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के नाम की संज्ञा दें तो भी कोई अनुचित नहीं। शिल्पकला का सूक्ष्म विज्ञ ही इस तथ्य को अधिक स्पष्ट कर सकता है।
गडरिये को मूर्ति प्राप्त हुई है-जब यह समाचार इधर उधर फैले तो दादाई और बीजोवा के संघने एक छोटा मन्दिर बना कर उस मूर्ति को पुनः प्रतिष्ठित की। महाराणा कुंभा के समय दादाई में रहनेवाले श्रीमालपुर के एक शाहूकारने वर्तमान बावन कुलिकाओं से अलंकृत सौधशिखरी भव्य मन्दिर बनवाया जो शिल्पकला की दृष्टि से अद्वितीय एवं नमूना है। इसके लिये मेवाड़ के महाराणाओं के समय समय पर दिये गये ताम्रपत्र और माफीपत्र भी यहाँ की पेड़ी में विद्यमान हैं।
ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि दादाई और बीजोवा के रूप में वरकनकपुर नष्ट-भ्रष्ट हो कर विभक्त हो गया। दादाई और बीजोवा की स्थिति इस अनुमान को प्रबलता से पुष्ट करती है। यह भी सत्य है कि वरकनकपुर प्राचीन एवं समृद्ध नगर था, इसीलिये इसका इतना महत्व गोड़वाड़ में रहा, और है । आज भी गोड़वाड़ की पंच-तीर्थी में वरकाणा-तीर्थ प्रमुख है । इस समय यहाँ जैन का घर एक भी नहीं है, परन्तु फिर भी
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