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* आत्मकमल-जैन-ग्रंथमाला-पुष्प-११ *
"मत-मीमांसा
(प्रथम-भाग)
with
संग्राहकशुद्धधर्मप्ररूपक-जैनाचार्य श्री १००८ श्रीमद्-विजयकमलसूरीश्वरजी महाराज ।
- संयोजकजैनरन-व्याख्यानवाचस्पतिश्रीमान् लब्धिविजयजी महाराज ।
प्रकाशकश्री महावीर जैन सभा
खंभात।
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प्रथमावृत्ति
कोपी-१०००
वीर संवत् २४४७ । विक्रम संवत् १९७७ ॥
। मूल्य। सवा रुपया
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प्रकाशक
शाह अंबालाल जेठालाल
सेक्रेटरी
महावीर जैन सभासंभात ।
4
मुद्रक -
पटेल मणिभाई मधुर भाई गुप्ता आर्यसुधारक- प्रेस | रावपुरा - वडोदरा |
( ता. २४-१०- १९२१ )
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10
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न्यायाम्भोनिधि श्री १००८
"जैनाचार्य न्यायांभोनिधि श्रीमद्विजयानंदसूरि
(आत्मारामजी ) महाराज"
"श्रीमद्-विजयानन्दसूरीश्वरजी।"
( आत्मारामजी महाराज)
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न्याय|म्भोनिधि - श्रीमद्विजयानंद सूरिव
66
गुणस्तुत्यष्टकम् ।
सग्धरावृत्तम् ।
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संसारापारवार्द्धं भविकभवभृतां मज्जतां यानपात्रं,
यः प्राणिप्रार्जितानां भवभवतमसां कर्मणां सूर्यरूपः ।
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नाशे खैर्मुष्यमाणं चरणधनघनं मोचितं येन नित्यं,
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१३
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श्री आनन्दा हसू रिर्भवतु स भवतां नित्यमानन्दहेतुः ॥ १ ॥
यस्य प्रज्ञानभानोः किरणसमुदायान्नाशवन्तोऽन्धकाराः, पङ्काश्रान्त्यैव जाताः कृतकुगतिमुखा मुक्तिमार्गे प्रसन्नाः । सर्वे प्रज्ञाः प्रणेश हरय इव हरेर्यस्य संवित्स्वनेन,
श्री आनन्दा इरिर्भवतु स भवतां नित्यमानन्दहेतुः ॥ २ ॥ नष्टो यस्मात् स मोहो भुवि दिवि नरके यस्य राज्यं प्रचण्डं, यस्य क्रोधादयस्ते प्रबलभटगणा घ्नन्ति तद्वैरिणे । ये । यस्याज्ञाऽलोपि तस्मान्नसुरनरवरै राजराजोऽस्ति योऽत्र,
श्री आनन्दाह सूरिर्भवतु स भवतां नित्यमानन्दहेतुः ॥ ३ ॥
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परिवा वाणी यदीयां परिभवितसुधां कर्णतो भव्यजीवाः, नैर्मल्यं प्राप्य जग्मुः परमपदपथं वासनावासितान्ताः ।
यास्यंत्यग्रेऽपि केचितिमिरभरहरान् यस्य ग्रन्थान् पठित्वा, श्रीआनन्दाहरिर्भवतु स भवतां नित्यमानन्दहेतुः ॥ ४ ॥
यस्यास्योल्लासिपने परिभवितकजे वेष्टिते सद्विरेफैलष्टे वासं विधत्ते धृतकरकमला सर्वदिग्वासयन्ती ।
देवी श्रीशारदा सा सुजनसुखकरा नित्यमानन्दपूर्णा, श्रीआनन्दाहरिर्भवतु स भवतां नित्यमानन्दहेतुः ॥ ५ ॥ __ यस्मादुद्धारभाजो महदवटभवात् प्राणभाजो बभूवुः, पुंसो रज्जूपमाद्वै विदलितदुरिता देवदैश्च पूज्याः ।..
चेलुर्मुक्त्याख्यमार्गे चरणपदधरा मुक्तिरामाप्तुकामाः, .. श्रीआनन्दाहरिभवतु स भवतां नित्यमानन्दहेतुः ॥ ६ ॥ ... यस्यार्त्तत्राणकार्यात् सुरनरविभुभिः कीर्तिरुद्गीयतेऽत्र, दीनानां प्रार्थनायाममरतरुसमः पार्श्ववर्त्यङ्गभाजाम् । __धर्मध्यानस्य कर्ता विशदगुणधरो मुक्तिमार्गेनिषण्णः, श्रीआनन्दाहमूरिभवतु स भवतां नित्यमानन्दहेतुः ॥ ७ ॥ ___शस्यं यस्यास्यमासीद्रविरिवविमलं बोधयत् सत्सरोज, चित्रं तापाद्धि रिक्तं नृदिविजशरणं प्राणिनां पङ्कहारि ।
सस्यं कल्याणरूपं निजकिरणगणैर्वर्द्धते स्म प्रवेगात् , श्रीआनन्दाहमूरिर्भवतु स भवतां नित्यमानन्दहेतुः ॥ ८ ॥
" सुरिश्रीकमलाख्यस्य, चरणोपासनया मया। घालेन लब्धिविजयेन, रचितमिदमटकम् ॥ ९॥"
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जैनाचार्य श्री १००८- -
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जैनाचार्य - श्रीमद्विजयकमलसूरिवर्य्य
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गुणस्तुत्यष्टकम् |
66
शिखरिणीवृत्तम् ।
सुरारातिक्षुब्धाऽमरमथितपीयूषजलधिपरिस्फूर्जत्तुङ्गोर्मिरुचिरुचिरं यस्य वचनम् । जनानामाल्हादं हृदि वितनुते तं गुणनिधि, सुभक्त्या वन्दे श्रीविजयकमलाचार्य मनिशम् ॥ १ ॥ क मे स्वामी धन्यः सकलजनचेतः सुखकरः,
व ते नाथः क्रूरो निखिलजनता खेदितमनाः । प्रतापौ संवादं तनुत इति यस्यापि च खेः, सुभक्त्या तं वन्दे विजयकमलाचार्यमनिशम् ॥ २ ॥ ' निशाधीशज्योत्स्नानिवहविशदेलाधरशिरःक्षरद्गङ्गावेला पटलविमलं यस्य वचनम् । सुभक्तानां नाशं नयति नितरां कल्मषचयं, सुभक्त्या तं वन्दे विजयक्रम लाचार्यमनिशम् ॥३॥
--
समुद्रं गाम्भीर्यात्तरणिमपि तेजोभिरनधैहिमांशुं वाक्च्छैत्याद्विमलधिषणातः सुरगुरुम् ।
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यशोभिर्दिङ्नागान् व्यजयत मरालं च गतिना, सुभक्त्या तं बन्दे विजयकमलाचार्यमनिशम् ॥४॥
. हिमक्ष्माभृत्पुत्रीचरणनतभूतेशमुकुट-... पतद्गङ्गाधाराभरधवलबालेन्दुकररुक् ।
यशो विश्वे यस्य स्फुरति सततं तं श्रुतनिधि, सुभक्त्या वन्दे श्रीविजयकमलाचार्यमनिशम् ॥५॥
सुरालीसंकल्पस्फुरदमरधेनुस्तनयुग- . क्षरत्क्षीरश्रेणीरुचिरुचिरमाभाति वचनम् ।
यदीयं विश्वेऽस्मिन् सकलसुखसन्तानजननं, सुभक्त्या तं वन्दे विजयकमलाचार्यमनिशम् ॥६॥
शिवास्वामिस्फूर्जन्मुकुटरजनीनाथकिरणवितानोद्योतिश्रीस्फटिकशिखरस्पर्द्धि सुतराम् । __ यशो यस्यात्यन्तं धवलयति दिङ्नागनिकर, सुभक्त्या तं वन्दे विजयकमलाचार्यमनिशम् ॥७॥
नवीनादित्यांशुस्फुटबलभिदाशाक्षितिधरशिरःस्मेराशोकाङ्कुनिकरविभ्राजि जगति ।
पुनीते भव्यान् यच्चरणकमलद्वन्द्वममलं, सुभक्त्या तं वन्दे विजयकमलाचार्यमनिशम् ॥८॥
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“ गुणश्रीपाथोधेरमरविजयस्याऽमलमतेः, क्रमाम्भोरुट्सेवाकरणचतुरो हृष्टहृदयः ।
हयाश्वाकेन्द्रद्वे(१९७७)चतुरविजयः पावनहृदोऽकृताऽऽचार्यस्य श्रीविजयकमलस्याऽष्टकमिदम् ॥ ९॥" .
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उपाध्यायजी श्री १००८-८
S " श्रीमदू वीरविजयजी महाराज।"
SarswatiP, Press, BARODA.
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उपाध्याय - श्रीमद्-वीरविजयमुनिपुंगव —
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गुणस्तुत्यष्टकम् ।
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शिखरिणीवृत्तम्
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भवोदन्वन्मज्जद्भविजनतते रक्षणकृते, श्रियोपेतं जन्माश्रयत विबुधासेव्यचरणः ।
गजाभ्रङ्केन्द्रद्वे(१९०८) हरिखि मुनिर्यः क्षितितल, उपाध्यायं वन्दे तमनुदिवसं वीरविजयम् ॥ १ ॥
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यदीयं सौभाग्यं शुभमकथनीयं च वचसा, यदीयं वैराग्यं त्रिभुवनजनाश्चर्यजनकम् । यदीयं सद्भाग्यं भवजलधिनिस्तारचतुरमुपाध्यायं वन्दे तमनुदिवसं वरिविजयम् ॥ २॥ गृहं कारागारं मनसि युवतिं बन्धनमिव, विभाव्याशु त्यक्त्वा कनकनिकरं लोष्ठमिव यः ।
व्रतं लेाऽग्न्यशशि (१९३५) शरदि प्रोज्ज्वलतपा, उपाध्यायं वन्दे तमनुदिवसं वीरविजयम् ॥ ३ ॥
कलाकेलिस्थानं सुमतिनिलयं क्षान्तिसदनं,
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प्रतापस्य स्थानं वसतिममलां धर्म्मनृपतेः । गृहं सन्तोषस्याऽमलगुणततेर्वासभवनमुपाध्यायं वन्दे तमनुदिवसं वीरविजयम् ॥ ४ ॥ प्रबोधं भव्यानां दददमृतगुर्योऽमलकला, निवासस्तेजस्वी जगति विचरन् शुद्धहृदयः ।
हयाङ्गाङ्केन्द्वद्वे(१९५७)ऽलभत पदवीं नष्टदुरित, उपाध्यायं वन्दे तमनुदिवसं वीरविजयम् ॥ ५ ॥ पटिष्ठं सिद्धान्ते मुनिजनगरिष्ठं च विदुषां
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वरिष्ठं श्री श्रेष्ठं विमलगुणजुष्टं सुमनसम् ।
हरन्तं द्राघिष्ठां भवजलधिभीतिं भवभृतामुपाध्यायं वन्दे तमनुदिवसं वीरविजयम् ॥ ६॥ विहायाङ्गस्नेहं सकलजनताक्षामणविधिं, विधायानन्दाप्तो विमलतपसा यो गुणनिधिः ।
शराश्वाङ्कक्षोणिप्रमिति(१९७५) शरदि स्वर्गमगम दुपाध्यायं वन्दे तमनुदिवसं वीरविजयम् ॥ ७ ॥ यदीया ननर्त्तेन्दु किरणसमूहातिविमला, जगत्यां सत्कीर्त्तिर्भविजनहृदानन्दकरणी ।
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गुणाम्भोधिं विद्यालयममृतवाचं मुनिपतिमुपाध्यायं वन्दे तमनुदिवसं वीरविजयम् ॥ ८ ॥
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" अमरविजयपादाम्भोजभृङ्गायमान
तुरविजय एतत् पौषकृष्णस्य षट्याम् ।
रसमुनिनिधि चन्द्रे ( १९७६ ) ऽब्देऽष्टकं वैक्रमीये, दिनकरदिवसे सद्भक्तिरागाच्चकार ॥ ९ ॥
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जैनरत्न - व्याख्यानवाचस्पति
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श्रीमान् लब्धिविजयजी महाराज 2054
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जैनरत्न-व्याख्यानवाचस्पति-श्रीलब्धिविजय
७.1999
गुणस्तुत्यष्टकम्।
" शार्दूलविक्रीडितम् । "
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___ जज्ञे यस्य हि बालशासन इति ग्रामे प्रसिद्ध जनिः, मोती यजननी च यस्य जनकः पीताम्बरः श्रेष्ठिराट् । : ..... ___तं जैनागमतत्त्वदर्शिनमहो वैराग्यरङ्गाञ्चितं, भो भव्याः! प्रणमन्तु लब्धिविजयं व्याख्यानवाचस्पतिम्।१ ___नन्देष्वङ्कधराप्रमे स्थितवति श्रीविक्रमाद्वत्सरे, * दीक्षा संसृतिनाशिनी तु कमलाचार्यस्य पार्श्वेऽग्रहीत् ।
संयम्याक्षकदंबकं प्रतिदिनं धत्ते च यः सन्मतिं, तं भव्याः ! प्रणमन्तु लब्धिविजयं व्याख्यानवाचस्पतिम् ।२।
व्याख्यारञ्जितचित्तवृत्तिरखिलः संघोऽनघश्चैडरो, व्याख्यागिष्पतिरित्यदात् पदमलं यस्मै यथार्थ किल ।
रात्रीनायकसप्तनन्दवसुधावर्षे शुभे वैक्रमे, तं भव्याः ! प्रणमन्तु लब्धिविजयं व्याख्यानवाचस्पतिम् ।। __दुर्वार्यार्यसमाजयुक्तिपटलीविभ्रान्तचेतःस्थिति, जित्वा वादिसमूहमाप भुवने यः कीर्तिमिन्दूज्ज्वलाम् ।
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__ नानाशास्त्रसमुत्थयुक्तिनिवहै: प्रज्ञाजुषां संसदि, । तं भव्याः! प्रणमन्तु लब्धिविजयं व्याख्यानवाचस्पतिम् ।।
भक्ष्याभक्ष्यविचारशून्यमनसो धर्मेऽपि नास्थाजुषः, पीयूषोदरसोदरं श्रुतिपुटैर्यस्योपदेशं जनाः।
पीत्वानन्दममन्दमाप्य बहवो धर्मे स्थिरा जज्ञिरे, तं भव्याः ! प्रणमन्तु लब्धिविजयं व्याख्यानवाचस्पतिम् ।५।
यो दूर विषयान् जहाति तनुते धर्मोपदेशं नृणां, सम्यक् पञ्चमहाव्रतानि वहते धत्ते-सदा सन्मतिम् ।
भक्त्या समुरुसेवनां च कुरुतेऽधीते श्रुतं चाऽनिशं, , तं भव्याः ! प्रणमन्तु लब्धिविजयं व्याख्यानवाचस्पतिम् ।६।
अन्तःस्फूर्जदनल्पवारिविभवभ्राजिष्णुपाथोधर-.. निर्घोषं विफलीकरोति वचसां घोषो महान् यस्य वै। ..
नित्यं तं तपगच्छनाथकमलाचार्यस्य शिष्यं मुनि, भो भव्याः ! प्रणमन्तु लब्धिविजयं व्याख्यानवाचस्पतिम् ।
धीमाँस्तत्पदपद्मयुम्ममधुलिड् वादीमकण्ठीरवो, नानाशास्त्रसमुद्रमन्थनहरिर्विज्ञानिचूडामाणिः ।
विख्यातो मुलताननामनगरे मांसाशिनो बोधकः, भो भव्याः ! प्रणमन्तु लब्धिविजयं व्याख्यानवाचस्पतिम्।।
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कृतकर्मविनाशाय वासाय शिवसद्मनः
चतुरविजयेनैत–दकृताऽमलमष्टकम् ॥ ९॥"
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प्रस्तावना।
प्रिय पाठको ! मुझे पूर्ण विश्वास है कि, इस पुस्तकको पद और मध्यस्थ मनके जैनतर मनुष्य जरूर लाभ उठावेंगे. मगर पक्षपातसे पीड़ित पाठक खेदातुर बनेंगे यह बात भी विर्विवाद है. इससे इस पुस्तक बनानेमें लाभ हानि दोनों भासते हैं. फिर इस रचनासे क्या फायदा ? , यह प्रश्न जिज्ञासुके हृदयमें अवश्य. स्थान लेगा. परन्तु प्रथमसे ही इस विषयका मैं खुलासा कर देता हूं कि, जिससे निरर्थक प्रश्न पाठकोंके हुतयको रोक कर उन्हें नाहक उलझनमें ना डाले यद्यपि पक्षपातीको इससे खेद होगा परन्तु इसकी अपेक्षा मध्यस्थोंके लाभ पर ध्यान दिया जावे तो कई गुण ज्यादा है. जैसे सूर्यसे कितनेक रात्रिचर प्राणियोंको हरकत होती है, परन्तु उस ( सूर्य) से लाभ उठाने वालोंकी अपेक्षा के आगे हरकत तुच्छ है; सो ही हीसाब यहां समझ लेनेका है. क्यों कि, प्रस्तुत पुस्तकसे लाभ मुक्तिपर्यंत उठा सकते हैं. अतः हानिका हीसाब बहुत तुच्छ है. इस पुस्तक रचनेमें मुख्य हेतु यह है कि, ' ठक्कुर-नारायण विसनजी' आदि अनेक अन्य धर्मावलंबियोंके बनाये हुए पुस्तकों के देखनेसे मालूम हुआ कि, ये लोग सच्चे जैन धर्मपर नाहक कलंक चढ़ाते हैं और अपने मन्तव्यमें कितनी गड़बड़ है सो देखते ही नहीं. उनकी आंखें खोल देना यह भी हमारा फर्ज है. जैसे ठक्कुरने लिखा है कि,
જૈન સાધુઓએ તાંત્રિક ક્રિયાઓને સ્વીકારી ને મલીને જપ જાપ તથા માંસ બલિદાન આદિથી દેવી પિશાચ તથા વૈતાલ આદિની જારણ મારણ અને વશીકરણ આદિ સિલિ માટે સાધના કરવા માંડી.”
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( २ )
कर्मसे पूर्ण भरा गोभिल--गृहखसुत्र
देखिये ? कितने अन्यायकी बात है ?. जैनशास्त्रमें कहीं। ऐसा जिकर ही नहीं कि, जैनी तांत्रिकवादी बन गए थे. इस विषय में ऐसा असत्य लिखना और वैदिकधर्म जो तांत्रिक मत जैसे हुआ है; जैसे कि, इसी पुस्तकके अंतभागमें आदिके पाठसे साफ सिद्ध हो जायगा कि, जहां पर अमुक मंत्र पढ़ कर मांसकी बलि देना, अमुक मंत्र पढ़ कर गौको काट डालना, इस प्रकार चमडा उघडना ऐसे ऐसे अनर्थ सूचक लेख जिन वेद धर्मियोंके शास्त्रोमें होवे उस वेदधर्ममें तंत्रवादकी असर नहीं लिख कर दया पूर्ण न्यायदर्शक कल्याणकारी जैनशास्त्र माननेवाले जैनधर्मियोंमें तांत्रिक मतका असर लिखना क्या यह घोर पक्षपात नहीं है ? इससे ज्यादा और अन्यायी किसे कह सकते है. ऐसें अन्यायको देख कर उन लोगोंकी बुद्धि ठिकाने पर आवे, और मध्यस्थ वर्ग सत्यमार्गको स्वीकार करे इस भावनाके अलावा रंच मात्र भी किसी मतसे हमारा द्वेष नहीं है. अगर परमतवालों को थोड़ा भी स्वपर शास्त्रोंका ज्ञान होवे और स्वयं निष्यक्ष हो तो जैनमतके शास्त्रोंका बड़ा उपकार मानें जैसे तारीख - ३० नबेम्बर सन् १९०४ श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फरंस के तिसरे अधिवेशन पर बडौदेमें 6 लोकमान्य पण्डित बालगंगाधर तिलक ने जेनधर्मको उपकारक माना है. देखिये ! माननीय पहाशयका यह उद्गार है-" जैनधर्म अनादि है "
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" ब्राह्मणधर्म पर जैनधर्मकी छाप
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श्रीमान् महाराज गायकवाडने पहले दिन कोन्फरेंस में जिस प्रकार कहाथा उसी प्रकार अहिंसा परमो धर्म, इस उदार सिद्धांतने ब्राह्मण धर्मपर चिरस्मरणीय छाप ( मोहर) मारी है. यज्ञ यागादिकोंमें पशुओंका वध होकर जो ' यज्ञार्थ पशुहिंसा ' आजकल नहीं होती है जैनधर्मने
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यही एक बड़ी भारी छाप ब्रामणधर्मपर मारी है. पूर्वकालमें यज्ञके लिये असंख्य पशुहिंसा होतीथी. इसके प्रमाण · मेघदूत काव्य ' तथा और भी अनेक ग्रन्थोंसे मिलते हैं. रतिवेद ( रंतिदेव ) नामक राजाने यज्ञ कियाथा उसमें इतना प्रचुर पवशुध हुआ था कि, नदीका जल खूनसे रक्तवर्ण हो गया था. उसी समयसे उस नदीका नाम 'चर्मवती ' प्रसिद्ध है. पशुवध से स्वर्ग मिलता है. इस विषयमें उक्त कथा साक्षी है. परन्तु इस घोर हिंसाका ब्राह्मणधर्मसे बिदाई लेजानेका श्रेय (पुण्य) जैन के हिस्समें है. “ परन्तु ब्राह्मणधर्मपर जो जैनधर्मने अक्षुण्ण छाप मारी है उसका यश जैनधर्मके ही योग्य है. अहिंसाका सिद्धान्त जैन धर्ममें प्रारंभसे है
और इस तत्त्वको समझनेकी त्रुटिके कारण बौद्धधर्म अपने अनुयायि चीनियोंके रुपमें सर्वभक्षी हो गया है. ब्राह्मण और हिंदु धर्ममें मांस भक्षण और मंदिरापान बन्द होगया यह भी जैनधर्मका प्रताप है." " दया और आहिंसाकी ऐसी ही स्तुत्य प्रीतिने जैनधर्मको उत्पन्न किया है. स्थिर रक्खा है और इसीसे चिरकाल स्थिर रहेगा. इस अहिंसा. धर्मकी छाप जब ब्राह्मणधर्मपर पड़ी और हिंदुओंको अहिंसा पालन करनेकी आवश्यकता हुई तब यजमें पिष्ट पशुका विधान किया गया. सो महावीरस्वामीका उपदेश किया हुआ धर्मतत्त्व सर्वमान्य होगया और अहिंसा जैनधर्ममें तथा ब्राह्मणधर्ममें मान्य हो गई." इत्यादि अनेक बातें भाषणमें कहीथी देखिये ! जैन धर्मके विषयमें एक तरफ महानुभाव तिलकके उद्गार और एक तरक नवलराम, घनश्याम, ठकुरके उद्गार. जो इस भागमें मीमांसा करनेके लिये लिखे गये हैं मालम होंगा कि, मध्यस्थ और ममत्वस्थके हृदयमें कितना तफावत होता है. एक तरफ अमृत है तो एक तरफ हलाहल जहर है. खैर. मध्यस्थ मनुष्य हमारी इस महिनतसे फल उठावें यही अभिलाषा है.
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पाकोंको विक्ति रहे कि पर पाया विशेष बईम रूक जानेले इस पुस्तकको संयोजनामें बहुत मल्ल टाईम मिला है. जियाले अमवार शिकार प्रकरण, मांस प्रकरण, स्वार्थ प्रकरण, देव प्रकरण, आदि सुव्यवस्थि त रचना नहीं हो सकी है. इस बातका मुझे अफसोस है. आगेके भागाम क्रमवार रचनासे विभूषित इस पुस्तकको बनानी ' यह मेस खास विचार है और इस रिचारको अगर बनातो जरूर अमलमें रखने की कोशीश करूंगा.
जबतक इस पुस्तकके चारों भाग पादकोंकी नज़र मुवारकसे न गुजरे वहाँ तक किसी एक वरफी ख्यालसे अपने मनको मजबूर मत करना. पस. वही आखिरी मलामन है.
संयोजक..
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'परमगुरु-न्यायां निधि- श्रीमद्विजयानंद सूरीशेभ्यो नमः । "
मत-मीमांसा. ”
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प्रा
तःकालका परमशांत समय है, योगीजनो शांत योगोसे आत्मज्योतिमें मुग्ध हो रहे हैं, ज्ञानीजनो विशेष ज्ञानाभ्यासकी धूनमें लगे हुए हैं, रोगीयोंको भी कुछ एक शांतिका अनुभव हो रहा है, पक्षियोंकी मीठी मीठी गीत ध्वनि कर्णको आकृष्ट कर रही है, भोगीयोके भोगश्रमने उन्हें ऐसे पवित्र समय में भी अचेतन सा बना रक्खा है, पनिहारिएं द्रव्यजीवन के लिए शिरपर मटका उठाकर कूँओंकी तरफ जा रही हैं और कितनीक आरही हैं, श्रद्धाळु क्रियामन श्रावक श्राविकाएं प्रायः प्रतिक्रमण पूरा कर मंदि रोंमें दर्शनको जा रही हैं, जिनभवनों में मुनि आदि वर्ग मधुर स्वरसे चैत्यवंदन कर रहा है कितनेक ज्ञानाभ्यास के शोखी महाशय व्याकरण न्यायालंकार साहित्य सिद्धांतोंका अवलोकन कर रहे हैं, जमानेकी धूनमें फंसे हुए कितनेक दैनिक सप्ताहिक तथा मासिक पत्रोंके बर्के ( पाने ) उथला रहे हैं, शीत शीतं पवनका प्रचार हरएक कार्यो के करनेवाले मनुष्यों को मदद दे रहा है, वनस्पति जलसे तर हो रही है, ऐसे समय में
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(२)
एक श्रद्धालु श्रावक विश्वविख्यात जगदुद्धारक शुद्धधर्म प्ररूपक निस्पृहिशिरोरत्न न्यायांभोनिधि युगप्रधानक.
म श्रीमद्विजयानंदसूरीश्वर पट्टपूर्वाचल सूर्यसमान शासनप्रभावक श्रीमद्-विजयकमलसूरीश्वरजी महाराजके दर्शनार्थ आया हुआ है, मूरिजी अपने पवित्र करकमलसे लेखिनीरूपनली द्वारा आत्मविचारामृतको पुस्तकरूप कुंडमें बहा रहे हैं, इस अपूर्व परोपकारी कार्यमें दत्तचित्त मूरिजी महाराजसे वंदन स्तवन करके श्रद्धालु श्रावक प्रश्न करने लगा.
श्रावक-भगवन् ! आप यह क्या पुस्तक लिख रहे हैं? सुरीश्वर-यह इह लौकिक मान प्रतिष्ठाके पाने के लिये और अपनी सुखसे आजीविका चलाने के लिये भव्यजीवोंको मिथ्यात्वकूपमें उतारकर उनके सर्वस्वका हरण करनेवाले प्रपंची जनों के रचे हुए प्रपंचशास्त्रोंकी नोध ले रहा हूं कि जि. सके पठनसे कितनेक निष्पक्ष भव्यजीव उस अंधकूपसे बहार निकले.
श्रावक-स्वामिन् ! तब तो इसे पुस्तक ही नहीं बल्के उन जीवोंको बहार निकलनेमें असाधारण कारण नोंघरूप ग्रंथीवाला रज्जु-गांठोबाला दोरडा भी कह सकते हैं, अच्छा आप महेरबानी करके इसका कुछ हाल मुझे सुना सकते हैं ?.
