसको अहमदावाद के सेठ कस्तूरभाईने बनवाई है और तीसरी धर्मशाला सादड़ीवाले एक श्रेष्ठिने बनवाई है। पहले की अपेक्षा आज इस तीर्थ का सुधारा सराहनीय हो गया है । श्रीगुरुदेव का जयन्ति उत्सव
पंचतीर्थी की यात्रा करके वापिस लौटते हुए पौषसुदी५-६-७ इन दिन तक संघ का डेरा खुडाला में रहा । पौषशुक्ला ७ मी का दिन विश्वपूज्य-गुरुदेवप्रभुश्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की ३६ वें वर्ष की निर्वाण तिथि का स्मारक दिन था । इसलिये गुरुजयन्ति का उत्सव यहीं पर मनाया गया। जयन्ति का सारा प्रोग्राम श्रीराजेन्द्रप्रवचनकार्यालय के मंत्री श्रीयुत-निहालचंद फोजमलजी के तरफ से रचा गया था।
प्रातःकाल फेरी लगाई गई, मध्यान्ह को साजबाज के साथ गुरुदेव की अष्टप्रकारी पूजा भणाई गई और संघवी के तरफ से श्रीफल की प्रभावना दी गई । व्याख्यान में ही सभा का आयोजन करके, उसमें सब से प्रथम मुनिश्रीविद्याविजयजीने गुरुगुणगर्भित पद्य गा कर मंगलाचरण किया। बाद में मंत्री-निहालचंदजीने 'गुरुजयन्ति मनाने से क्या
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लाभ होता है ? ' इस विषय को बड़ी खूबी से समझाया । फिर जुदे जुदे वक्ताओं के गायन एवं भाषण नीचे मुताबिक हुए ।
है दिन राजेन्द्र - जयन्ती का - आओ सज्जनमित्रो ! यह है, दिन राजेन्द्र - जयन्ती का | गाओ गुरुगुणगरिमा प्यारे !, दिन राजेन्द्र - जयन्ती का || (टेर )
जन्म दिवस का उत्सव उत्सुक, भक्त जहीन मनाते हैं, वे बहुविध गुणमाला गूंथी, चरणे मेट चढ़ाते हैं ।
साज - बाज से धूम-धाम से, गुरुगुण साज सजाते हैं, केशर - माता ऋषभ - तात का, जीवन सफल मनाते हैं ।। ( १ )
पारख गोत्र उपकेश वंशमणि, जन्म भरतपुर पाया है, गार्हस्थ्य धर्म व्रत में रह कुछ, काल सुवास विताया है ।
प्रमोदरि की वाणी सुन कर शुचि वैराग्य जगाया है, यतिधर्म की पहिनी कफनी, भविजन चित्त लुभाया है ॥
( २ )
श्रीपूज्य बने पद पूजाये गुरु, देश विदेश गवाये हैं, धरणेन्द्रसूरि को नवकल में, स्वीकृत फिर करवाये हैं ।
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हैं
पंचाचारी सद्व्यवहारी, जैनाचार्य कहाये हैं, शहर जावरा के कानन में, सत्यागम मार्ग दिखाये हैं ।
(३) प्राणप्रतिष्ठा जिनबिम्बों की, गाँव नगर करवाई है, योगोद्वहन क्रिया तप व्रत की, महिमा खूब जगाई है।
अभिधानराजेन्द्र कोष की, रचना रम्य दिखाई है, विद्वजन के उरहार बनी, वैज्ञानिक मन भाई है।
(४) संघत्रिस्तुतिक रम्य-वाटिका, पुष्पाक्षत से वधाती है, दर्शनदान दिलाओ दानी, वार वार यह कहती है।
एक वार तो फिर आ जाओ, भारत जन की विनती है, गुरुदेव तुम्हारे चरणन में, पूजन स्वागत करती है ।।
(५) यतीन्द्रसूरीश्वर नेतृत्व में, सुजयन्ती उजमाई है, पौषशुक्ल की जन्म सप्तमी, स्वर्ग वही कहलाई है।
सुप्तजनों को जागृत करती, कवि बुध के मन भाई है, जयवन्त जयन्ती अभिवन्दन, शिशु विद्यामुनि गाई है ।।
-मुनिश्रीविद्याविजयजी।
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श्रीगुरुदेव का उपकारमय जीवन ।
संसारमायावनसारसीरं,
ज्ञानाकरं वारिधियानकल्पम् । अज्ञानलोके नभजातसूरं,
राजेन्द्रसूरीशपदं नमामि ॥१॥ सज्जन-सभासदो!
विक्रमीय उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी के धूमिल तमसात् क्षितिज पर उदित हुए स्वर्णिम सूर्य की रश्मियों में अप्रकृत ज्योति थी, विशेष प्रकार की कर्मण्यता थी, विशेष सजीवता थी, विशेष मानवता और विशेष चेतना थी। संस्कृति का अवचेतन अंश इस अप्रकृत ज्योति से सहसा जगमगा उठा, उसकी आँखों में चकाचौंध उत्पन्न हो गई । वह चौंधिया गया । आकुल-व्याकुल हो उठा, उसकी अन्तर्वृत्तियों के नीरव तार झंकृत हो उठे । अभिलाषाओं, इच्छाओं के नीरस कण निझर उत्तुंग हो उठे । सारे संसार में अजीवसी हलचल मच गई। राजनीतिज्ञ, धर्मतत्वज्ञ, समाज-शास्त्रज्ञ, विज्ञानविद् सब की बौद्धिक वृत्तियें इस आलोक में स्नात, निम्न हो उठी। सब एक ही दिशा, एक ही कोण को चल पड़ी, झुक गई।
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ये स्वर्णिम रश्मियें विष-कूप थी, यह किसके चेतनस्तर को छू सकी । ये भौतिक विषाक्त पुष्पों के मधुर अर्क से भरी मनोहर, मादक, रामबाण, सचेत, जादूभरी रससरिये थीं। जिस देश, प्रान्त, व्यक्ति, समाज, राष्ट्र पर ये निर्झरित हुई, धराशायी हुई उसे उन्माद हो गया। उसके प्राण का स्तर-स्तर इस अप्रकृत आलोक में सराबोर हो गया । वह अपने को भूल गया । वह आध्यात्मिक-स्तर से लुढ़क कर भौतिक-स्तर पर सन से अचेत गिर पड़ा । उसका यह सन्निपात अब भी उसी अवस्था में है। फिर क्या था ? नर का स्त्री, स्त्री का नर, दिन का रात, रात का दिन, प्रेम का कापट्य, कापट्य का प्रेम, संरक्षण का संहार, संहार का संरक्षण, मानवता का असुरपन, असुरपन का विलोम, वन्धुत्व का शत्रुत्व, रूप हो उठा । भारी नाश की मनोदग्धकारी अभिव्यंजनाएँ परिलक्षित होने लगी, सर्वत्र प्रमरितसी दृष्टिगोचर होने लगी। संस्कृति के कण-कण में प्रलय नीरव समा गया। यूरोप, अमेरिका, जापान इसके प्रकृत रंगशाल, वैभवकेत स्थापित हो गये । हा ! परन्तु भविष्य के गर्भ में क्या होनेवाला था वे जानते हुए भी इसको परित्यक्त न कर सके, इसका संमोह छोड़ न सके । वरन घातक प्रतिस्पर्धा के गहरे मजीठ रंग में रंग गये । गहरी खाइयें खुद गई । घुड़-दौड़ में धर पकड़ मच गई। आध्यात्मिकता इस घुड़-दौड़ में अश्वों के टापोतले निर्जीव
