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जाति, धर्म, राष्ट्र, संसार के कल्याणार्थ ही हुआ करता है। हमारा यहाँ लक्ष्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर जी के जीवन का संक्षिप्त वर्णन इस राजेन्द्रसरि-जयन्ती के शुभावसर पर करने का है।
प्रकृत विषय को प्रारम्भ करें इसके पूर्व भारत की तथा जैनसमाज की उस दशा का वर्णन जो जयन्तीनायक के जन्मकाल के समय में थी, देना अप्रासङ्गिक न होगा, प्रत्युत चरितनायक को समझने में विशेष सहायक सिद्ध होगा।
एक ओर जहाँ पाश्चात्य प्रदेशों में भौतिकवाद, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, नाजीवाद, साम्यवाद, स्वातन्त्र्यवाद के कण्ठ चीरनारे लग रहे थे वहाँ हम हमारे देश भारत में सोये हुए घुल रहे थे, मिट रहे थे, तन्द्रा वशीभूत थे, द्वेषविद्वेष ग्रस्त थे, भूतप्रेतोपासक थे। तात्पर्य कि अविद्या, अज्ञानता, पारस्परिक-वैमनस्य, ईर्षा, जुगुप्सा, साम्प्रदायिक कलह-झगड़े, अकर्मण्यता, आलस्य, प्रमाद सब बढ़ चुके थे और अपने अन्तिम विकशित रूप को प्राप्त करने के लिये छटपटा रहे थे । ये सब मत मतान्तरों की पृष्ठभूमी में पाद-बद्ध होकर उत्साहन, जीवन, सिंचन पा रहे थे। धर्म का मर्म तिरस्कृत होता चला जा रहा था। सहदयता, दयालुता, प्रेम-स्नेह सब संकीर्णावृत बन चुके थे, सब साम्प्रदायिक, वैयक्तिक, एवं आंशिक सत्व अधिकार
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