सूरीश्वरजी-तुम पुण्योदयसे शुद्ध शासनके अनुयायियोंमें जन्मे हुए हों इस लिये कुलीन संस्कारसे ही तुम्हारी श्रद्धा शुद्ध तत्वोंकी ओर झूकी हुई है, इस लिये तुमको इन बातोंसे इतना विशेष फायदा नहीं जितना सरल मध्यस्थ
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(३) जिज्ञासु अन्यधर्मावलंबीको हो सके, मगर शुद्धधर्ममें स्थिरताकी विशेषतारूप फायदा तुमको भी मिल सकता है, कारण-अन्य धर्मके स्वरूपको विशेष जाननेसे हि उसकी बेहुदा बातें देखनेसे वीरशासनका विशेष गौरव मनःपथमें आता है, देखिये शिलांकाचार्य महाराज श्रीआचारांगसूत्रकी टीकामें इसी बातका साधक एक श्लोक फरमाते हैं,
" शिवमस्तु कुशास्त्राणां, वैशेषिकषष्ठीतन्त्रबौद्धानाम् । । येषां दुर्विहितत्वाद्-भगवत्यनुरज्यते चेतः ॥१॥"
भावार्थ-वैशेषिक सांख्य और बौद्धके कुशास्त्रों का कल्याण हो कि जिनके अंदर लिखे हुए अयौक्तिक वचनोंको देखकर भगवन् तीर्थंकर देवमें चित्त अनुरक्त होता है.
इससे यही साबित हुआ कि अन्य लोकोकी कुकल्पनाको देखकर सर्वज्ञ की वानीमें स्थिरता होती ह, वास्ते इस पुस्तक को सुननेसे तुमको भी अवश्य लाभ हो सकता है.
देवानुप्रिय ! प्राणीमात्रको प्रथम परमात्मस्वरूपका विचार करना चाहिये, क्यों कि स्वरूप समझकर ऐसे प्रभुको भावसे एक भी किया हुआ नमस्कार कोटिजन्मोंके पापका नाश करता है.
श्रावक-पूज्यपाद सूरि महाराजा ! कृपया परमात्मापद आदिका विचार करके इस सेवकको उपकृत करें, मै आपका कृतज्ञ होउंगा.
सूरिराज-श्रावकवर्य ! इस्में कृतज्ञ होनेकी क्या बात हैं ?, हमारा तो जीवन ही इसी लिये है कि किसी भी
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आत्माका धर्मोपदेश द्वारा सुधारा किया जावे, चाहे किसी जाति या कुलका हो, मैं तुमको जो कुछ सुनाउं मेरी फरज अदा करता हूं; कोई मेरा कृतज्ञ बनो ऐसी अभिलाषा मेरे दिलमें अद्यावधि किसी वख्त नहीं हुई तो इस वख्त कैसे हो सकती है ?, हाँ सिरफ इतनी तो सूचना अवश्य कर सकता हूं कि किसी योग्य पात्रको देखकर मेरी सुनाइ हुई बातें सुनानी और उसको सत्य मार्गकी तरफ झुकाना, एक भी जीवको धर्मकी प्राप्ति करानेवाला संख्यातीत पुण्य उपार्जन करता है और निष्काम भावसे निर्जरा भी कर सकता है, लो सुनो परमात्मपदका विचार, परमात्मपद अनादि है, कोईभी दिन ऐसा नहीं था जिस दिन परमात्मपद नहीं था, जैसे कोईभी ऐसा समय नहीं होता कि जिस समय यह दुनिया न हो, बस इसी तरह यह परमात्मपद अनादि है, अनजानपनसे कितनेक दुनियादार ऐसा मान बैठते हैं किएक अनादि परमात्मा है, जो अनादि कालसे परमशुद्ध है-और वह कभी भी जीवदशामें थाही नहीं, मगर यह बात विचारके बहार है, इस बातका पता परमात्मपदकी व्युत्पत्ति पर विचारकरनेसे निकलता है,-" परमश्चासौ आत्मा च परमात्मा "-मतलब परमरूप आत्मा इसमें 'परम' विशेषण है और 'आत्मा' उस विशेषणको धारण करनेवाला है, अब विचार करो कि किसी आदमीका नाम 'बिहारीलाल' है, पिछेसे वह, 'वकील' हुआ तो उसके नाम के आगे ' वकील शब्द लगानेसे 'वकील बिहारीलाल' ऐसा नाम बना, ऐसे ही केदारनाथ' नाम के मनुष्यने 'जजकी पदवी ' पासकी इससे उसके नामके आगे जज
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विशेषण लगनेसे ' जज केदारनाथ ' ऐसा नाम प्रसिद्ध हुआ, यहां पर ' वकील ' या 'जज' विशेषणोंके लगनेसे 'बिहारीलाल' या 'केदारनाथ' प्रथमसे सर्वथा भिन्न है ऐसा नहीं कहा जा सकता, इसी तरह अनादिकी अज्ञानताको छोडकर कर्मजंजीरके तोडनेसे ज्वाजल्यमान कैवल्यज्योतिका प्रकाश जिसके अंदर प्रकाशित हो गया है और अनंतशक्ति सम्पन परम सुख निधान बनकर जो परमनिर्मल आत्मा हो गया है, ऐसे पवित्र आत्माको परम विशेषण लगानेसे वह परमात्मा कहा जाता है, ऐसे जितने आत्मा बनेंगे वे सब ही परमात्मा कहे जायेंगे, एकही परमात्मा होवे और दुसरे न हो सके ऐसा कभी नहीं हो सकता; और आत्मासे सर्वथा भिन्न ही परमात्मा है ऐसा भी परमसे आगे रहा हुआ आत्मपद साबित नहीं होने देता. .
श्रावक-साहिब ! आपका कहना युक्तियुक्त है और हो भी ऐसे ही सकता है जैसे दुनियामें पुण्यसे अनेक महाराजा होते हैं, ऐसे अनेक परमात्मा भी पवित्रतासे हो सकते हैं एककोही पवित्रताका हक्क होवे और अन्यको नहीं यह दलील बिग्कूल वजुद वगरकी है, कारण के दुनियामें जैसे एकके शिवाय दुसरा अमुक दरजा नहीं पासकता है, ऐसे कहने वालेका वचन कोई नहीं मान सकता, कारण-जैसे पकने दरजा पाया ऐसेही साधनको पाकर दूसरे भी ऐसा दरजा पा सकते हैं, हाँ इतना जरूर हो सकता है कि कितनेक शक्ति आदि सामग्रीके अभावसे ऐसे नहीं भी बन सकते हैं, परंतु एक ही होवे यह बात ठीक नहीं, कितनेक हो सकते हैं और कितनेक नहीं भी हो सकते, जैसे भव्य और अभव्य के वर्गमें
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( ६ )
व्यवर्ग जीव मुक्ति पासकते हैं, अभव्य वर्गके जीवोमेंसे एक भी जीव मुक्ति नहीं पासकता है, परंतु जैसे कोइ कहे कि दुनियामें एकही घट बन सकता है तो यह बात जूठी है, कारण के संख्यातीत घट बन सकते हैं मगर शरत यह कि चिकनी मिट्टी होनी चाहिये, रेतीका नहीं बन सकता, इसी तरह संसार में भव्यात्मा निमित्त मिलनेसे अगर उद्यम करें तो परमात्मा बन सकते हैं, मगर रेतीकी तरह जो अभव्य होवे कदापि उस पदको प्राप्त नहीं कर सकते हैं, ऐसा होनेपर भी वे लोग एक ही ईश्वरको माननेमें क्या कारण कल्पते हैं, और जब ईश्वर जी की शुद्धदशा से हुआ माने तो फिर ईश्वरपद अना दिका है यह कैसे सिद्ध हो सकेगा ?.
मूरिशेखर - दूसरे लोग कर्मका स्वरूप नहीं समझनेसे जगत्का कर्त्ता हर्ताका तमाम झगडा ईश्वरके गले में डालते हैं, उन विचारोंको यह खबर नहीं है किं जगतका कर्त्ता ईश्वरको मानने से सब ईश्वर ही करता है ऐसा हुआ और इससे हजारों गायों जो कसाई के हाथसे मारी जा रही हैं, इनका मारनेवाला ईश्वर ही सिद्ध होगा, क्योंकि कसाईको बनानेवाला ईश्वर है, ऐसे ही बिल्ली चित्ता सिंह रींच्छ आदि जानवरोंको भी उनके हिसाब से परमात्माने ही बनाये ऐसा साबित होता है, अब विचार करना चाहिये कि उनके खरपेसे नाखून बनाकर हजारों चूहे और हीरण हाथी और गा बगाह - कभी कभी मनुष्योंके नाशका कारण ईश्वर सिद्ध होता है, यह एक बडा भारी दोष ईश्वरपर आरूढ होता है, और कर्महीसे सब कुछ बन सकता है तो फिर इस विषय में नाहक ईश्वर परमात्माको लपेटने से क्या फायदा ? उलटी उसकी भक्तिके बदले आशातना
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( ७ )
करते हैं, इस विषयका विचार आगे स्वतंत्र विस्तारसे सुनाया जायगा, यहाँ तो मात्र प्रसंगवश इतना कहना पडा, मतलब बे लोग ईश्वरको जगतका कर्त्ता मानते हैं, इस लिये उनको यह डर घूस गया है कि अनेक ईश्वर माने जावे तो जगत्की स्थितिमें फेरफार हो जावे, जैसे कोई ईश्वर कहेगा, मनुष्यको दो पांव देने हैं तो कोई कहेगा चार देने हैं, ऐसे पशुमें एक कहता है चार पांव बनाने हैं तो दूसरा दो कहता हैं, इस तरह से ज्ञघडा हो जायगा, वास्ते एक ईश्वरका होना ठीक है परंतु उनका यह विचार बुद्धिपूर्वक नहीं है, क्योंकि हजारो अज्ञान मक्खिएं मिलकर एक सुंदर छत्ता बनाती हैं तो क्या ईश्वर इनसेभी गये बीते हैं, दूसरा जो सर्वज्ञ होवे उनमें कभी भी वैमत्य - विरूद्ध मत नहीं होता तो फिर सर्वज्ञ ईश्वर में वैमत्य कैसे हो सकता है ? अरे ! मैं भूलताहू " मूलं नास्ति कुतः शाखा " जब जगत् कर्त्ता ही ईश्वर नहीं तो फिर बात ही क्या रही है, बस यही कारन है उन लोगोंने एक ईश्वरकी कल्पना करी है.
अब दूसरे प्रश्नका जवाब सुनिये -जो कि एक ईश्वर परमात्मा अनादि सिद्ध नहीं हो सकता तो भी ईश्वरपद अनादि बन सकता है, जैसे किसीने पूछा- सोना दुनिया में कबसे है ?, तो जवाब में कह सकते हैं कि अनादिसे है, कोइ दिन ऐसा नहीं था के सोना न हो, मगर जो सोना हुआ है सो खाणसे ही निकला हुआ है अमुक विशेष सोनेका प्रश्न हो कि यह कब से है ? तो इसके उत्तर में 'अनादिसे' ऐसा नहीं कह सकते किंतु आदिसे ही कहना पडेगा, ऐसे ही सामान्य परमात्मपद आ
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श्रित प्रश्नके जवाबमें अनादि मगर एक खासको लेकर प्रश्न होतो आदि कहना उचित होगा, मतलब-इस दुनिया कोई भी ऐसा दिन नहीं होता के सिद्धपद खाली हो या कोइ न कोइ तीर्थकर प्रभु न हो, इससे इश्वरपदकी अनादिता सिद्ध हुई, इस पदके पुण्यापुण्यकृत भेद होनेसे दो प्रकार होते हैं, एक तीर्थकर और दूसरे सामान्य केवली, वे दोनों ही देह छोडकर शिवस्थानमें गये पाद 'सिद्ध' नामसे कहे जाते हैं. प्रथम तीर्थकर भगवन् रूप परमात्माका भेद जबरदस्त पुण्योदयसे मिलनेसे ऐसे परमात्मपदधारी इस भरतभूमिमें वीश कोडाकोडी सागरोपम काल प्रमाण उत्सर्पिणी अवसर्पिणी रुप दो कालोमें चोइस २ होते है, सबब यह है कि- इससे अधिक जीव इतने जबरदस्त पुण्यवाले नहीं हो सकते हैं.
श्रावक-स्वामिन् ! इससे अधिक न हो सके इसमें तो ऐसा समाधान मान सकते हैं कि जैसे कठीन परीक्षाके पसार करनेवाले लडके बहुत थोडे होते हैं, और ऐसी डीग्रीएं मौजुद हैं कि जिस डीग्रीको वर्ष अमुक देश आश्रित एक ही पास करता है, परंतु किसी वर्ष में एकभी पास नहीं होता ऐसा भी हो जाता है, इसीतरह कभी चोवीससे कम क्यों न हो सके ?
सूरीश्वर-महानुभाव ! जैसे रात्रि दिवसके कालको एकत्र कर उसके घंटे-कलाक गिने जावे तो चोइस ही होते हैं कमोवेश नहीं होते, इसीतरह यह भी एक ज्ञानिदृष्ट ऐसा ही अनादिकालसे स्वाभाविक प्रचलित नियम है, कि एक अवसर्पिणीकालमें चोइस ही तीर्थंकर हो सकते हैं, इसस अधिक
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( ९ )
या कम नहीं, ऐसे ही उत्सापॅणीके लिये समझ लेना, तीर्थंकर मकी पदवीको पानेवाले जीव कितनेक जन्म पहिले जबरदस्त त्यागके धारी होते हैं, विकारोंको पुनः पुनः जलांजलि देते हैं, वीशस्थानकोंकी या उनमेंसे एकाद स्थानककी आराधना करते हैं, बुरे करनेवालों पर भी द्वेष नहीं करते, उलटा इनकी क्या गति होगी ? इत्यादि भावदया विचारते हैं, ऐसे अनेक भवोंके शुद्धसंस्कारसे तीर्थंकरपद प्राप्त होता है, और तीर्थकरके जीवोंकी करणी भी ' त्रिषष्टिशला कापुरुष for 'देखो कैसी अद्भूत होती है?, इसतरह राग द्वेषसे रहित परमपवित्र जगत् विकार शून्य होनेसे केवलज्ञानकी ज्योतिः जिसमें प्रकाशित हुई है ऐसे परमात्मा ही पूजन करने के लायक होते हैं, दूसरे सामान्यकेवलीप्रभु वे तीर्थंकरप्रभुसे पुण्याइमें कम होते हैं, मगर ज्ञानमें फरक नहीं होता है, उभयका ज्ञान सामान है परंतु तीर्थंकर भगवान्की मधुर मालकोश रागमें देशना योजनतक सुनाई देती है, और जघन्यसे भी कोटि देवता निरंतर जिनके चरणोंकी सेवा करते हैं, और रूप ऐसा अद्भुत होता है कि इन्द्रकारुप भी इनके आगे तुछ मालूम पडता है, हमेशह अशोक वृक्ष, देवोंकी तर्फसे फूलांकी वर्षा, देवोंकी जयनादरूप ध्वनि, चमका विझाना, रत्न स्वर्ण रजतके तीन कोट सहित सिंहासनपर विराजमान होकर देशना देना, इत्यादि आठ महापातिहा का होना इत्यादि अनेक पुण्याइको नतीजे तीर्थकर प्रभुमें होते हैं, सो सामान्य केवलीमें नहीं होते, शासन के प्रस्थापक तीर्थंकरप्रभुं होते हैं, अतः वे प्रथम नंबर में उपकारक माने जाते हैं, और सामान्य केवली में वे पुण्यके
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(१०) चिह्न नहीं होते, ज्ञानमें कम नहीं, ऐसे सामान्यकेवली एक कालमें इतने ही होवे ऐसा नियम नहीं है, इस प्रकार अतीत-गयेहुए कालमें अनंत तीर्थकर हो चुके हैं, और अगामी-आनेवाले कालमें अनंत होंगे, इस तरह ईश्वर जीवसे बनते हैं मगर एक अनादि नहीं होता, पद आनादि हैं, इनमेंसे चाहें जिसका भजन करो बेडा पार होजायगा.
श्रावक-महाराजश्री ! आपका फरमान सत्य है परंतु एक इश्वरवादिओंके मनमें ऐसे समाया हुआ है कि अनेक परमात्मा जगतका आधिपत्य कैसे कर सकते हैं?, एकके हाथमें दुनियाकी लगाम रहे तो ठीक नहीं तो काम नहीं चल सकता, सब मिलकर गरबड कर देगें और सबसे बड़ा तो एकहोका होना ठीक है.
मूरीश्वर-भाई ! प्रथम तो उन लोगोंको जगत्की मायाका काबू परमात्माके हाथ है, ऐसा विपरीतज्ञान हुआ है, जगत् के किसी भी जंजालमें परमात्माका हाथ नहीं है, जीव अपने कर्मोंसे सुख दुःख स्वयं भोग सकते हैं, अगर ऐसा कोई कहे कि जडकर्म सुख दुःख कैसे दे सकेंगे ?, तो उनको विचारना चाहिये कि जैसे अफीम जड है मगर जो खाता है उसे स्वयं मारता है, तीसरेकी जरुरत नहीं. ऐसे ही जो पुष्टि कारक औषध लेता हैं, वह स्वयं पुष्ट बनाता है, जैसे उपरोक्त जड पदार्थ सुख दुःख स्वयं दे सकते है, ऐसे सब बातें किये हुए कर्मसे बन सकती है, तो फिर ईश्वरको बिचमें डालनेसे क्या मतलब?, और जब ईश्वर बिचमें होवे तो कमें करते ही क्यों न रोके ?, जब रोकनेकी शक्ति होवे
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( ११ )
और न रोके और पिछेसे दंड देवें तो वह अन्यायी क्यों न कहा जावे ?.
श्रावक - स्वामिन्! आपका कथन ठीक है कि कर्म करते वख्त समर्थ होकर न रोके और पीछेसे दंड देवें वह न्यायी नहीं हो सकता है, परंतु एक यहभी युक्ति उन striat are पेश होती है कि कोई चोर चोरी करता है, तो वो स्वयं जेल में नहीं जाता या खुनकरनेवाला अपने आप फांसी नहीं चढता मगर राजा देता है, इसीतरह तरह परमात्मा दंड देनेवाला होना चाहिये, क्यों कि कर्म जड है और चेतन दुःखी होना नहीं चाहता, तो फिर दुःख कैसे होगा, और कर्म कैसे भोगे जायेंगे?, तथा वह नरकादिगतिओमें अपने आप कैसे जायगा..
.
सूरश्विर - जीव स्वयं दुःखी होना नहीं चाहता यह बात ठीक हैं, मगर कर्म दुःख दिये वगैर नहीं रहता, जैसे खाया हुआ अफीम दुसरेकी वगैर अपेक्षा रक्खे, जीवकी ईच्छा विरुद्ध इसका प्राण लेता है, ऐसे जीव के किये हुए कर्म किसीकी अपेक्षा वगैर आत्माको दुःख दे सकता अशुभ है, जैसे पापके उदयसे कसाई के हाथमें फसा, और वहां मारा गया, और दब कर मर गया, मकान गिर गया, घाडमारुओंने वैरसे काट डाला, बतलावो ? यहां पर परमात्मा कहाँ दंड देने आता है, ऐसे ही लडका मर गया, धन चोरा गया, इत्यादि अनेक कष्ट अशुभ कर्मोंसे संसारिक निमित्तोद्वारा ही जीव भोग सकता है, अगर उन कसाई लुटारें घाडमारु आदिसे जो दुख होता है वहां ईश्वरकी प्रेरणा है ऐसा माने
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(१२ ) तो कसाईद्वारा जो गायें काटी जाती है उस पापकर्मका करानेवाला परमात्मा ठहरे, और कसाई निर्दोष हो जावे, तथा * उसकी दुर्गति न होनी चाहिये परंतु ऐसे होता नहीं है.
एक वैरीने एक शत्रुको काटा उस वख्त मरनेवालेको महावेदना हुई यह अशुमकर्मका दंड है, बतलाईये? यह ईश्वरने दिया या वैरीने दिया ?, अगर ईश्वरने दिया ऐसे माने तो फिर वह मारनेवाला सरकारसे फांसी चढाया जाता है, सो ऐसा न होना चाहिये और ईश्वरको बचा लेना चाहिये, परंतु शत्रुको मारनेवाले शत्रुकी फाँसी आंखोसे देखी जाती है, बस साबित हुआ कि दुनियाई निमित्तोंसे ही कर्मोदयके समय फल भुगतनेमें आता है, अगर ईश्वर दंड देवें तो फिर कर्म करते. ही क्यों न रोके ?, वास्ते ईश्वर इन मामलोमें नहीं पड़ता, अब बात रही दुर्गतिमें जानेकी सो तो जीव जिस गतिका आयुष्कर्म बांध लेता है वे आयुष्कर्मके पुद्गल और जिस गतिमें जाना है उस गतिके पुद्गलोंमें लोहचुंबक-मकनातीशक और लोहे जैसा संबंध होनेसे उसगविका आयुष्य पूरा होते ही उस गतिके पुद्गलोंसे जीव लोहकी तरह खींचाता है, और एकदम ईच्छा हो चाहे न हो उस गतिमें दाखिल होना पडता है, बस, इत्यादि बातोंसे ईश्वरमें जगतका व्यवहार चलानरूप आधिपत्य साविक नहीं हो सकता है, हाँ, परमपवित्र ईश्वरपद भोगनेवाले अतिनिमल अनंज्ञान अनंतदर्शन अनंतसुख अनंतवीर्य आदि गुणके धारक लोकाग्रपदके निवासी होनेसे वे जगत्के पार होनेमें संपूर्ण निमित्त बनते हैं, इससे वे दुनियाके सक्जीकोंके उपासना करनलायक होनेसे मालिक हैं, और जन्म मरणके चक्रसे छूटे
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(१३) हुए होनेसे स्वतंत्र स्वामी वेही कहे जा सकते हैं, उनकी उपासनासे आत्मामें पवित्र भावना उठती है, और वह पवित्र भावना कममलको धोकर आत्माको मुक्तिपर पहुंचाती है, इस लिये वें उपासना करनेलायक है, उनके निमित्तकारणके विना मिले जीव कदापि मुक्तिको हांसल नहीं कर सकता है, इसलिये ईश्वरपरमात्माकी खास आवश्यकता है, परंतु दुनियाके अघडोंमें ईश्वरका हाथ माननेवाले बढी भारी भूल करते हैं, और ईश्वरको इन झघडोंसे जूदा माननेवाले जैनियोंसे द्वेष करते हुए पवित्र परमात्माके स्वरुपको माननेवाले जैनियोंको अनीघर वादी आदि विशेषण देकर अनेक जन्मोंमें अज्ञान भावकी वृदि ही वृद्धि होती रहे और सत्यमार्गसे दूर ही होते जावे ऐसे पापकर्म उपार्जन करते हैं, अस्तु,-" विचित्रा गतिः कर्मणाम् " यानी कर्मोंकी गति विचित्र है, मिथ्यात्वकी स्थिति जहां तक जोरो शोरसे चल रही है वहां तक ये सच्चे तत्व भी उंटको प्राक्षाकी तरह पसंद नहीं आतें, इन बातोंसे सावित हुआ कि परमात्मामें जगत्का व्यवहार चलाने रुप आधिपत्य नहीं है तो फिर अनेकपरमात्मा होनमें उनको हरकत ही क्या रही ?, नाहकमें एक है एक है ऐसा.. पूकार करनेसे क्या फायदा ?.
श्रावक-भगवन् ! अनेक तीर्थकर प्रभुओंमें खास एकका ध्यान करनेसे कल्याण हो सकता है या सर्वके ध्यानसे १.
सूरीश्वर-महाशय ! चाहे एक परमात्माका अवलंबन ले चाहे विशेषोंका, कल्याण चित्तकी स्थिरता और उनके गुणोंकी अपनेमें प्राप्तिके होनेसे हैं, जैसे अस्थिरचित्तसे अनेक
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( १४ )
चैत्यालयोंके दर्शन करनेसे भी उतना फल नहीं हो सकता है जितना शांत स्वभावसे और स्थिरचित्तसे एक मंदिरमें रही हुई मूर्तियों के दर्शन से हो सकता है, परंतु इसका यह अर्थ नहीं लेना कि एक ही मंदिरसे यात्रा समाप्त हो गई, क्यों कि जूदे जूदे मंदिरकी अंदर जानेसे उन मंदिरोंके दृश्यसे जूदे जूदे. कर्त्ताओं के इस पुण्यकार्यका अनुमोदन होगा इतना एक मंदि - रमें नहीं हो सकता तथा जूदे जूदे अभिवादन और स्तुतिका लाभ, कालिक शुभ भावनाकी विशेषता और इस धर्मनिमित्तमें शरीरके व्यायामसे होता हुआ पुण्य या निर्जरा आदि लाभोंसे विशेष पर्यटनसे विशेष लाभ होता है, ऐसे एक परमात्मा के अंतिम चरित्रावली तथा प्राग्भवों के स्तुत्यकार्योंको स्मरण करके उन कार्योंकी अपनेमें प्राप्ति करते हुए पूजन वंदनसे भी निर्वाण हो सकता है, और अनेक परमात्माके स्वरूपका विचार कर अपने में उस पवित्र स्वरूपका प्रवेश कराता हुआ पूजन स्तवनसे भी निर्वाण पा सकता है, मतलब परमात्माकी पूजा मोक्ष फलको देनेवाली है, परंतु एक अनादि सिद्ध ईश्वर है वो कभी जीव था ही नहीं, कदीमीसे-सदैव से ईश्वर ही चला आता है ऐसे बाह्यात् विचारों को ज्ञानीयों सें ज्ञान लेकर हृदयसे दूर करके जो संसारमें पूर्वके युद्धसंस्कारोंसे जन्मका अंत करके तीर्थकर भगवान् अंतिम जन्ममें तीर्थ प्रवर्ताते हैं, उन्हें प्रभु मानकर सेवनेसे ही मुक्ति शीघ्र मील जाती है, मगर शरत यह है कि इनके वचनों को सत्य मानकर मुक्तिके जो जो उपाय उनोने बतायें है उन उपायों पर सम्यक् प्रकारसे आरुढ होजाना
चाहिये.
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(१५)
श्रावक-भगवन् ! अगर अनादिके एक ईश्वरकी मान्यताका त्याग करके वे लोग अपने उत्पन्न हुए अवतारोंको माने तो इससे तो वे ठीक ईश्वरोपासक बन सकते हैं न?, कारण जैसे अपने यहाँ तीर्थकर प्रभुओंको उत्पन्न हुए प्रभु मानते हैं ऐसे वे लोग कृष्णादि अवतारोंको उप्तन हुए मातते हैं.
सूरीश्वर-श्रावकजी ! अपनी मान्गतामें और उनकी मान्यतामें जमीन आस्मान सा अंतर है, अपने मानते हैं कि तीर्थकरदेव संसारमें निवास करनेवाले एक जीव थे मगर कई जन्मोंके त्याग तप जपादि पवित्र संस्कारोंसे घाती कर्मका क्षय करके आत्मामें कैवल्यज्योतिःका प्रकाशं किया है जिससे जगतकी कोई भी वस्तु उनके ज्ञानसे छुपी नहीं रहती और वे अनंतशक्ति संपन्न सुरासुर नरेश करके सेव्य होते हैं और घाती कर्मका क्षय करके उसी जन्ममें मुक्त होनेवाले हैं, और वे लोग मानते हैं कि दैत्यादिका नाश करनेके लिये परमात्मा स्वयं रामादि अवतार लेता है, यहां जरा भी विचार करते हैं तो यह बात बिलकूल ठीक नहीं मालूम होती, कारण कि ऐसे माननेमें अनेक विरोध खडे हो जाते हैं.. ..
