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चैत्यालयोंके दर्शन करनेसे भी उतना फल नहीं हो सकता है जितना शांत स्वभावसे और स्थिरचित्तसे एक मंदिरमें रही हुई मूर्तियों के दर्शन से हो सकता है, परंतु इसका यह अर्थ नहीं लेना कि एक ही मंदिरसे यात्रा समाप्त हो गई, क्यों कि जूदे जूदे मंदिरकी अंदर जानेसे उन मंदिरोंके दृश्यसे जूदे जूदे. कर्त्ताओं के इस पुण्यकार्यका अनुमोदन होगा इतना एक मंदि - रमें नहीं हो सकता तथा जूदे जूदे अभिवादन और स्तुतिका लाभ, कालिक शुभ भावनाकी विशेषता और इस धर्मनिमित्तमें शरीरके व्यायामसे होता हुआ पुण्य या निर्जरा आदि लाभोंसे विशेष पर्यटनसे विशेष लाभ होता है, ऐसे एक परमात्मा के अंतिम चरित्रावली तथा प्राग्भवों के स्तुत्यकार्योंको स्मरण करके उन कार्योंकी अपनेमें प्राप्ति करते हुए पूजन वंदनसे भी निर्वाण हो सकता है, और अनेक परमात्माके स्वरूपका विचार कर अपने में उस पवित्र स्वरूपका प्रवेश कराता हुआ पूजन स्तवनसे भी निर्वाण पा सकता है, मतलब परमात्माकी पूजा मोक्ष फलको देनेवाली है, परंतु एक अनादि सिद्ध ईश्वर है वो कभी जीव था ही नहीं, कदीमीसे-सदैव से ईश्वर ही चला आता है ऐसे बाह्यात् विचारों को ज्ञानीयों सें ज्ञान लेकर हृदयसे दूर करके जो संसारमें पूर्वके युद्धसंस्कारोंसे जन्मका अंत करके तीर्थकर भगवान् अंतिम जन्ममें तीर्थ प्रवर्ताते हैं, उन्हें प्रभु मानकर सेवनेसे ही मुक्ति शीघ्र मील जाती है, मगर शरत यह है कि इनके वचनों को सत्य मानकर मुक्तिके जो जो उपाय उनोने बतायें है उन उपायों पर सम्यक् प्रकारसे आरुढ होजाना
चाहिये.
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