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नहीं हुए । आचार्य इस विषय में कुछ समय तक बैठे रहे कि इतने में योगी भी अपना मन्दिर लेकर नाडलाई में आ गया। निदान सूर्योदय का समय हो जाने और कूकड़े का शब्द हो जाने पर योगीने ग्राम में तथा आचार्यने ग्रामके बाहर थोड़ी दूरी पर मन्दिर स्थापन कर दिये। सोहमकुलपट्टावली-कारने इस घटना का संवत् १०१०, और लावण्यसमय. रचित-तीर्थमाला में ९५४ लिखा है।
नाडलाई के चोहानराव-लाखण के वंशजों को आचार्य यशोभद्रसूरिने प्रतिबोध देकर जैन बनाये और उनका भण्डारीगोत्र कायम किया था । उक्त आदिनाथ-जिनालय के एक शिला-लेख से जान पड़ता है कि यशोभद्रसूरि-संतानीय आचार्य ईश्वरसूरिजी के सदुपदेश से मन्त्री सायरने और उसके वंशजोंने उक्त मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया था। अन्तिम उद्धार महाराणा जगतसिंह के शासनकाल में सं०१६८६ वैशाख सुदि८ शनिवार के दिन श्रीविजयदेवसूरि के उपदेश से नाडलाई के श्रीसंघने करवाया था।
२ द्वितीय जिनालय ग्राम के मध्य में है। ऐसा प्रतीत होता है कि नगरवासियों को दर्शन की
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