१-प्रथम विरोध तो यह है कि उनकी मान्यता मूजब सर्वव्यापक ईश्वर है अब बतालाईये ? सर्वव्यापक अवतार कैसे ले सकेगा?, क्या सागर गागरमें बंध हो सकता है, कहनाही पडेगा कि नहीं, समुद्र लोटेमें समा सके तो परमात्मा अवतार ले सके. . २-दूसरा विरोध यह है कि पवित्र परमात्मा भोगकर्ममें
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लोन कैसे हो सकेगा?, अगर हुआ तो वह परमात्मा कैसे सिद्ध हो सकता है?, ( यद्यपि जैनावतार भी विवाहित होते हैं मगर वे तो संसारमेंसे हुए हैं तो जिसका भोगावली कर्म ( संस्कार ) बाकी हो तो लग्न करते है, क्यों कि उस क्रियासे भोग कर्म क्षय होता है, देखो-मल्लिनाथप्रभु तथा नेमिनाथस्वामीको भोगावली कर्म नहीं था तो विवाहित भी नहीं हुआ.) __३-तीसरा विरोध, उन लोगोंका मानना है कि जब जगतमें धर्मकी म्लानि होती है और अधर्मका उत्थान होता है तब परमात्मा अवतार लेता है, देखो-गीताजीका श्लोक
" यदा यदा हि धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत।" अभ्युत्थानमधर्मस्य, तदात्मानं सृजाम्यहं ॥१॥
तनिक सोचो तो मालूम होगा कि यह बात भी ठीक नहीं है, क्योंकि धर्मकी म्लानि जिन साधनोंसे उत्पन्न हुइ वे साधन भी तो उनके हिसाबसे परमात्माने ही बनायें हैं. भला यह क्या बात हुई १, प्रथम ज़हरका दरख्त लगाया और बादमें उसके काटनेकी महिनत उठाइ, क्या ऐसी सर्वज्ञ परमात्माकी करनी हो सकती है?, अगर दुष्ट साधन बना भी लिये तो क्या अवतार वगैर लिये बिगडे हुए यंत्रको साफ करनेमें परमात्मा असमर्थ हैं ?, जो इसको गर्भावासमें आना पड़ा और देह धारण करना पड़ा?. .
४-चोथा-देह और योनिका धारण करना कर्मसे होता है, जब परमात्मा सर्वकर्मोंसे रहित है तो फिर नह देह और निको कैसे धारण कर सकेगा?,
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(१७) - १-पांचमां विरोध-किसीका भी प्राण लेनेवाला; हिंसक . प्राणी कहा जाता है, परमात्माका अवतार हजारों दैत्यौंका विनाशक हिंसक क्यों न कहा जावे ? और हिंसकोंकी नरक गति होती है तो वो भी ऐसा पाप करनेवाला नरकगतिमें क्यों न जावे ?, अगर कहा जावे कि अतिपापी जीव होते हैं जिनको परमात्मा मारता है तो फिर कसाईके हाथसे जो जीव मरते हैं उन जीवोंने भी तो ऐसा ही पाप किया है, अन्यथा ऐसे दुःख कभी नहीं सहन करने पडते, क्यों कि जगत्मात्र के जीव जिस वख्त दुःख भोगते हैं उस वख्त अवश्य उनके पाप कर्मका उदय होता है यह अटल नियम है, इससे तो कसाईकी भी दुर्गति न होनी चाहिये, अगर जीवोंको दुःख देनेसे उसकी दुर्गति होती है इसमें संदेह नहीं है तो दुःख देनेवाले परमास्माकी भी इसीतरह स्थिति होनी चाहिये, परंतु वस्तुतः यह स्थिति नहीं है, नाही परमात्मा अवतार लेता है और नहीं दुष्टोंको बनाता है, सिरफ अपने अपने कर्मानुसार सजन दुर्जन उत्पन्न होते ही रहते हैं, और जब दुनिया विशेष दुःखी हो जाती है तब पूर्वके शुद्धसंस्कारोंसे शुद्ध होते होते कोतनी एक पूर्ण धर्मात्मा उसी जन्ममें मुक्तिगामी तीयकरादि पवित्र व्यक्तिऐं उप्तन होकर उपदेशद्वारा पापीओंको भी पवित्र बनाकर जगतको सुखास्वादका अनुभव कराते हैं अथवा थोडे जन्मोंमें मुक्तिगामी कितनीक पवित्र व्यक्तिओंके उपदेशसे भी कितना ही सुधारा हो जाता है. ईश्वरको सत्यानाशीका व्यापार करनेकी कुछ जरुरत नहीं रहती है, मतलब वे लोग जिस प्रकारसे अवतार मानते हैं वे सिद्ध नहीं हो सकते हैं, अब इतने विचा
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( १८ ) रके बाद परमात्माकी खास पहिचानके लिये कुछ विचार किया जाता है, ध्यानसे सुनो- . ... " दूषणेभ्यो विनिर्मुक्तो-अष्टादशेभ्यो भवेद्धि यः । .. प्रातिहार्याष्टकैर्युक्तः परमात्मा स उच्यते ॥ १ ॥"
जो अष्टादश दूषणसे रहित और अष्टप्रातिहार्य सहित हो सो परमात्मा कहा जाता है, यह लक्षण प्रथम नंबरके तीर्थकर प्रभुमें सामिल होसकता है परंतु असल तो अष्टादश दूषणसे रहित इतना कहे तो भी कार्य चल जाता है और सामान्य केवलीका भी इस लक्षणसे ग्रहण हो जाता है, तथा सिद्ध पद भी लिया जा सकता है परंतु तीर्थकरप्रभु सबके विशेष उपकारी होनेसे उनके आश्रित परमात्माका लक्षण बताया गया.
श्रावक-गुरुदेव ! वे अष्टादश दूषण कोनसे हैं, इस विषयमें जरा विस्तारसे विवेचन सुनाकर उपकृत करें.
सूरीश्वर-महाशय ! सुनिये ! इसके बारेमें दो श्लोक इस तरह आते हैं
" अन्तराया दानलाभ-वीयभोगोपभोगगाः। हासो रत्यरती भीति-र्जुगुप्सा शोक एव च ॥ १ ॥ कामो मिथ्यात्वमज्ञानं, निद्रा चाघिरतिस्तथा । रागो द्वेषश्च नो दोषा-स्तेषामष्टादशाप्यमी ॥ २॥"
१-दानांतराय नामका दूषण जिनमें न हो अथात् दान चाहे इतना दे सके परंतु जैसे कोई कोई आदमीके दिलमें दान देनका इरादा होता है परंतु आप करके उदयसे नहीं
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दे सकता, इस अंतरायका नाम दानांतराय है, सो भगवान्में न होना चाहिये. .. २-दूसरा लाभांतराय जिसमें न हो अर्थात् किसी पदा. थेको चाहे और न मिले, इसको लाभांतराय कहते हैं, जैसे रामचंद्रजी सीताजीको चाहते थे, दरख्तोंसे भी पूछते रहे, हाय ! मेवी सीता कहीं ?, उस वख्त उनमें लाभांतराय था, वस, जिसमें यह दूषण हो वह परमात्मा नहीं हो सकता है, ऐसे ही जिसमें___३-तीसरा वीर्यातराय नामका दूषण हो वह प्रभु नहीं, क्यों कि वह. अनंतशक्तिवाला होना चाहिये, कोई कार्य उसकी शक्तिके बहार नहीं होता मगर कदापि अनुचित मार्गमें शक्तिको नहीं लगा सकते, ऐसे ही
४-चोथा दूषण भोगका अंतराय और
५-पांचवा उपभोगका अंतराय भी जिनमें न होवे, जो कि वे परमात्मा भोगोपभोगकी विशेष सामग्रीसे दूर रहते हैं मगर इनको किसी भी भोग ( एकवार भोगमें लेने लायक वस्तु खाद्य पदार्थ और पुष्प वगेरा ) का अंतराय नहीं होता, जिस वस्तुकी इच्छा हो मिल सकती है. ऐसे ही कोई भी उपभोग ( वारंवार भोगने लायक चीजें, जैसे आभूषण वस्त्र मकानादि एक रोजके भोगसे नहीं बिगडते मगर वारंवार भोगे जाते हैं ) का अंतराय भी नहीं होता है.
श्रावक-साहिब ! प्रभु सर्व पदार्थोंका त्यागी है, मात्र अचित्त पदार्थ, सो भी क्षुधा वेदनीय समानेके लिये ही जब
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( २० )
तक देह रहे ग्रहण करते हैं, तो है ऐसा कैसे कह सकते हैं ?
फिर उनका अंतराय टूटा
सूरश्विर-- भाई ! ऐसी बात है कि प्रभु चाहे सर्व वस्तुका त्याग कर देवे, इससे उनको अंतराय है ऐसा नहीं कहा जा सकता, जैसे किसी धनाढ्यके वहां सब वस्तुएं तैय्यार हैं मगर वैराग्यसे उसने घरकी बहुतसी वस्तुओंका त्याग किया हैं तो क्या धनाढ्यको उन वस्तुओं का भोगांतराय है ऐसा कह सकते हैं ?, कदापि नहीं, ऐसे ही तीर्थंकर प्रभु के विषय में समझने का है.
६ - छठ्ठा हास्य नामका दूषण जिसमें हो वह परमात्मा नहीं हो सकता है, कारण कि हाँसी किसी अपूर्व वस्तुके देखने से या सुनने से होती है, सो तो परमात्मा त्रिकालज्ञ होनेसे किसी भी नवीन वस्तुका अनुभव नहीं करते, तो फिर हाँसी कैसे हो सकती है ?, और प्रभुमें हास्य मोहनीयके क्षय होने से भी छठ्ठा दूषण नहीं हो सकता है, जिसमें यह छट्ठा दूषण हो, उसे परमात्मा नहीं जानना.
७ - सातवा दूषण रति [ खुशी] है, किसी पदार्थके लाभ से जैसे गृहस्थों को होती है सो परमात्मामें नही होती है, और
८- अरति नाम दिलगीरीका है, जैसे नुकसान होजानेसे लोगोंको होती है सो भी परमात्मामें न होना चाहिये, क्यों कि यह भी एक बडा दूषण है, परमात्मा के ध्यान करनेवाले योगियों को भी सुखदुखमें समान रहते हुए देखते हैं तो फिर परमात्मा किसी वस्तुके नुकसानसे दिलगीर कैसे हो सकता है ?, और जिसने अपनी खोके वियोग में या किसीके
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(२१) मरणमें हृदय स्फोट रुदन किया हो; उसे उस समय परमात्मा कहनेवालोंको बुद्धिमान कैसे कह सकते हैं ? ।
९- नाँवा दूषण भय नामका है सो भी परमात्मामें न होना चाहिये, जो किसीसे भी भयभ्रांत होकर भागता है वो किसी तरहसे परमात्मा नहीं हो सकता, जैसे वृकासुरसे महादेवजी भागे थे, जो स्वयं भयसे दौड भाग करता है वह हमें किस तरह छूडा सकता है ?, अगर मान लिया जाय कि यत् किंचित् दुनियाई सहारा दे भी सके तो भी वह परमात्मा तो होही नहीं सकता, जो दूसरेसे डरता हुआ भागा फिरे.
१० जुगुप्सा नाम घृणा-नफरतका है सो भी प्रभुमें नहीं होता, नफरत किसी गंदी चोज के देखनेसे होती है, सो वस्तु स्वरूपके अखिल पर्यायों को जाननेवालेमें नहीं होती
और जो होना मान लिया जाय तो वो महादुःखी हो जावे, कारण कि जैसे अपनेको किसी वस्तुको देखकर नफरत होतो है तो अपन मुँह फिरा लेते हैं और ठीक हो जाता है, मगर परमात्मा सर्वज्ञ होनेसे सर्वकाल सर्ववस्तुओंको देखते हैं, वो कहां मुह फिरायेंगे ? मतलब, कहीं भी नही फिरा सकते, बतालाइये ?, फिर नफरत हो तो कितने दुःखी हो जावे वास्ते उनमें यह भी दूषण नहीं होता.
११-वा दूषण शोक, सोभी परमात्मामें नही होता, मगर किसी शास्त्रमें अवतारमें शोक होना साबित हो तो समझ लेना कि वह प्रभु स्वरुप अवतार नहीं, सामान्य जीव है.
१२- काम यानि विषय वासना, यह भी प्रभु दशामें नहीं होता अगर है तो वह सामान्यजीव है, ऐसे मानना चाहिये
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(२२) १३-वा मिथ्यात्व (उलटी श्रद्धान) भी बडा जबरदस्त दूषण है सो भी प्रभुमें नहीं होता.
१४-अज्ञान नामक दोष भी नहीं होता हैं, तथा
१५-निद्राका होना भी उनमें नहीं है अगर हो तो वह प्रभु नहीं, कारणके सोते हुए जीव बिलकूल अचेतनसी दशा भोगते हैं और प्रभु तो सर्वदा सर्वज्ञ है उन्हें निद्रा होही कैसे सकती है, दूसरा कारण दर्शनावरणीयकमसे निद्रा आती है
और वह कर्मक्षय करे बाद ही केवली भगवान् बनते हैं तो फिर उनमें कारणके अभावसे कार्य कैसे हो सकता है ?
१६-वा दूषण अविरति यानि किसी भी वस्तुका परित्याग न हो उसका नाम अविरति है सो भी परमात्मामें नहीं होता.
१७-चा दूषण राग है और
१८-वा दूषण द्वेष, ए दोनों भी परमात्मामें न होने चाहिये.जिसमें ये अठारह दूषण न होवे वह परमात्मा हो सकता है, मुख्यतया जिसमें राग और द्वेष न होवे उनमें ये अठार. हमेंसे एक भी दूषण नहीं होता यह अटल सिद्धांत है, मात्र लोगोंको स्पष्टतया समजानेके लिये अठारह खोले गये, इससे हरएक भाविक मनुष्यको परिक्षा पूर्वक जिस प्रभुका स्वरूप राग और द्वेष रहित हो उसका भजन करना चाहिये, क्यों कि ऐसे वीतरागी प्रभुके ध्यानसे आत्मा वीतराग हो सकता है, न कि राग द्वेषसे भरे हुए के ध्यानसे, दरिद्रकी सेवासे ईश्वर नहीं बन सकते हैं, ईश्वरकी सेवासे ही ईश्वर होते हैं ऐसे
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(२३ ) हो झगडेखोर हिंसक मांसाहारि दुराचारो कामी क्रोधी को ईश्वर मान कर भजन करनेसे कभी कल्याण नहीं हो सकता है और अष्टादश दूषण रहित परमात्माके ध्यानसे तुरत ही मुक्ति मिल सकती है, इस लिये शुद्ध परमात्माका ही ध्यान करना चाहिये, अब निष्पक्ष विचारक के दिलमें यह स्वाभाविक ही विचार आ सकता है कि जगत्की माया मोहसे तप्त हुए हमको उस परम पवित्र राग द्वेष रहित परमात्माका ध्यानरूप अमृत हो परम शीतल बना सकता है, परंतु इसकी पहचान हम कैसे कर सकते है कि हींदु अवतार वीतरागी है या जैनावतार १, तो उनको नीचके श्लोक और उसके अर्थकी तरफ ध्यान देनेसे स्पष्टतया मालूम हो जायगा कि कौनसे अवतार राग सहित हैं और कौन कौन राग रहित हैं,___ " प्रत्यक्षतो न भगवान् ऋषभो न विष्णुरालोक्यते न च हरो न हिरण्यगर्भः ।
तेषां स्वरूपगुणमागमसम्प्रभावात् । ज्ञात्वा विचारयत कोऽत्र परापवादः? ॥ १ ॥ "
भावार्थ-प्रत्यक्षसे जैनियोंके देव श्रीऋषभदेवस्वामी अब मनुष्य लोकमें मौजूद नहीं होनेसे नहीं देखे जाते, ऐसे ही... वैष्णवोंके इष्टदेव विष्णुजी भी दृष्टिगोचर नहीं होते, शैवके इष्ट शिवजी तथा ब्रह्माजी भी प्रत्यक्ष देखनेमें नहीं आते तो कैसे जाना जावे कि कौन राग द्वेषवाले हुए और कौन राग द्वेषसे रहित हुए?, तो इसके उत्तरमै समझना कि उन उपर कहे हुए नामवालोंकी मूर्तियों से मालूम कर सकते हों कि कौन कौन रागद्वेष रहित हैं औ कौन कौन सहित हैं ?
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(२४) जिसको मूर्ति स्त्री सहित हो तो साफ जाहिर हो सकता है। कि ये मूर्तिवाले देव पूरे रागी थे और काम विकारोंसे दुःखी थे, नहीं तो स्त्रीकी क्या जरुरत ?, जो जैसा हो उसकी मूर्ति भी वैसी ही होती है, इस नियमसे वे जीते स्त्री सहित ही जीवन गुजारनेवाले थे, मगर जीवनमें स्त्रीका संग छोडा नहीं था, यही कारण है कि उनकी मूर्ति भी स्त्री सहित बनाइ गइ है, ऐसे हो जिस देवकी मूर्तिके हाथमें शस्त्र हो वह द्वेषो है, अन्यथा शस्त्र पकडनेकी क्या जरूरत?, अगर दुष्टोंको मारनेके लिये शस्त्र पक्डे हैं तो क्या उनके मारे विगेरे उनका सुधारा नहीं हो सकता है ?, शस्त्रसे कार्य करना असमर्थ निर्दय और लोभीका काम है, परमात्मामें ये बातें होही नहीं सकती तो फिर शस्त्रकी क्या जरुरत?, और उन लोगोंके हिसाबसे तो वह बुद्धिको ही बदल देवे तो क्या उमदा कि ऐसे करके काम ही न करने पड़ें, बस, सिद्ध हुआ कि जिसदेवकी मूर्तिएं स्त्री या शस्त्र सहित हो वे रागी द्वेषी देव हैं अपना कल्याण नहीं कर सकते, जिस देवकी शांत परम वीतरागस्वरूप मूर्ति हो वही देव राग द्वेष मुक्त है, ऐसा मानकर उनहीकें चरणोंकी सेवा करनेसे भवोदधि पार हो सकते हैं, परंतु जहां पर प्रथमसे ही द्वेषीयोंने ऐसी वासना बिठादी हो कि-" हस्तिना ताड्यमानोऽपि, न गच्छेज्जैनमन्दिम् ,"--भले हाथी जानसे मार डाले तो मर जाना मगर बचनेके लिये जैनमंदिरमें नहीं घूसना, वहां शांत वीतरागैप्रभुकी मूर्ति कैसे आसनसे विराजमान होकर परमशांत स्वरूपसे भक्तोंको कैसी अपूर्व शांति दे रही है यह देखने काही समय कैसे मिल सके ?, अस्तु, अब वो कटाकटीका समय
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(२५) नहीं रहा है, चारोंवर्ण प्रायः समझने लगो हैं कि जिसका युक्ति युक्त वचन हो उसीका वचन ग्रहण करना चाहिये, ऐसे समयमें यह विषय उपकारक हो सकता है, जैसे प्रभुकी मूर्तिओंसे कौनसे देव वीतराग हैं?, इस विषयका खयाल हो सकता है, ऐसे ही शास्त्रोके तपास करनेसे भी जिनके जीवनचरित्र अति स्वच्छ, कामादि चेष्टा शून्य, वैर विरोधसे रहित, और आत्मध्यानमय हों वेही शुद्धदेव हो सकते हैं और जिन्होंने काम चेष्टाको ही सार माना क्लेशमय जीवन बनाया, और कोई किसीकी स्वीके पिछे दोडा, किसीका किसीको देखकर वीर्य स्खलित हो गया, ऐसे अपवित्र वर्तन जिस देवके विषयमें शास्त्रोंमें प्रत्यक्ष लिखे हों वे कुदेव हैं, जहाँ ऐसा स्वतः विचार हो सकता है त्यहाँ निंदाकी क्या बात हुई ?, ऐसे निष्पक्ष तत्वका विचार करेगा वह कल्याण के रास्तेको हाँसिल कर सकता है, परंतु इतना भाग्य होना चाहिये, देखो जिनेश्वर देवके चरित्र वर्णनके वास्ते, ' कल्पसूत्र' · त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरित्र' कैसे परम पवित्र जीवन चरित्र हैं ? इनकी जीवन घटनामें वैदिक अवतार की तरह कहीं भी राग और द्वेषकी चेष्टा या कामीपनेका वर्ताव नहीं नजर आता अगर निष्पक्ष भावसे विचार करते हैं तो देवत्व इनमें ही सिद्ध होता है और इनमें ही सर्वज्ञता साबित होती है, इस लिये इनका कथन किया हुआ धर्म ही प्राणीको ग्रहण करने लायक है, इस धर्मकी प्राप्तिके लिये सतत प्रयत्न करना चाहिये, क्यों कि इस चारगतिरूप संसारमें महापुण्यके उदयसे यह मनुष्यजन्म प्राप्त हुआ है तो इसे हाँसल कर धर्मकी प्राप्तिसे सफल करना चाहिये, दुनियामें अनेक प्रपंची जनोंने धर्मका
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(२६) स्वरूप ऐसा बिगाड दिया है कि जिसका हदो हिसाब नहीं, मनुष्यको उचित है किधर्मकी खूब परीक्षा करके ग्रहण करें, जिस मतमें देव गुरु और धर्म ये तीनों तत्त्व ऐसे पवित्र हों कि जिनमें किसी तरहका दूषण न हो, उसी मतको ग्रहण करना चाहिये, प्रथम देवतत्त्व है इस पर विचार किया गया और बताया गया कि परमशुद्ध तीर्थकर प्रभु है, और नहीं है, इस बातको जतलानके लिये अन्यधर्मावलंबियोंको जैनावतारोंके जीवन चरित्र पढनेको देने चाहिये वे उन चरित्रोंको पढ कर
और अपने देवोंका स्वरूपसें मुकाबला कर अगर पक्षपात रहित होंगे तो तुरत मार्ग पर आ जायेंगे और शुद्ध अर्हन् जिनदेवकेही उपासक बन जायेंगे.
श्रावक-क्या अर्हन देवके सिवाय दूसरे देव राग द्वेष रहित नहीं है?, जिससे आप एक जिनदेवका ही सेवन करना फरमाते हैं.
सूरीश्वरजी-हाँ ऐसा ही है, देखो प्रथम तुम पौराणिक देवताओंकी लीला, अगर मध्यस्थ भावसे कोई भी विचारेगा तो साफ तौर पर कबूल करना पडेगा कि वे वैदिक अवतार उनके पुराणोंसेही कैसे राग द्वेषसे भरे हुए सिद्ध होते हैं, यह लेख किसीके दिल दुःखानेके लिये नहीं लिखा जाता, सिरफ इसी गरजसे यह लेख लिखा जाता है कि कोई भी जीव कुदेवके स्वरूपको समझकर सुदेवके स्वरूपको समझ ले तो फिर इसको इस असार संसारमें भटकना ना पडे
और सम्यक्त्वरत्नकी प्राप्ति द्वारा उसका अनादि मिथ्यात्व दारिद्रच दूर हो जावे, मनुष्य होकर भी मिथ्यात्वसेवनसे
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(२७) अनंतकालतक नरक निगोदमें रुलते हैं सो उनका यह दुःख मिट जावें, मनुष्योंको विचार करना चाहिये कि दो पैसाका मटका लेना होता है तोभी कैसा ठकोर ठकोर कर लेते हैं, तो धर्मका विचार क्यों न करना चाहिये ?, बजारमें जाकर वस्तुकी खरीद करनी होती है तो अनेक दुकानोंकी मुलाकात लेकर जिस दुकानपर अच्छामाल होता है, उसीसे खरीद की जाती है, इसीतरह बुद्धिमानोंको उचित है कि जिसमतमें शुद्धदेव शुद्धगुरु और शुद्धधर्मकी प्राप्ति हो उसी मतम दाखिल होकर शुद्ध तीन तत्त्वरूप सुंदर माल ग्रहणं करना चाहिये कि जिसकी प्राप्तिसे अनंतसुख मिलते हैं, याद रखना चाहिये कि "-तातस्य कूपोऽयमितिब्रुवाणाः क्षारं जलं का. पुरुषाः पिबन्ति "..--अर्थात्-कायर पुरुषों यह मेरे बापका कुंआ है ऐसे कहते हुए उसका खारा पानी भी पीलेते हैं, मगर पाडोशमें रहा हुआ मीठा पानीके कुंएका उपयोग नहीं करते," जब तक यह बात पकडी हुइ है तब तक आदमी कभी सच्चे तत्त्व प्राप्त नहीं कर सकता मगर 'जो अच्छा सो मेरा'की नीतिको स्वीकार करके मेरा सो सच्चेके स्वभावको जलांजली देदेता है वोही परमसत्यमार्गक पासकता है, देखिये प्रथम हिंदु-वैदिक अवतारोंकी मूर्तियां ही उन अवतारोंकी राग द्वेषमय प्रवृत्तिको साबित करती हैं किसीके पास स्त्री खंडी है तो किसीने धनुष्यबाण लिया हुआ है तो किसीने गदा उठाइ है, क्या इससे राग द्वेषकी प्रवृत्तिवाला जीवन सिद्ध नहीं होता है?, कहना ही होगा कि अवश्य, क्योंकि स्त्रीको पास रखना कामीका काम है और कामी महारागी होता है, ऐसे हि शस्त्रोंको द्वेषी ही धारण कर सकता है क्यों कि
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(२८)
द्वेष सिवाय किसीपर शस्त्र नहीं चलाया जाता, जिन देवोकी मूर्तिएं ऐसी हों देव भी ऐसे ही हुए हैं, वरना देखो जिनेश्वर प्रभु परम शांत राग द्वेष रहित हुए हैं, तो उनकी मूर्तिएं भी ऐसी ही शांत बनाइ गई हैं, ऐसे ही दूसरा तत्त्व गुरु है, सो गुरु पूर्ण त्यागी महाव्रतधारीको कबुलना चाहिये नकि घरबारी घोडागाडी मोटर और रेलवे में सेर करनेवाले, पैसे. रखने तथा स्त्रीके संगकरनेवाले और लोभसे भरे हुए गुरु कदापि कल्याण नहीं कर सकते हैं, देखो गुरुके विषयमें क्या लिखा हुआ है ?,
" अवद्यमुक्त पथि यः प्रवर्तते, निवर्तयत्यन्यजनं यः निस्पृहः । __स एव सेव्यः स्वहितैषिणा गुरुः,
स्वयं तरस्तारयितुं क्षमः परम् ॥ १ ॥" . मतलब कि-जो निस्पृह गुरु अवद्य-पापमुक्त मार्गमें चलता है और अन्यजनोंको पापमार्गसे हटाता है, अपने हितकी चाहनावाले पुरुषको ऐसे ही गुरुकी सेवा करनी चाहिये जो स्वयं तरता हुआ औरोंको तारता है.