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होकर कण-कण हो गई। फिर सौहार्द, प्रेम, मानवता क्या वस्तु है ? विस्मृत हो गये । शनैः-शनैः प्रतिस्पर्द्धा का रूप विकशित होता ही गया । उसके विषाक्त शरों की उडाने होने लगीं । लक्ष्य स्थिर होने लगे । स्वार्थ भर निन्द्यव्यवहार, जघन्य नरसंहार के दृश्य साम्राज्यवाद-पूंजीवाद की पृष्ठभूमि पर सवाक् चल-चित्र से उतरने लगे। भारत का पारतत्र्य, आफ्रीका आदि प्रदेशों की वर्तमान दयनीय दुर्दशा, चीन जापान के भयङ्कर रण यूरोप के महारण ये सब इसी प्रतिस्पर्धा के ही तो विकशित रूप हैं। परन्तु भारत पर इन विषाक्त स्वर्णिम रश्मियों का प्रभाव सचोट न पड़ सका, इसका सैद्धान्तिक कारण है। आज भी यहाँ आध्यात्मिकता की, मानवता की, सौजन्यता की, सद्भाबुकता की किसी न किसी रूप में पूजा-प्रतिष्ठा है। पाश्चात्य प्रदेशों में हुए ये नाट्य-कौतुक अभी भारत को अपनी रंगशाल न बना सके और इसी वेष रूप से वे कभी न बना सकेंगे।
भारतीय सुसंस्कृत संस्कृति अपने अनादिकाल से ही अपने अनुकूल लेखक, कवि, सुधारक, प्रचारक, महात्मा उत्पन्न करती रहती है जो उसके सैद्धान्तिक-नैतिक जीवन की रक्षा करते हुए उसे अधिकाधिक पुष्पित, पल्लवित, चिरदृढ, परिष्कृत करते रहते हैं। वर्तमान देशनेता ऐसी ही विभूतियों में से हैं जिनका अवतरण मात्र देश,
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जाति, धर्म, राष्ट्र, संसार के कल्याणार्थ ही हुआ करता है। हमारा यहाँ लक्ष्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर जी के जीवन का संक्षिप्त वर्णन इस राजेन्द्रसरि-जयन्ती के शुभावसर पर करने का है।
प्रकृत विषय को प्रारम्भ करें इसके पूर्व भारत की तथा जैनसमाज की उस दशा का वर्णन जो जयन्तीनायक के जन्मकाल के समय में थी, देना अप्रासङ्गिक न होगा, प्रत्युत चरितनायक को समझने में विशेष सहायक सिद्ध होगा।
एक ओर जहाँ पाश्चात्य प्रदेशों में भौतिकवाद, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, नाजीवाद, साम्यवाद, स्वातन्त्र्यवाद के कण्ठ चीरनारे लग रहे थे वहाँ हम हमारे देश भारत में सोये हुए घुल रहे थे, मिट रहे थे, तन्द्रा वशीभूत थे, द्वेषविद्वेष ग्रस्त थे, भूतप्रेतोपासक थे। तात्पर्य कि अविद्या, अज्ञानता, पारस्परिक-वैमनस्य, ईर्षा, जुगुप्सा, साम्प्रदायिक कलह-झगड़े, अकर्मण्यता, आलस्य, प्रमाद सब बढ़ चुके थे और अपने अन्तिम विकशित रूप को प्राप्त करने के लिये छटपटा रहे थे । ये सब मत मतान्तरों की पृष्ठभूमी में पाद-बद्ध होकर उत्साहन, जीवन, सिंचन पा रहे थे। धर्म का मर्म तिरस्कृत होता चला जा रहा था। सहदयता, दयालुता, प्रेम-स्नेह सब संकीर्णावृत बन चुके थे, सब साम्प्रदायिक, वैयक्तिक, एवं आंशिक सत्व अधिकार
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पा चुके थे । धर्म सब सीमाबद्ध हो चुके थे, काराग्रस्त थे । महानाश की यहाँ भी कुछ दूसरे ही रूप से लक्षणायें मोहकगति से सारे देश भारत भर में प्रसारित होती जा रही थी, परन्तु कुदरत को ऐसा होना स्वीकृत न था, ऐसे जाग्रत महात्माओं का अवतरण हुआ- जिन्होंने घूम घूम कर सारे देश भर में प्रसारित मत-मतान्तरों के दूषित वातावरण का प्रलयकारी अनैतिक सामाजिकता का विनाशकारी रूढ़ीवाद का उदर भङ्ग कर दिया । विश्वपूज्य ज्योतिर्धर श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी भी इन महात्माओं में से एक हैं । मोहतम को हटाने में, जैननजगत को जागृत करने में, शैथिल्याचार - प्रमाद को पत्रोपम उड़ाने में, साहित्य को सजीवता प्रदान कराने में, कर्त्तव्याकर्त्तव्य का भान कराने में, मरणोन्मुखता से हटाने में, अनैतिक परम्पराओं को निर्मूल कराने में, दलगत वैमनस्य नष्ट कराने में इनको अपना श्रोणित पसीना करना पड़ा । सङ्कटों के शूलमार्ग में निस्त्राण चलना पड़ा, पद-पद पर अपमानित होना पड़ा | पर क्या महापुरुष सङ्कटों से घबरा कर ध्येयध्यान से विचलित हो सकते हैं १, प्राणों के मोह से क्या देश-भीत हो सकते हैं ? कभी नहीं । उन्हें संसार की कोई आसुरी विकराल काल-शक्ति पथ-भ्रष्ट, विचलित, मार्गोन्मुख नहीं कर सकती । वे निम्नोक्त नीति पर एक लक्ष्य रख कर अंशमात्र चल-विचल नहीं होते ।
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निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु,
लक्ष्मी समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् । अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,
न्यायात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥१॥ अब हम यहाँ जयन्तीनायक का वंश-परिचय देते हुए आगे बढ़ेंगे । राजस्थान में भरतपुर नामका अग्रगण्य संस्थान है। मेवाड़ और बून्दी के पश्चात् इसीका नाम गौरव के साथ लिया जाता है। भरतपुर रियासत का प्रत्येक ग्राम एक विशाल युद्ध का इतिहास है। कौन अनभिज्ञ होगा जो भरतपुर पर हुए अंग्रेजों के आक्रमणों को नहीं जानता हो । आज भी उसकी सिकता-शीत चतुर्भित्ति में अंग्रेजी-मांचे में ढले तोपों के गोले यथावत् मिल जायँगे जो इसके गौरव आत्मबल वैभव का इतिहास तथा इसकी वीरता का आख्यान अपने वक्ष में छिपाये अक्षत नीरव पड़े हैं। इसी भरतपुर नगर में हमारे जयन्ती-नायक का अवतरण पौषशुक्ला सप्तमी गुरुवार विक्रम सं० १८८३ तदनुसार दिसम्बर ३ सन् १८२७ को हुआ। आपके पिता का नाम ऋषभदास तथा माता का नाम श्रीकेशरीदेवी था । ऋषभदासजी जैन उपकेशवंशीय पारखगोत्र के थे। चन्देरी के राजा वीरवर खरहत्थसिंहजी जो बारहवीं शताब्दी में हो चुके हैं, उनके प्रपौत्र पासुजी के ये वंशज थे । इनका जन्म नाम 'रत्नराज' था । इनके ज्येष्ठ भ्राता ' माणिकलाल' तथा अनुजा 'प्रेमवती' थी।
