Book Title: Meri Golwad Yatra
Author(s): Vidyavijay
Publisher: Devchandji Pukhrajji Sanghvi

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Page 20
________________ लोभ, मोह, माया, अज्ञान, प्रधान बन गये थे, स्वार्थ की एक मात्र परिधि में हमारा जीवन जी रहा था, अब यात्रा के समय हमारे उसी मानस में कषाय, क्लेश, लोभ, मोह शिथिल एवं मन्द पड़ जाते हैं और परोपकार, धर्माचरण, एवं सदाचार के भाव जाग्रत बन जाते हैं जो हमारे कर्मबन्धन को ढीला करनेवाले, उसे काटनेवाले हैं। यह देखा गया है कि जो मनुष्य घर पर कोड़ी कोड़ी का लेखा रखता है, न खाता है और न व्यय करने देता है, वह ही पुरुष धर्मतीर्थों की यात्रा के अवसर पर लाखों रुपये बहा देता है। कितने ही दीन, हीन उसकी दया से राव बन जाते हैं, सुखी हो जाते हैं । वह स्कूल, शफाखाने, अनेक समितियों में अपार धन प्रदान करता हुआ देखा गया है । इससे कितना महोपकार होता है इसकी अधिक विवेचना करने की आवश्यकता नहीं । कहने का तात्पर्य यह है कि तीर्थयात्रा पथोन्मुखीयों को पथ पर लाती है और हमें अपना कर्तव्य सुझाती है। हमारे में जो जागरुक होते हैं वे इस अवसर पर लाभ उठा जाते हैं और परमार्थ भी उपार्जन कर लेते हैं। इतिहास एवं मनोरंजन की दृष्टि से तो तीर्थयात्रा करना आवश्यक है ही, परन्तु पारमार्थिक लाभ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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