इस श्लोकसे यह बात अवश्य ध्यानमें लेनेकी है कि जो गुरु परिग्रह विषय विकार और क्रोधादिसे भरे हुए हैं, वे अपना कल्याण कभी नहीं कर सकते हैं, जब गुरु भी घरबारी और चेला भी घरवारी तो गुरु और चेलेमें फरक क्या हुआ?, देखो- जैन गुरु जमीन पर सोते हैं, पैदल चलते हैं, फल फूल आदि सब वनस्पतिके जीवोंको भी अभयदान दिया है, किसीका उपयोग नहीं करते, अतर आदि पदार्थका
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(२९) लेश भी उपयोग नहीं लेते, पैसा और स्त्रीसे हरदम परहेज करते हैं, और कहीं एक जगह पर डेरा बांधकर नहीं रहते, किसी भी जीवकी हिंसा न हो इस वास्ते स्वयं रसोइ भी नहीं बनाते, भिक्षावृत्तिसे ऐसा भोजन लेते हैं कि जिसमें उनका निमित्त न हो, ऐसे गुरुको गुरुबुद्धिसे माननेवाला त्यागके अनुमोदनसे अपना भला कर सकते हैं न कि भोगी ओंका उपासक, ऐसे विचारोंसे त्यागी गुरुओंकी सेवा करनी चाहिये, ऐसे ही दयामय धर्मका परीक्षा पूर्वक स्वीकार करना चाहिये, दयामय जैन धर्म ही है, अन्य धर्मों में कितनेक कुरबानी द्वारा महाहिसाका करना इसे धर्म कहते हैं, तो कितनेक यज्ञसे हिंसक कार्य करनेकों धर्ममानते हैं, ऐसे हिंसात्मक धाँको छोडकर दयामय जेन धर्मका स्वीकार करना चाहिये कि जिससे यह आत्मा जन्म मरणके चक्रसे छूट जावे, देवगुरु धर्मका स्वरूप वैदिक संप्रदाय वालोमें कैसा बिगडा हुआ है और उनके धर्मशास्त्र किस तरहके कल्पित विचारोंसे भरे पडे हैं, इस विषयका स्वरूप उनके ही शास्रोंके उल्लेखसे दिखाया जाता है, गौरसे देखो, मगर यह खयाल जरुर करना कि मेरेको जरा भी उनसे या उनके शास्त्रसे द्वेष नहीं है, मात्र उनमेंसे मध्यस्थ प्रकृतिवाले कितक प्राणी मेरे इस लेखसे कुमार्गको छोड़कर सुमार्गपर आरूढ़ हो या अनुमोदनसे अपने लिये जन्मांतरमें बोधिबीजकी सुलभता करे और तुम्हारे लोगोंको श्रद्धा सत्य धर्मपर है इससे विशेष उदिप्त हो बस यही कारण है, लो अब वख्त बहुत हो गया है इस लिये आज इस विषयको यहांही रखता हूं, ज्ञानीदृष्ट भाव होगा तो पुराणोंका उद्देश कलरोज सुनाया जायगा.
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द्वितीय - - दिवस.
सरे दिन सूरीश्वरजी महाराज प्रतिक्रमणादि अपने धार्मिक कार्यों से फारिग होकर जिनेश्वर प्रभु के दर्शन कर अपने आसन पर विराजमान हो चूके हैं, उस वख्त वह भव्य श्रावक हाथ जोडकर मधुर स्वर से इच्छामिके पाठसे वन्दन कर सूरीश्वरजी महाराज से साडेतीन हाथ दूर बैठ गया, और सूरीश्वरजी महाराजने अपनी मधुरध्वनिसे पुस्तक सुनाना शुरु किया.
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दु
आजका बयान पुराणों के विषयमें शुरु होनेवाला है इस विषयका जिकर तो सूरीश्वरजीने प्रथम दिवसके व्याख्यान में ही कर दियाथा, सो बात तो इस लेख के पढनेवाले अच्छी तरहसे जानते ही हैं, बस अब उसी करारके मुताबिक सूरीश्वरजी महाराजने फरमाया कि
श्रद्धालु श्रावकवर्य ! पुराणोंको देखते हैं तो प्रथमही यह मालूम हो जाता है कि ये अल्पज्ञोंके कथन हैं कारण कि परस्पर बडे ही विरोध नजर आते हैं, शिवपुराणवाले शिवपुराणका माहात्म्य गाते हैं तो विष्णुपुराणवाला विष्णुपुराणका, इतने से ही शांत नही होते हैं तो आगे बढ़कर शिवपुराण; शिवपुराण के शिवाय बाकीके तमाम पुराणको भ्रमशास्त्र कहता है, देखो शिवपुराण माहात्म्य प्रथम अध्यायका प्रथम
पत्र --
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( ३१)
" पुमानज्ञानतस्तावद्-भ्रमतेऽस्मिन् भवे मुने । यावत् कर्णगतं नास्ति, पुराणं शैवमुत्तमम् ॥ ३६ ॥ किं श्रुतैर्बहुभिश्शास्त्रैः, पुराणैश्च भ्रमावहैः । शैवं पुराणमेकं हि, मुक्तिदानेन गर्जति ॥ ३७॥ अश्वमेधसहस्राणि, वाजपेयशतानि च । कलां शिवपुरणस्य, नाईन्ति खलु षोडशीम् ॥ ३८ ॥ तावत् स प्रोच्यते पापी, पापकृन्मुनिसत्तम!। यावच्छिवपुराणं हि, न शृणोति सुभक्तितः॥४०॥ गंगाद्याः पुण्यनद्यश्च, सप्तपुर्यों गया तथा । एतच्छिवपुराणस्य, समतां यान्ति न क्वचित् ॥ ४१॥ वेदेतिहासशास्त्रेषु, परं श्रेयस्कर महत् । शैवं पुराणं विज्ञेयं, सर्वथा हि मुमुक्षुभिः ।। ४९॥"
भावार्थ-जब तक उत्तम शिवपुराण कानमें नहीं पडा वहां तक अज्ञान भावसे भव, भटकना होता है ।। ३७ ॥ शैवपुराण मुक्तिप्रदान करके गर्जारव कर रहा है वहां दूसरे भ्रमको वहन करनेवाले पुराणोंसे क्या मतलब ? ॥ ६८ ।। हजारों अश्वमेध और सैंकडो वाजपेय शिवपुराणकी सोलहवी कलाको भी नहीं प्राप्त होसकते हैं ।। ३९ ॥ शिवपुराणको भक्ति भावसे नहीं सुनता वहांतक पाप करते हैं, गंगानदी सप्तपुरी और गया शिवपुराणके समान नहीं हो सकते हैं ॥४१॥ वेद इतिहास और शास्त्रोंमें परम कल्याण करनेवाला शास्त्र मुक्तिकी कामनावालोंने शिवपुराणको ही जानना चाहिये ॥ ४९ ॥
देखिये, शिवपुराणकी कितनी तारिफ की है ?, अगर आग्रोपांत शिवपुराणका मनन ध्यानपूर्वक मध्यस्थ भावसे
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( ३२ )
किया जाय तो साफ मालूम हो जायगा कि इसमें ऐसी तारीफ को कोई बात नहीं है, देखिये शिवपुराण माहात्म्य अध्याय द्वितीयके दूसरे पत्र में देवराज नामका महापापी ब्राह्मणका बयान है, जिसने चारों ही जातिके अनेक मनुष्योंको मार कर उनका धन हर लिया और अपने माता पिता तथा स्त्रीको भी जान से मार कर उनसे भी धन छीन लिया, अभक्ष्य भक्षण तथा मदिरापान करने लगा, वेश्या के साथ एक पात्रमें भोजन करनेसे भी परहेज नहीं करताथा, वह पापो देवराज दैवयोग से प्रतिष्ठानपुर में गया, वहां पर साधु पुरुषोंकर सहित एक शिवालय देखा, उसमें कयाम - मुकाम किया, वiपर शिवकथा हमेशह सुनता रहा, एक दिन जबरदस्त ज्वरने उसे सताया, और वह मर गया, बाद में यमदूत बांध कर यमपुरीमें ले गये, उसी वख्त शिवजी का गण शिवलोकसे यमपुरीमें जाकर उसें छोड़ाकर शिवपुरीमें ले गये, इस विषय में नीचे लिखे हुए श्लोक आते हैं, सुनो
"
" धन्या शिवपुराणस्य, कथा परमपावनी | यस्याः श्रवणमात्रेण, पापीयानपि मुक्तिभाग् ॥ ३७ ॥ सदाशिव महास्थान - परं धाम परंपदं । यदाहुर्वेदविद्वांसः, सर्वलोकोपरि स्थितम् ॥ ३८ ॥ ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा अन्येऽपि प्राणिनः । हिंसिता धनलोभेन, बहवो येन पापिना मातृपितृबन्धून् हन्ता, वेश्यागामी च मद्यपः । देवराजो द्विजस्तत्र गत्वा मुक्तोऽभवत् क्षणात् ॥ ४० ॥" इत्यादि अत्यन्त महिमा गाई है, परंतु हमारी समझमें तो यही आता है कि शिवपुराणके सुननेसे घोर पापोंसे
॥ ३९ ॥
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(३३) छूट कर मुक्तिकी प्राप्ति होनी सर्वथा असत्य है, कारण कि शिवपुराण तथा अन्यपुराणोंसे साफ जाहिर हो जाता है कि शिवजीमें महात्मापनेका लक्षण बिलकूल नहीं था, तो फिर निरतिशय सामान्य जीवोंके कर्त्तव्यसे भी पतित कर्तव्य करनेवाले शिवकी कथा श्रवणसे क्या लाभ ?, बस सावित हुआ कि यह व्यर्थ ही महिमाका गान किया गया है.
शिवपुराण ज्ञानसंहिता अध्याय ३२ वा तथा ३३ वा देखो, उसमें गणेशकी उत्पत्तिके वारेमें ऐसे लिखा है कि पार्वतीजीने अपने हाथोंके मैलसे पुत्र बनाया, और दरवाजे पर पहेरदारके ठिकाने उसको बिठा कर स्नान करने लगी, उसी समय महादेवजी आये और भीतर जाने लगे तब उस द्वारपाल लडकेने रोका जब महादेवजी गुस्सेमें आकर बलात्कारसे भीतर घूसने लगे, तब उस लडकेने महादेवजीको मारा, बस कह ना ही क्या था, तुरत महेश्वरने अपने गणको हुकम किया कि इससे लडो, मालिकके हुकमको मानकर गण लडने लगा, मगर उस लडकेने उनके भी दंत खट्टे किये, वे घबराकर भागे, महादेव जीने उसको सतेज करनेको, स्वयं उनका साथ किया और लडाइ शुरु की, मगर क्या ताकाद ? लडकेको हटा सके, सगण महादेवजीका बुरा हाल हो गया, तब ब्रह्मा विष्णु और इंद्र वगैरा देवता महादेवजीकी मददमें उतरें, मगर किसीकी पेश नहीं चली, ये सब देखते ही रहगये और उस लडकेने परिघ मारकर महादेवजीकी कमर तोड डाली, और पांच हाथ भी तोड डाले, मतलब उस लडकेने सबको हरा दिया, तब विष्णु कहने लगे कि छल किये विगैर यह नहीं मारा जायगा, आखर महादेवजीने उसका शिर निशबसे
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काट डाला, इत्यादि बयान है, इस पूर्वोक्त बयानसे सिद्ध हुआ कि शिवजी अज्ञानी थे, ज्ञानी होते तो स्वयमेव जान लेते कि यह द्वारपाल बलवान् है, नाहकमें क्यों मेरे गणका इसके साथ युद्ध करा कर नाश करता हूँ ?, और मैं भी इस के साथ युद्ध करके अपनी कम्मर तथा हाथ तुडवाता हूं ?, और महादेवजीने उस लडकेका शिर काट डाला इससे सिद्ध हुआ कि लडाइमें दूसरेंकी हिंसा भी करते थे, ऐसे अज्ञानी
और हिंसककी कथा सुननसे पापीओंका पाप कैसे दूर हो सकता है. १. ' तथा शिवपुराण ज्ञानसंहिता १३ वें तथा १४ वें अध्यायमें बयान है कि महादेवजी कपट करके अपने रूपका गोपन करके पार्वती जहां पर तप कर रही थी वहां पर जटील वृद्धका रूप बना कर गए तब पार्वतीने उसका ऋषि महात्मा समज कर पूजन किया, बाद कपटसें जटीलरूपधारी शिवजीने पार्वतीसें प्रश्न किया कि तुं किस प्रयोजनके लिये ऐसी तपश्चर्या करती है, तब सखीके मुखसे उत्तर दिलाया कि महादेवको पति बनानेके खातिर तपस्या करती है, फिर जटीलने कहा कि सखीने यह बात सत्य कही है या हाँसीसे कही है ? ऐसा पार्वतीसे प्रश्न किया-इत्यादि बयान है, अगर महादेवजी महात्मा होते तो कपटसे जटीलका रूप धारके प्रश्न क्यों करते ?, अगर कहा जाय कि उसकी-पार्वतीकी परीक्षा करनेके वास्ते कपटसे जटीलका रूप धारके गये थे, ऐसे कहनेसे तो संपूर्ण अज्ञानी सिद्ध हुए, क्यों कि जो संपूर्ण ज्ञानी होता है सो सबके मनकी बातें अपने स्थान पर
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( ३५ )
बैठा हुआ ही जान लेता है, इस लिये सिद्ध हुआ कि महादेवजी महात्मा भी नहीं थे और ज्ञानी भी नहीं थे, किंतु धूर्त और अल्पज्ञ थे.
शिवपुराण ज्ञान संहिता अध्याय १६-१७ और १८ वें को देखो
महादेवजी जनेत - जान लेकर पार्वतीको व्याहनेके वास्ते चले, उस वख्त अपने शरीरको ऐसा कद्रूप बनाया कि जिसको देखकर पार्वतीकी माताको महा दुःख हुआ और उसकी ऐसी बुरी हालत हुइ है कि जिसका हदो हिसाब नहीं, इस विषयका पूरा पता इन अध्यायों को बांचनेवाला या सुननेवाला ही लगा सकता है, भला ! ऐसा रूप धारके पार्वतीकी माताको दुःख देनेसे शिवजीके हाथमें क्या आया ?, विना प्रयोजन किसीको दुःख देनेवाला आदमी अज्ञानी तथा महा पातकी गिना जाता है तो क्या ऐसा काम करना महादेवजीको लाजिम था ?.
उसके बाद शिवजीका और पार्वतीका विवाह होने लगा उस वख्त पार्वतीके पाँवके अंगुठेका रूप देखकर ब्रह्माजी ऐसे कामके वशीभूत हुए कि उनका वीर्य वहां ही निकल पड़ा और उस वीर्यसे अट्ठासी हजार ऋषि पैदा हुए, इस दृश्य- नज़ारा को देखकर महादेवजीको क्रोध उत्पन्न हुआ, इत्यादि बयान के पढनेसे बुद्धिमानोंको हाँसी आये बगैर नहीं रहती.
शिवपुराण ज्ञानसंहिता अध्याय १२ वा वांचो -
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( ३६ ) जिसमें बयान है कि दारुवनमें शिवजीके भक्त ब्राह्मणलोग शिवजीके ध्यानमें परायण रहते थे, एक दिन वे ब्राह्मणलोग समिदादि- लकडी आदि लेने वास्ते वनमें गये थे, पिछेसे उस दारु वनमें जहां ब्रह्मण ऋषियोंकी स्त्रीएं रहती थीं वहां महादेवजी नग्न हो कर हाथमें लिंग पकड कर अति तेजस्वी रूप बना कर कटाक्षसे उन स्त्रीयोंक मनोंको मोहित करते हुए आये, उन स्त्रीयोंमेंसे कोई स्त्री तो कामके वशीभूत होकर शिवजीको आलिंगन करती हुई, तो कोई हाथ पकडकर हसने लगी, उस समय पर ब्राह्मण भी वहां आ गये, और उस कुचेष्टाको देखकर उन्होंको वडा भारी क्रोध चडा और शाप दिया कि तेरा लिंग टूट कर पृथ्वी पर पडो, उसी वख्त लिंग टूट कर जमीन पर गिर पडा इत्यादि वयान है, वांचो नीचेके श्लोक,• " दारु नाम वनं श्रेष्ठ, तत्रासऋषिसत्तमाः । शिवभक्ताः सदा नित्यं, शिवध्यानपरायणाः ॥६॥ त्रिकालं शिवपूजां च, कुर्वन्ति स्म निरन्तरम् । . . . स्तोत्रैर्नानाविधैर्देवं, मन्त्रैर्वा ऋषिसत्तमाः ॥७॥ एवं सेवां प्रकुर्वन्तो, ध्यानमार्गपरायणाः । ते कदाचिद्वने याताः, समिदाहरणाय च ॥८॥ एतस्मिन्नन्तरे साक्षा-च्छंकरो नीललोहितः । विरूपं च समास्थाय, परीक्षार्थ समागतः दिगम्बरोऽतितेजस्वी, भूतिभूषणभूषितः । चेष्टां चैव कटाक्षं च, हस्ते लिंगं च धारयन् ।। १० ।। मनांसि मोहयन् स्त्रीणा-माजगाम हरः स्वयम् । तं दृष्ट्वा ऋषिपत्न्यस्ताः, परं त्रासमुपागनाः ॥ ११ ॥
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( ३७) विहला विस्मिताश्चैव, समाजग्मुस्तथा पुनः । आलिलिङ्गुस्तदा चान्याः, करं धृत्वा तथाऽपराः ॥ १२॥ परस्परं तु संहर्षाद, गतं चैव द्विजन्मनाम् । . एतस्मिन्नेव समये, ऋषिवर्याः समागमन् ॥ १३ ॥ विरुद्धं वृत्तकं दृष्ट्वा, दुःखिताः क्रोधमूञ्छिताः । तदा ते दुःखसंप्राप्ताः, कोऽयं कोऽयं तथाऽब्रुवन् ॥ १४ ॥ यदा च नोक्तवान् किञ्चित्, तदा ते परमर्षयः । ऊचुस्तं पुरुषं ते वै, विरुद्धं क्रियते त्वया ॥ १५ ॥ तदीयं चैव लिङ्गं च, पंततां पृथिवीतले । इत्युक्त तु तदा तैस्तु, लिङ्गं च पतितं क्षणात् ॥ १६ ॥"
इत्यादि उल्लेख पढनेसे बुद्धिमानोंको मालूम होजायगा कि शिवजी कैसे महात्मा थे, और शिवपुराण के सुननेसे जीवोंका कल्याण हो सकता है या अकल्याण १.
शिवपुराण ज्ञानसंहिता अध्याय ५० वे में बनारसी नगरीका अति महात्म्य लिखा है, उसमेंसे कुछ यहां लिखते हैं,
महादेवजी अपनी औरत पार्वतीजीसे कहते है कि यह वाराणसी मेरा सदा गुप्ततमक्षेत्र है, यह संपूर्ण प्राणीयोंकी मुक्तिका सदा कारण है ७ ।
२२ वे श्लोकसें २५ वें श्लोक तक देखो
पाप रहित हो या पाप सहित जो कर्म बंधनमें प्राप्त हो कैसा भी हो जो इसतीर्थमें प्राणोंका त्याग करेगा वह अवश्य मुक्तिका भागी होगा ॥ २२ ॥ स्वेदज अंडज उद्भिज जरायुज् कृमि देशादि और पक्षी सादि, वृक्ष गुल्मादि, और
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( ३८ )
मनुष्यादि, इसमें से कोई भी यहां वा अन्यक्षेत्र में शरीर त्याग करे तो वह विना ही तप जपादि किये मुक्त होता है ||२३|| कर्म बंधन में पडा हुआ देही - जीव यहां - काशीक्षेत्र में प्राणका त्याग करने से मुक्त होजाता है, इसमें ज्ञानकी और ध्यानकी कुछ अपेक्षा नहीं ॥ २४ ॥ न मेरी न स्वजनोंकी यहां अपेक्षाकी जरुरत है जैसा कुछ भी हो किसी प्रकार प्राण त्याग करनेसे अवश्य मोक्ष हो जाती है इसमें संदेह नहीं ॥ २५ ॥ वांचो श्लोक
" अपापश्च सपापो वा, कर्मबंधगतोऽथवा ।
अत्र चेच्च मृतंःस्याचवै, मोक्षगामो न संशयः ॥ २२ ॥” स्वेदजाण्डजो वापि ह्युद्भिदोऽथ जरायुजः । मृतो मोक्षमवाप्नोति, अत्रोन्यत्र तथा कचित् ॥ २३ कर्मबन्धगतो. यो वै, देही मोक्षाय कल्पते । ज्ञानापेक्षा न चात्रवै, ध्यानापेक्षा न कर्हिचित् ॥ २० नामापेक्षा न चात्रैव, स्वजनानां तथा पुनः । यथा तथा मृतः स्याच्चेन्– मोक्षमाप्नोति निश्चितम् ॥ २५ ॥ ३९-४० - और ४१ वा श्लोक पढो बैकुंठपति नारायण लक्ष्मी और देवर्षिओं सहित ब्रह्मा वसु और सूर्य ||३९|| देवराज इंद्र तथा और भी दूसरे देवता इस स्थानमें मेरा व्रत धारण कर वें महात्मा मेरी उपासना करते हैं ।। ४० ।। ओर भी महायोगी अपना वेस छिपाये, महाव्रत लिये, अनन्य मन होकर मेरी सदा उपासना करते हैं ॥ ४१ ॥ इन उपरके श्लोक - २२-२३-२४ और २५ वा को कौन बुद्धिमान् सत्य मानेगा ?, क्यों कि इन
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( ३९ )
श्लोकोंमें लिखा हुआ है कि विना ही तप जपके किये पापीकी भी मोक्ष यहां मरने मात्रसेंही हो जाती है, तथा डांस मच्छर कीडी मकोडा वृक्ष वलडी आदिका भी काशीक्षेत्र में प्राण छुटे तो मुक्ति हो जाती हैं इस ही अध्यायके ३९ से ४१ श्लोक तक में महादेवजी अपनेही मुखसे अपनी तारिफ करते हैं कि इस क्षेत्रमें रह कर वैकुंठपति नारायण लक्ष्मी ब्रह्मा सूर्य आदि देवता तथा और भी महायोगी जन अनन्य ध्यान होकर सदा मेरी उपासना करते हैं, इस तरह से अपने आप अपनी स्तुति करना क्या महात्माको उचित है ? इस बात पर बुद्धिमान् स्वयं विचार करेंगे.
तथा इसी ५० वे अध्यायका १५ वा श्लोक दखो“ तद्दर्शनं ह्यहं विष्णुर्ब्रह्मा चापि तथा पुनः । कामयन्ति च तीर्थानि पावनायात्मनस्तथा ।। १५ ।। "
44
बहुत कहने से क्या है ?, इस तीर्थ दर्शनकी मैं विष्णु और ब्रह्माजी अपने पवित्र होनेके निमित्त कामना करते हैं, इस श्लोक के देखने पर साफ जाहिर होता है कि शिवजी विष्णु तथा ब्रह्माजी यह तीनों ही देव अपवित्र थे, जब यह तीनों ही देव अपवित्र हैं तब इनके पुराण सुननेसे तथा इनकी पूजा करनेसे दूसरे प्राणी कैसे निर्मल होसकते हैं ?, तथा कैसे मोक्षको प्राप्त कर सकते हैं ?, इसी १० वें अध्यायके ४२ वे श्लोक में लिखा है कि
•
"विषयासक्तचित्तोऽपि त्यक्तधर्मरुर्चिनरः ।
इह क्षेत्रे मृतो यो वै, संसारं न पुनर्विशेत् ॥ ४२ ॥ "
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(४०)
विषमासक्त चित्तवाले और धर्मरुचिके त्याग करनेवाले मनुष्य भी जो इस क्षेत्रमें मरते हैं वे फिर संसारमें नहीं आते ॥ ४२ ॥
शिवपुराण ज्ञानसंहिता अध्याय ५२ वा में गौतमऋषिका वर्णन है, जिसमें बहुतसी बेहुदी बातें लिखी है.
अध्याय ५३ वे में गौतमऋषिके साथ अन्य ऋषियोंने कपटसे दुष्ट वर्तन किया ऐसा वर्णन है, .
शिवपुराण ज्ञानसंहिता अध्याय ५७ वे में रामचंद्रजोने शिवजीका आराधन किया ऐसा लिखा है जिसके देखनेसे भी इनकी कपोल कल्पनाका पूर्ण पता मिलता हैं, क्यों कि जब रामचंद्रजी खुद अवतार है तो रावणको जितनेके वास्ते शंकरका आराधन क्यों किया ?.
शिवपुराण ज्ञानसंहिता अध्याय ६१ वें में-२२ तथा २३ वा श्लोक देखो
जहाँ नृसिंहनी अवतारने जिस तरहसें हिरण्यकश्यपको मारा है उस विषयका जिकर है
" उत्संगे च तथा धृत्वा, नखैश्च हृदयं तदा । विदार्य रुधिरं तस्य, पपौ च गर्नयस्तदा ॥२२॥ अन्त्राणि चापि तस्यैव, कण्ठे चैव व्यधारयत् । मारितश्च तदा तेन, पश्यतां हि दिवौकसाम् ॥ २३ ॥"
अर्थ- अपनी गोदमें रखकर नाखुनोंसे उसके हृदयको विदीर्ण कर उसका-हिरण्यकश्यपका रुधिरका नृसिंहजीने
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(४१) पान किया, और बडा गारव किया ॥ २२ ॥ उसको आंते निकाल कर कंठमे डाल ली, इस प्रकार देवताओंके देखते देखते भगवान्ने उसे मार डाला ॥ २३ ॥ इत्यादि वर्णन है. ____इस उपरके लेखको देखकर बुद्धिमान् जरूर विचार करेंगे कि परमात्मा पूर्ण दयालु होनेसे ऐसे निदयपनका काम कभी नहीं कर सकता, और जो नाखुनोंसे दूसरके हृदयोंको चीर कर उसका खून पी कर गर्जारव करता है वो परमात्मा कभी भी नहीं हो सकता.
शिवपुराण ज्ञानसंहिता अध्याय ६५ तथा ६६ में वर्णन
है कि
____ अर्जुन वनमें तपस्या पूर्वक शिवजीका आराधन करते थे, उनके पास दुर्योधनका भेजा हुआ 'मूक' नामा राक्षस मूअरका रुप धारके आने लगा तब अर्जुनने उसको दूरसे देखकर मनमें विचार किया कि यह कोई मेरा शत्रु है और मुझे नुकसान करनेको यहां आता है, इसके देखनेसे मेरी संपूर्ण इंद्रियोंमें कलुषता प्राप्त होती है, इस वास्ते यह शत्रु मारने योग्य है इसमें संदेह नहीं, और मेरे गुरु व्यासजीने कह भी दिया है, कि जो दुःख देनेवाला है उसको अवश्य मार डालना
और शोच-विचार कुछ न करना, इसीके निमित्त मैंने आयुध भी धारण किये हैं ऐसा विचार कर अर्जुनजी बाण चैडां कर तैय्यार हुए, उसी समय शिवजी भी अपने गण सहित भिलका रुप धारण कर अर्जुनकी रक्षा तथा परीक्षा निमित्त वेलडीयांकी कोपीन बांध और केशोंको बांधे शरीरमें श्वेतरेखा किये, धनुष्य वाण धारे और पीठ पर बाणोंकी तरकस धारण किये,
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( ४२ )
उस स्थान पर आये और इसी प्रकार गण भी तैय्यार हो गया, एक ही समय शिवजी और अर्जुनने बाण छोडा, शिवजीका बाण उस सूअरकी पुच्छमें और अर्जुनजीका बाण उसके मुखमें लगा, शिवजीका बाण पुच्छमें होकर मुखसे निकल गया और पृथ्वी में प्रवेश कर गया, तथा अर्जुनजीका बाण उसके पुच्छ पर्यंत जाकर उसके नजदीक ही गिर गया और सूअर तो उसी समय मृतक होकर भूमी पर गिर गया, फिर शिवजी भिलके ही रूपमें ऐसे हो रूपवाले अपने गण सहित अर्जुनजी के साथ लडे.
