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लिये ' विजय ' शब्द का प्रयोग करना समुचित है । अब रत्नविजयजी अपने अभिलषित मार्ग में अप्रतिहत गति से अग्रसर होने लगे । अप्रतिहत इसलिये कि संङ्कट, लोभन, प्रलोभन तो अनेक आये परन्तु हमारे धीरोदात्त नायक के लिये ये सब कंचन की कसौटी तुल्य घटित हुए । उनकी प्रकृत चमक अचिर दमक उठी । जैनसमाज को उनका परिचय शीघ्र ही मिल गया । हम भी प्रसंगवश उनके कुछेक संकटों से, प्रलोभनों से श्रोतागणों का परिचय करावेंगे जिनमें उनकी आत्म-शक्ति का, परोपकारवृत्ति का, दलितोद्धारमति का व्यक्त आभास मिल सकेगा ।
प्रसंगानुसार यति शब्द की व्याख्या तथा उस समय के यति-समाज की स्थिति का संक्षेप में दिग्दर्शन कराना अनुचित न होगा | यति और जति एक ही शब्द है । जति का अर्थ है जितेन्द्रिय । हमारे यहाँ के जतियों की मर्यादा प्रणाली प्रशंसनीय है । रजोहरण, मुहपत्ती सर्वदा पास में रखना, प्रातः और सायं प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन करना, श्वेत मानोपेत वस्त्र धारण करना, स्त्रियों के सहवास से निरन्तर दूर रहना, स्वाध्याय, अध्यापन में ही अपना समय यापन करना, आलस्य, प्रमाद न करना, पंचमहाव्रत का अक्षुण्ण पालन करना, अर्थात् हिंसा, असत्य, चौर्य, मैथुन, और परिग्रह का परित्याग करना । मुगलसम्राट् या सार्वभौम भी ऐसे आदर्श यतियों का विशुद्ध विदग्ध जीवन देख
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