Book Title: Meri Golwad Yatra
Author(s): Vidyavijay
Publisher: Devchandji Pukhrajji Sanghvi

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Page 78
________________ ये स्वर्णिम रश्मियें विष-कूप थी, यह किसके चेतनस्तर को छू सकी । ये भौतिक विषाक्त पुष्पों के मधुर अर्क से भरी मनोहर, मादक, रामबाण, सचेत, जादूभरी रससरिये थीं। जिस देश, प्रान्त, व्यक्ति, समाज, राष्ट्र पर ये निर्झरित हुई, धराशायी हुई उसे उन्माद हो गया। उसके प्राण का स्तर-स्तर इस अप्रकृत आलोक में सराबोर हो गया । वह अपने को भूल गया । वह आध्यात्मिक-स्तर से लुढ़क कर भौतिक-स्तर पर सन से अचेत गिर पड़ा । उसका यह सन्निपात अब भी उसी अवस्था में है। फिर क्या था ? नर का स्त्री, स्त्री का नर, दिन का रात, रात का दिन, प्रेम का कापट्य, कापट्य का प्रेम, संरक्षण का संहार, संहार का संरक्षण, मानवता का असुरपन, असुरपन का विलोम, वन्धुत्व का शत्रुत्व, रूप हो उठा । भारी नाश की मनोदग्धकारी अभिव्यंजनाएँ परिलक्षित होने लगी, सर्वत्र प्रमरितसी दृष्टिगोचर होने लगी। संस्कृति के कण-कण में प्रलय नीरव समा गया। यूरोप, अमेरिका, जापान इसके प्रकृत रंगशाल, वैभवकेत स्थापित हो गये । हा ! परन्तु भविष्य के गर्भ में क्या होनेवाला था वे जानते हुए भी इसको परित्यक्त न कर सके, इसका संमोह छोड़ न सके । वरन घातक प्रतिस्पर्धा के गहरे मजीठ रंग में रंग गये । गहरी खाइयें खुद गई । घुड़-दौड़ में धर पकड़ मच गई। आध्यात्मिकता इस घुड़-दौड़ में अश्वों के टापोतले निर्जीव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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