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शक्ति रखते हैं, उन्हें आदर्शता प्राप्त होते देर नहीं लगती। वे स्वपर का कल्याण करने में शीघ्र सफल मनोरथ होते हैं।
__ आचार्यदेवेशने अपने संयम-धर्म को समुन्नत बनाने के लिये उक्त शास्त्रीय सिद्धान्त का सोलहो आना परिपालन किया था। स्वर्णगिरीय सन्तप्त-शिलाओं तथा मरुधरीय नदियों की सन्तप्त-रेती शय्या पर उघाड़े शरीर आप आतापना लेते थे, सियाले में नदियों के किनारे पर या जंगलों में उघाड़े शरीर कायोत्सर्ग ध्यान करते थे और वर्षावास में प्रति चातुर्मास में एकान्तरोपवास, प्रति-पर्युषण तथा दीपमालिका का तेला, प्रतिमासिकधर, पाक्षिकधर, बड़ा कल्प और तीनों चोमासी का बेला, प्रति पंचमी तथा चतुर्दशी का उपवास और प्रतिदशमी का एकासना करते थे । इस नियम का प्रतिपालन आपने एक वार, दो वार या तीन बार ही नहीं, किन्तु यावजीवन किया था और यह बतला दिया था कि पंचमारक में भी इस प्रकार का साधु-जीवन बिताया जा सकता है। इसी प्रकार मांगीतुंगी पहाड़ की भयङ्कर गुफाओं तथा चोटियों पर छः महीना रह कर आठ-आठ उपवासों के थोक से आपने सूरिमंत्र का निर्भयता से आराधन किया था । श्रीमद्-राजन्द्रमूरि के लेखकने लिखा है कि"चामुण्डवन में ध्यान में ये लीन थे भगवान के। तब एक आकर दुष्टने मारे इन्हें शर तान के ॥
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