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कर स्तम्भित रह गये थे। श्रीमद्विजयहीरसूरिजी का सम्राट अकबरने किस भाव-भक्ति, सजधज से शाही स्वागत किया था। कौन इतिहास इसको तथा इससे सम्राट पर पढ़े प्रभाव को स्वीकार करने में हिचकचाता है ?, तत्कालतः आज भी प्रत्येक देशी रियासत के राज्य हमारे श्रीपूज्यों का वैसा ही स्वागत करते हैं । परन्तु सच कहें तो इसी शाही स्वागत ने आडम्बर का रूप धारण कर यती-जीवन को यति आदर्श को विषपूर्ण, पथच्युत, पुंश्चल कर डाला । गृहस्थ को जो न करना चाहिये आज वे उसे करने में किश्चित् मात्र नहीं हिचकते हैं। हम पूर्व बतला चुके हैं कि हमारे जयन्तीनायक रत्नविजयजी को भी यतिवर्ग की दीक्षा दी गई थी। यतिवर्ग का रस्नविजयजी किस प्रकार उद्धार करते हैं ? यह श्रोतागण सम्यक् रूप से जानते भी हैं और जानते होंगे, परन्तु हम उनके यति-जीवन की अछूत छोड़ते हुए विषयहत्या समझते हैं । संक्षेप में हम उनकी यतिचर्या को उनके आदर्श, विकशित, स्मरणीय-साधुजीवन की जननी कह सकते हैं ! इसका हम आगे व्यक्तीकरण कर रहे हैं।
यति-दीक्षा हो जाने पश्चात् श्रीविजयप्रमोदसूरिजीने रत्नविजयजी को श्रीमत्सागरचन्द्रजी के पास विद्याध्ययनार्थ मेज दिया । यतिवर्य सागरचन्द्रजी संस्कृत, प्राकृत एवं ज्योतिष के दिग्गज विद्वान् थे । उस समय काशी के प्रमुख पण्डितों में इनकी गणना थी। रत्नविजयजीने उनकी चरण
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