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स्थली में रह कर व्याकरण, काव्य, न्याय, छन्द, निरुक्त, अलङ्कार, ज्योतिष का समूचा अध्ययन किया, फिर आपको जैनशास्त्रों का अध्ययन करने के लिये तपागच्छ के श्रीपूज्य देवेन्द्रसरिजी के पास भेजा गया । आपके ज्वलन्त, पाण्डित्य, अनुपम शिष्टाचार से मुग्ध होकर श्रीपूज्यने इनको उदयपुर (राजपुताना) में श्रीहेमविजयजी के पास बड़ी दीक्षा दिलाई तथा पन्यास-पद भी प्रदान कराया । कुछ समय पश्चात् देवेन्द्रसूरिजी का राधनपुर में स्वर्गवास हो गया । अब रत्नविजयजी उनके पट्टाधिपति श्रीधरणेन्द्रसरिजी के पास रहने लगे। धरणेन्द्रसरिजी को शास्त्राभ्यास भी आप ही ने करवाया। उदयपुर, जोधपुर, बीकानेर जैसी राजस्थानी रियासतों में आपको विशेष संमानित करवाया । परन्तु कुदरत की इच्छा कुछ ओर ही थी। धरणेन्द्रसूरिजी का शैथिल्याचार देख कर आप बड़े दुःखी होते थे। घाणेराव के चतुर्मास में उनके बढ़ते हुए शैथिल्याचार को आप अधिक सहन न कर सके और उनका सहवास छोड़ कर अलग विचरण करने निकल पड़े । वास्तव में मुमुक्षु सदात्माओं को ये पार्थिव प्रलोभन आकर्षण कब अच्छे लगने लगे। जैसे सुन्दर, सुघड़, श्वेत अण्ड का विस्फोटक कर पक्षी का बच्चा बाहर निकलता है आप भी ठीक इसी प्रकार इस वैभव लीन भ्रष्ट यतिकक्षा का उदर भांग कर निकल पड़े । उस समय आपके गुरु आहोर (मारवाड़)
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