इस जिकरको देखनेसे बुद्धिमानोंके दिलमें अवश्य विचार आयगा कि शिवजी यदि परमात्मा सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् है तो फिर उनको भिल्ल रुप बनानेकी तथा अपने गणोंका भिल्लरुप बनवाकर जल्दी से वहां आनेकी क्या जरूरत थी ?, और ऐसे ही उसके पुच्छमें बाण मारने रूप यह महा अधर्मका कार्य करनेकी उसे क्या जरूरत थी ?, क्यों कि अपने स्थानमें बैठे हुए ही अपनी शक्ति से उस राक्षसकी बुद्धिको ऐसी निर्मल कर देते कि वो मूक नामा राक्षस अर्जुनजीका भक्त बन जाता, जिससे शिवजीको ऐसा निर्दय काम नहीं करना पडता, तथा अपनी ज्ञानशक्ति से अर्जुनकी परीक्षा कर लेते, भिल्लका रूप खुद धारनेसे तथा गणोंका धरानेसे तथा अर्जुनकी साथ लडाई करनेसे विशेष फल क्या निकाला ?, हमको तो यही मालूम होता है कि इन पूर्वोक्त काम करनेसे शिवजी न तो परमात्मा महात्मा और सर्वज्ञ थे, और न सर्वशक्तिमान् थे, व्यास ऋषिजाने अर्जुनजीको कहा कि जो कोइ दुःख देनेवाला हो उसको शोच-विचार किये
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( ४३ )
विगैर मार डालना, ऐसे मारनेके उपदेश करनेवाले व्यासजीकों क्या कहना चाहिये ? सो फैसला बुद्धिमान् स्वयं कर लेंगे.
शिवपुराण ज्ञानसंहिता अध्याय ६९ वे में लिखा है कि श्रीकृष्णने शिवजीका आराधन करके उनको प्रसन्न किया तथा प्रार्थना करी कि हे शंकर ! इस समय आपकी कृपासे मेरे पास सब कुछ है परंतु दैत्योंसे पीडित होकर मैं आपकी शरण में आया हूँ इत्यादि वर्णन है. वांचो नीचेके श्लोक -
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“ आसनैर्विविधैर्ध्यानैः, प्रसन्नः शङ्करस्तदा । उवाच कृष्णं तत्रैव, त्रियतां वरमुत्तमम् ॥ १७ ॥ ततः प्रसन्नमनसा, वासुदेवो ह्युवाच । साम्प्रतं सकलं मेऽद्य, प्रभावात्तव शङ्कर ! ॥ १८ ॥ दैत्यैश्व पीडितश्चाहं; - त्वामहं शरणं गतः ! पूर्वैश्च सेवितः शम्भु - ब्रह्मणा सेव्यतेऽधुना ॥ १९ ॥"
इत्यादि बहुत बयान है.
शिवपुराण ज्ञानसंहिता अध्याय ७० वें में
विष्णुने शिवजीका आराधन कर के पीड़ा देनेवाले. दैत्यों को मारनेके वास्ते शिवजीसे सुदर्शनचक्र लिया, ऐसा लिखा है.
विष्णुने अनेक प्रकारसे शिवजोका पूजन किया, परंतु शिवजी प्रसन्न नहीं हुए तब विष्णुसहस्र नाम से स्तुति करता हुआ एक एक नामसे कमल चडाने लगे, उस समय शिवजीने उनकी परीक्षाके लिये जो किया सो सुनिये - उन सह कम
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(४४)
लोमेंसे महादेवजीने एक कमल हरण कर लिया, मगर शिवजीकी माया विष्णुने नहीं जानी, जब एक कमल अंतमें खुट गया तब विष्णु भगवान अपना एक नेत्र उखाड कर चढाने लगे, यह देखके भक्तोंके दुःख हर्ता शिवजी प्रसन्न हुए, और बोले कि मैं प्रसन्न हूँ, जो इच्छा हो सो माँगो, मेरेको कुछ भी अदेय नहीं है, तब प्रसन्न होकर विष्णुजी बोले, हे शंकर ! आप अंतर्यामी हो, हम आपके आगे क्या माँगे ?, हे भगवान् ! जगत् दैत्योंसे पीडित हो रहा है उनको सुख विधान किजिए, हे देव ! दैत्योंके मारने योग्य कोई आयुध नहीं है, विना आयुधके वे कैसे मर सकते हैं ? मैं क्या करूं ?, कहाँ जाउँ?, आपकी शरणमें प्राप्त हुआ हूँ, ऐसा कह कर असुरोंसे पीडित विष्णु शिवके निमित्त नमस्कार कर शिवजीके सन्मुख उपस्थित हुए, विष्णुके वचन सुनकर शिवजीने उनको सुदर्शनचक्र दिया, इत्यादि वर्णनको देखनेसे बुद्धिमान यह बखूबी समझ सकता है कि विष्णुकी अंदर परमात्मपना तथा सर्वशक्तिमानपना बिलकुल साबित नहीं होता है, कारण कि जो परमात्मा हो सो किसीको मारनेकी इच्छा नहीं करते, और जो सर्व शक्तिमान होता है उसको शस्त्रादिककी कुछ जरुरत नहीं होती,
और नाही वह किसीके शरणमें जाता है तथापि कृष्णजी गये और सुदर्शनचक्रको प्रार्थना की इससे सर्वशक्तिमान सिद्ध नहीं होते, तैसे ही कमलके चूरानेका पता न लगनसे कृष्णजी में संपूर्ण ज्ञान भी साबित नहीं होता तथा शिवजीने आराधनसे खुश होकर दैत्याको मारनेके वास्ते विष्णुको सुदर्शनचक्र दिया इससे शिवजीमें भी परमात्मपना साबित नहीं होता है और शिवजी सर्वज्ञ भी नही थे, अगर होते
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( ४५ )
तो अपने ज्ञानसे ही विष्णुको जान लेते परीक्षा के निमित कमल हरनेकी क्या जरुरत थी?, इन बातोंका विचार बुद्धिमानोंको स्वयं कर लेना चाहिये.
शिवपुराण ज्ञानसंहिता अध्याय ७४ तथा ७५ वें को देखो
शिवपूजा पर व्याघ्र - शिकारीका तथा वेधनिधि वेश्यागामी ब्राह्मणका दृष्टांत है, जिसके पढने से यह पुराण केवल गप्पगोलावाला मालूम होता है.
विद्येश्वरसंहिता छट्टे तथा सातवें अध्यायमें ब्रह्मा विष्णुका परस्पर युद्ध तथा अग्निसमान तेजस्वी और जिसका आदि अंत विष्णु और ब्रह्माजीने भी नहीं पाया ऐसा लिंग प्रग़ट हुआ, इत्यादि वर्णन वांचनेसे तीनों ही देवोंकी लीला मालूम पडेगी, तथा उनके शास्त्र कैसे बिभत्स शब्दोंका खजाना है सो भी मालूम हो जायगा.
शिवपुराण सनत्कुमारसंहिता अध्याय १३ वें के पत्र १४२ में विभीषणको महादेवजी कहते हैं-
तपसा मनसा चैव दानेनैव तु यत् सदा । अभ्यासेनैव तत्त्वज्ञै- व्रतैर्योगपरायणैः ॥ ३१ ॥ तत्सर्वं लभते प्राज्ञो, मम लिङ्गार्चने रतः । अहं कर्त्ता च हर्त्ता च स्रष्टा चापि युगे युगे ॥ ३२ ॥ प्रभवः सर्वभूतानां महात्मा नात्र संशयः ।
>
अहं ब्रह्मा च विष्णु, सोमवाहं महामुने ! ॥ ३३ ॥ यत् किञ्चिद् दृश्यते लोके, सर्वश्वाहं बिभीषण ! | कामश्चैवाथ वायुश्च नानाऋषय एव च ॥ ३४ ॥ "
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( ४६ ) - भावार्थ-तपसे मानसे दानसे अभ्याससे व्रतयोगमें परायण तत्त्वको जाननेवाले महात्मा जो फल प्राप्त करते हैं ॥ ३१ ॥ वह सब फल मेरे लिंगकी पूजा करनेसे प्राप्त होता है, मैंही युग युगमें सृष्टिका कर्ता हर्ता हूं ॥ ३२ ॥ निस्संदेह मुजहीसे सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, हे महामुने ! मैं ही ब्रह्मा विष्णु और सोम-महादेव हूं ॥ ३३ ॥ हे बिभीषण ! जो कुछ लोकमें दिखता है वह सब कुछ मैंही हूं ॥ ३४ ॥
इस उपर लिखे हुए वर्णनको तुच्छ बुद्धिवाले लोक भले ही सत्य माने परंतु बुद्धिमान् लोक तो इन बातोंको स्वममें भी सत्य नहीं मानेंगे, कारण कि तपस्या करनेसे दान देनेसे व्रत पालनेसे तथा योगाभ्यासमें परायण होनेसे जो फल होता है वो शिवलिंगकी पूजा करनेसे होवे तब तपस्या वगैरह शुभ कृत्य करनेकी जरुर हो क्या रहेगी?, और कुछ भी नहीं और लिंगपूजामें इतना क्या माहात्म्य आगया कि जिससे सारा सभ्य समाज परहेज करता है; तथा मैही ब्रह्मा हूं मै ही विष्णु हूं और जो कुछ लोकमें दिखता है वह सब कुछ मे ही हूं इत्यादि लेखको भी बुद्धिमान् लोग असत्य हो मानेंगे, कारण कि शिवपुराण सनत्कुमारसंहिता अध्याय आठवे में लिखा है सो देखो
ऋषि बोले, शिवजीको किस प्रकार प्रसन्न किया जा सकता है ? सो कहो हमारे सुननेकी इच्छा है ॥ १ ॥ तब ब्रह्माजी बोले, हे ब्राह्मणो ! विष्णुने महादेवको प्रसन्न करनेके लिये एक कोड छासठ हजार वर्षतक शूलपाणी महेश्वरका आलधन किया तब शिवजीने प्रसन्न होकर अनेक वर दिये
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(४७) ॥२॥ युद्धके जितने हारे महाचक्रधारी बली और मेरी तुल्य बलवान् तुम होवो और मेरी भक्ति तुमको अधिक होगी और सामवेदसे तुम गाये जाओगे ॥ ४ ॥ उन्ही शिवके प्रसादसे परमतेजस्वी विष्णुजी अजेय और बली होकर सब पृथ्वीकी रक्षा करते हैं ॥५॥ विरुपाक्ष कमल लोचन महेश्वरको विष्णुने अनेक प्रकारकी श्रेष्ठ पूजा स्तुति और ध्यान धारणादिसे प्रसन्न किया ।। ६ ।। शूलपाणी हिरण्यमय महादेवका ब्रह्माजीने महापूजन ध्यान किया था इससे प्रसन्न होकर शिवजीने चतुर्मुख ब्रह्माको अपने अंगसे उत्पन्न हुए रुद्रके द्वारा संहर्ती किया ॥ ७॥ वही युग युगमें दाता हर्ता रक्षा करनेवाले ' और संहार करनेहारे हैं ॥ ८ ॥ पितामहत्व देवता और असुरोंका ब्रह्माधिपत्य-वेदाधिपत्य परम अध्ययन अनागत अतीत वर्तमान जो कुछ संसारमें हैं, संपूर्ण लोकोमें चराचरत्व ॥ ९ ॥ षडंग सहित सब वेद परिभाषा योग है, ब्राह्मणो ! शिवके प्रसादसे निष्कालत्व और दिव्य ब्रह्मलोक मैने पाया है ॥ १०॥
इस लेखसे सिद्ध होगया कि विष्णुने महादेवजीको अपनेसे बडा और समर्थ जानकर उनकी आराधना करके उनसे वरकी प्राप्ति करी, अब विचार करो कि जब महादेवजी खुद ही विष्णु तथा ब्रह्मा है तो फिर वर प्रदान क्या अपने आपको ही दिया ?, तथा महादेवजी कहते है जो कुछ लोकमें दिखता है वह कुछ सब मैही हुं, अगर यह कथन सत्य होवे तबतो गौ बकरा आदि जानवरोंको काटनेवाले कसाई और कटनेवाले जानवर, मच्छीमार, धाड मारनेवाले धाडुनी लोक आदि तथा कितनेक मार पडनेसे रोते हैं
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(४८) और हाय हाय पुकारतें हैं वे सब देखनेमें आते हैं, वास्ते उन सबकों महादेव ही समझना चाहिये, वाह रे ! वाह ! ! पुराणके लिखने वाले तुने तो महादेवकी स्तुति क्या करी ?, महादेवकी बूरी दशा लिख मारी, ऐसी गप्प बातें जिन पुराणोंमें लिखी हुई है उन पुराणोंको सुननेसे लोकोंका कल्याण कैसे होसकता है ?, इस बातका बुद्धिमान् लोक स्वयं विचार करेंगे. ... तथा महादेवजी कहते हैं-निस्संदेह मुझहीसे सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, यह बात भी सत्य मानने लायक बिलकुल नहीं है, अगर तुम्हारे खयालसे सत्य मानी जावे तब तो महादेवजी महाजुल्मी गिने जायेंगे, क्यों कि इस दुनियां में हत्या गर्भपात और चोरी आदि करने तथा करानेवाले अनेक जीव मौजुद हैं, वो सब अत्याचारी प्राणी महादेवजीसे ही उत्पन्न होनेसे उन लोकोंके किये हुए जुल्म भी महादेवजोसे ही उत्पन्न हुए साबित हुए, अगर महादेवजी सर्वको उत्पन्न करतें है तो वेदशास्त्र पुराण स्मृति आदि शास्त्रोंकी निंदा करनेवालोंको तथा गौ मांसादि भक्षण करनेवाले महाजुल्मो यवनोंको क्यों उत्पन्न किया ?.
शिवपुराण वायुसंहिता अध्याय १७ उसे लेकर २० वें तकमें महादेवजीने वीरभद्रादिकोंको भेज कर दक्षके यज्ञका विध्वंस करवाया और जो दिव्य अन्न वगैरह तथा अनेक प्रकारके मांस आदि पदार्थ वहां रक्खेंथे इन सबको वीरभद्रके अनुचर खाने और फिकने लगे, तब विष्णु वगैरह देवता यक्षके पक्ष होकर वीरभद्रादिसे युद्ध करने लगे, परंतु वीरभ. द्रादिने विष्णु आदि देवोंका बुरा हाल किया, इत्यादि लेखके
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(४९) पढनेसे साफ मालूम हो जाता है कि विष्णु ब्रह्मा और महादेव ये तीनों देव अलग अलग हैं, तथा महादेवजीका अनुचर वीरभद्रः विष्णु आदि देवसे प्रबल है और विष्णु आदि देव निर्बल है, क्या यह शिवजीके महात्मापनेके लिये उाइ हुई गप्प नहीं हैं ?, ऐसे गप्पगोले जिन शास्त्रोंमें चलाये गये हैं उन शास्त्रोंको माननेवालका ख़र-भला हो ऐसा कौन अकलमंद मान सकता है ?, तथा यज्ञमें रक्खे हुए मांसके जिकरसे यज्ञोंमें अनेक जीवोंकी हत्या की जाती थी यह भी सिद्ध हुआ, और महादेवजी तथा इनके अनुचर वीरभद्रादि बडे क्रोधी और मांसादि भक्षण करनेवाले थे, ऐसे देवोंके कल्पित कथानकोंसे भरे हुए पुराणोंके सुननेसे जीवोंका कल्याण कैसे हो सकता है?
शिवपुराण धर्मसंहिता अध्याय दूसरेमें लिखा है कि-श्रीकृष्णने सोल महिना तक तपस्या पूर्वक शिवजीकी आराधना करी उससे शिवजी श्रीकृष्णजी उपर प्रसन्न होकर कहने लगे तुम मेरेसे पवित्र और त्रिलोकीमें दुर्लभ ऐसे आठ वर माँगो, तब उनके इस वचनको सुनकर श्रीकृष्ण हाथ जोडकर वरदान माँगने लगे, इत्यादि वर्णन भी महादेवजीसे कृष्णको भिन्न साबित करता है तथा कम दर्जेका साबित करता है, न मालूम वैष्णवोंकी इस पुराणके पढते वख्त इन बातों पर श्रद्धा कैसे कायम रहती होगी ?.
शिवपुराण सनत्कुमारसंहिता अध्याय तेरहवें में महादेवजी बिभीषणको कहते है कि मै ही ब्रह्मा विष्णु और महेश हूं, अब विचार करना चाहिये कि उपर के पाठमें
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(५०) तो महादेवजी कृष्णजीको वरदान माँगनेकी प्रेरणा करते हैं
और इधर-सनत्कुमारके तेरहवें अध्यायमें ब्रह्मा विष्णु और महेश मैं ही हूं ऐसा कहते हैं, अब इन परस्पर विरुद्ध दोनों पाठोंमेंसे किसको सच्चा कहना और किसको असत्य कहना ? सो बात बुद्धिमानोंको विचारनेकी है.
शिवपुराण धर्मसंहिता अध्याय तीसरेमें उल्लेख किया है कि तारकाक्ष विद्युन्माली और कमलाक्ष इन दैत्योंने बडी भारी तपश्चर्या की, जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्माजीने उनकों वर माँगनेको कहा तब उनोने हाथ जोडकर कहा कि हे भगवन् ! हम पराक्रमवालोंका ऐसा स्थान कोई नहीं है जो शत्रुओंसे अधृष्य हो और जहां हम सुखसे निवास कर सकें, अब तारकाक्षने कहा जो देवताओंसे अभेद्य हो ऐसा विश्वकर्मा हमारे वास्ते सुवर्णका स्थान बनावें, विद्युन्मालीने महाकठीन लोह दुर्ग की और कमलाक्षने चाँदीके दुर्गकी प्रार्थना की, इसके बाद वे पराक्रमो दैत्य फिर कहने लगे, हे देव ! हम दिव्यलोकमें ही अपने स्थानकी इच्छा करते हैं अन्यत्र नहीं, तब ब्रह्माजीने विश्वकर्मासे कह कर उनके वास्ते तीन पुर बना दिये, और उन तीनों पुरोंमें दैत्यलोक रहने लगे, तथा सकुटुंब देवतादिकोंका उन दैत्योंने बुरा हाल किया तब देवता लोक शिवजीके शरण गये और स्तुति करी, आखर शिवजीने उन तीनों नगरोंको स्त्रीओं तथा बालबच्चा सहित भस्म कर दिया, इस वर्णनसे शिवजीमें अधर्म तथा निर्दयता सिद्ध होती है, क्यों कि सामान्य रीतिसें जरा भी . धर्मको समजता हो उससे भी ऐसा कार्य नहीं हो सकता है,
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( ५१ )
अगर कहा जाय कि उन दैत्योंने देवता आदिको दुःख दिया इस वास्ते बाल बच्चां और स्त्रीयों सहित उनके नगरोंको जला दिया, तो यह भी बात युक्ति युक्त नहीं है, कारण कि सर्वशक्तिवाले शिवजीको त्योंकी बुद्धिको सुधार देना चाहिये था, अगर ऐसा करने में शिव असमर्थ था और उसको इस अयुक्त कर्मको जरूरी करना ही था तो बिचारी स्त्रीयोंको तथा निर्दोष बच्चों को तो बचा लेना था अगर कहा जावे कि सर्पके बच्चे भी सर्प हो ते हैं इनको बचाकर क्या करनाथा तो फिर ऐसेको महादे वजीने उत्पन्न ही क्यों किये ?, तथा राजालोक भी इन्साफ से जो गुनाह करते हैं उनको ही सजा - शिक्षा देते हैं अन्यको नहीं, अतः महादेवजीका बालबच्चां सहित त्रिपुरका जलाना नितांत अन्याय है, और ब्रह्माजीने उन दैत्योंको वरदान दिया उस वख्त क्यों नहीं विचार किया कि मै इन दैत्योंको ऐसा वरदान देता हूं, मगर ये दैत्य मेरे इस दिये हुए वरदानसे बडे जबरदस्त होकर देवतादिकोंको बडी ही तकलीफ देंगे, और फिर पीडित हुए देवता महादेवजी से पूकार करेंगे तब शिवजी बालबच्चां सहित त्रिपुरको जला देंगे इस महापापका भागी मैभी होउंगा, वास्ते ब्रह्माजी भी अल्पज्ञ सिद्ध हुए, ऐसे अल्पज्ञ और अन्याय करनेवालोंकी कथा सुनने से कल्याण कैसे हो सकता है ?, और ऐसे देवोंकी पूजा और स्तुति, धर्मके लेश को भी उत्पन्न नहीं कर सकती ऐसा कोई कहे तो इसमें द्वेषोक्ति क्या है ?,
शिवपुराण धर्मसंहिता अध्याय ४-५ और ६ वें में
देखो
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(५२) उसमें अंधकदैत्य की उत्पत्ति ऐसे लिखी है कि मंदरपर्वत पर बैठे हुए अत्यंत पराक्रमी शिवके नेत्रोंको प्रेमवश पार्वतीने बंद किया, तब इनके नेत्र दते ही अंधकार छवाया, इनके हाथके स्पर्शसे पार्वतीके हाथसे मदका जल स्खलित होने लगा, और शिवके ढके हुए नत्रोंकी अग्निसे तप्त हो बहुत जल निकलने लगा, और वो ही जल कराग्र स्थानमें गर्भरूप हो गया, जो गर्भ गणेशको भी क्षयदायक हुआ, क्रोधमें तत्पर और शत्रुका नाश था दूसरा विरुप जटिल दाढों मूछोंसे युक्त कृष्ण वर्ण बूरी मूरत रोमोंसे युक्त गाते हँसते और रोते जीभ काढते, तथा घनघोर शब्द करते हुए उत्पन्न हुआ, बस--अद्भूत दर्शनके उत्पन्न होते ही शिवने हंस कर पार्वतीसे कहा, नेत्र मींच कर इस कमको करके हे भार्ये ! तूं मुजसे क्यों भयभीत होती हो ?, तब गौरीने शिवके वचन सुन कर हंस कर नेत्र खोल दियें, तब प्रकाश होनेमें अंधकार उत्पन्न होनेके कारण बह अन्ध नेत्र ही हुआ, इस प्रकारसे उसको देख कर गौरीने शिवजीसे कहा यह कौन है ? सत्य कहिए, किसने किस निमित्त, इसको उत्पन्न किया है ?, किसका पुत्र हैं ?, शिवाके वचन सुन कर शिवजीने कहा कि यह अद्भूत कर्मचंड उत्पन्न हुआ है, तुलारे नेत्र पूँदनेसे पसीना उत्पन्न होनेके कारण यह उत्पन्न हुआ है, इसका नाम अंधक होगा, सो यथानुरूप मै ही इसका कर्ता हूं इत्यादि बहूत वृत्तांत है, आखर अंधकका और शिवजीका बड़ा भारी युद्ध हुआ इत्यादि बयान देखनेसे शिक्जी विष्णु तथा ब्रह्माजीकी कर्तृत अच्छी तरहसे मालूम हो जायगी.
शिवपुराण धर्मसंहिता अध्याय ९ वें में वर्णन है कि
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( ५३ ) श्रीकृष्ण दैत्य और देवताओंका अस्त्र शस्त्रोंसे युद्ध हुआ, परस्पर एक दूसरोंको मारने लगे तब दैत्य लोक विष्णु भगवान् और देवताओंसे मारे गये, मरणसे बचे हुए पातालमें प्रवेश कर गये, विष्णु उनके पिछे हुए, उस समय विष्णुने अमृतसे उत्पन्न हुई अप्सराओंको देखा, जिनका पूर्णचंद्रमाके . समान मुख था और जिससे वे दिव्यलावण्यतासे गर्वित थीं, उनको देख कर काम बाणसे विद्ध हो विष्णुने परमसुख मामा और उन दिव्यस्त्रीयोंके संग क्रोडा करने लगे, उनके महाबली पराक्रमी पुत्र हुए जो युद्ध में बडे पंडित और पृथ्वी कंपित करने वाले थे, इसी अवसरमें ब्रह्माने शिवजीको कहा कि स्वर्गकी रक्षाके निमित्त विष्णुजीको लाओ तब शिवजी बलदकारूप धारके गर्जना करते महाभयंकर शब्द करते हुए उस विक्रमें प्रविष्ट हुए, उनके शब्दसे पुरोंके अंतःपुर पड गये, तब क्रोध कर अप्सराओंसे उत्पन्न हुए हरिके पुत्र संग्राम करनको तैय्यार हुए, उनको रुद्ररुपसें खूर और शूगोंसे विदीर्ण किया, उनके मृत्युको प्राप्त होने पर विष्णु शिवकी समीप गयें, तब केशवने शिवजोको दिव्य अस्त्र और बाणोंसे ताडन किया, शिवजी विष्णुके संपूर्ण अत्रोंका ग्रास कर गये, जब नारायणने जाना कि जगत्पति गौरीश आगयें हैं, तब गंभीर वाणीसे वोले, भगवान् ! क्षमा करो, उनके वचन सुन कर शंकर बोले तुम क्यों नहीं अपनको जानते कि तुमही विश्वके कारन हो, तुमको इस विषयमें रति नहीं करनी चाहिये, हमारी आज्ञासे निवृत्त हो यह सुन कर लज्जित हो विष्णुने महेश्वरसे कहा, मेरा यहां चक्र है मैं उसको शिघ्रतासे ग्रहण
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(५४) करता हूँ, तब विष्णुसे महादेवजीने कहा चक्र यहां स्थिर रहो, तुम दैत्योंके मुखच्छेदन करो, मैं इससे भी महाघोर चक्र तेरेको कथन करता हूं, यह कह कर शिवजीने दिव्य कालानल चक्रको विष्णुके प्रति दे दिया, घोर दस हजार मूर्यके समान कान्तिमान दुसरे सुदर्शन चक्रको भगवान् विष्णु प्राप्त होकर देवताओंसे बोले, पातालमें यौवनवती स्त्री विद्यमान है, उनके साथमें जो क्रिया करते हैं सो करो, संपूर्ण देवयोनी केशवके वचन सुन कर विष्णुके सहित पातालमें प्रवेशकी इच्छा करके चली, उसी समय भगवान् शिवजी उनकी चेष्टा जान करके यह अप्सराओंको हरण करेंगे, उन आठ योनिओंको शाप देते हुए कि शांत मुनि दानव और मेरे अंशसे उत्पन्न हुओंको छोड कर जो इस स्थानमें प्रवेश करेगा वह उसी समय नष्ट हो जायगा, इस मनुष्यके हित करनेवाले घोर शापको सुन कर रुद्रसे तिरस्कृत होकर देवता अपने घरको आगये, इत्यादि वर्णनसे साफ सिद्ध हो गया कि विष्णु ब्रह्मादि देव कामदेवके वशीभूत थे, तथा विष्णु पातालमें जाकर उन स्त्रीओंसे भोग भोगने लगे, और पुत्र भी उत्पन्न किये, तो भी विष्णु उन स्त्रीयोंको छोड कर अपनी इच्छासे नहीं आयें, अंतमें ब्रह्माजीने शिवजीको कहा कि तुम स्वर्गकी रक्षाके निमित्त विष्णुको लावो, इस पूर्वोक्त लेखसे बुद्धिमान खुद समझ लेंगे कि विष्णु कैसे कामी थें १, और शिवजी बलदकारूप धारण करके महाशब्द करते हुए वहां गए, उनके इन शब्दोंसे पूरोंके अंत:पुर पड गए, तथा हरिके पुत्र लडनेको आये, उनको अपने खुरोंसे तथा शृंगोंसे फाड डालें, इत्यादि शिवजीके अविचारित
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कार्य कहां तक लिखें १, शिवजीको सर्वशक्तिमान् परमेश्वर माननेवालोंसे हम पूछते हैं कि शिवजीका बलदरूप लेकर वहां जाना, भयंकर शब्द करना, मकान तोडना और खुरोंसे शंगोंसे हरिके पुत्रोंको मारना, इत्यादि अधमकृत्य करनकी क्या जरुरत थी ?, सर्व शक्तिमान् इन बातोंके विना दूसरे उपायसे विष्णुको सचेत नहीं कर सकता था ?, अगर कहोगे नहीं, तो सर्वशक्तिमत्ता उड जाती है, अगर कहोगे 'हा' तो शक्ति होने पर भी ऐसे अनुचित कार्य करनेसे पूर्ण निर्विवेकता सावित होती है, क्या ऐसे निर्विवेकी काम करनेवाला परमात्मा हो सकता है ?, कहना ही होगा कि नहीं...
