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वान् श्रीमहावीर के समय में जैनधर्म पुनः जाग्रत हुआ और भगवान महावीर का संपूर्ण तीर्थङ्करजीवन इसी के लिये हुआ। उनके निर्वाण के पश्चात् मौर्यवंशी शासकों में से अधिक जैनधर्मावलम्बी थे । जिनमें से सम्राट्-चन्द्रगुप्त एवं सम्राट्-संप्रति के नाम अधिक उल्लेखनीय हैं ! सम्राट्-चन्द्रगुप्तने भद्रबाहु की अध्यक्षता में तथा सम्राट् संप्रतिने आर्यसुहस्तिसूरिजी की तत्वावधानता में विशाल संघ निकाला था । जिसमें लाखों श्रावक, श्राविका एवं हजारों मुनिसमुदाय से आचार्य संमिलित थे। स्वर्ण-रजत के मन्दिर जिनमें रत्न, पन्ना, माणिक, स्वर्ण आदि की निर्मित प्रभु--प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित थीं। अगणित हाथी, रथ, चतुरंगसेन्य एवं अन्य वादन थे। तीन तीन कोश के अन्तर पर पड़ाव पड़ते जाते थे । जहाँ संघ का टिकाव होता वहाँ अमरपुरी बस जाती थी, देवमन्दिरों के घंटारव से वह पुरी देवलोक को भी लजित करती थी। भोजनशालाओं की बहु संख्यकता, दानशालाओं की अगण्यता, धर्मशालाओं की बहुलता एवं हाटमालाओं की प्रचुरता एक अद्भुत का ही आभाष देती थी। श्रीसंघ के दर्शनार्थ आनेवाले अपार जन-सागर के योग से वह पड़ाव एक जनोदधि
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