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कर सके
और प्रधान
के नाम
सब
भी आलोकित रहेगा। इन अन्तिम आठ शताब्दियों में संस्कृत-प्राकृत साहित्य में ऐसा कोई ग्रन्थ नहीं लिखा गया जो अभिधान-राजेन्द्र कोष का साम्य कर सके। यह आचार्यदेव के अटल, अडिग पच्चीस वर्ष के श्रम की उपज है। परन्तु दुःख है कि हम अभिधान-राजेन्द्रकोष तथा उनके अन्य ग्रन्थों का उतना प्रचार न कर सके जितना आवश्यक था। हमारा इस ओर प्रधान लक्ष्य होना चाहिये। सूरीश्वरजी के नाम को अमर रखने के लिये एक मात्र यही सबल साधन है।
अस्तु, सूरीश्वर के जीवन पर संक्षेप रूप से पर्याप्त प्रकाश डाला जा चुका है । इस प्रकार आपका चैतन्य-पुरुष अपने परात्पर विकाश को प्राप्त करने की चेष्टा करता हुआ, संसार का विविध प्रकार से कल्याण करता हुआ इस असार संसार को छोड़ कर बन्ध-मुक्त हो गया । संवत् १९६३ पौषशुक्ला ७ शनिवार को हुए सूरीश्वर के शब-दहन दिन को चिरस्मरणीय रखने के लिये, उनके आदर्शों का अनुकरण करने के लिये, उनके महत्कार्यों की कीमत करने के लिये ही आज हम इस रूप में जयन्ती मनाने को एकत्रित हुए हैं । परन्तु बन्धुओ ! जयन्ती मनाना जब ही सफल है कि हम सूरीश्वरजी का नाम तथा उनके कृत्यों को अधिक स्थायी, सर्वोपादेय रूप दे सकें । अन्त में आगन्तुक सजनों को धन्यवाद देता हुआ अपना अभिभाषण बन्द करता हूँ
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