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आभूशाह, वाग्भट, वस्तुपाल-तेजपालं, पेथडकुमार, झांझनकुमार, आदि के नाम विशेष गण्य हैं। चरित्रों में, प्रबन्धों में, कथाकोशों में, रासों में, चोपाइयों में एवं तीर्थमालाओं में इनके संघ-निष्क्रमण की यशगाथा आज तक अमर रूप से विद्यमान है
और इतिहास का मुख समुज्वल कर रही है । इनके संघों में लाखों यात्री, हजारों मुनिपुङ्गम, एवं सहस्रों हाथी, घोड़े, रथ, पायदल साथ में थे। अपार खर्च, अपार द्रव्य-व्यय होता था। अब आप ही उन संघों के वैभव का, उनकी जनविशालता का एवं अपार प्रबन्ध और अपार परिग्रह का अनुमान लगा लीजिये और फिर इनसे जैनधर्म की उन्नति
१ इसके निकाले हुए संघ में ७०० जिनालय, १५१० जिनप्रतिमा, ३६ आचार्य, ९०० सुखासन, ४००० गाडियाँ, ५००० घोड़े, २२०० ऊंट, ९९ श्रीकरी, ७ प्रपा, ७२ जलवाहक, १०० कटाह, १०० हलवाई, १०० रसोइया, २०० माली, १०० तंबोली, १३६ दुकानें, १४ लोहकार और १६ सुतार थे।
२ इसके प्रथम यात्रा संघ में २४ दंतमय-१२० काष्टमय चैत्य, ४५०० गाडिया, १८०० वाहन, ७०० पालखी ५०० पालुषिक, ७०० आचार्य, २००० साधु, ११ दिगम्बरमुनि, १९०० श्रीकरी, ४००० घोड़े, २००० ऊंट, ७ लाख भावकादि थे । उपदेशतरंगिणी ४ तरंग )
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