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वाई गई थी और इन्हीं सोमसुन्दरसूरि के हाथों से वर्तमान तीर्थ-स्वरूप मन्दिर की प्राणप्रतिष्ठा भी हुई है । ३ दानशाला खुली रखना और ४ स्वयं अपने लिये एक उपयुक्त महालय निर्माण । इन चारों ही कार्यों में धन्नाशाह सफल-मनोरथ भी हुआ। चतुर्मुख त्रैलोक्यदीपक जिनालय के पश्चिम द्वार पर नित्य नियम से अभिनय होते थे, और पूर्व के द्वार पर विन्ध्याचलगिरि की दिवार का दृश्य था, उत्तर द्वार पर संघ दर्शनार्थ एकत्रित रहता था और दक्षिण द्वार पर पौशधशाला थी जिसका उल्लेख ऊपर हो चुका है।
राणकपुर का मन्दिर एक सघन वन में पहाड़ों की उपत्यकाओं के मध्य में आया है । जंगली हिंसक पशुओं का आज भी वहाँ बड़ा भय रहता है। यद्यपि आस-पास के विहड़ जंगल मैदान बना दिये गये हैं, तोभी भय तो विद्यमान ही है। राणकपुर-मन्दिर से घने जंगल में हो कर एक रास्ता दक्षिण-दिशा की ओर से मेवाड़ को जाता है । इस मार्ग में राणकपुर से दो मील की दूरी पर एक सर. कारी चौकी है और यहाँ से एक रास्ता उत्तर में भानपुरा को विहड़ वन में होकर जाता है। चौकी से द्वितीय मार्ग में आगे जाने पर एक आकिया
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