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श्रीगुरुदेव का उपकारमय जीवन ।
संसारमायावनसारसीरं,
ज्ञानाकरं वारिधियानकल्पम् । अज्ञानलोके नभजातसूरं,
राजेन्द्रसूरीशपदं नमामि ॥१॥ सज्जन-सभासदो!
विक्रमीय उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी के धूमिल तमसात् क्षितिज पर उदित हुए स्वर्णिम सूर्य की रश्मियों में अप्रकृत ज्योति थी, विशेष प्रकार की कर्मण्यता थी, विशेष सजीवता थी, विशेष मानवता और विशेष चेतना थी। संस्कृति का अवचेतन अंश इस अप्रकृत ज्योति से सहसा जगमगा उठा, उसकी आँखों में चकाचौंध उत्पन्न हो गई । वह चौंधिया गया । आकुल-व्याकुल हो उठा, उसकी अन्तर्वृत्तियों के नीरव तार झंकृत हो उठे । अभिलाषाओं, इच्छाओं के नीरस कण निझर उत्तुंग हो उठे । सारे संसार में अजीवसी हलचल मच गई। राजनीतिज्ञ, धर्मतत्वज्ञ, समाज-शास्त्रज्ञ, विज्ञानविद् सब की बौद्धिक वृत्तियें इस आलोक में स्नात, निम्न हो उठी। सब एक ही दिशा, एक ही कोण को चल पड़ी, झुक गई।
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