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अब भारत के इतर प्रदेशों में जैन-आबादी नाम मात्र को शेष रही है और इनमें भी मुख्य मरुस्थलप्रदेश है जहाँ जैन-आबादी अधिक है। मालवा एवं गुजरात के तथा राजपूताने के शेष प्रान्तों के जैनबन्धुओं में सभी अधिकांश बन्धु मरुस्थल-प्रदेश के प्रवासी हैं। मुख्यतया ओसवाल, श्रीमाल एवं पोर वाल ये बन्धु तो मूल-निवासी मरुस्थल के ही हैं।
भगवान महावीरस्वामी के कछ ही वर्षों पश्चात आचार्य स्वयम्प्रभसूरि एवं आचार्य रत्नप्रभसूरि का पदार्पण मरुस्थल-प्रदेश में हुआ। आचार्य स्वयम्प्रभसूरिने श्रीमालपुर ( भीनमाल ) के राजा को बोध देकर जैन बनाया और राजा के साथ अन्य उच्च वर्ण भी जैन बने जो श्रीश्रीमाल एवं प्राग्वाटवंश से बननेवाले जैन पोरवाल कहलाये। तत्पश्चात् आचार्य रत्नप्रभसूरिने उपकेशपुर के महीप को प्रतिबोध देकर जैन बनाया और उस नगर के अधिकांश निवासी भी विशेष कर ब्राह्मण, क्षत्रीय, एवं वैश्य सब के सब आपके उपदेश को श्रवण कर जैन बने और ओसवाल कहलाये । बाद में मरुस्थल में जैनाचार्यों का आवागमन निरन्तर होता ही रहा और इस प्रकार जैनानुयायियों की गणना बढ़ती ही गई । यहाँ तक कि मरुस्थल का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com