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के समान प्रतीत होता था। ऐसा मालूम पड़ता था कि समस्त संसार एक ही स्थल पर एकत्रित हो गया है। श्रीसंघ का वैभव, संसार की असारता को नष्ट कर रहा है, रंकता को उन्मूलित कर रहा है
और बचे हुए हीन एवं दीनों को संपन्न बनाने की प्रत्येक चेष्टा कर रहा है। श्रीसंघ की ऋद्धि एवं संपन्नता का अनुभव वह ही कर सकता है जिसने उसे देखा हो या वैसी कल्पना करने की शक्ति रखता हो। ऐसे संघ एक ही नहीं, अनेक निकल चुके हैं जिनका ऐतिहासिक दृष्टियों से अपार महत्व है। सम्राट्-विक्रमादित्य सम्राट्-खारवेल, महाराजा-कुमारपाल आदि की तीर्थ-यात्राओं का भी ऐसा ही वैभव एवं गौरव रहा है। __मंत्री, श्रेष्ठि, और शाहों में से भी अनेकने अभूतपूर्व, अश्रुत श्रीसंघ निकाल निकाल कर अपने द्रव्य एवं वैभव का सदुपयोग किया है। इनमें जावड़शाह, कर्माशाह, जगडूशाह, विमलशाह,
१ सिद्धसेनदिवाकर की अध्यक्षता में विक्रमादित्य के निकाले हुए संघ में ६६९ चैत्य, ५००० आचार्य, १४ मुकुटबद्धराजा, ७ लाख श्रावककुटुम्ब, १ क्रोड १० लाख ९ हजार गाड़ियाँ, १८ लाख घोड़े, ७६०० हाथी और क्रोड़ों पदाति, एवं हजारों रसोइया थे । (श्राद्धविधिटीका ५ वां प्रकाश )
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