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और समाज की दयनीय परिस्थितिने इनको इतना गम्भीर चिन्तन-शील बना दिया था। द्वादश वर्ष के भी नहीं हुए थे कि आपने जैनधर्म का मर्म, उसकी वर्तमान परिस्थिति को अच्छी प्रकार से समझ लिया। लाल छिपाया ना छिपे, लाख करो किन कोय । विद्या, पावक, रूप, धन, ढक न सका नर कोय ॥१॥ ___परिजन सन्तुष्ट हो उसमें विशेषता ही क्या ?, इन के सद्गुणों की प्रशंसा, प्रतिभा की ज्योति, सद्विचारों की लहरी वायुवेग से फैलने लगी। इनके भावी जीवन की रूपरेखायें विकाश-प्राय प्रतीत होने लगीं। सब को नवनव आशाएँ होने लगी कि यह एक दिन जैन-समाज का मस्तक पुनः ऊपर उठायेगा और उसे जाग्रत बनायेगा। 'होनहार विरवान के होत चीकने पात ।' पर आपको ज्ञात होगा कि सुवर्ण को चमक सस्ते भाव नहीं मिलती है। उसे अग्नि में गिरना पड़ता है, तरल द्रव्य बनना पड़ता है, हथोड़ों की अगणित चोंटें खानी पड़ती हैं तब कहीं उसकी प्रकृतदशा का पता चलता है। रत्नराज अल्पवय में ही अनाथ हो गये । शिक्षा-दीक्षा की सब व्यवस्थायें अव्यवस्थित हो गई। गार्हस्थ्य चिन्ताओं की व्यग्रता से परिवेष्टित हो गये । पर व्यापार विनिमय व्यवसाय में इनका चित्त नहीं लगता था। इन्हें कुछ इतर मार्ग की ही सुन्दरतायें
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