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प्राप्त करने का भी यह एक मुख्य साधन है, इसमें शंका नहीं । इस विषय पर पूर्व के लेखों में भी कुछ प्रकाश यत्र-तत्र डाला गया है और आगे के लेखों में भी पाठकों को मिलता रहेगा । जितने से हमारा अर्थ पूर्ण हो जाता है, उतना ही लिख कर इसे छोड़ दिया जाता है। ४ श्रीसंघों का निष्क्रमण और लक्ष्मी का
सदुपयोगतीर्थयात्रा एवं श्रीसंघ-निष्क्रमण में कोई विजातीयता नहीं, दोनों ही एक है । प्रथम से द्वितीय विशाल, व्यापक व सामूहिक होता है। श्रीसंघ हमारे सिद्धान्त के अनुसार वह जन-समूह है जिसमें तीर्थयात्रार्थ जाने की भावना से श्रावक, श्राविका, साधु एवं साध्वियें चारों सम्मिलित हों और एक आचार्य संघ के अधिष्ठाता हों, तथा सारा श्रीसंघ एक संघपति की आज्ञा में संचारण करता हो । धर्म की प्रसारणा केनिमित्त, तीर्थों के दर्शन-- लाभ पाने के, दर्शन-स्पर्शन करने के अर्थ से श्रीसंघ-निष्क्रमण की आयोजना व व्यवस्था किसी एक व्यक्ति की ओर से होती है । सहचारी लाभ पे होते हैं--धर्म का विस्तार एवं प्रसार कैसे हो?,
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