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वीरों का देश ही वीर-प्रदेश कहाता है। वहाँ प्रकृति में वैर्य-तत्व नीर दुग्धसा संमिश्रित रहता है। अन्न वायु, सलिल, प्रत्येक पदार्थ में अद्भुत चमत्कार, बलवीर्य-शक्ति होती है । सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, वैयक्तिक वातावरण में एक ही रस, एक ही भाव, एक ही प्राण रहता हैआत्मगौरव-आत्मरक्षा । फिर रत्नराज का मन क्यों न सबल, बुद्धि क्यों न निर्मल, भाव क्यों न उत्तम हों। माता पिता भी सद्गुणी, सौम्य, सरल-हृदयी, श्रीसम्पन्न थे। सन्तति अवश्यमेव सत्तम होगी यदि कुल, धर्म, स्थान तीनों ही उत्तम हो । रत्नराज आज्ञानुवर्ती थे, विनयी थे, शान्तिप्रिय बालक थे, स्फूर्तिमान् प्रतिभा पुञ्ज थे। घने प्रातः उठ कर माता-पिता के दर्शन करते, सेवा शुश्रूषा करते, देवदर्शन करने नित्य जाते, सामायिक प्रतिक्रमण सदैव अपने पिताश्री के साथ करते । वय के साथ विचार भी बढ़ते गये । विद्याभ्यास भी बढ़ता ही गया । अपरिपक्व अवस्था में ही इन्हें संसार व्यर्थ प्रतीत होने लगा । संसार में फैले दुषित वातावरण पर ये एकान्त में घंटो विचार करने लगे। सारे दिन भर ये विचार-मग्न ही रहते थे। इन्हें हासोपहास, कुतूहल, खेल जो नव वयस्कों के स्वाभाविक गुण होते हैं कुछ भी अच्छे नहीं लगते थे। ऐसा प्रतीत होता था मानों पूर्वजन्म के अनुभव का भार इन्हें अपरिपक्क अवस्था में ही दबाये हुए था, या देश, धर्म
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और समाज की दयनीय परिस्थितिने इनको इतना गम्भीर चिन्तन-शील बना दिया था। द्वादश वर्ष के भी नहीं हुए थे कि आपने जैनधर्म का मर्म, उसकी वर्तमान परिस्थिति को अच्छी प्रकार से समझ लिया। लाल छिपाया ना छिपे, लाख करो किन कोय । विद्या, पावक, रूप, धन, ढक न सका नर कोय ॥१॥ ___परिजन सन्तुष्ट हो उसमें विशेषता ही क्या ?, इन के सद्गुणों की प्रशंसा, प्रतिभा की ज्योति, सद्विचारों की लहरी वायुवेग से फैलने लगी। इनके भावी जीवन की रूपरेखायें विकाश-प्राय प्रतीत होने लगीं। सब को नवनव आशाएँ होने लगी कि यह एक दिन जैन-समाज का मस्तक पुनः ऊपर उठायेगा और उसे जाग्रत बनायेगा। 'होनहार विरवान के होत चीकने पात ।' पर आपको ज्ञात होगा कि सुवर्ण को चमक सस्ते भाव नहीं मिलती है। उसे अग्नि में गिरना पड़ता है, तरल द्रव्य बनना पड़ता है, हथोड़ों की अगणित चोंटें खानी पड़ती हैं तब कहीं उसकी प्रकृतदशा का पता चलता है। रत्नराज अल्पवय में ही अनाथ हो गये । शिक्षा-दीक्षा की सब व्यवस्थायें अव्यवस्थित हो गई। गार्हस्थ्य चिन्ताओं की व्यग्रता से परिवेष्टित हो गये । पर व्यापार विनिमय व्यवसाय में इनका चित्त नहीं लगता था। इन्हें कुछ इतर मार्ग की ही सुन्दरतायें
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विशेषतायें आकृष्ट कर रही थीं। उसी एक मात्र मार्ग में निधियें, सिद्धियें, सनिहितसी इन्हें प्रतीत होती थीं। जीवन का साफल्य, आत्मविकाश के उपकरण, परोपकार के अमोघ साधन, परात्पर ज्योति, अमरसुख सब इनको उसी मार्ग में दिखाई देते थे। इनके बालचरण भी इन्हें उसी मार्ग की
ओर धीरे-धीरे ले जा रहे थे। सत्सङ्ग, साधु-समागम से इन्हें अपार प्रेम था। इनके प्राण को ऐसे ही समागम से रसानन्द मिलता था । ____ संवत् १९०२ में श्रीसौधर्मबृहत्तपागच्छीय आचार्यदेव श्रीमद्विजयप्रमोदसूरिजी का भरतपुर में पदार्पण हुआ । सरिजी अपने व्याख्यान में एक दिन संसार की असारता पर विवेचन कर रहे थे । रत्नराज भी श्रोतागणों की परिषद में संमिलित थे। सूरिजी के व्याख्यान का इन पर सचोट प्रभाव पड़ा। इन्हें अपने अभीप्सित मार्ग का मुख-द्वार उसी में जान पड़ा। ये उसके लिये ललक उठे । अपने ज्येष्ठ-भ्राता से आज्ञा पाकर श्रीमान् सूरिजी की निर्मल चरण-स्थली में जा उपस्थित हुए । मूरिजीने इन्हें इष्ट को पूरा करने का आश्वासन दिया। तदनुसार सूरिजी की सम्मति से उनके ज्येष्ठगुरु भ्राता श्रीमद्हेमविजयजीने रत्नराज को सकल श्रीसंघ के समक्ष वैशाखशुक्ला पंचमी शुक्रवार सं० १९०३ को यतिदीक्षा प्रदान की और इनका 'रत्नविजय ' नाम रक्खा गया । वास्तव में संसार के असार राज्य जीतनेवालों के
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लिये ' विजय ' शब्द का प्रयोग करना समुचित है । अब रत्नविजयजी अपने अभिलषित मार्ग में अप्रतिहत गति से अग्रसर होने लगे । अप्रतिहत इसलिये कि संङ्कट, लोभन, प्रलोभन तो अनेक आये परन्तु हमारे धीरोदात्त नायक के लिये ये सब कंचन की कसौटी तुल्य घटित हुए । उनकी प्रकृत चमक अचिर दमक उठी । जैनसमाज को उनका परिचय शीघ्र ही मिल गया । हम भी प्रसंगवश उनके कुछेक संकटों से, प्रलोभनों से श्रोतागणों का परिचय करावेंगे जिनमें उनकी आत्म-शक्ति का, परोपकारवृत्ति का, दलितोद्धारमति का व्यक्त आभास मिल सकेगा ।
प्रसंगानुसार यति शब्द की व्याख्या तथा उस समय के यति-समाज की स्थिति का संक्षेप में दिग्दर्शन कराना अनुचित न होगा | यति और जति एक ही शब्द है । जति का अर्थ है जितेन्द्रिय । हमारे यहाँ के जतियों की मर्यादा प्रणाली प्रशंसनीय है । रजोहरण, मुहपत्ती सर्वदा पास में रखना, प्रातः और सायं प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन करना, श्वेत मानोपेत वस्त्र धारण करना, स्त्रियों के सहवास से निरन्तर दूर रहना, स्वाध्याय, अध्यापन में ही अपना समय यापन करना, आलस्य, प्रमाद न करना, पंचमहाव्रत का अक्षुण्ण पालन करना, अर्थात् हिंसा, असत्य, चौर्य, मैथुन, और परिग्रह का परित्याग करना । मुगलसम्राट् या सार्वभौम भी ऐसे आदर्श यतियों का विशुद्ध विदग्ध जीवन देख
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कर स्तम्भित रह गये थे। श्रीमद्विजयहीरसूरिजी का सम्राट अकबरने किस भाव-भक्ति, सजधज से शाही स्वागत किया था। कौन इतिहास इसको तथा इससे सम्राट पर पढ़े प्रभाव को स्वीकार करने में हिचकचाता है ?, तत्कालतः आज भी प्रत्येक देशी रियासत के राज्य हमारे श्रीपूज्यों का वैसा ही स्वागत करते हैं । परन्तु सच कहें तो इसी शाही स्वागत ने आडम्बर का रूप धारण कर यती-जीवन को यति आदर्श को विषपूर्ण, पथच्युत, पुंश्चल कर डाला । गृहस्थ को जो न करना चाहिये आज वे उसे करने में किश्चित् मात्र नहीं हिचकते हैं। हम पूर्व बतला चुके हैं कि हमारे जयन्तीनायक रत्नविजयजी को भी यतिवर्ग की दीक्षा दी गई थी। यतिवर्ग का रस्नविजयजी किस प्रकार उद्धार करते हैं ? यह श्रोतागण सम्यक् रूप से जानते भी हैं और जानते होंगे, परन्तु हम उनके यति-जीवन की अछूत छोड़ते हुए विषयहत्या समझते हैं । संक्षेप में हम उनकी यतिचर्या को उनके आदर्श, विकशित, स्मरणीय-साधुजीवन की जननी कह सकते हैं ! इसका हम आगे व्यक्तीकरण कर रहे हैं।
