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रसस्य तु घटं राजन् ! सम्पूर्ण स्वक्षवस्तु । तद्वत् संकल्पयेत् प्राज्ञ-चतुर्थाशेन वत्सकम् ॥ २ ॥ " इत्यादि ।
भावार्थ - रसकी गौके दानका विधान संक्षेपसे कहता हूं, लिंपी हुई तथा कृष्ण वर्णका चर्म और दर्भ जिसमें बीछाया है ऐसी भूमीमें इक्षुरसका घडा रखना, इसी तरह बुद्धिमान् चौथे भागमें बछडेकी कल्पना करे ॥ १-२ ॥ इत्यादि रसकी गौको देनेकी विधिमें भी सोनेके सींग वगैरहका वर्णन आता है, मतलब ब्राह्मण लोगोंने सुखसे आजीविका चलानके लिये गृहव्यवहारमें जिन जिन वस्तुओंकी जरूरत पडती है उन सब वस्तुओंका दान लिख मारा है, देखो १०२ और १०३ वे अध्यायमें गुडधेनु और शर्कराधेनुका दान देनेका जिकर है, - एक ठिकाने गौकी आंखें सच्चे मोतीकी बनानी लिखा है, १०४ से ११२ वे अध्याय तक सिर्फ लोभका ही पोषण करनेवाला उल्लेख किया गया है.
इसके बाद इसी पुराण के ११९ वे अध्यायमें अमुक अमुक वस्तुके चढानेसे मैं खुश होता हूं ऐसा बराहजी कहते हैं, तथा हि
" एतानि प्रतिगृह्णामि, यच्च भागवतं प्रियम् । मार्गमांसं वरं छागं, शासं समनुयुज्यते ॥ १२ ॥ "
“ भागो ममास्ति तत्रापि, पशूनां छागलस्य च । माहिषं वर्जयेन्मह्यं, क्षीरं दधि घृतं ततः ॥ १४ ॥ "
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