शिवपुराण धर्मसंहिता अध्याय १० वें में शिवजीके बहोत बेहुदे कामोंका वर्णन है, कहां तक लिखें, मांस तकका भक्षण ऋषियों सहित शिवजी करते थे ऐसा जिकर भी आता है. देखो----- “ भक्ष्यनीनाप्रकारैश्च, हृयैः पुण्यैश्च पानकैः ।
घृतेन दधिना चैव, क्षीरेण च तथा फलैः ॥१७५ ॥ मूलैर्नानाविधैः पुण्यै-माँसैरुच्चावचैरपि । स स्नातो येन सहितः, परिवारेण शङ्करः ॥ १७६ ॥"
शिवपुराण धर्मसंहिता अध्याय १६ वे का श्लोक ८६ वा देखो" सुगन्धैश्च सुरामांसः, कर्पूरागुरुचन्दनैः। मुस्तादियुक्ततोयेन, स्नापयेदीश्वरं सदा ।। ८६.॥
मतलब-सुगंधयुक्त सुरा मांस कपूर अगर चंदन मोया जलमें डाल कर ईश्वरका सदा यजन-पूजन करें ।। ८६॥
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(५६) ... इस उपर लिखे हुए श्लोकसे यह भी सिद्ध हो गया कि महादेवजीके यजनमें सुरा-मदिरा और मांस भी काम आते थे.
शिवपुराण धर्मसंहिता अध्याय २० वें में लिखा है किजो ब्राह्मणोंको उपानत् और खडाई देता है वह अश्व पर चढ़ कर सुखसे यमके मागको नाता है ॥ ४ ॥ छत्र दानसे छत्रवालोंके समान चलते हैं, शिविकाका दानसे रथ पर चढ कर सुखसे मार्गमें जाना होता है ॥५॥ शय्या आसनके प्रदानसे अवश्य सुखपूर्वक जाना होता है, आराम और छायाके वृक्ष लगानेवाले वृक्षोंकी छायामें 'जातें हैं ॥ ६॥ गौदान करनेवाले सब कामनासे संपूर्ण होकर मार्गमें गमन करतें हैं ॥११॥ जो अन्नपानका दान करते हैं वह तृप्त होकर उस मार्गमें गमन करते हैं, पाद शौच प्रदान करनेसे शीतल मार्गमें जातें हैं ॥ १२ ॥ जो चरणोंमे तेल मलता हैं वह अश्व पृष्ठ पर चढ़ कर चला जाता है, पाद शौच अभ्यंग दीप अन्न वासस्थान ॥ १३ ॥ हे व्यासजी ! जिन्होंने इतनी वस्तुओंका दान किया है. वे यमराजाके वहां नहीं जाते हैं, सुवर्ण रत्नके दानसे बडे कठीन स्थानोंको तर जाते है ॥ १४ ॥ चाँदी और बैलके दान करनेसे प्राणी यानद्वारा गमन करता है, पृथ्वी दान करनेवाला सब कामनासे समृद्ध होकर जाता है ॥ १५ ॥ इत्यादि और भी अनेक दान करनेसे पाणी सुखसे यमालयको जाते हैं, वे मनुष्य सदा ही स्वर्गमें अनेक भोगोंको भोगते हैं
.. इसी अध्यायके बीचके नीचे लिखे हुए श्लोकोंके देखनेसे अपने तथा अपनी संतानके सुखसे निर्वाह करनेके
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( ५७ )
लिए अनेक तरहके दानोंके मनको लुभानेवाले जुमुदे फलों का ऐसा वर्णन किया है कि जिसके देखनेसे उनकी स्वार्थ मिक्ताका पूरा पता मिलता है, देखो
"
"सुवर्णशृङ्गैः सुविसजितानां गवां सहस्रं च नरः प्रदाता । प्राप्नोति पुण्यं दिवि देवलोक - मित्येवमाहुर्मुनिदेवसंघाः ॥५६॥ प्रयच्छति यः कपिलां सवत्सां, शस्यस्य दोहां द्रविणाम्यशृंगीम् तैस्तैर्गुणैः कामदुघास्य भूत्वा नरं प्रदातारमुपैति सा मौः ॥५७॥ यावन्ति रोमाणि भवन्ति धेन्वा-स्तावत्फलंलगोर्भते प्रदाता । पुत्राश्च पौत्राँश्च कुलं च सर्व मासप्तमं तारयते परत्र ॥ ५८ ॥ सदक्षिणां काञ्चनचारुशृङ्गीं, कांस्योपदीहां द्रविणोत्तरीषाम् । धेनुं तिलानां ददतो द्विजाय, लोका वसूनां सुलभा भवन्ति
॥ ५९ ॥
स्वकर्मभिमनवसनिबद्धं, तीव्रान्धकारे नरके पतन्तम् । महार्णवान्भरिव वातयुक्ता, दानं गवां तारयते परत्र ॥ ६० ॥ यो ब्रह्मदेयां तु ददाति कन्यां भूमिप्रदानं च करोति विमे । ददाति वित्तं विविधं च यथ, सलोकमाप्नोति पुरन्दरस्य
॥ ६१ ॥
नैवेशिकं सर्वगुणोपपन्नं, यो वै ददाति पुरुषो द्विजाय । स्वाध्याय चारित्रगुणान्विताय, तस्यापि लोकान् प्रवदन्ति निश्वान् ॥ ६२ ॥
•
धूर्यप्रदानेन तथा गवाचै - लोकानवाप्रोति नशे बसूनाम् । स्वर्गीय चाप्याहु हिरण्यदानं ततो विशिष्टं कनकप्रदानम् ॥ ६३ ॥ छत्रप्रदानेन गृहं विशिष्ट, यानं तथोपानहूसम्प्रदाने । वस्त्रप्रदानेन फलं सुरूपं, गन्धप्रदाता सुरभिर्नरः स्यात् ॥ ६४ ॥
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(५८)
पुष्पोपाँचैव फलोपगाँश्च यः पादपान् यच्छति (बै) द्विजाय । सुखीसमृद्धं बहुरत्नपूर्ण, लभेत यत्नोपचितं गृहं वै ॥ ६५ ॥ भक्ष्यान्नपानस्य रसस्य दानं सर्वानवाप्नोति रसान् प्रकामम् । प्रतिश्रयाच्छादनसम्पदाता, प्राप्नोति तानेव न संशयोऽय ||६६ || स्रग्दानगन्धान्यनुलेपनानि, स्नानानि माल्यानि च मानवो यः । दद्याद् द्विजेन्द्राय भवेदरोग-स्तथा सुरूपश्च नरेन्द्रकल्पः ॥ ६७ ॥ बीजैरशून्यं शरणैरुपेतं दद्याद् गृहं यः पुरुषो द्विजाय । पुण्याभिरामं बहुवत्रपूर्ण, लभत्यधिष्ठानपरं मुनीश ! ॥ ६८ ॥ सुगन्धचित्रास्तरणोपपन्नं दद्यान्नरो यः शयनं द्विजाय । रुपान्वितां पुत्रवर्ती मनोज्ञां भार्यामयत्नोपगतां लभेत् सः ॥ ६९ ॥
"
व्यास उवाच
यानि यानि तु देयानि दानानि परिचक्षते । तेभ्यो विशिष्टं किं दानं १, किं तारयति ? तद् वद
सनत्कुमार उवाच
अभयं सर्वसत्त्वेभ्यो, व्यसने चाप्यनुग्रहः । यच्चाभिलषितं दद्यात् तृषितायोपयाचते ॥ ७१ ॥ दत्तमन्वेति यद्दत्त्वा तद्दानं श्रेष्ठमुच्यते । दत्तं दातारमन्वेति तच्छ्रिणुष्व महामते ! ॥ ७२ ॥
हिरण्यदानं गौदानं, पृथिवीदानमेव च । एतानि वै पवित्राणि, तारयन्त्यतिदुष्कृतिम् ॥ ७३ ॥
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॥७०॥
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दानान्येतानि साधुभ्यो, दत्त्वा मुच्यते पातकात् । .... यद्यदिष्टतमं लोके, यच्चास्ति दयितं गृहे ॥ ७४ ॥.... तत्तद्गुणवते देयं, तदेवाक्षयमिच्छता। प्रियाणि लभते लोके, प्रियदः प्रियकृत्तथा ॥ ७५ ॥"
इत्यादि अनेक श्लोक दानके स्तुति के भोले लोकोंको सुनाकर ब्राह्मण लोकोने इस लोकमें सुखी रहनेका उपाय किया है, परंतु परलोकमें "बच्चे सहित स्त्री जो ब्राह्मणको देता है उसको जलदी स्त्री मिल जाती है, इत्यादि गपोडे उपर के श्लोकोमें जो हांके हैं, ऐसे गपोडे हांकनेसे " हमारी क्या गति होगी ? इस बातका जराभी खयाल नहीं किया है. .. .
श्रावक-भगवन् ! ऐसे ऐसे आचरण करने वाले जहाँ पर देव हैं और ऐसे स्वार्थी ब्राह्मण गुरु हैं कि भक्तोंको पुत्र सहित स्त्री देनेकाभी उपदेश देते हैं, और सोना चाँदी. गौ भेंस घोडा गाडी आदि दुनियांके सब असबाब ब्राह्मणको देनेसे महान् लाभ वर्णन करते हैं, और जिस धर्मके माननेवाले अपने देवताओंको भोगीयोंसेभी बढकर भोग भोगनेमें आसक्त ( शास्त्रोंसे) जानते हैं तथा मांसाहारो सुनते हैं, फिर भी उनकी बुद्धि उन पवित्र बातों तक क्यों नहीं पहुंचती ? और विचार कर सत्यमार्गकी तरफ रजु क्यों नहीं होती ?.
सूरीश्वरजी-महानुभाव ! तुम्हारा यह प्रश्न ठीक है, मगर यह बनाव गोपाल और स्वर्णकार जैसा है, जिससे वे लोग ऐसे व्युद्ग्राहित हुए हुए हैं कि अपने खोटे मत को भी दुनियांके सब मतोंसे श्रेष्ठ मानते हैं, जिन लोगोंके पुण्यो,
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( ६० )
दयसे मिथ्यात्वकी स्थितिका परिपाक हुआ है वे कितनेक मान भी जाते हैं बस इस लिये यह प्रयत्न है.
श्रावक - साहिब ! गोपाल और उसके दोस्त सुनारका - क्या बनाव बना था ? और यहाँ पर यह दृष्टांत किस तरह संबंध रखता है ? सो कृपया फरमाइये.
सूरीश्वरजी --- भव्यात्मन् ! सुनिये.
एक नगरमें पुरुषोत्तम नामका महा धूर्त स्वर्णकार रहता था, उसके पास कोई देवला नामका गोपाल - अहीर जब शहेरमें आया जाया करता बैठ जाताथा, इस तरह वारंवार उसकी दुकान पर बैठने से आपसमें बडी मैत्री हो गई, एक दिन देवलाने सुनारसे कहा कि वर्षोंकी महिनतसे मैने कितनीक रकम जोडी हुए है, उसकी रक्षामें मुझे बडी फिकर रहती है, हमारें लोगोंका ज्यादा तर बहार सीममें ही फिरना होता है, जिससे दिल हरदम घरमेही रहा करता है कि हाय ! कोई निकाल कर ले न जाय, इस लिये कल रात्रि को मेरे दिल में खयाल आया कि इस रकमका एक सोनेका निकर-नकुर कडा बनावे. जो हाथमें पंडा रहे, जिससे हरदम साथ रहेगा और चिन्ता मिट जायगी, इस लिये तुम मेरे दोस्त हो; रकम मैं तुमको देता हूँ, तुमने कडा बना देना, सुनार वोला भाई ! दूसरेके वहाँ जाकर यह काम करा लेना मैं नहीं करता, उसने कारण पूछा, जबाब कारण यही कहा कि इस इलाकेके तमाम लोक मेरे शत्रु हैं, कोई कारीगरी में नुक्स कहेगा तो कोई पीतल हीं बतावेगा, इस लिये में मना ही करता हूँ, तब गोपालने
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( ६१ )
कहा कि मित्रवर ! इस विषयकी फिकर मत करो, काम शरु करो, मैं ऐसा कन्या नहीं जो लोगोंके कहनेसे दोस्ती तोड. लूं, बस बात ही क्या थी !, सुनारने समान आकार के दो कडे एक सोनेका और एक पीत्तलका तैयार किये, अब एक दिन उसको सच्चा कडा पहना कर कहा शहरमें और शहर के बहार आसपास स्थानों में फिरना और मेरा नाम लिये बगैर कहना कि यह कडा कैसा है ? गोपालने एसा ही किया, जहां कहीं उसने दिखाया स्वर्ण परिक्षकोंने उस कडे को सच्चा ही कहा, दूसरे दिन उस धूर्त सोनारने गोपालको पीत्तलका कडा पहिनाया और कहा कि कल फिराया वहां हीं आज भी फिर कर- मैं ( पुरुषोत्तम ) ने यह बनाया है ऐसा कह कर पूछना कि यह सच्चा है कि झूठा ?
सोनारके कहने मूजब आहीरने किया, जहां गया वहाँ झूठा है एसा उत्तर मिला मगर व्युद्ग्राहित-ठगाकर हठ पकडने वाले गोपालने सबको झूठा माना और मनमें विचारने लगा अहो ! इस बस्ती में कितना द्वेष है, उसके नाम लेनेसे कलजो सच्चाथा वोभी आज झूठा होगया, द्वेषका भी कुछ सुमार है, ! ऐसे सोचता हुआ मित्रके पास आया, और कहने लगाकि मित्र । तुमने मुझसे प्रथम सूचना की सो ठीक किया, नहीं तो यहां के हराम खोर लोग अपनी दोस्तीको तुडा देते. ऐसा कह कर पीतलकाही कडा पहिन कर घरपर गया और सब रकम सोनारा पचा गया, बस ऐसाही हाल लोगों का मिथ्याधर्म पोषकोंने किया है, अपने ग्रंथोंमें युक्ति प्रयुक्तिसें भरपुर शुद्ध देव गुरु और धर्मके स्वरुपका दर्शक और मुषितर्गके प्रापक
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(६२) जैन दर्शनकी ऐसी निंदा लिखी हुइ है किजिसको सुन कर भद्रिक लोक ऐसा मानने लगते हैं कि जैन दर्शन. तो हमोर में नुक्स दिखलानेके लिये ही है, हमारा द्वेषी है, बस ऐसी वासनासे अबलतो वे लोग संबंध हो कम रखते हैं, अगर कभी संबंध होगया और किसी समझदार जैनने मत विषयमें कहा तो मानने लगते हैं कि ये द्वेषसे कहते हैं, अथवा पौराणिक कल्पनासे दैत्योंको शुक्राचार्यके कथनसे विरूद्ध करनेके लिये यह मत चलाया गया जिससे आदरणीय नहीं है, इत्यादि मन गढंत विचारसे " ऐसा मानने लगते हैं कि वेदके हिंसा कर्मका विचार " यूपं कृत्वा " और श्राद्ध पितर कैसे तृप्त हो सकते है, इत्यादि बातें हमारे पुराण दैत्योंको दुर्गतिमें लेजानेके लिये दिखाइ है, अतः हम नहीं मानेंगे मगर ऐसा नहीं मानते हैं कि ब्राह्मग लोगोंने अपने हिंसक कर्म तथा उदर पोषण निमित्त चलाये हुए श्राद्ध, दान लेनकी बुद्धिसे कल्पे हुए यज्ञ जैनों की दलीलोंसे झूठे सिद्ध होते हैं इस लिये " अपने ढकोंस ले चलानेके लिये शुक्राचा. योदि की यह झूठी कल्पना की है जैसे वह गोपाल, लोगोंको द्वेषी समझता रहा मगर सोनारको धूर्तताको नहीं समझा, बस ऐसाही हाल भद्रिक लोकोंका हो रहा है, जैसे गोपाल प्रथम सोनीके हाथमें आया उसी वख्त उसने उस्के कानमें अपनी फूंक मारली पिछेसे लोगोंने चाहे इतना कहा किसीकी नहीं मानी ऐसे ही मिथ्यामत पोषक प्रथमसे ही अपने अनुयायोयोंके कानमें फुक ऐसी खूबीसें मारते हैं कि जनमभर विचारे सच्चे धर्मको हाँसिल ही न कर सकें, हाँ किसीका पूर्ण पुण्योदय होवे और समझ जायतो बात जुदी है, नहीं तो वहां तक
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(३) कहते हैं कि अगर सामने हाथी आता हो तो हाथीके नीचे आकर मर जाना अच्छा ..ममर . अपने बचावके लिये भी जैन मन्दिरमें जाना नहीं अच्छा, मैं ऐसा कहना नहीं चाहता कि लोग एकदम अपने धर्मको छोड कर जैन बन जावे अथवा जैन धर्मको बगैरे विचार उत्तम कह देवें मेरा तो इतनाही कहना है कि दूसरे लोग अपने शास्त्रोंकी बाबतोंसे तथा जैन शास्त्रोंकी बाबतोंसे पूर्ण वाकिफ होकर समतारुप त्राजुसे तोल कर धर्मको स्वीकारें और पाये हुए इस मनुष्य जन्मको सफल करें क्योंकि जन्मकी सफलता एशो अशरतमें नहीं है किन्तु सच्चे धर्मको हासिल करने में है असल धर्मांजीवनको जिसने हासिल किया वह जन्म मरणकी धारासे बचकर अनंत सुखका स्थान मुक्ति पदको प्राप्त करता है.
और विषयी जन नरको रूलता है, रसलिये मनुष्य मात्रका फर्ज हैकि धार्मिक जीवन बनावे, मगर गोपालकी तरह अपने ही शास्त्रकारों पर विश्वासमें फंसकर अन्य शास्त्रकारोंकी तरफ दृष्टि भी न देवे और देवे तो व्युद् ग्राहित होकर देवें और मेरा सोही सच्चा इस सिद्धांत को पकड कर मिथ्या धर्मसे अपने जीवन को धार्मिक जीवन मान लेवे तो ठीक नहीं, लो अब टाइम बहुत हो गया है इस लिये इस विषयको यचं ही रखते हैं.
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( ६४ )
तृतीय- दिवस.
ती
सरे दिन जगदुपकारी सत्यधर्म प्ररूपक मन वचन और कायामें एकसी स्थितिवाले सौजन्यशाली सूरीश्वरजी अपने प्रातःकालीन सर्वकृत्यों से निफराम होकर पट्ट पर विराजित हुए हैं इतनेमें वह भाग्यशाली श्रावक कि जिसको सूरीश्वरजी महाराजके कोमल और माधुर्य धर्मप्रद वचन सुननेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है आ चढ़ा, महाराजश्री तथा आपके समस्त परिवारको वंदन करके बैठ गया और आगे के विषयको सुननेकी जिज्ञासा की, परमदयालु सूरीश्वरजी महाराजने फरमाया किशिवपुराणं धर्मसंहिता अध्याय २२ श्लोक ५० वें से देखो" सम्बोधयन्ति लोकं तं, तस्मात् पूज्यतमो गुरुः । सर्वेषां चैव पात्राणां श्रेष्ठः पुराणवित्तमः ॥ ५० ॥ पतनात्रायते यस्मात् तस्मात्पात्रमुदाहृतम् ।
धनं धान्यं हिरण्यं च वासांसि विविधानि च ॥ ५१ ॥ ये ददन्ति सुपात्राय, ते यान्ति परमां गतिम् । गां रथं महिषीं चैव, गजानश्वांश्च शोभनान् । ॥ ५२ ॥
यः प्रयच्छति मुख्याय, तस्य पुण्यफलं शृणु । अक्षयं सर्वकामीयं, सोऽश्वमेधफलं लभेत् ॥ ५३ ॥
महीं ददाति यस्तस्मै, कृष्टां फलवतीं शुभाम् । स तास्यति वै वंशान दश पूर्वान्; दश परान् ॥ ५४ ॥”
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(६५) भावार्थ-लोकोंको बोध करता है इससे गुरु पूज्यतम है, संपूर्ण पात्रोमें पुराण जाननेवाला श्रेष्ठ है ॥ ५० ॥ पतनसे रक्षा करता है इस लिये पात्र कहलाता है, धन धान्य सुवर्ण
और अनेक प्रकारके वस्त्रोंको जो सुपात्रको देते हैं वे परमगतिको प्राप्त होते हैं, गौ रथ महिषी हाथी सुन्दर अश्वोंको जो श्रेष्ठ ब्राह्मणको देता है उसके पुण्यका हाल सुनो, अक्षयफल और संपुर्ण कामनाओंको पाकर अश्वमेधयज्ञका फल पाता है . ॥ ५१-५२-५३ ॥ और जो खेडी हुई अथवा फलवती पृथ्वी देता है वो प्रथमके और पीछे के दश वंशोंको तार देता है ॥५४॥
इस उपरके लेखको देखकर बुद्धिमान लोग विचार करेंगे कि जो ब्राह्मण गौ भेस हाथी घोडा रक्खें ऐसे लोभी ब्राह्मणको श्रेष्ठब्राह्मण कैसे कह सकते हैं ?, क्यों कि लोभ पापका मूल है उस मूलको पोषण करनेवाले शख्सको दान देनेवाला अक्षय फलको कैसे प्राप्त कर सकता है ?, ये श्लोक फक्त भद्रिक लोकोंको भ्रममें डाल कर उनके जुमीन माल मिलकत आदि पदार्थोको खोस लेनेके लिये बनाये गये हैं ऐसा प्रतीत होता है.
शिवपुराण धर्मसंहिता अध्याय २२ वे के अंतमे लिखा है कि
" न यज्ञैस्तुष्टिमायान्ति, देवाः प्रेक्षणकैरपि ॥ ५५ ॥ . बलिभिः पुष्पपूजाभि-र्यथा पुस्तकवाचनैः। . . विष्णोरायतने यस्तु, कारयेद्धर्मपुस्तकम् ।। ५६ ॥ शम्भोरकस्य कस्यापि, शृणु तस्यापि यत्फलम् । राजसूयाश्वमेधाभ्यां, फलं पामोति मानवः ॥५७ ॥ इतिहासपुराणानां पुण्यं पुस्तकवाचनम् ।
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( ६६ )
* सर्वान् कामानवाप्येह, सूर्यलोकं भिनत्ति सः ॥ ५८ ॥ सूर्यलोकं च भित्त्वा स ब्रह्मलोकं च गच्छति । स्थित्वा कल्पशतान्यत्र, राजा भवति भूतले ॥ १९ ॥ अश्वमेधसहस्रस्य यत्फलं समुदाहृतम् । तत्फलं समवाप्नोति, देवाग्रे यो जपं पठेत् ॥ ६० ॥ तस्मात् सर्वप्रयत्नेन कार्यं पुस्तकवाचनम् । इतिहासपुराणानां, शम्भोरायतने शुभे ॥ ६१ ॥ नान्यत् प्रीतिकरं शंभो - स्तथान्येषां दिवौकसाम् || "
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भावार्थ - देवता नाटकवत् यज्ञोंसे सन्तुष्ट नहीं होते हैं ।। ५५ ।। जैसे उपहार पुष्प पूजा और पुस्तक वांचनेसे प्रसन्न होते हैं, विष्णु के स्थानमें जो पुराणादिककी कथा कराता है ।। ५६ ।। अथवा शिवालय में पुस्तक बंचवाता है उसके पुण्यका फल सुनो- वो मनुष्य राजसूय और अश्वमेध के फलको प्राप्त होता है | १७ || इतिहास पुराणोंकी पुस्तक बांबनेका पुण्य दायक फल है वो सब कामनाओं को प्राप्त झेकर सूर्यलोकको भेद करता है || १८ || सूर्यलोकको भेद कर वो ब्रह्मलोकको जाता है, सौ कल्पतक वहां रहकर फिर पृथ्वीमें राजा होता है ।। ५९ ।। सहस्र अश्वमेधका जो फल होता है वोही फल महाभारत, अठारह पुराण, विष्णुधर्म, शिवधर्म विषयक जयसंज्ञक ग्रन्थों के पढनेसे होता है ॥ ६० ॥ इस कारण सब प्रयत्नसे पुराणादिककी कथा कहनी चाहिये, इतिहास पुराणोंको शिवजी के सुन्दर मन्दिरमें पढना उचित है ॥ ६१ ॥ इसके समान शिव और अन्य देवताओं की प्रीतिकारक कोई वस्तु नहीं है ॥
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(६७) उपरके श्लोकोंमें पुराणादिकोंकी कथा वांचनेसे तथा करानेसे इतना बड़ा भारी फल लिखा है सो भी हमारी समज मूजिब तो पुराण वांचनेवालोंने स्वार्थका ही पोषण किया है, कारण कि पुराणादिककी कथा वंचावनेसे तथा सुनने सुनानेसे ऐसा बडा भारी फल मिलता है ऐसा सुनके भोले लोग हमारेसे पुराणादिक बंचवावेंगे और सुनेंगे तो हमारा सुखसे निर्वाह चलेगा.
शिवपुराण धर्मसंहिता अध्याय २३ वा में एक मनुष्यका वर्णन है कि वह एक पुराण वांचनेवाले के पास धर्म सुनने गया सुन कर उसमें परम श्रद्धा और भक्ति उत्पम हुई, उसने वांचक महात्माको प्रदक्षिणा दे करके एक मासा सुवर्ण वितीर्ण किया, रस पात्र के दानसे विमानमें बैठ कर धर्मराजकी सभामें गया, धर्मराजने पूजन किया और वो शख्स ब्रह्मपदको प्राप्त हुआ, फिर धर्मराजने देवर्षि सनत्कुमारसे कहा जो श्रद्धा और भक्तिके साथ वाचककी यानि पुराण वांचनेवालेकी पूजा करता है उसने ब्रह्मा विष्णु शंकर और मेरा पूजन किया ऐसे जानना ॥ ४ ॥ जो उत्तम भक्ष्य भोजनसे पुराणादि वांचनेवालेको पूजता है तो श्रादमें यह करनेसे मैं पंद्रह वर्ष तक पूंजित हो जाता हूं ॥ ४५ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! शिवपुराणादि वांचनेवालोंका सत्कार भोजन करनेसे दोसौ वर्ष तक मेरी तृप्ति हो जाती है ॥ ४६ ॥ पुराणादि वांचनेवालेको भोजन करानेमें केवल मेरी ही भीति नहीं होती है परन्तु संपूर्ण देवता और इन्द्रादिकोंकी प्रीति हो जाती है ॥ ४७ ॥ हे मुने! कथा कहनेवाला ब्रह्मा विष्णु
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( ६८ )
महेशका स्वरूप है, उसके प्रसन्न होनेसे देवता प्रसन्न हो जाते हैं, इसमें सन्देह नहीं ॥ ४८ ॥
इस उपरके लेखको पढ कर कौन ऐसा बुद्धिमान है जो पुराणादिकोंके बनानेवालोंको गप्पोडीदास तथा स्वार्थी न समझे ९ जो स्वयं परमात्माका स्वरूप बनना चाहते हैं. शिवपुराण धर्मसंहिता अध्याय ४९ में पार्वतीको महादेवजी कहते हैं
" ब्रह्मा विष्णुरहं देवि !, बद्धाः स्मः कर्मणा सदा । कामक्रोधादिभिर्दोषैस्तस्मात् सर्वे ह्यनीश्वराः ॥ ७
भावार्थ - हे देवि ! ब्रह्मा विष्णु और मैं सदा कर्मसे लिप्त हैं, सबमें काम क्रोधादि दोष लगे हैं इस कारण सव अनीश्वर हैं ॥ ७ ॥
इस उपरके लेखसे सिद्ध हुआ कि ब्रह्मा विष्णु और शिव ये तीनों ही देव काम क्रोधादि दोषोंसे युक्त थे तो फिर इन कामी क्रोधीओंके पूजनेसे जीवोंका कल्याण कैसे हो सकता है ?.
