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प्रभाव गम्भीर, पाण्डित्य की महक दूर सुदूर वायु-वेग से फैल गई। दर्शक लोगों के संघ पाद-स्पर्श करने के लिये आने लगे। तप का माहात्म्य समझाने लगा। धर्म में श्रद्धा उत्पन्न होने लगी । बाह्याडम्बर से सर्वसाधारण को घृणा आने लगी। भूत-प्रेतोपासना मिटने लगी । धूर्त, लम्पट यति साधुओं की पूजा-प्रतिष्ठा एक दम घट कर शून्य पर आने लगी। आदर्श-पूर्वाचार्यों के समय की झलकसी सब को प्रतीत होने लगी। श्रीसंघ आपको कलिकाल-सर्वज्ञ कहने लगा। क्यों न कहें ? आप एक मात्र परम निष्ठयोगी थे। आपका संपूर्ण साधुजीवन उपकार में ही व्यतीत हुआ। जैनेतर समाज जो जैन-धर्म को एक साधारण धर्म वा संप्रदाय रूप से समझती थी उसके समक्ष ऐसा अनुकरणीय आदर्श उपस्थित किया कि वह समझने लगी कि जैनधर्म भी एक सारभूत सनातन धर्म है। आपने कितने ही अजैन जैन बनाये । जिनस्थानों में जैनधर्म मन्द-ज्योति होता जा रहा था, आपका स्नेह पाकर प्रज्वलित हो उठा। आपकी साधु-क्रिया बड़ी कठिन थी। आपने स्वयं अपने हाथ से २०० साधु बनाये होंगे, परन्तु इनमें से कठिनतया २०-२५ ही साधु आपके साधु-संघ में ठहर सके । शेष शिथिलाचारी होने से पड़ भागे । आपने १०० से ऊपर अंजनशलाकायें प्रतिष्ठायें करवाई। कितने ही ज्ञानभण्डार स्थापित किये जो आज मारवाड़ और मालवा में विद्यमान हैं जिनमें विविध
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