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में विराजमान थे । आप घाणेराव से चल कर सीधे वहीं पर आये और गुरुदेव को सब घटना चक्र कह सुनाया । सूरिजी और श्रीसंघ दोनोंने आपके अद्वितीय साहस की सराहना की और तत्काल आपको आचार्यपद प्रदान कर आपका उचित सम्मान किया, तथा आपका नाम 4 श्रीविजयराजेन्द्रसूरि ' रक्खा गया ।
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सं० १९२४ में आपका चतुर्मास जावरा में हुआ । धरणेन्द्रसूरि इनकी बढ़ती हुई ख्याति को, तपस्तेज को सहन न कर सके । उन्होंने जावरा - श्रीसंघ को पत्र लिख कर आपकी बढ़ती हुई कीर्त्ति पर कुठार चलाना चाहा । परन्तु श्रीसंघने उस पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। तब पत्र लानेवाले यतिवर्य आपकी चरण-स्थली में उपस्थित होकर अनुनय प्रार्थना करने लगे और कहने लगे कि एक ही गादी पर दो श्रीपूज्यों का आरूढ़ रहना गुर्वानुशासन का अनुभंग है । धरणेन्द्रसूरिजी भी आपके ही निकट संबंधी तथा देवेन्द्रसूरिजी के प्रतिस्थापित युवराज हैं । इस पर श्री विजयराजेन्द्रसूरिजीने कहा कि धरणेन्द्रसूरि में गच्छमर्यादा से कहीं अधिक शैथिल्य प्रमाद आ गया है । मैं यह सब सम्बन्धी के नाते सहन नहीं कर सकता । इस तरह आदर्श यति-समाज को भ्रष्ट होता हुआ तथा धर्म के नाम पर होते हुए अनौचित्य को नहीं देख सकता । गादीपति के लिये अनुचित व्यवहार उसकी योग्यता का और सारे
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