शिवपुराण धर्मसंहिता अध्याय ३५ वे में भी पौराणिकोंने स्वार्थका ही पोषण किया है. देखो
“ आचार्य ! त्वं महाविष्णु - व्यासरूपो नमोऽस्तु ते । प्रसन्ने त्वयि विप्रेन्द्र !, प्रसन्नो मे सदा शिवः ॥ १ ॥ ग्रन्थान् विधिवद्दद्याद्विद्वद्भ्यो भूरिदक्षिणाम् । ततो वक्तारमानम्य, सम्पूज्य च यथाविधि ॥ २ ॥ भूषणैईस्तकर्णानां वस्त्रैर्हेमादिभिः सुधीः । शिवपूजासमाप्तौ तु दद्याद्धेनुं सवत्सकाम् ॥३॥
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( ६९) श्रुते सिंहं सुवर्णस्य, पलमानस्य साऽम्बरम् । आचार्याय सुधीर्दद्या-न्मुक्तिः स्याद् भवबन्धनैः ॥ ४ ॥ विधानसहितं सम्यक्, पुराणं फलदं श्रुतम् । । तस्माद्विधानयुक्तं
__ तु, पुराणफलमुत्तमम्
पुराणफलमुत्तमम् ॥५॥" भावार्थ-हे आचार्य ! तुम व्यासरूप और विष्णुरूप हो, तुमको नमस्कार है, हे विप्रेन्द्र ! आपके प्रसन्न होने पर मेरे पर सदा शिव प्रसन्न हो जायेंगे ॥१॥ ग्रन्थके अंतमें विद्वानोंको बडी दक्षिणा देनी चाहिये, फिर वक्ताको प्रणाम कर के अनेक प्रकारसे पूजन कर हाथ और कानोंके भूषण, वस्त्र और सुवर्णसे पूजा करके बुद्धिमान् पूजा समाप्ति के अंतमें वत्स सहित धेनु-गौ प्रदान करें ॥२-३ ॥ इस पुराणके श्रवणके अंतमें एक सुवर्णका सिंह बनवा कर आचार्यको देवे और वस्त्र भी देवें तो भव बन्धनसे मुक्त जाते हैं ॥ ४॥ विधान सहित अच्छी प्रकार पुराण श्रवण करनेसे फलका देने वाला होता है, इस वास्ते विधान सहित श्रवण करना चाहिये ॥५॥ __ इस उपरके लेखको वांच कर बुद्धिमान् लोक तुर्त समझ जायेंगे कि पुराण रचनेवाले ब्राह्मणोंने स्वार्थ साधनेका ही उद्यम किया है परंतु परलोकमें हमारा क्या हाल होगा ? इस बातका जरा भी ख्याल नहीं किया है, यह शिव पुराणकी किंचिन्मात्र पर्यालोचना लिखी है, विशेष जानने की इच्छावालोंने निष्पक्षपात हो कर खुद शिवपुराण देखना या सुनना, जिससे शिवजीमें देवत्व-परमात्मत्व था या नहीं ? मालूम हो जायगा.
अगर पुराणोंसे ब्रह्मा विष्णु और महेशका विचार करते .
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( ७० )
हैं तो ये देव परमात्मा हैं ऐसा किसी तरह साबित नहीं होता है, देखो—
पद्मपुराण प्रथम सृष्टिखंड दक्षयज्ञविध्वंस नामक पंचम अध्याय पत्र ११ वे में
सती नामकी अपनी स्त्रीके मर जानेसे महादेवजी शोकातुर हुए हुए चिन्ता करते थे कि वो मेरी स्त्री कहां गई 8, बाद नारदजीने उस स्त्रीकी खबर शिवजीसे कही, तब शिवजीका चित्त शान्त हुआ- देखो नीचेके श्लोक
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पत्न्याः शोकेन वै देवो, गङ्गाद्वारे तदा स्थितः । तां सतीं चिन्तमानस्तु क नु सा मे प्रिया गता ॥ ९१ ॥ तस्य शोकाभिभूतस्य नारदो भवसन्निधौ ।
"
भार्याप्राणसमी मृता ॥ ९२ ॥ मेनागर्भसमुद्भवा ।
सा ते सती या देवेश !, हिमवद्दुहिता सा च जग्राह देहमन्यं सा, वेदवेदार्थवेदिनी श्रुत्वा देवस्तदा ध्यान - मवतीर्णमपश्यत कृतकृत्यमथात्मानं कृत्वा देवस्तदा स्थितः ॥ ९४ ॥ सम्प्राप्तयौवना देवी, पुनरेव विवाहिता । एवं हि कथितं भीष्म !, यथा यज्ञो इतः पुरा ॥ ९५ ॥ "
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॥ ९३ ॥
भावार्थ- स्त्रीके वियोगसे महादेवजी शोकाकुल हुए हुए चिन्ता करने लगे कि वो मेरी खी कहां गई ९, इत्यादि बयानसे सिद्ध हुआ कि महादेवजी स्त्री उपर बडे मोहित थे, इससे अत्यंत काम विकारी सिद्ध हुए, तथा महादेवजी सर्वज्ञ नहीं थे, क्यों कि नारदजीके कहनेसे अपनी खोका समाचार मालूम किया कि अमुकके घरमें पैदा हुई है, जिसमें किसी
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(७१) भी विषयकी अज्ञानता और काम विकार साबित हो वो परमात्मा नहीं कहा जा सकता है.
पद्मपुराण प्रथम सृष्ठिखंड अध्याय ४४ के पत्र १३७ वे में
पार्वतीने महादेवजीको स्त्रीलंपट जानके वीरकको कहा, देखो नीचेके श्लोक" साहं तपः करिष्यापि, येन गौरीत्वमाप्नुयाम् ।
एषः स्त्रीलम्पटो देवो, यातायां मय्यनन्तरम् ॥ ३२ ॥ द्वाररक्षा त्वया कार्या, नित्यं रन्ध्रान्धवेक्षणम् । यथा न काचित् प्रविशेत् , योषित्तत्र हरान्तिकम् ॥ ३३ ॥"
मतलब-गौरीत्व प्राप्त करने के लिये मैं तप करुंगी, महादेव स्त्री लम्पट है तो मेरे चले जाने बाद तूंने दरवाजेकी रक्षा करनी और सब छिद्रोंकी तर्फ ध्यान देना कि किसी तरफसे कोई भी स्त्री महादेवजीकी पास घुस न जाय. ___ इन पूर्वोक्त दो श्लोकोंसे महादेवजो स्त्रीलंपट थे सो बखूबी साबित हो गया, अब उनके रागी भक्त चाहे माने चाहे न मानें उनकी मरजीकी बात है..
इस ही ४४ वे अध्याय में बयान है कि
आडी नामका दैत्य पार्वतीका रूप धारके महादेवजीके पास गया और महादेवजी उसको पार्वती समज बडे खुसी हुए, देखो ६४ और ६५ वा श्लोक" मन्यमानो गिरिसुतां, सर्वैरवयवान्तरैः ।
अपृच्छत् साधुभावं ते, गिरिपुत्रि ! न कृत्रिमम् ॥ ६४ ॥
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( ७२ )
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या त्वं मदाशयं ज्ञात्वा प्राप्तेह वरवर्णिनि ! | त्वया विरहितं शून्यं मम स्थानं जगत्रयम् ॥ ६५ ॥"
भावार्थ - उस स्त्रीको महादेवजी सर्व अवयवोंसे पार्वती समज कर उसकी सज्जनताकी प्रशंसा की और कहा तूं मेरे आशयको जाण कर यहां आई सो अच्छा किया, क्यों कि मुझे तेरे विनां तीनों जगत् शून्य भासते हैं.
इस बयान से भी महादेवजी ज्ञान शून्य सिद्ध हुए, अगर वो ज्ञानी होते तो समज जाते कि यह पार्वती नहीं है. पद्मपुराण प्रथम सृष्टिखंड अध्याय ४६ पत्र - १४६ वे में
अंधक नामके दैत्यसे शिवजीका युद्ध हुआ, उसने शिवजीको गदा मारी, तब शिवजी उस गढ़ाकी मारसे मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पडे, मुहूर्त-दो घडी के बाद चेतनता आई, उस वख्त हाथमें पर्शु लेकर उसको मारने को उठे, परन्तु उस दैत्यने ऐसी तामसी माया फेलाइ, जिस मायासे महादेवजी के देखने में वो दैत्य नहीं आया, तब सर्व देवताओ सूर्यदेवकी स्तुति करने लगें, और महादेवजी भी बढी आजीजीसे सूर्य देवकी स्तुति करने लगे, सो यहां लिखते हैं, पढो
<< प्रभाकर ! नमस्तेऽस्तु भानो ! जय जगत्पते ! । अनेन दनुमुरूयेन, पीडितोऽहं जगत्पते ! ॥ ७० ॥ किं करोमि ! कथं चैनं १, घातयामि दिवाकर ! |
सूर्य उवाच
जय शूलेन पापिष्ठं, मायाशतविशारदम् ॥ ७१ ॥ "
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(७३) भावार्थ-हे भानो! हे प्रभाकर ! हे जगत्पते ! इस मुख्य दैत्यसे मैं पीडित हूँ॥ ७० ॥ हे सूर्य ! मै क्या करूं १, इसको किस तरह मारूं ?, तब सूर्यने जवाब दिया कि सेंकडो तरहकी मायामें चतुर ऐसे इस पापिष्ठका त्रिशूलसे जय कर ॥ ७२ ॥ ____ इस उपरके लेखसे स्पष्ट सिद्ध होता है कि महादेवजी सर्व शक्तिमान् और सर्वज्ञ नहीं थे, कारण कि सर्व शक्तिमान् होते तो अंधक दैत्यकी गदाके मारसे मूर्छित होकर पृथ्वी पर दो घडी तक बेहोश पडे नहीं रहते और सर्वज्ञ होते तो मूर्य देवतासे आजीजी कर उस दैत्यके मारनेका उपाय क्यों पूछते ?. . .
पद्मपुराण प्रथम सृष्टिखंड अध्याय ५६ पृष्ठ १७० वैसे सावित है कि महादेवजी कामके वशीभूत होकर परस्त्रीको भी भोगते थे, देखो नीचेके श्लोक-~" पुरा सर्वाः स्त्रीयो दृष्ट्वा, युवतीः रूपशालिनीः । गन्धर्व किन्नराणां च, मनुष्याणां च सर्वतः ॥ १ ॥ मत्रेण ताः समाकृष्य, त्वतिदूरे विहायसि । तपोव्याजपरो देव-स्तासु संगतमानसः ॥२॥ अतिरम्बां कुटीं कृत्वा, ताभिस्सह महेश्वरः। .. क्रीडां चकार सहसा, मनोभवपराभवः ॥ ३ ॥" भावार्थ-पेश्तर गंधर्व किन्नर और मनुष्योंकी रूपवती युवति स्त्रीओंको मंत्रबलसे आकाशमें खींच खींच कर तपके बहानेसे अति सुंदर कुटीया बनाकर महादेवजी उनके साथ क्रीडा करते हुए ( भोग भोगते हुए ).
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(७४) इत्यादि बयानसे महादेवजी परस्त्रीगामी तशा पूरे दगाबाज ये ऐसा सावित होता है.
पद्मपुराण प्रथम सृष्टिखंड अध्याय १४ पत्र ३६ वे में लिखा है कि रुद्रने ब्रह्माजीका पांचवा शिर छेदन किया जिससे ब्रह्माजीके ललाटमें पसीना आगया, उस पसीनेको ब्रह्माजीने कपालसे हाथमें ले कर पृथ्वी पर फेंका, उस पसीनेमेंसे चक्र बाण तथा धनुष सहित एक जबरदस्त पुरुष पैदा हुआ और उसी वख्त ब्रह्माजीसे कहने लगा, बताओ क्या काम करूं ?, ब्रह्माजीने हुकम किया, इस दुर्बुद्धि रुद्रको ऐसा मार डाल कि फिर उत्पन्न न हो, ब्रह्माजीके इस हुकमको सुन कर वो पुरुष धनुष्को हाथमें लेकर महेश्वरके मारनेको अत्यंत भयानक दृष्टिवाला होकर चला, अत्यंत भयानक पुरुषको अपनी तरफ आता देख कर भयभीत होकर महेश्वर वहांसे भाग निकले और अपने बचावके लिये विष्णुके आश्रममें आये तो विष्णुने शिवजीका रक्षण किया, इत्यादि उल्लेख हैं, इस विषयके प्रतिपादन करनेवाले श्लोक नीचे मृजब हैं" छिन्ने वके पुरा ब्रह्मा, क्रोधेन महतावृतः। ललाटे स्वेदमुत्पन्न, गृहीत्वाऽताडयद्भुवि ॥३॥ स्वेदतः कुण्डली जज्ञे, सधनुष्को महेषुधिः । सहस्रकवची वीरः, किं करोमीत्युवाचह ? ॥ ४ ॥ तमुवाच विरंचिस्तु, दर्शयन् रुद्रमोजसा । हन्यतामेष दुर्बुद्धि-र्जायते न यथा पुनः ॥ ५ ॥ ब्राह्मणो वचनं श्रुत्वा, धनुरुद्यम्य पृष्ठतः । सम्पतस्थे महेशस्य, वाणहस्तोऽतिरौद्रम् ॥६॥
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(७५) दृष्ट्वा पुरुषमत्युग्रं, भीतस्ततस्त्रिलोचनः । • अपक्रान्तस्ततो वेगात् , विष्णोराश्रममभ्यगात् ॥ ७॥ त्राहि त्राहीति मां विष्णो !, नरादस्माच शत्रुहन् । ब्रह्मणा निर्मितः पापो, म्लेच्छरूपो भयङ्करः ॥८॥ यथा हन्यान मां क्रुद्धः, तथा कुरु जगत्पते ।। हुंकारध्वनिना विष्णु-र्मोहयित्वा तु तं नरम् ॥९॥ अदृश्यः सर्वभूतानां, योगात्मा विश्वग् प्रभुः । तत्र प्राप्तं विरूपाक्षे, सान्त्वयामास केशवः ॥ १० ॥
ततः स प्रणतो भूमौ, दृष्टो देवेन विष्णुना । विष्णुरुवाच
पौत्रो हि में भवान् रुद्र !, कं ते कामं करोम्यहम् ॥११॥"
इस उपरके लेखसे महेश्वर निर्विवेकी तथा निर्दय सिद्ध हो गये, और ब्रह्माजी भी क्रोधी तथा निर्दयी साबित हुए, कारण कि क्रोध और निर्दयता के बगैर अपने पसीनेसे अत्युग्र भयानक पुरुषको उत्पन्न करके महेश्वरको मार डाल ऐसा कैसे कह सकते?, इस वास्ते ऐसे निर्विवेकी तथा महार
और निर्दयी हृदयवालोंके बीचमें परमात्मापनेका लेश भी साबित नहीं होता है, और शिवजी शक्तिहीन सिद्ध हुए, क्यों कि अगर शक्तिमान होते तो ब्रह्माके उत्पन्न किये हुए पुरुषसे डर कर क्यों भागते , तथा विष्णुका शरण क्यों लेते ?.
पद्मपुराण प्रथम सृष्टिखंड चतुर्थ अध्याय पत्र ८ वे में बयान है कि
विष्णुने स्त्रीरूप धारके तथा झूठ बोलके दैत्योंके पाससे अमृत लिया, वांचो नीचे के श्लोक--
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44
( ७६ )
मायया लोभयित्वा तु विष्णुः स्त्री रूपसंश्रयः । आगत्य दानवान् प्राह, दीयतां मे कमण्डलुः ॥ ७३ ॥ युष्माकं वशगा भूत्वा, स्थास्यामि भवतां गृहे । तां दृष्ट्वा रूपसम्पन्नां नारीं त्रैलोक्यसुंदरीम् ॥ ७४ ॥ प्रार्थयानाः सुवपुष, लोभोपहतचेतसः । दत्वामृतं तदा तस्यै, ततोऽपश्यन्त तेऽग्रतः ॥ ७५ ॥ दानवेभ्यस्तदादाय, देवेभ्यः मददेऽमृतम् । ततः पपुः सुरगणाः, शक्राद्यास्तत् तदामृतम् ॥ ७६ ॥
भावार्थ - विष्णु ने कपटाइसे स्त्रीका रूप धारके दैत्य लोगों से कहा कि मे तुम्हारे वश हुई हुई तुम्हारे घरमें रहुंगी, उस रूप सम्पन्न सन्नारीको देख कर लोभके वश हुए दानवोने उस स्त्रीको अमृत दे दिया, उसने दानवोंसे उस अमृतको लेकर देवताओंको दिया, उसके बाद शक्रादि सुरगण उस अमृतको पीते भये, इत्यादि बयानसे बुद्धिमान् लोग समज जायेगे कि विष्णुमें देवपना होना तो दूर रहा परंतु सामान्य मनुष्य में जो उत्तमताके लक्षण झूठ नहीं बोलना, कपट नहीं करना, आदि होते हैं वे भी नहीं थे.
विष्णुपुराण पांचवा अंश अध्याय १० वे में -
श्रीकृष्णने व्रजवासिओंको गोवर्धन पर्वतकी पूजा करनेका उपदेश किया, उसमें मेध्य पशुको मारनेका भी लिखा है, श्री कृष्णके कहने मूआफिक व्रजवासीओंने गोवर्धन पर्वतकी दही दुध तथा मांससे पूजा की, देखो नीचे लिखे हुए श्लोक
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(७७) " तस्माद् गोवर्धनशैलो, भवद्भिर्विविधार्हणैः ।
अर्ग्यतां पूज्यतां मेध्यं, पशुं हत्वा विधानतः ॥ ३८ ॥ . तथा च कृतवन्तस्ते, गिरियज्ञ व्रजौकसः। . . दधिपायसमांसाद्यैः, ददुः शैलबलिं ततः ॥ ३७॥
इस उपरके लेखसे साफ सिद्ध हो गया कि श्रीकृष्ण जानवरोंके मारनेका उपदेश भी करते थे, तैसे ही
विष्णुपुराणके पांचवे अंशके प्रथम अध्यायमेंयोग मायाको मांसादि चढाना कहा है-चो पाठ यह है " ये त्वामार्येति दुर्गेति, देवगर्भाम्बिकेति च ।। भद्रेति भद्रकालीति, क्षेम्या क्षेमङ्करीति च ॥ ८३ ॥ पातश्चैवापराण्हे. च, स्तोष्यन्त्यानम्रमूर्तयः । । तेषां हि प्रार्थितं सर्व, मत्प्रसादा भविष्यति ॥ ८४ ॥ सुरामांसोपहारैश्च, भक्ष्यभोज्यैः सुपूजिताः । नृणामशेषकामास्त्वं, प्रसन्ना सम्पदास्यति ॥ ८५॥ ते सर्वे सर्वदा भद्रे !, मत्मसादादसंशयम् । असन्दिग्धा भविष्यन्ति, गच्छ देवि ! यथोदिता ॥८६॥"
भावार्थ-आर्या दुर्गा, देवगर्भा अम्बिका भद्रा भद्रकाली क्षेम्या क्षेमकरी तूं है, तेस्को प्रातःकाल और तीसरे पहरमें जो नम्र होकर स्तवेंगे उनके सर्व प्रार्थित मेरे प्रसादसे होंगे ।। ८३-८४ ॥ शराब मांस और भक्ष्य भोजनसे अच्छी तरह पूजित हुई हुई प्रसन्न होकर तूं मनुष्योंके संपूर्ण कामोंको देवेगी ।। ८५ ॥ हे सर्वदा भद्रे ! वे सर्व लोक मेरे प्रसादसे निस्संदेह असंदिग्ध होंगे, हे देवि ! तूं जा ॥ ८६ ।।
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( ७८ )
इस उपर के लेखसे भी सिद्ध हो गया कि श्री कृष्ण शराब और मांसको बडा उत्तम समझते थे, इसी वास्ते योग मायासे श्रीकृष्णने कहा है कि हे देवि ! सुरा औरा मांससे जो लोक तेरी पूजा करेंगे उनके मनोवांछितको मैं पूर्ण करूँगा, बुद्धिमान् लोक खुद विचार करेंगे कि सुरा और मांसको जो उत्तम मानता है उसमें परमेश्वरपना तथा महात्मापना क्या सिद्ध हो सकता है ?, कहना ही पडेगा कि नहीं.
((
विष्णुपुराण पांचवा अंश अध्याय १३ वे में लिखा है किता वार्यमाणाः पतिभिः, पितृभिर्भ्रातृभिस्तथा । कृष्णं गोपाङ्गना रात्रौ रमयन्ति रतिप्रियाः ॥ ५८ ॥ भावार्थ - पति पिता और भ्राताओंके हटाने पर भी वे गोपांगनायें रतिप्रिय हो कर रातमें कृष्णके साथ क्रिडा करती हैं ॥ ५८ ॥
इस श्लोक कृष्णजी परस्त्रीगामी थे ऐसा साबित हुआ, अब विचार करना चाहिये कि अच्छे मनुष्यसे भी न बने ऐसे अधमकाम करनेवालेमें परमेश्वरपना कैसे साबित हो सकता है ?.
प. - पु . उ. खं. प. अ. २४५ पत्र २५८ से भी साबित होता है कि श्री कृष्ण गोपीओंकी साथ विषय सेवन करते थे, देखो नीचेके श्लोक -
66
"
त्यक्वा पतीन् सुतान् बन्धून् त्यक्त्वा लज्जां कुलं स्वकम् जगत्पतिं समाजग्मुः कन्दर्पशरपीडिताः ॥ १७० ॥ समेत्य गोप्यः सर्वास्तु, भुजैरालिंग्य केशवम् । बुभुजश्चाधरं देव्यः सुधामृतमिवामराः ॥ १७१ ॥ "
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भावार्थ-पति पुत्र और बंधुओंको छोडकर और अपनी कुल मर्यादाका त्याग कर कामदेवके बाणसे पीडित हुई गोपीऐं कृष्णजीके पास आकर भुजाओंसे केशवका आलिंगन करके भोग भोगवती हुई, तथा देवता जैसे अमृतका पान करें ऐसे उनके अधर पान करते हुए.
इससे भी कृष्णजीका कैसा आचार था ? सो सिद्ध हो गया.
प. पु. पा. खंडे श्रीवृन्दावन माहात्म्यके ८३ वे अध्यायसे श्री कृष्ण गोपीओंकी साथे विषय सेवन करते थे इतना ही नहीं किन्तु शराब-दारु पान भी करते थे, ऐसा प्रकटतया सिद्ध होता है, देखो नीचे लिखा हुआ पाठ-पत्र १०३ वे का
" उपवेश्यासने दिव्ये, मधुपानं प्रचक्रतुः । ततो मधुमदोन्मत्तौ, निद्रया मीलितेक्षणौ ॥ ५४॥ मिथः पाणी समालम्व्य, कामबाणवशंगतौ । रिरंम् विशतः कुञ्जे, स्खलवाङ्मनसौ पथि ॥ ५५॥"
भावार्थ-दिव्य आसन पर बैठ कर कृष्णजी और उनकी सहचरी मधुपान करते भये, उसके बाद शराबके नशेमें खराब होकर उन्मत्तताके वश निद्रासे मीचे जाते हैं नेत्र जिनके, कामबाणके वश होनेसे आपसमें हाथसे हाथ मिला कर स्खलित हैं वचन और मन जिनके ऐसे कामक्रीडा करनेकी इच्छावाले हुए हुए कुंज-गाढी झाडीमें प्रवेश . करते
__ भागवत दशमस्कंध उत्तरार्ध अध्याय ५८ में बयान है कि-अर्जुनजी श्रीकृष्णको साथ लेकर वनमें शिकार करनेको
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(८०) गए, पत्र २०६ वे में-देखो नीचेके श्लोक " साकं कृष्णेन सन्नद्धो, विहत्तुं गहनं वनम् ।
बहुव्यालमृगाकीण, प्राविशत् परवीरहा ॥ १४ ॥ तत्राविध्यच्छरैोघान् , सूकरान् महिषान् रुरून् । शरभान् गवयान् खङ्गान् , हरिणान् शशप्तल्लकान् ॥ १५॥ तान् निन्युः किङ्करा राजे, मेध्यान् पर्वण्युपागते । तुदपरीतः परिश्रान्तो, बीभत्सुर्यमुनामगात् ॥ १६ ॥" .
भावार्थ-अर्जुन बहुत हाथी मृग करके आकीर्ण गहन वनमें सनद्ध होकर कृष्णजी के साथ प्रवेश करना भया ॥१४॥ वहां पर बाणोंसे शेर सूअर भैसा रुरु शरभ रोझ गेंडा खरगोष आदि जानवरोंको विध डाला ॥१५॥ नोकर उनको राजाकी पास ले गये, राजा तृषासे आकुल व्याकुल तथा परिश्रांत हुआ हुआ यमुना नदी पर गया ॥ १६ ॥
इस पाठसे श्रीकृष्ण शिकार भी करते थे ऐसा साबित
हुआ.
भागवत दशमस्कंध उतरार्ध अध्याय ६९ पत्र २४६ में श्रीकृष्णको शिकार करते नारदजीने देखा ऐसा जिकर है.
भागवत दशमस्कंध उत्तरार्ध अध्याय ५७ पत्र २०३ में लिखा है कि मणिके लिये श्रीकृष्णने शतधन्वाको मार डाला और उसके बाद मणि भो नहीं नीकली, देखो नीचेके श्लोक
" पदातेभंगवाँस्तस्य, पदातिस्तिग्मनेमिना । चक्रेण शिर उत्कृत्य, वाससोय॑चिनोन्मणिम् ।। २१ ॥ अलब्धमणिरागत्य, कृष्ण आहाग्रजान्तिकम् । वृथा हतः शतधनु-मैगिस्तत्र न विद्यते ।। २२ ।
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(८१)
तत आह बलो नूनं, स मणिः शतधन्वना । कस्मिंश्चित्पुरुषे न्यस्त-स्तमन्वेष पुरं व्रज ॥ २३"
भावार्थ:-भगवान् श्रीकृष्णने तीक्ष्ण धारवाले चक्र द्वारा शतधनुका शिर छेदन किया और उसके कपडे फरोले, मगर मणि नहीं मिला, तब बलभद्रजीकी पास आ कर कहने लगा कि मैने नाहक शतधनुको मारा कारणकि मणि नहीं मिला, बलभद्रने जवाब दिया कि किसो आदमीको उसने मणि दी होगी, आगे जाओ और तलास करो.
इस लेखसे श्रीकृष्ण अल्पज्ञानी साबित हुए, अगर उनको संपूर्ण ज्ञान होता तो मणि कहां है ? जान लेते और ऐसी हत्या नहीं करते, लोभके वश निरापराधी पाणी ओंकी जान लेनेवालेमें परमेश्वरत्व कदापि सिद्ध नहीं हो सकता, अज्ञानी लोभी तथा हिंसकको देव माननेवाले मियादृष्टि कैसे उन्मत्त है ? कि शुद्धस्वरूप परमपवित्र जिनेश्वरदेवके कथन करे हुए शुद्धतत्वोंसे घृगा करके अपने पूर्ण दुर्भाग्यसे ऐसे मलीन तत्त्वोंमें सूकरवत् पयःपानको छोड कर अपवित्र पदार्थकी रुवी करते हैं, अरे ! मिथ्यात्व ! तेरी गति अजब है, मनुष्य जब तक तेरे फंदेमे फंसे हुए हैं, वहां तक हमे यह दृढ निश्चय है कि वे उल्लुकी तरह जैनधर्मरूपी सत्य सूर्योदयके कभो दर्शन नहीं कर सकेंगे.
