Book Title: Meri Golwad Yatra
Author(s): Vidyavijay
Publisher: Devchandji Pukhrajji Sanghvi

View full book text
Previous | Next

Page 85
________________ विशेषतायें आकृष्ट कर रही थीं। उसी एक मात्र मार्ग में निधियें, सिद्धियें, सनिहितसी इन्हें प्रतीत होती थीं। जीवन का साफल्य, आत्मविकाश के उपकरण, परोपकार के अमोघ साधन, परात्पर ज्योति, अमरसुख सब इनको उसी मार्ग में दिखाई देते थे। इनके बालचरण भी इन्हें उसी मार्ग की ओर धीरे-धीरे ले जा रहे थे। सत्सङ्ग, साधु-समागम से इन्हें अपार प्रेम था। इनके प्राण को ऐसे ही समागम से रसानन्द मिलता था । ____ संवत् १९०२ में श्रीसौधर्मबृहत्तपागच्छीय आचार्यदेव श्रीमद्विजयप्रमोदसूरिजी का भरतपुर में पदार्पण हुआ । सरिजी अपने व्याख्यान में एक दिन संसार की असारता पर विवेचन कर रहे थे । रत्नराज भी श्रोतागणों की परिषद में संमिलित थे। सूरिजी के व्याख्यान का इन पर सचोट प्रभाव पड़ा। इन्हें अपने अभीप्सित मार्ग का मुख-द्वार उसी में जान पड़ा। ये उसके लिये ललक उठे । अपने ज्येष्ठ-भ्राता से आज्ञा पाकर श्रीमान् सूरिजी की निर्मल चरण-स्थली में जा उपस्थित हुए । मूरिजीने इन्हें इष्ट को पूरा करने का आश्वासन दिया। तदनुसार सूरिजी की सम्मति से उनके ज्येष्ठगुरु भ्राता श्रीमद्हेमविजयजीने रत्नराज को सकल श्रीसंघ के समक्ष वैशाखशुक्ला पंचमी शुक्रवार सं० १९०३ को यतिदीक्षा प्रदान की और इनका 'रत्नविजय ' नाम रक्खा गया । वास्तव में संसार के असार राज्य जीतनेवालों के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110