यति-दीक्षा हो जाने पश्चात् श्रीविजयप्रमोदसूरिजीने रत्नविजयजी को श्रीमत्सागरचन्द्रजी के पास विद्याध्ययनार्थ मेज दिया । यतिवर्य सागरचन्द्रजी संस्कृत, प्राकृत एवं ज्योतिष के दिग्गज विद्वान् थे । उस समय काशी के प्रमुख पण्डितों में इनकी गणना थी। रत्नविजयजीने उनकी चरण
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स्थली में रह कर व्याकरण, काव्य, न्याय, छन्द, निरुक्त, अलङ्कार, ज्योतिष का समूचा अध्ययन किया, फिर आपको जैनशास्त्रों का अध्ययन करने के लिये तपागच्छ के श्रीपूज्य देवेन्द्रसरिजी के पास भेजा गया । आपके ज्वलन्त, पाण्डित्य, अनुपम शिष्टाचार से मुग्ध होकर श्रीपूज्यने इनको उदयपुर (राजपुताना) में श्रीहेमविजयजी के पास बड़ी दीक्षा दिलाई तथा पन्यास-पद भी प्रदान कराया । कुछ समय पश्चात् देवेन्द्रसूरिजी का राधनपुर में स्वर्गवास हो गया । अब रत्नविजयजी उनके पट्टाधिपति श्रीधरणेन्द्रसरिजी के पास रहने लगे। धरणेन्द्रसरिजी को शास्त्राभ्यास भी आप ही ने करवाया। उदयपुर, जोधपुर, बीकानेर जैसी राजस्थानी रियासतों में आपको विशेष संमानित करवाया । परन्तु कुदरत की इच्छा कुछ ओर ही थी। धरणेन्द्रसूरिजी का शैथिल्याचार देख कर आप बड़े दुःखी होते थे। घाणेराव के चतुर्मास में उनके बढ़ते हुए शैथिल्याचार को आप अधिक सहन न कर सके और उनका सहवास छोड़ कर अलग विचरण करने निकल पड़े । वास्तव में मुमुक्षु सदात्माओं को ये पार्थिव प्रलोभन आकर्षण कब अच्छे लगने लगे। जैसे सुन्दर, सुघड़, श्वेत अण्ड का विस्फोटक कर पक्षी का बच्चा बाहर निकलता है आप भी ठीक इसी प्रकार इस वैभव लीन भ्रष्ट यतिकक्षा का उदर भांग कर निकल पड़े । उस समय आपके गुरु आहोर (मारवाड़)
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में विराजमान थे । आप घाणेराव से चल कर सीधे वहीं पर आये और गुरुदेव को सब घटना चक्र कह सुनाया । सूरिजी और श्रीसंघ दोनोंने आपके अद्वितीय साहस की सराहना की और तत्काल आपको आचार्यपद प्रदान कर आपका उचित सम्मान किया, तथा आपका नाम 4 श्रीविजयराजेन्द्रसूरि ' रक्खा गया ।
1
सं० १९२४ में आपका चतुर्मास जावरा में हुआ । धरणेन्द्रसूरि इनकी बढ़ती हुई ख्याति को, तपस्तेज को सहन न कर सके । उन्होंने जावरा - श्रीसंघ को पत्र लिख कर आपकी बढ़ती हुई कीर्त्ति पर कुठार चलाना चाहा । परन्तु श्रीसंघने उस पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। तब पत्र लानेवाले यतिवर्य आपकी चरण-स्थली में उपस्थित होकर अनुनय प्रार्थना करने लगे और कहने लगे कि एक ही गादी पर दो श्रीपूज्यों का आरूढ़ रहना गुर्वानुशासन का अनुभंग है । धरणेन्द्रसूरिजी भी आपके ही निकट संबंधी तथा देवेन्द्रसूरिजी के प्रतिस्थापित युवराज हैं । इस पर श्री विजयराजेन्द्रसूरिजीने कहा कि धरणेन्द्रसूरि में गच्छमर्यादा से कहीं अधिक शैथिल्य प्रमाद आ गया है । मैं यह सब सम्बन्धी के नाते सहन नहीं कर सकता । इस तरह आदर्श यति-समाज को भ्रष्ट होता हुआ तथा धर्म के नाम पर होते हुए अनौचित्य को नहीं देख सकता । गादीपति के लिये अनुचित व्यवहार उसकी योग्यता का और सारे
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गच्छ को कलंकित करनेवाला है । मुझे इस श्रीपूज्यपद की न अभीप्सा है और न आकांक्षा । अगर धरणेन्द्रसरिजी मेरी निश्चित की हुई नव समाचारी कलमें स्वीकार कर उनके अनुसार चलने को तैयार हों तो मैं सहर्ष उनसे इस विषय में मिलना चाहूँगा। ____ जब धरणेन्द्रसूरिजीने नव कलमें स्वीकार कर प्रमाणित कर ली, तब श्रीविजयराजेन्द्रसूरिजी को अपनी सफलता पर अपार आनन्द हुआ और समस्त श्रीसंघने भी हर्ष मनाया। स्थानाभाव से हम यहाँ पर नव कलमों के विषय में कुछ न कहते हुए आगे बढ़ेंगे। धरणेन्द्रसूरिजी की ये प्रमाणित नव कलमें आहोर के ज्ञानभण्डार में यथावत् विद्यमान हैं। यदि कोई महानुभाव देखना चाहे तो वहाँ जा कर देख सकता है।
विशेष आश्चर्य तो यह है कि श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजीने पांच वर्ष का अभिग्रह धारण किया था वह भी इस प्रकार पूर्ण सफल होकर समाप्त हो गया ! अब आपने सकल श्रीसंघ के समक्ष इस राजसी श्रीपूज्यपद का परि. त्याग कर संसार वर्द्धक सर्वोपाधियों से बन्धन-मुक्त हो कर पंच महाव्रत स्वरूप मुनिपद स्वीकार किया। इस क्रियोद्धार का जैन समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा । अखिल भारतवर्षीय जैनसमाज में इस महात्याग से लहरसी आ गई।
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आपके त्याग, आत्मबल की शुभकीर्ति दिनमणि की प्रातः किरणों के सदृश मानव-समाज पर बिछसी गई । आपका अब चैतन्य-पुरुष अर्थात् अन्तरात्मा पूर्ण-विकशित, पूर्णजागृत हो उठा । समय के परिवर्तन से जो दूषित वायु आच्छन्न हो गया था उसे हटाने के लिये आपका चैतन्यपुरुष कटिबद्ध हो गया। घात-प्रतिघात सहन करते हुए आप धर्म का प्रसार करने लगे। ग्राम, नगर, पुर विहार करते हुए व्याख्यानादि देने लगे, परन्तु श्रोतागणों ! आप अच्छी तरह जानते हैं कि यह युग वक्तव्य का नहीं वरन् रचनात्मक कार्यों का है। हमारे जयन्ती-नायकने युग की आवश्यकता को भली प्रकार समझा था । अपना जीवन वे आदर्श बनाते हुए उपदेश देते थे, अतः उनके व्यक्तित्व का प्रभाव भी सचोट पड़ता था। उनकी तपःशक्ति पर जब हम विचार करने लगते हैं तो आश्चर्यान्वित हुए विना नहीं रहा जाता । जंगल, उपवन, पहाड़, मरुस्थली सब आपके तपःस्थल बन गये थे । हड़कम्प शर्दी हो, चाहे अनन्त तुषार युक्त हो, चाहे दिगन्त प्रसरित कोहरा व्याप्त हो, चमकती धूप हो, चाहे भस्मसात् करनेवाली लपटें उठती हों, कुछ भी हो बीहड़ वन हो, उपवन हो, ग्राम पार्श्व-कक्ष हो, चाहे निर्जन अनीर बालुकामय स्थल हो, जहाँ इनके चैतन्य-पुरुष का आन्तर बोल उठा, वहीं तप के
