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वीरों का देश ही वीर-प्रदेश कहाता है। वहाँ प्रकृति में वैर्य-तत्व नीर दुग्धसा संमिश्रित रहता है। अन्न वायु, सलिल, प्रत्येक पदार्थ में अद्भुत चमत्कार, बलवीर्य-शक्ति होती है । सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, वैयक्तिक वातावरण में एक ही रस, एक ही भाव, एक ही प्राण रहता हैआत्मगौरव-आत्मरक्षा । फिर रत्नराज का मन क्यों न सबल, बुद्धि क्यों न निर्मल, भाव क्यों न उत्तम हों। माता पिता भी सद्गुणी, सौम्य, सरल-हृदयी, श्रीसम्पन्न थे। सन्तति अवश्यमेव सत्तम होगी यदि कुल, धर्म, स्थान तीनों ही उत्तम हो । रत्नराज आज्ञानुवर्ती थे, विनयी थे, शान्तिप्रिय बालक थे, स्फूर्तिमान् प्रतिभा पुञ्ज थे। घने प्रातः उठ कर माता-पिता के दर्शन करते, सेवा शुश्रूषा करते, देवदर्शन करने नित्य जाते, सामायिक प्रतिक्रमण सदैव अपने पिताश्री के साथ करते । वय के साथ विचार भी बढ़ते गये । विद्याभ्यास भी बढ़ता ही गया । अपरिपक्व अवस्था में ही इन्हें संसार व्यर्थ प्रतीत होने लगा । संसार में फैले दुषित वातावरण पर ये एकान्त में घंटो विचार करने लगे। सारे दिन भर ये विचार-मग्न ही रहते थे। इन्हें हासोपहास, कुतूहल, खेल जो नव वयस्कों के स्वाभाविक गुण होते हैं कुछ भी अच्छे नहीं लगते थे। ऐसा प्रतीत होता था मानों पूर्वजन्म के अनुभव का भार इन्हें अपरिपक्क अवस्था में ही दबाये हुए था, या देश, धर्म
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