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समझ मए कि दर असलमें यह नोवेल जैनधर्मगत द्वेषको शत करनेके लिए ही घनश्यामने बनाया है. मैं उन लोगोंको सत्यमार्गफी तरफ आकर्षित कर सका यह आपकी कृपाका ही फल है. आपके पास अनुभूत लाभके वर्णनके लिये ही इतना बोल कर आपका अमूल्य समय लिया सो क्षमा करें और आगेका हाल सुना कर दासको कृतार्थ करें..
सूरीश्वरजी- तुम अन्य भाईओंको समझा कर ठिकाने पर लाये सो ठीक किया. 'पाटणनी प्रभुता' नामके नोवेलके बकानेवालेने सच्चे जैनधर्मका अनुमोदन तो क्या करना था परंतु जतिकी कल्पित बारत लिख कर सच्चे धर्मको लघुता करनेका साहस किया है. सो मिथ्यात्वशल्यके कारनसे समझना. यह शल्य विपरीत ज्ञान कराता है. अर्थात् इसके उदयसे पूर्वोक्त दूषणवाले देवको परमात्मा कहते हैं और वीतराग जिन प्रभुको परमात्म स्वरूप नहीं मानते. अरे ! मानना तो दूर रहा मगर कितनेक अज्ञानी उस पवित्रप्रभुके लिये भी यद्वा तद्वा लिख मारते हैं सो उनके दुर्भाग्य का पूर्ण उदय है. इस पुस्तकको इसी लिये लिख रहे हैं कि-इसके पठनसे जीवोंका मिथ्यात्वशल्य दूर हो जावे. ___ श्रावा-साहित्र ! मिथ्यात्वशल्यको किसी उदाहरणसे घय कर बतलाईये और उस शल्यके होनेसे कैसी दुर्दशा होती है ? सो फरमाईये.
सूरीश्वरजी-देखिये ! मिथ्यात्वशल्य किस तरह दुःखदायी होता है उसका एक दृष्टांत द्वारा फोटो खींचता हूं.
किसी आदमीके पास प्रथम बहूत धन था परंतु पीछेसे भाग्यने पलटा खाया और आहिस्ता आहिस्ता सब धन नष्ट
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