अखाड़े लग गये । कुछ ही समय में आपकी तपःशक्ति का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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प्रभाव गम्भीर, पाण्डित्य की महक दूर सुदूर वायु-वेग से फैल गई। दर्शक लोगों के संघ पाद-स्पर्श करने के लिये आने लगे। तप का माहात्म्य समझाने लगा। धर्म में श्रद्धा उत्पन्न होने लगी । बाह्याडम्बर से सर्वसाधारण को घृणा आने लगी। भूत-प्रेतोपासना मिटने लगी । धूर्त, लम्पट यति साधुओं की पूजा-प्रतिष्ठा एक दम घट कर शून्य पर आने लगी। आदर्श-पूर्वाचार्यों के समय की झलकसी सब को प्रतीत होने लगी। श्रीसंघ आपको कलिकाल-सर्वज्ञ कहने लगा। क्यों न कहें ? आप एक मात्र परम निष्ठयोगी थे। आपका संपूर्ण साधुजीवन उपकार में ही व्यतीत हुआ। जैनेतर समाज जो जैन-धर्म को एक साधारण धर्म वा संप्रदाय रूप से समझती थी उसके समक्ष ऐसा अनुकरणीय आदर्श उपस्थित किया कि वह समझने लगी कि जैनधर्म भी एक सारभूत सनातन धर्म है। आपने कितने ही अजैन जैन बनाये । जिनस्थानों में जैनधर्म मन्द-ज्योति होता जा रहा था, आपका स्नेह पाकर प्रज्वलित हो उठा। आपकी साधु-क्रिया बड़ी कठिन थी। आपने स्वयं अपने हाथ से २०० साधु बनाये होंगे, परन्तु इनमें से कठिनतया २०-२५ ही साधु आपके साधु-संघ में ठहर सके । शेष शिथिलाचारी होने से पड़ भागे । आपने १०० से ऊपर अंजनशलाकायें प्रतिष्ठायें करवाई। कितने ही ज्ञानभण्डार स्थापित किये जो आज मारवाड़ और मालवा में विद्यमान हैं जिनमें विविध
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विषयों के शास्त्र-ग्रन्थ संग्रहित हैं। जीर्णोद्धार, उद्यापन, उपघान,जिनालय, उपाश्रय, धर्मशाला,तीर्थयात्रा आदि सत्कार्यों में आपके सदुपदेश से श्रीसंघने लाखों रुपये व्यय किये ।
श्रीसंघ की आप में कितनी अगाध श्रद्धा थी ? यह नीचे के उदाहरण से स्पष्ट हो जायगा। मालवादेश में चीरोला नामका छोटासा ग्राम है। वहाँ प्रायः ओसवाल जैनसमाज में कोई २५०-३०० वर्ष से जातीय वैमनस्य था। वह इतना भयङ्कर कि जिस का वर्णन भी अशक्य है। कन्याव्यवहार तो अलग, पर परस्पर जल-पान बन्द था । इसका विषैला प्रभाव दिनोदिन बढ़ता ही जा रहा था। एक दिन यह कुसम्प मालवा प्रान्त की सम्पूर्ण जैनसमाज का दो खण्ड कर देगा-यह सोच कर कितने ही आचार्य और अग्रगण्य जाति भाईयोंने इसे सुलझाने का, नष्ट करने का प्राण-पण से प्रयत्न किया, परन्तु सफलता किसीको प्राप्त नहीं हुई। इस कुसंप का हम यहाँ स्थानाभाव से अधिक वर्णन न करते हुए मात्र इतना ही कहेंगे कि इतने वर्षों से पड़े कुसुंप को भी श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरजीने अल्पश्रम से निर्मूल व अशेष स्मृति-चिह्न कर डाला | यह इनके तप तथा आदर्शता की साकारता थी। विस्तार-भय से सूरिवर के ऐसे ऐसे अनेक-कृत्य हैं जिनका हम उल्लेख नहीं करेंगे। समय अधिक हो गया है, अतः अब उनकी
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साहित्य सेवाओं का संक्षिप्त परिचय देते हुए विषय को समाप्त करने का प्रयत्न करेंगे।
ऊपर स्थल-स्थल पर सूरिजी के गम्भीर पाण्डित्य की ओर संकेत मात्र किया गया है, परन्तु उसके प्रबल प्रमाण देने की चेष्टा अब तक नहीं की और निबन्धविधान से ऐसा करना ठीक भी था । अब थोड़े में आचार्यदेव के बनाये हुए 'अभिधान राजेन्द्र' कोप की ओर जिसके सात भाग हैं, श्रोतागणों का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं और साथ ही यह पूछने की धृष्टता करता हूं कि क्या उक्त कोष का आज सम्मान साहित्य-संसार में, धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक क्षेत्र में, विज्ञान संसृति में किसी धार्मिक राजनैतिक, विज्ञान शास्त्र से कम है ? क्या जापान, जर्मन, अमेरिका, इंगलेण्ड के पुस्तकालय, सभा-सोसाइटियों की अलमारिये इस कोष से नहीं सजी हैं ? क्या समस्त जैन शास्त्रसूत्रों का इसमें संग्रह नहीं है ? । मूरिवर्य की पाण्डित्यशक्ति कितनी थी ?, प्राकृत-संस्कृत में उनकी कितनी गम्भीरता थी ?, इन भाषाओं पर उनका कितना अधिकार था ?, इन सब प्रश्नों का उत्तर एक यह अभिधान-राजेन्द्र ही दे सकेगा । वैसे आचार्यदेव के रचे हुए ग्रन्थों की संख्या ५२ से भी ऊपर है। अभी तक अधिकांश इनमें अप्रकाशित हैं। इनकी साहित्य सेवायें चिर-स्मरणीय रहेंगी। जब तक दिग-दिगन्त में प्रकाश रहेगा, मूरिजी का साहित्य
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कर सके
और प्रधान
के नाम
सब
भी आलोकित रहेगा। इन अन्तिम आठ शताब्दियों में संस्कृत-प्राकृत साहित्य में ऐसा कोई ग्रन्थ नहीं लिखा गया जो अभिधान-राजेन्द्र कोष का साम्य कर सके। यह आचार्यदेव के अटल, अडिग पच्चीस वर्ष के श्रम की उपज है। परन्तु दुःख है कि हम अभिधान-राजेन्द्रकोष तथा उनके अन्य ग्रन्थों का उतना प्रचार न कर सके जितना आवश्यक था। हमारा इस ओर प्रधान लक्ष्य होना चाहिये। सूरीश्वरजी के नाम को अमर रखने के लिये एक मात्र यही सबल साधन है।
