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पा चुके थे । धर्म सब सीमाबद्ध हो चुके थे, काराग्रस्त थे । महानाश की यहाँ भी कुछ दूसरे ही रूप से लक्षणायें मोहकगति से सारे देश भारत भर में प्रसारित होती जा रही थी, परन्तु कुदरत को ऐसा होना स्वीकृत न था, ऐसे जाग्रत महात्माओं का अवतरण हुआ- जिन्होंने घूम घूम कर सारे देश भर में प्रसारित मत-मतान्तरों के दूषित वातावरण का प्रलयकारी अनैतिक सामाजिकता का विनाशकारी रूढ़ीवाद का उदर भङ्ग कर दिया । विश्वपूज्य ज्योतिर्धर श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी भी इन महात्माओं में से एक हैं । मोहतम को हटाने में, जैननजगत को जागृत करने में, शैथिल्याचार - प्रमाद को पत्रोपम उड़ाने में, साहित्य को सजीवता प्रदान कराने में, कर्त्तव्याकर्त्तव्य का भान कराने में, मरणोन्मुखता से हटाने में, अनैतिक परम्पराओं को निर्मूल कराने में, दलगत वैमनस्य नष्ट कराने में इनको अपना श्रोणित पसीना करना पड़ा । सङ्कटों के शूलमार्ग में निस्त्राण चलना पड़ा, पद-पद पर अपमानित होना पड़ा | पर क्या महापुरुष सङ्कटों से घबरा कर ध्येयध्यान से विचलित हो सकते हैं १, प्राणों के मोह से क्या देश-भीत हो सकते हैं ? कभी नहीं । उन्हें संसार की कोई आसुरी विकराल काल-शक्ति पथ-भ्रष्ट, विचलित, मार्गोन्मुख नहीं कर सकती । वे निम्नोक्त नीति पर एक लक्ष्य रख कर अंशमात्र चल-विचल नहीं होते ।
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