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इन सब का अर्थ यह है कि अगर भारतीय शिल्पकला में से जैन शिल्पकला का स्थान हटा दिया जाय तो शेष कलेवर पंगु, प्राणहीन एवं नग्न हो जाता है । जैन-शिल्पकला का भारतीय शिल्पकला में बड़ा शक्तिभर स्थान है। तीर्थों में, पर्वतों में, नगरों में, ग्रामों में, उपवनों में बियावान बिहड़ बनों में, खण्डहरों में, भूगर्भ से निकलनेवाले अवशिष्ट प्रतीकों में दूध में सफेदी के समान मिला हुआ जैन-शिल्पकला का प्रभाव है । अब पाठक ही विचारें कि जैन-शिल्पकला का क्या स्थान हो सकता है ?। २ जैनों की तीर्थस्थापत्य कला का उत्कर्ष
वैसे तो धर्म-तीर्थों की स्थापना संसार में सर्वत्र मिलती है । यूरोप, अमेरीका, जापान आदि देशों में भी धर्म-स्थान विशेष सुन्दर, भव्य, महादीर्घकाय और कला के सजीव नमूने बने खड़े हैं। परन्तु भारत के तीर्थस्थानों के बनाने में एक दूसरा ही ध्येय प्रधान रहा है जो अन्यत्र संसार में कहीं गौण रूप में और कहीं नहीं भी रहा है। हमारे यहाँ तीर्थों की स्थापना से तीर्थङ्करों के, महापुरुषों के, अवतारों के स्मारक बनाये रखने के साथ साथ
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