अस्तु, सूरीश्वर के जीवन पर संक्षेप रूप से पर्याप्त प्रकाश डाला जा चुका है । इस प्रकार आपका चैतन्य-पुरुष अपने परात्पर विकाश को प्राप्त करने की चेष्टा करता हुआ, संसार का विविध प्रकार से कल्याण करता हुआ इस असार संसार को छोड़ कर बन्ध-मुक्त हो गया । संवत् १९६३ पौषशुक्ला ७ शनिवार को हुए सूरीश्वर के शब-दहन दिन को चिरस्मरणीय रखने के लिये, उनके आदर्शों का अनुकरण करने के लिये, उनके महत्कार्यों की कीमत करने के लिये ही आज हम इस रूप में जयन्ती मनाने को एकत्रित हुए हैं । परन्तु बन्धुओ ! जयन्ती मनाना जब ही सफल है कि हम सूरीश्वरजी का नाम तथा उनके कृत्यों को अधिक स्थायी, सर्वोपादेय रूप दे सकें । अन्त में आगन्तुक सजनों को धन्यवाद देता हुआ अपना अभिभाषण बन्द करता हूँ
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और आकांक्षा करता हूं कि इसी तरह हम आगामी वर्ष की श्रीराजेन्द्रसूरि-जयन्ती मनाने के लिये एकत्रित होकर जयन्ती नायक के विविध दृष्टिकोणों के विषय में शक्ति भर विचार करेंगे, शुभमिति ।
-कु० दौलतसिंहलोड़ा 'अरविन्द' जैन ।
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आचार्यदेवेश का आत्मबल । आयावयंति गिम्हेसु, हेमंतेसु अवाउडा । वासासु पडिसंलीणा, संजया सुसमाहिया ॥ १२ ॥
-उन्हाले में सन्तप्त रेती या पर्वतीय शिला पर आतापना लेते हैं, सियाले में जंगल या सरस्तीर पर उधाड़े शरीर रह कर कायोत्सर्ग ध्यान करते हैं और वारिश में एक स्थान का आश्रय ले कर, इन्द्रियों को संयम में रख कर समाधि (संवर ) भाव में वरतते हैं। वेही साधु अपने संयम-धर्म को भलिभाँति विकसित एवं विशुद्ध कर पाते हैं।
दशवैकालिकसूत्र, ३ अध्ययन । संसार में जो मनुष्य पर-सहाय की अपेक्षा न रख, कर अपने अटूट आत्मबल से निडर हो, परीसहोपसर्ग की कसौटी पर आरूढ़ होकर कार्य-क्षेत्र के विकृत रूप को हटा कर उसमें सत्यता का वास्तविक अंश भरना जानते और वैसी
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शक्ति रखते हैं, उन्हें आदर्शता प्राप्त होते देर नहीं लगती। वे स्वपर का कल्याण करने में शीघ्र सफल मनोरथ होते हैं।
__ आचार्यदेवेशने अपने संयम-धर्म को समुन्नत बनाने के लिये उक्त शास्त्रीय सिद्धान्त का सोलहो आना परिपालन किया था। स्वर्णगिरीय सन्तप्त-शिलाओं तथा मरुधरीय नदियों की सन्तप्त-रेती शय्या पर उघाड़े शरीर आप आतापना लेते थे, सियाले में नदियों के किनारे पर या जंगलों में उघाड़े शरीर कायोत्सर्ग ध्यान करते थे और वर्षावास में प्रति चातुर्मास में एकान्तरोपवास, प्रति-पर्युषण तथा दीपमालिका का तेला, प्रतिमासिकधर, पाक्षिकधर, बड़ा कल्प और तीनों चोमासी का बेला, प्रति पंचमी तथा चतुर्दशी का उपवास और प्रतिदशमी का एकासना करते थे । इस नियम का प्रतिपालन आपने एक वार, दो वार या तीन बार ही नहीं, किन्तु यावजीवन किया था और यह बतला दिया था कि पंचमारक में भी इस प्रकार का साधु-जीवन बिताया जा सकता है। इसी प्रकार मांगीतुंगी पहाड़ की भयङ्कर गुफाओं तथा चोटियों पर छः महीना रह कर आठ-आठ उपवासों के थोक से आपने सूरिमंत्र का निर्भयता से आराधन किया था । श्रीमद्-राजन्द्रमूरि के लेखकने लिखा है कि"चामुण्डवन में ध्यान में ये लीन थे भगवान के। तब एक आकर दुष्टने मारे इन्हें शर तान के ॥
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उन तीर में से एक भी इनके न जा तन से अड़ा। कर जोड़ उलटे नीच वह इनके पदों में गिर पड़ा।" "दौड़ा अचानक चोर इनको मारने असि ले वहीं । पर गिर पड़ा वह बीच ही में जा सका इन तक नहीं । जव चेतना आई उसे, जा पाँव में इनके गिरा । होगा न ऐसा और अब, वह यह प्रतिज्ञा कर फिरा॥" ____ जोधपुर रियासत के जालोर परगने में मोदरागाँव से पाव मील दूर सघन झाड़ीवाले चामुण्डवन में जा कर आप निर्भयता से आठ महीना तक आठ-आठ उपवासों के थोक से उघाड़े शरीर कायोत्सर्ग ध्यान कर रहे थे । भयभीत हो किसी दुष्टने आपको मारने के लिये तीर पर तीर फेंकने शुरू किये, लेकिन आपके शरीर में एक भी तीर नहीं लगा । इस चमत्कार को देख कर वह आपके चरणों में पड़ कर क्षमा याचना करके चला गया । एक समय वहीं पर एक चोर हाथ में तलवार लेकर आपको मारने के लिये दौड़ा, पर वह मूर्छा खा कर बीच में ही गिर पड़ा, आप तक न पहुंच सका । चेतना आने पर उसने आपके चरणों में पड़कर, अपने अपराध की क्षमा मांगी और आयंदे के लिये ऐसा न करने की प्रतिज्ञा करके वह चला गया । आपकी तपस्या, आपका ध्यान और आपका आत्मबल कितना प्रबल था ? उक्त, घटना और
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वर्णन से अच्छी तरह जाना जा सकता हैं । क्या वर्तमान आचार्यों में ऐसा आत्मबल या तपस्तेज विद्यमान है ? इसका उत्तर नहीं के सिवा और कुछ नहीं है।
इस प्रकार की उत्कृष्ट आध्यात्मिक साधना और नैत्यिक पद्मासन समाधियोग में आपको होनेवाली घटनाओं का वास्तविक साक्षात्कार हो जाता था-जिनकी सत्यता आपकी कही हुई निम्नोक्त घटनाओं से मालूम हो सकती है ।
(१) सं० १९३९ में आप कुकशी में विराजमान थे, रात्रि के समय ध्यानचर्या में आपको कुकुशी दाह का पता लगा। प्रातःकाल मुखिया श्रावक वन्दन के लिये आये, तब आपने उनसे कहा कि आज से उन्नीसवें दिन कुक्शी में आग लगेगी, वह प्रयत्न करने पर भी काबू में नहीं आवेगी । बस, ठीक उन्नीसवें दिन चारों ओर एक साथ आग लगी और देखते देखते सारी कुक्शी खाक हो गई। इस अनलप्रकोप में १५०० घर, ३० आदमी, ४ स्त्रियाँ और १०० पशु जल गये । सब मिला कर सवा करोड़ रुपयों का नुकशान हुआ था। जो लोग गुरुवचन के विश्वास पर पहले ही चेत गये थे वे जान-माल से सब तरह आबाद रहे ।
(२) सं० १९४१ में आत्माराम ( विजयानन्दसूरि) अहमदावाद के झबेरीवाड़े के मन्दिर की प्रतिष्ठा करा रहे थे। आप पांजरापोल के उपाश्रय में विराजमान थे । कुछ
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मुखिया श्रावकों ने प्रतिष्ठा का लग्नपत्र आपको दिखलाया । आपने उसे देख कर कहा-इस मुहूर्त लग्न में प्रतिमाजी गादीनशीन होते ही झबेरीवाड़ा जल जायगा। यह समा. चार आत्मारामजी के पास भी पहुंचे, पर उन्होंने कुछ ध्यान नहीं दिया। आखिर निर्धारित लग्न में प्रतिमाजी को गादी पर स्थापन करते ही सारा झवेरीवाड़ा जल कर सफा हो गया। आपके कथन की सत्यता सारे शहर में प्रसिद्ध हो गई।
