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ऐसा कहा जाता है कि वरकनकपुर सम्राट्-संप्रति के समय में एक प्रसिद्ध नगर था और सम्राट्ने यहाँ भगवान् पार्श्वनाथ का मन्दिर बनवाया था। मुस. लमान आक्रमणकारियों के हमलों से नगर एवं मन्दिर नष्ट-भ्रष्ट हो गये और फिर सैकडों वर्षों की धूलने उन खंडहरों को पूर्ण तथा आच्छादित करके भूगर्भ की एक वस्तु बना दी। इस प्रकार दृष्टि-पथ से लुप्त हुए एवं भूगर्भ में समाये हुये वरकनकपुर के ऊपर कालान्तर में एक छोटासा ग्राम आबाद हो गया। कहते हैं कि एक गडरिये को अपना गृह बनाते समय भगवान् पार्श्वनाथ की यह प्रतिमा प्राप्त हुई। कोई कोई कहते हैं कि उस गडरिये को स्वप्न आया और उसने फिर भूमि खोद कर मूर्ति निकाली। खैर कुछ भी हो, यह तो सत्य है कि मूर्ति भूमि में से प्राप्त हुई । मूर्ति की बनावट अति-प्राचीन प्रतीत होती है और सम्राट-संप्रति की बनवाई कई मूर्तियों से मिलतीझुलती है। सम्राट्-संप्रतिने करोड़ों मूर्तियें बनवायी थीं और इस प्रकार संप्रति के काल में अधिक अभ्यास से मूर्ति का आकार-प्रकार एक विशिष्ट एवं निश्चितरूप धारण कर चुका था। अगर हम उस समय की बनी हुई मूर्तियों की कला को संप्रति-मूर्ति-कला
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