(३) कड़ौद (मालवा) में सेठ खेतावरदा के जिनालय की आप प्रतिष्ठा करा रहे थे । उस समय उत्सबके दरमियान ही चोरोंने सेठ के घर से नेऊ हजार रुपयों की चोरी की । सेठने ये हालात आपसे कहे । आपने कहा घबराओ मत, प्रतिष्ठा के बाद सारा माल सही सलामत घर बैठे आ जायगा, हुआ भी ऐसा ही। चोर पकड़ा गये, राज्य के द्वारा सारा माल वापस सेठ को मिल गया।
(४) आहोर-पूनमियागच्छीय ऋषभजिनालय की अंजनशलाका प्रतिष्ठा, जो बिना मुहूर्त हुई थी, उसके विषय में आपने पहले से ही जो कहा था वही अशुभ परिणाम हुआ जो सर्वत्र प्रसिद्ध ही है।
(५) शिवगंज के चोमासे में ध्यानचर्या में बैठे हुए आपको भावी दुर्भिक्ष का आभास हुआ और उसको आपने
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मुनिमंडल तथा दो चार श्रावकों के सामने प्रगट किया। आखिर आपके कथनानुसार महा भयंकर छप्पन का दुर्भिक्ष चारों ओर पड़ा। यह सब आपके विशुद्ध समाधियोग काही बल समझना चाहिये । आपकी जीवन चर्या से हम आपको भी अपने आत्मबल को समुन्नत बनाने की शिक्षा सीखना चाहिये । बस, जय बोलो गुरुश्री आचार्यदेवेश की जय ।
मुनिश्री वल्लभविजयजी। - ---
अलौकिक-विभूति । संसार में जब चारों ओर अज्ञानावृत गम्भीर तिमिर का आभास प्रतीत होता हो, धर्म और पुण्य को खिलौना मान कर, उनका परिहास हो रहा हो, स्वेच्छाचारियों के स्वच्छन्द विहरण से जहाँ अखण्ड-पाखण्ड की अजेय पताका फहराने लगती हो, अज्ञलोग आडम्बरियों के चंगुल में फँस अपने निरवद्य, वन्द्य अनादि धर्म को पाखण्ड पर्णमयी अज्ञानता की झुरमुट में विस्मृत कर धर्म और धर्मोपदेष्टाओं पर निःसंकोच अश्रद्धा का अतुल साम्राज्य स्थापित करते हुए पारम्परिक मननीय मर्यादा एवं गुरुतम गौरव से च्युत हो रहे हों, अनुचित प्रबल दुर्भावनाओं की सुदृढ़ जड़ पूर्ण रूपेण विकसित होती हो, पारस्परिक वैमनस्यता के कारण सर्वत्र अमानुषिकता का अपनीय दुर्व्यवहार संचरित होता
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हो, पुण्यभूमि भव्य भारत का पवित्र नन्दनवन जो अहर्निश धर्मकल्पद्रुम से प्रफुल्लित रहता था, अधार्मिक आँधी, एवं अकृत्य दुष्कृत्य पवन के प्रबल वेग से उजड़ता हो, तत्वज्ञ सत्कीर्तिशाली पूर्वज महापुरुषों द्वारा सुसम्पादित, पारम्परिक, अगी, अनुकरणीय, परमपवित्र धर्म, पाश्चात्य रंग में अतिशय रंगे हुए आधुनिक पार्थिव कठपुतलों को स्वात्मोन्नति या शर्म सूचक सुकृत कार्य में, बाधक रूपेण प्रतीत होता हो, सांसर्गिक दुर्व्यवहार से जहाँ भारतियों के पवित्र अन्तःकरण में दुर्भावना अपना स्वत्व-वैभव व्यक्तकरती हो, अन्योन्य प्रतिस्पर्द्धा, दौहार्दद्वेष, स्वार्थान्धता, निरुद्यमता, दौर्जन्यता, असैद्धान्तिकता, असद्भावुकता, अनाध्यात्मिकता, अनैतिकता, अधार्मिकता, आदि का संचार प्रारम्भ हो गया हो, भारतीय जन अतिशय प्रमाद के कारण तन्द्रा के वशीभूत हो प्रशान्त मन से निद्रादेवी की आराधना कर रहे हों, कुम्भकर्णीय नींद में घुल रहे होंपारस्परिक द्वेष विद्वेष से कुलगौरव का ह्रास हो रहा हो, अविद्या और अज्ञानता के आवरण में अकृत्य कृत्य हो रहा हो, पवित्र सदाचार विषयक शुद्धाचार विचार से सुसम्पन्न साध्वाचार से विहीन, अनाचारी शिथिलाचारियों की चारों ओर ब्युगुल बज रही हो, सद्धर्म का मार्मिक रहस्य जहाँ दुराचारियों से प्रच्छन्न एवं तिरस्कृत हो गया हो, साम्प्रदायिक या पारस्परिक परिवर्द्धित वैमनस्यता से
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जहाँ अहर्निश अकृत्यमय कलह होता हो, सहृदयता व आत्मीयता का जहाँ सर्वथा अत्यन्ताभाव प्रदर्शित होता हो, मानवता के समुज्वल स्वर्णिल सुवों पर कालिमा लग गई हो, अनाचार एवं शिथिलाचार का चारों ओर नगाड़ा बज रहा हो। तात्पर्य यह है कि सर्वत्र अमानुषिकता मय सघन तिमिर का अतिशय विस्तार हो गया हो एवं चारों ओर विस्तृत अन्धकार में मानव मानव को न देखता हुआ पददलित हो रहा हो-अन्धकारमय अगम्य पथ पर भटकता हो, अवनति के आरोहावरोह में अतिशय तीक्ष्ण पाषाणों के कुठाराघात से आकुलित होता हुआ अचेतन हो रहा हो, समस्त जन अपने सम्पादित कार्य में सफल प्रयत्न होने के लिये प्रतिकूल परिस्थितियों से अविराम संघर्ष करते रहने पर भी असफल प्रयत्न होते हो, सफलता प्राप्त करने के लिये अकृतार्थ हो रहे हों, मतमतान्तरों के बढ़ जाने से परस्पर विद्वेष की मात्रा तीव-अप्रतिहत गति से परिवर्द्धित हो रही हो, तब एक अनुपम अद्वितीय · अलौकिक-विभूति ' की अतिशय प्रभावशालिनी तेजोमयी अपूर्व आभा का आविर्भाव होता है। जिसका चरम ध्येय रहता है अज्ञानतम का अपहरण कर, दुर्दोषों का परिदलन कर अपनी तेजोमयी रश्मियों से विश्व को आलोकित करते हुए संसार का कल्याण करना एवं
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अतिशय गम्भीर अज्ञानगर्त में गिरे हुए पामर प्राणियों का सदुपदेश द्वारा समुद्धार करना।
विश्वपूज्य आचार्यदेव सरिसम्राट् महान् ज्योतिर्धर प्रभुश्रीमद्-विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज भी उसी ' अलौकिक-विभूति' में से एक हैं-जिनकी तेजोमयी अनुपम आभा के आविर्भाव होते ही संसार आलोकित हो गया, विषमवादियों का सार हीन दूषित वातावरण प्रभावशालिनी प्रतिभा से अस्तंगत हो गया, अनैतिकता-मय साम्प्रदायिक कलह शान्त हो गया, प्रलयंकर अघटित घटनाओं का उदर छिन्न-भिन्न हो गया, गादनिद्रा में प्रसुप्त भारतीय जनों के जीवन में उत्साह वर्द्धक चैतन्यतामय नव जीवन का संचार हो गया, अज्ञानता, दौर्जन्यता, पारस्परिक वैमनस्यता, दौहार्दता, अकर्मण्यता, अपटुता, आकुलता, आलस्यता, अमानुषिकता, दीनता आदि का सर्वनाश हो क्रमशः अभिज्ञता, पारस्परिक प्रणयता, सौहार्दता, कर्मण्यता, कार्यपटुता, अनाकुलता, दयार्द्रता, मानवता आदि का प्रादुर्भाव हो गया, स्वार्थान्धता का हास हो परार्थता ( परोपकार ) का उदय हो गया । शास्त्र मर्मज्ञ धर्मतत्वज्ञ विज्ञानविज्ञ आदि इस · अलौकिक-विभूति' की आभा के आलोक में आलोकित हो उठे, उनकी अन्तर्वृत्तियाँ (मानसिक-चेष्टाएँ) इस आभा से प्रज्वलित हो सहसा सजीवता को प्राप्त हो गई, उनकी मनोकामनायें ( अभिलाषाएँ) सफलशील बन
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, सर्वत्र अभिज्ञता, आध्यात्मिकता का संचार हो गया और वैज्ञानिकता एवं सदभावुकता का क्षेत्र विशाल बन गया। सारांश यह है कि इस अलौकिक विभूति का प्रभावसम्पन्न प्रादुर्भाव होते ही सर्वत्र प्रकाश हो गया, उस प्रकाश पुञ्ज में प्रायः सभी आलोकित-प्रकाशित हो उठे थे, फिर भी इस विभूति की अभूतपूर्व आभा का अतिशय प्रभाव जैनजगत जैनममाज पर खूब पड़ा। जैनजगत में सर्वत्र मनो. मुग्धता छा गई । न केवल भारतवर्ष में ही, अपितु विदेशों में भी इस विभूति की विशेषरूपेण ख्याति है व चिरकाल पर्यन्त रहेगी। ___ इस ख्याति का प्रधान कारण है, इसी विभूति (विजयराजेन्द्रसूरीश्वर ) के द्वारा अथाह श्रमेण निर्मित ' अभिधानराजेन्द्र 'कोष । इस विराट्र जैन विश्वकोष में आपने अपने अलौकिक पाण्डित्य का पूर्ण परिचय प्रदान किया है। अस्तु, इसका विशेष उल्लेख करना सूर्य के सम्मुख प्रकाश करना है, फिर भी कोशान्तर्गत प्रखर पाण्डित्य, बौद्धिक पाटव, विलक्षण वैदुष्य का सम्यक्-तया निरीक्षण कर किस विज्ञ महानुभाव के मुख से निम्नाङ्कित वाक्य न निकलेंगे। कोश का समालोचक अवलोकन करते ही कह उठेगा कियावद भारतवर्षः स्याद, यावच्चन्द्रदिवाकरो। तावद राजेन्द्रकोशः स्याद, राजेन्द्रेण विनिर्मितः।।
यह कोश आपकी एक अलौकिक, अभूतपूर्व अमरकृति
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है । सुदूर विदेशों का विज्ञ समुदाय भी आपकी इस सुधा सिश्चित वैदुष्यमय अमरकृति पर रीझकर आलोकित हो उठा है । इसी तरह आपने संसार में ऐसे कई कार्य किये जिससे आपको ' अलौकिक-विभूति' का परिणायक कहना असंगत न होगा । आप वास्तव में अलौकिक ही थे। संसार में अभी तक आपकी अलौकिकता की किसी भी सहापुरुष के साथ तुलना करना अल्पज्ञता का परिचय देना है। आप में अलौकिकता यही थी कि आपकी प्रभा के प्रादुर्भाव के पूर्व जो लोग व्यर्थ में ही साधुधर्म के नाम पर-साधुधर्म की आड़ में कृत्रिम साधुवेश धारण कर पाखंण्ड रचते थे उनका सर्वदा के लिये आपने पाखण्ड परिमर्दन कर जनता को सच्ची साधुता का मार्ग प्रदर्शित कराया। साधुधर्म को समुज्वलित करने के लिये आपने अनेक शारीरिक पीड़ाएँ सहन करीं, फिर भी अन्तिम ध्येय था आपका विश्वकल्याण, वही हो कर रहा । इस तरह कई अलौकिक कार्य करते हुए यह · अलौकिक विभूति' असार संसार से विलीन हो गई, फिर भी उसकी अमित आभा का आलोक विश्व के कोने कोने में जगमगा रहा है एवं सर्वदा के लिये उस आभा का आदर्शमय आलोक जनता को सत्पथ प्रदर्शित करता हुआ जगमगाता रहेगा। बस, जय बोलो अलौकिक विभूति की जय । इत्यलं पल्लवितेनेति शम् ।
मदनलाल जोशी, व्या० शास्त्री।
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अन्त में श्रीवर्द्धमानजैनबोर्डिंग-सुमेरपुर की संगीत मण्डली के विद्यार्थियों के गुरुगुणमय भजन-स्तवन होने बाद जयध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई। संघवी देवीचंदजी तथा मंत्री-निहालचंदजी के तरफ से समागत सभी श्रावक, श्राविका और अजैनों को श्रीफल की प्रभावनायें समर्पण की गई। जैनशासनं विजयतेतरामिति ।
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विषय - सूचि ।
विषय
१ इतिहास में जैनतीर्थों का स्थान ।
२ जैनों की तीर्थ-स्थापत्य - कला का उत्कर्ष ।
३ यात्रा की आवश्यकता और पारमार्थिक लाभ | ४ श्रीसंघों का निष्क्रमण और लक्ष्मी का सदुपयोग । ५ प्राचीन काल में संघ - निष्क्रमण ।
६ जैनधर्म की दृष्टि से मरुस्थल का महत्व | ७ गोड़वाड़ प्रान्त में जैन आबादीवाले गाँव । ८ गोड़वाड़ - पंचतीर्थी और संघ का निष्क्रमण ।
१ श्रीवरकाणा - तीर्थ |
२ श्री नाडोल - तीर्थ ।
३ श्री नाडलाइ - तीर्थ |
४ श्रीसुमेर ( सोमेश्वर ) तीर्थ | ५ श्रीमहावीरमुछाला - तीर्थ |
६ श्रीराणकपुर - तीर्थ | ९ श्रीगुरुदेवका जयन्ति - उत्सव ।
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- શાસન સમ્રાટ અા.ભ. શ્રી વિજય નેમિસૂરિશ્વરજી મ.સા. નાં શિષ્યરત્ના પ.પૂ.આ.ભ. શ્રી પધરિ ગ્રંથાલય
દાદા સાહેબ, ભાવનગર
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________________ 00000000000000 ચશોહિ zlcPhlle 0000mgeodowma PEN 2000mmomporoomsonamasooooomemamar meriMoneP0000000000mmer papergarbachondneamsee कार्यालय-सिरीज की प्रका पुस्तकेंश्रीयतीन्द्रप्रवचन-हिन्दी-पकी कि शिक, पृष्ठ-संख्या 268, समाधानप्रदीप-हिन्दी-दोसो बारह प्रश्न का समय माण उत्तर, पकी जिल्द पृ०२७८ भजन-मंजरी-उपदेशमय भजनों का संग्रह, पृष्ठ-संख्या 88 असत्प्रलाप-मीमांसा-अपलापियों की कुयुक्ति यों का सचोट उत्तर पृष्ठ 32 निवेदनपत्र-मीमांसा-नीमच प्रकरण की वास्त विक स्थिति का दिग्दर्शन पृ०१६ मेरी गोड़वाड़-यात्रा-गोडवाड़ प्रान्तीय जैन पंच तीर्थी का इतिहास, पृष्ठ-सं० 100 प्रतिष्ठा-महोत्सव-धाणसानगर के शान्तिनाथ पार्श्वनाथ जिनालयों की प्रतिष्ठा का ऐतिहासिक वर्णन, पृष्ठ-१३८ श्रीराजेन्द्रप्रवचनकार्यालय मु० खुडाला, पो० फालना (मारवाड़) PAND0000000reobeedompe00040 womenp00000000000000000000000000000rseone 000000000000000000000 freeroneesomeariomolomameroomansamaber Demone Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com