भागवत दशम स्कंध उत्तरार्द्ध अध्याय ५१ पत्र. १८३ में राजा मुचुकुंदको श्रीकृष्णने उपदेश किया है, उससे साफ सिद्ध हो जाता है कि राजालोगोंको शिकार वगैरहके कर
११
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( ८२ )
नेसे पाप लगता है, देखो नीचेका श्लोक
" क्षात्रधर्मे स्थितो जन्तून् समाहितस्तत्तपसा, जाघं
न्यवधोर्मृगयादिभिः । मदुपाश्रितः ॥ ६४ ॥
,"
भावार्थ - क्षात्रधर्म में रहे हुए तूंने शिकारसे अनेक जीका वध किया है इस लिये मेरा आश्रय लेकर समाधिस्थ होकर तपश्चर्या द्वारा उस पापका नाश कर ॥ ६४ ॥
भागवत दशम स्कंध पूर्वार्द्ध अध्याय २२ पत्र ८९-९० बे में लिखा है कि
16
कृष्णमुच्चैर्जगुर्यान्त्यः, कालिन्द्यां स्नातुमन्वहम् । नद्यां कदाचिदागत्य, तीरे निक्षिप्य पूर्ववत् ॥ ७ ॥
भावार्थ - उच्च स्वरसे अपने प्राणप्यारे यशोदानंदका नाम लेती और गुणानुवाद गाती यमुना पर स्नान करने को जाया करती ॥ ७ ॥
" वासांसि कृष्णं गायन्त्यो, विजहुः सलिले मुदा । भगवांस्तदमिप्रेत्य, कृष्णो योगीश्वरेश्वरः ॥ ८ ॥ "
भावार्थ - एक दिन पहले के न्याई यमुनाके किनारे पर अपने अपने वस्त्र उतार कर सबने घर दिये और श्रीकृष्णचन्द्रके गुण गान करके यमुना जलमें विहार करने लगीं, तब योगीश्वरोंके ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उनके मनका मनोरथ जानकर || ८ ॥
१ यहपाठ इस लिये लिखा गया है कि अगर कोई कहे कि कृष्णजीने शीकार किया इसमें कुछ हरकत नहीं क्योंकि वे राजा थे और राभ्यधर्ममें शीकार में पाप नहीं होता तो उनको यह पाठ याद रखना चाहिये.
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(८३) "वयस्यैराहतस्तत्र, गतस्तत्कर्मसिद्धये ।। तासां वासांस्युपादाय, नीपमारुह्य सत्वरः ॥९॥ हसद्भिः प्रहसन बालैः, परिहासमुवाचह । अत्रागत्याबलाः काम, स्वं स्वं वासः प्रगृह्यताम् ॥ १० ॥ सत्यं वव्राणिनो नर्म, यद्यूयं व्रतकर्षिताः। न मयोदितपूर्व वा, अनृतं तदिमे विदुः ॥ ११ ॥ एकैकश प्रतीच्छध्वं, सहैवोतसुमध्यमाः । तस्य तत्वेलितं दृष्ट्वा, गोप्यः प्रेमपरिप्लुताः ॥ १२ ॥ ब्रीडिताः प्रेक्ष्य चान्योन्यं, जातहासा न निययुः । एवं ब्रुवति गोविन्दे, नर्मणाक्षिप्तचेतसः ॥ १३ ॥ आकंठमनाः शोतोदे, वेपमानास्तमब्रुवन् । माऽनयं भोः कृथास्त्वां तु, नंदगोपसुतं प्रियम् ॥१४॥ जानीमोऽङ्गबजलाध्य, देहि वासांसि वेपिताः । श्यामसुन्दर ! ते दास्यः, करवाम तवोदितम् ॥ १५ ॥ देहि वासांसि धर्मज्ञ !, नोचेत् राज्ञे ब्रुवामहे । श्रीभगवानुवाचभवत्यो यदि मे दास्यो, मयोक्तं वा करिष्यथ । . . .
आत्रागत्य स्ववासांसि, प्रतीच्छन्तु शुचिस्मिताः ॥ १६ ॥ ततो जलाशयात् सर्वा, दारिकाः शीतवेपिताः । पाणिभ्यां योनिमाच्छाद्य, मोचेरुः शीतकार्षिताः ॥ १७ ॥ यूयं विवस्वा यदपोधृतव्रता, व्यगाहतैतत् तदुदेव हेलनम्। बद्धाञ्जलिं मुध्न्यपनुत्तयेंहसः, कृत्वा नमोऽधो वसनं
प्रगृखताम् ॥ १९ ॥
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भावार्थ-अपनी मंडलीके सखाओंको संग लेकर उनकी मनोकामना सिद्ध करनेके लिये यमुनाके किनारे पर पहुंचे और उन कन्याओंके वस्त्र लेकर झटपट कदंब पर चढ गये ॥ ५९॥ और बालकों समेत आप उढे मार मार कर इसने लगे और अनेक प्रकारकी मश्करीकी बातें करने लगे, कि हे अबलाओ ! हमारे समीप आओ, और अपने वस्त्र ले जाओ ॥ १० ॥ इस समय मैं मश्करीसे नहीं कहता, सत्य कहता हूं, तुम व्रत करनेसे बहुत दुर्बल हो गइ हो इस बातको मेरे मित्र सब प्रकारसे जानते हैं ॥ ११ ॥ मेरेको कुछ दुर्भाव और आम्रह नहीं है. तुम एक एक मेरे पास आती जाओ और अपने अपने वस्त्र लेती जाओ, चाहे सब मिल कर एक वार ले जाओ, जब तक तुम ऐसा नहीं करोगी, मुझे अपने वावा नंदकी सोगन है तुम्हारे वस्त्र कभी नहीं दूंगा ॥ १२ ॥ मनमोहनप्यारेकी मीठी मीठी बातें सुन कर परस्पर देख लज्जित हो गोपीओंने जान लिया कि ये परिहास करते हैं, यह सोच विचार कंठ तक शीतल जलमें जाडे-टाढकी मारी कांपती रहीं, जब बहुत देर हो गई तब गोपीएं बोली ॥१३॥ हे कृष्णचन्द्र ! अन्याय वार्ता मत करो, तुम नंदजीके प्यारे पुत्र हो यह हम जानती हैं, हे प्यारे ! शीतसे दुःखित हम सब कांप रही हैं, इस लिये हमारे वस्त्र दे दो ॥ १४ ॥ हे श्यामसुन्दर प्यारे ! हम तुम्हारी दासी हैं, जो तुम कहोगे सो ही करेंगी परंतु हमारी लाजके ग्राहक मत बनो, जब लाज ही जाती रही तो फिर शेष क्या रहा १, हम आपके सामने निर्लज्ज होना नहीं चाहती, अब कुछ नहीं बिगडा है, धर्मज्ञ ! हमारे वस्त्र देदो नहीं तो हम राजा कंससे जा
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( ८५ )
कर कहेंगी ॥ १५ ॥ गोपीओंकी रोस भरी बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि जो तुम मेरी दासीएं हो और मेरा कहना तुमको अंगीकार है तो हे मन्दमुसकान - वालीओ ! तुम यहां आन कर अपने वस्त्र ले जाओ ।। १६ ।। जब कुछ उपाय न चल सका तब हार कर शर्दी की मारी काँपती हुइ संकोच करती संपूर्ण गोपीका दोनों हाथोंसे कुच और योनिको ढक जलसे बाहिर आई || १७ | तब श्यामसुन्दर बोले कि दोनो हाथ जोडकर सूर्यनारायणको प्रणाम करो ।। १९ ।।
यहां पर पाठक महोदयको विचार करना चाहिये कि जहां पर नंगी स्त्रीओ स्नान करती थी वहां कृष्णका जाना और उनके वस्त्र ले कर कदंब पर चढ़ जाना, उनके गुह्यस्थलोंको खुल्ला करने के लिये सूर्यनारायणको प्रणाम करो ऐसे कहना क्या परमात्माका काम है ? कि कामीका, निष्पक्षपाठककी अंतर आत्मामें इस प्रश्नका यही उत्तर मिलेगा कि ये सब लक्षण कामीके ही हैं, जो कि इस विषय के समाधान के लिये वरुण देवताका इन्होंने अपराध किया, क्यों कि जलमें नंगा होकर स्नान करना ( वरुण देवताका जलाधिष्ठायक होनेसे ) अपराध है, इस लिये इनको श्रीकृष्णचंद्रजीने सजा की ऐसा कितनेक अंधभक्त कहते हैं परन्तु यह बात युक्ति हीन है, क्यों कि जैसे किसी स्त्रीने किसी इज्जतदार मनुष्य के घरको निर्जन मान कर बेसमजीसे अपने कपडे उतार दिये, इस विषयमें उसको शिक्षा देनेके लिये उस नगरका राजा उस स्त्रीके योनि तथा कुचको खुल्ला
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करके देखें तो उस राजाको कोई भी न्यायी राजा नहीं कह सकता हैं बल्के बदमास ही कहा जायगा, कारण कि सजाके सेंकडो दूसरे तरीके होने पर भी ऐसे नीच तरीकेको अखत्यार करनेवाला भला माणस है ऐसा उसके अंध खुशामदखोर अनुयायीओंके शिवाय दूसरा अकलमंद शख्स नहीं मान सकता.
इस वर्णनको कितनेक लोक गोपीओंकी इंद्रियोंमें कल्पना कर उन इंद्रियों गत आवर्णको वस्त्र बनाकर उसके चोर (हरण करनेवाले ) कृष्णजीको साबित करके अपने मनमें खुश होते हैं, परंतु दूसरे मतवादिओंके तर्करूप सूर्यके तापको नहीं सहन करते हुएने इस कुकल्पनारूप गुफा बना ली है, वास्तविक सत्य इस कल्पनामें नहीं है,
भागवत दशम स्कन्ध पूर्वाद्ध अध्याय ३० पत्र १२२ वा का श्लोक इसी बातको साबित करता है"बाहमसारपरिरम्भकरालकोरु-निवीस्तनालभननर्मनखाग्र पतिः । श्वेल्यावलोकहसितैजसुन्दरीणा-मुत्तम्भयन् रतिपतिरमया
कार ॥ ४६॥" भावार्थ-भुजाओंका पसारना, आलिंगन करना, कर अलक, साथल नीवी-नाडुं स्तन इनका स्पर्श करना, परिहासके वचन कहना, नखोंके चिह्न, क्रीडा चितवन और हंसीओंसे व्रजसुन्दरीयोंको भगवान् काम उद्दीपन करायके रमण करने लगे ।। ४६ ॥ ___ यह श्लोक उपर लिखे हुए समाधान करनेवालोंका पूर्णतया खंडन करता है और हाथ जोडानेमें योनि तथा कुच
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दर्शनकी लालसाको ही साबित करता है, इससे कृष्णजीकी पवित्रता (१) साफ तौर पर जाहिर हो रही है.
भागवत स्कंध सत्तर वा अध्याय आठवे में
भगवान्ने नृसिंहरूप धारके हिरण्यकशिपुको और उसके सहस्र सुभटोंको बुरे हालसे मारा, अपनी जिहासे अपने लोहुवाले होठोंको चाट रहैं हे और रुधिरके लगनेसे मुख लाल लाल हो रहा है, दैत्योंकी आंतोका हार कंठमें पहिने, इत्यादि वर्णन भी विष्णुको जो जरा भी पापसे डरता हो ऐसे सामान्य मनुष्यसे भी नीचे दरजेका साबित करता है, अफसोस है कि इनके ऐसे अधमकर्मको ब्रह्मा शिव और इन्द्र आदि देवताओंने अनुमोदन दीया है, इससे वे लोक भी परमात्मपद तथा देवेश्वरपदके लायक नहीं थे ऐसा साबित होता है, क्या लोहका चाटना, आंतोका गलेमें डालना,
और हजारों दैत्योंका ध्वस करने रूप यह अधमकार्य किसी तरहसे अनुमोदनीय हो सकता है ?, कहना ही पडेगा कि कदापि नहीं. जिस वख्त नृसिंहने यह काम किया उस वख्त उसको बडा भारी क्रोध चढ़ा हुआ था, जिससे उसके पास ब्रह्मा रुद्र वगैरह देवता भी नहीं जा सके, देखो भागवत सत्तरवा स्कंध अध्याय नोवेंका प्रथम श्लोक" एवं सुरादयः सर्वे, ब्रह्मरुद्रपुरस्सराः। नोपेतुमशकन् मन्युः, संरंभ तं दुरासदम् ॥ १॥"
इतने जबरदस्त क्रोध करनेवालेमें परमात्मपना है ऐसा माननेवालोंके अंदर विवेकका होना बुद्धिमानोंकी बुद्धि कबूल नहीं करती और ऐसे विवेक शून्य मनसे माने हुए काल्पनिक
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(६८) देवसे आत्मोद्धारकी आशा रखना पानीमेंसे मक्खनकी आशा जैसा है.
भागवत स्कंध १८ अध्याय ९ वे में
स्त्रीका रूप बना कर भगवान्ने दैत्योंको ठगा ऐसा लिखा हुआ है, इससे भी कृष्णजी परमात्मा थे ऐसा सिद्ध नहीं होता है, क्यों कि स्त्रीरूप धारके किसीको प्रपंचपासमें फसाना ऐसा कृत्य परमात्मामें संभव नहीं होता. - . और इसी स्कंधके १० वे अध्यायमें लिखा है कि- देव और दैत्योंका परस्पर युद्ध हुआ उसमें देवोंकी हार हुई, तब देवोंने भगवान्का स्मरण किया, भगवान्ने आकर कितनेक दैत्योंका नाश कर डाला.
यहां पर स्वाभाविक ही यह विचार उत्पन्न होता है कि दैत्योंका नाश करनेवाले कृष्णजीमें दयाका लेश भी था ऐसे कैसे माना जा सकता है ?, क्यों कि कृष्णजीके भक्तोंके मानने मूजब कृष्णजी सर्वशक्तिमान गिने जाते हैं तो उनको अपने स्थानमें रहे हुए दैत्योंकी बुद्धिका सुधारा करके स्मरण करनेवाले अपने भक्तोंका रक्षण करना चाहिये था, अगर ऐसी शक्ति नहीं थी ऐसा कहा जावे तब सर्वशक्तिमत्ताका लोप होता है और शक्ति होने पर मारनेका मार्ग घातकवृतिका सूचक है, अगर इस प्रकारके न्याय युक्त विचार अंधभक्तोंका हो जाय तो पुराणकी मायावी कल्पनासे क्षण मात्रमें छूट सके ऐसा हमारा मानना है. .. भागवत स्कंध १८ अध्याय १२ वे में बयान है कि
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( ८९ )
शिवजीने यह सुना कि विष्णुने मोहनोत्रीका रूप धार के उगाइ करके दैत्यों से अमृत ले कर देवोंको पीला दिया, ऐसा सुनके उस मोहिनीस्त्रीका रूप देखने वास्ते पार्वती समेत भूतगणोंको साथमें ले कर विष्णुके पास आए और विष्णुकी अत्यंत ही स्तुति करो, और विष्णुसे कहा कि आपने मोहिनीका रूप धारण किया था, मैं उसको देखनेकी इच्छा करता हूं, जिस मोहिनीके रूपसे आपने दुर्मद दानवोंको मोहित किया और देवताओंको अमृत पीलाया मैं उसी मोहिनी रूपको देखनेको आया हूं, बादमें विष्णुने कहा कि आप हमारे उस मोहिनी रूपको देखनेकी इच्छा करते हैं तो अच्छा आपको दिखाया जायगा, उस रूपको कामी पुरुष बहुत हो मानते हैं उससे कामदेवका उदय हो जाता है, ऐसा कह कर विष्णु वहां ही अदृश्य हो गए, तब उस समय महादेवेजो अपनी भार्या पार्वती सहित चारों ओर नेत्र चलाय उस रूपको दखनको उत्कंठित होते रहे कुछ देर बाद उपवनमें कि जहां पर चित्र विचित्र कुसुम और लाल वर्णके पल्लव शोभायमान हो रहे थे वहां परमसुंदर एक स्त्री महादेवजोने देखी, उसके नितंब उज्ज्वल रेशमी वस्त्रसे ढक रहे थे, उसमें मेखलाकी लडीयें ऐसी दीप्तिमान् हो रही थीं कि मनुष्यका मन उसकी कडीयोंमें ही उलझ रहे, वो स्त्री गेंद उछाल कर देखनेवालोंके मनको भी इसके साथ ही उछालती थी, गेंदके उपर नीचे उछालन के कारण उसके शरीर के झुकने और उंचे होनेसे उसके दोनों स्तन और मनोहर हार बार बार कम्पायमान होता था, कहां तक लिखें 8, इस स्त्रीकी शोभा बहुत ही वर्णन करो है, ऐसी उस स्त्रीके
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( ९० )
कटाक्षसे महादेवजी एक ही बार में मोहित हो गए, इस कारण उसको देखनेसे और उस कर देखे जानेसे महादेवका मन अत्यंत विह्वल हुआ इस लिये महादेवजीने अपने निकटमें रहे हुए सेवक और पार्वतीको जाना भी नहीं वो मोहिनी जिस गेंद को उछाल रही थी, सो एक बार वो गेंद उसके हाथसे उछल कर दूर गिर पड़ा, उस गेंदको लेनेको जब वो बाला दौडी तब वायुके वेग से कांची सहित कहीं वस्त्र उड गया, तब महादेवजी खडे होकर एक टक उसको देखने लगे, वैसे ही वो भामिनी भी कुंचित कटाक्ष चलाय कर उनको देखने लगी तब महादेवजीका मन उस पर अनुरागी हो गया और मोहिनी के हाव भाव से महादेवजीका मन ज्ञानशून्य हो गया तथा उसकी तल्लीनता में ऐसे विह्वल हो गए कि पार्वती सामने खडी खडी देखती रहो मगर स्वयं निर्लज्ज होकर उस सुंदरी के समीप चले गए, यह मोहिनी कामिनी वस्त्र रहित थी इस लिये महादेवजीको निकट आते हुए देखकर लज्जित हुई और हंसती हंसती वृक्षों के आडमें जाने लगी, भगवान् महादेवजीकी इंद्रियें प्रबल होगई, वो पंचबाणके वश होकर उस स्त्रीके पीछे दौडने लगे जैसे यूथपति हाथी हन्तिनीओंके पीछे पीछे दौड़ता है, जब वो साधारण चालसे महादेवजीके हाथ नहीं आई तब महादेवजी अति वेगसे दौडे और उस स्त्रोकी इच्छा न देखकर केश पकडकर अपनी भुजाओंसे उसको अपने हृदय से लगालिया, हाथी जिस प्रकार हाथिनीको आलिंगन करता है वैसे ही वो मनमोहिनी बाला भवानीपति महादेवजी के हृदय से लिपटी हुई इधर उधर दौडने लगी जिससे उसके केश छुट
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(९१) गए, उसके बाद देवमायाको बनाई बडे बडे नितंबोंवाली वो स्त्री अति कष्ट करके महादेवजीकी भुजासे अपनेको छुडाय कर दौडी, रे राजन् ! अद्भुत कथा श्रवण करो, श्रीभगवान् विष्णु ही माया विस्तार करके यह स्त्री हुए थे जब श्रीभगवान् स्त्री बनकर दौडे तब शिव अपने सदाके वैरी कामदेवसे पराजित हो फिर उसकी पदवीका अनुष्ठान करने लगे, हे महाराज! वासिताके यानि ऋतुमतीहथिनीके पोछे पोछे दौडते हुए कामी हाथीका वीर्य जिस तरह गिर जाता है वैसे ही उस मोहिनीके पिछे पडे हुए अमोघ वीर्यवान् भगवान् शिवजीका वीर्य गिर गया.
शरम ! शरम !! शरम !!! अफसोस है ऐसे पुराणके लेखकों पर कि जिन्होंने ऐसी बेहुदी बातें लिखतें जरा भी गौर न किया कि इन कल्पनाओंसे धर्मका नाश होता है, अब बतलाइये कि जिनके धर्मशास्त्र ऐसो बातोंसे भरे हुए हो उनके धर्मके माननेवालोंका कल्याण कैसे हो सकता है ? और जो धर्ममें ऐसे कुकर्मी देव होवे उनके नाम लेनेसे धार्मिक लाभ कैसे हो सकता है, हाँ, भवमें रुलना हो तो इन ग्रंथोंके अनुकूल चलना अन्यथा जलांजलि ही दे देनी चाहिये और शुद्धशास्त्रके अनुकूल होकर राग द्वेष रहित देवको परमात्मा कबूल करना चाहिये, देखो-एक तरफ तो महादेवजीको सर्वज्ञ कहते है और दूसरी तर्फसे कृष्णजीसे प्रार्थना करी कि आप मोहिनीरूप दिखलाओ, इससे सिद्ध हुआ कि महादेवजी अल्पज्ञानी थे नहीं तो अपने स्थलमें रहे हुए मोहिनीको देख सकतें तथा निर्लज्ज भी थे, नहीं तो
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( ९३ )
उपरोक्त कर्म अपने सेवकों के तथा पार्वतीजीके देखते हुए न बनता और कामीका तो सरदार ही कह सकते हैं कि जिसका दौडते दौडते वीर्य स्खलित हो गया, बतलाईये ! स्वयं ऐसे महामोहसे घायल हुए हुए देव, भक्तोंका क्या उद्धार कर सकेंगे?, उद्धार करना तो दूर रहा मगर अंग्रेज सरकार जैसा राज्य होता तो उस मोहिनी स्त्रीसे भुजाओंसे पकड कर जो बलात्कार किया था उसका फल स्वयं कारागृहमां बद्ध हो कर भुगतना पडता, बस - इससे इतना ही सबक- पाठ लेनेका है कि ऐसे देवोंको जब तक सेवते रहोगे संसारमें ही भटकते फिरोगे, इस लिये सम्पूर्ण वीतराग श्रीजिन देवका ही शरण लेना चाहिये. भागवत दशम स्कंध २८ वे अध्यायमें
वृकासुरको महादेवजीने उसके कहने माफिक वर दिया किजिसके शिर पर तूं हाथ रक्खेगा वोही मर जायगा, तब उसने पार्वती पर लुब्ध होकर महादेवजी के मस्तक उपर हाथ रखनेका इरादा किया, तब महादेवजी भयभीत होकर वहांसे भागे असुर भी उनके पीछे लगा, शिवजी डर कर स्वर्ग तक भागे और पृथ्वीका जहां तक अंत है वहां तक भागे, फिर उत्तर दिशामें भाग कर गये, उस समय उपायको न जान कर संपूर्ण देवता चूप हो गए, इसके उपरांत प्रकाशमान मायासे परे बैकुंठ धाममें शिवजी गए, तब दूरसे ही नारायण भगवान् ने शिवजीके पीछे दौडे चले आते वृकासुरको देख कर अपनी योगमायासे ब्रह्मचारीका वेष धर लिया, कुश हाथमें लिये भगवान् नम्र हो अभिवादन कर उससे बोले कि हे शकुनिके पुत्र ! मुजे निश्चय खेद है तूं इतनी दूर क्यों आया ?, थोडी देर विश्राम लें, क्यों कि समस्त कामनाओंका देनेवाला यह
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(९३) देह है इसको पीडा मत दे, हे समर्थ ! जो तुम्हारा अभिप्राय हमारे आगे सुनाने योग्य हो तो कहो, क्यों कि बहुधा दूसरोंकी सहायतासे पुरुष अपना कार्य सिद्ध कर सकते हैं, ऐसे मिष्ट वचनसे वृकासुरने अपना सर्व वृत्तांत सुना दिया, तब श्रीभगवान् बोले कि शिवने तुमको वर दिया है तो शिवके वचनको हम सत्य नहीं मानते, क्यों कि यह शिव दक्षके श्रापसे पिशाचोंकी दशाको प्राप्त हुआ है और प्रेत पिशाचोंका राजा है, इत्यादि कह कर उसका हाथ उसके मस्तक पर घराया वो मर गया. __ इस उपरके बयानसे सिद्ध होता है कि महादेवजीको इतना भी ज्ञान नहीं था कि मैं इस कासुरको ऐसा वरदान देता हूं कि जिस वरदानसे मेरा ही नाश करनको यह वृकासुर उद्यत होगा जिससे मेरेको नाश भाग करनी पडेगो तो फिर ऐसे ज्ञानहीनको देव कैसे कह सकते हैं ? तथा विष्णुने उस वृकासुरको धोखा देके मरवाया यह भी सजनताका लक्षण नहीं, क्योंकि सज्जन किसीके साथ धोखेका काम भी नहीं करते तो फिर मरवाणा तो कहां रहा?, इस लिये विष्णु भी धोखेबाज तथा निर्दयी सिद्ध होते हैं.
भागवत तृतीय स्कंध पत्र ३८ वा में बयान है कि. चतुराननने जलमें धरणी-पृथ्वीको डुबी देखके मनमें बहुत काल तक चिंतन किया कि किस प्रकारसे इसका उद्धार किया जाय, ज्यु प्रजा गण इस उपर वास करें. " यस्याहं हृदयादासं, स ईशो विदधातु मे। इत्यभिध्यायतो नामा--विवरात् सहसानघ! ॥
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वराहतोको निरगा-दंगुष्ठपरिमाणकः ॥ १८ ॥"
मैं जिससे पैदा हुआ हूं वो ईश मेरी मदद करो ऐसा विचार करते हुए ब्रह्माजीके नाकसे अंगुष्ट प्रमाण वराहका बच्चा निकला.
तथा थोडी ही देर में वराहजी बडे हो गए और जलमें जाकर पृथ्वीको ले आए तथा हिरणाक्षका शरीर चीर डाला, उसके रुधिरकी कीचमें भरी हुई अपनी तुंडसे लीला करने लगा. ___ इस उपरके लेखसे बुद्धिमानोंकुं विचार करना चाहिये कि लोहुसे भरे हुए मुखसे क्रीडा करना, किसीको चीर डाल कर हृष्ट होना, सामान्य आदमीका काम है या परमात्माका ?.
पद्मपुराण प्रथम सृष्टि खंड अध्याय ३ पत्र ७ में लिखा है कि"ब्रह्मणोऽभून्महाक्रोध-खोलोक्यदहनक्षमः। . तस्य क्रोधात्समुद्भूतं, ज्वालामालावदीपितम् ॥ १७१ ।। ब्रह्मणस्तु तदा ज्योति-स्त्रैलोक्यमखिलं दहत् । भृकुटिकुटिलात् तस्य, ललाटात् क्रोपदीपितात् ॥ १७२ ।। समुत्पन्नस्तदा रुद्रो, मध्याह्नाकसमप्रभः। अर्धनारीनरवपुः, प्रचण्डोऽतिशरीरवान् ॥ १७३ ॥ विभजात्मानमित्युक्त्वा, तं ब्रह्मान्तर्दधे ततः । तथोक्तोऽसौ द्विधा स्त्रोत्वं, पुरुषत्वं तथाकरोत् । १७४ ॥"
इत्यादि वर्णन भी तद्दन युक्ति शून्य है.
१ उपरके संस्कृत श्लोकोंका इतना ही संक्षिप्तार्थ है कि ब्रह्माजीके कपालसे महादेवजी आधे स्त्रीरूपमें और आधे पुरुष रूपमें पैदा हुए.
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( ९५ )
मार्कडेय पुराण अध्याय ७५ त्रप १९९ में— सूर्यदेवकी स्त्री घोडीका रूप धारके तपस्या करतो थी, उस समय सूर्य ने घोडेका रूप धार कर उसके साथ भोग करना चाहा, उस घोडीने उसको परपुरुष समजकर फिर कर अपना मुख उसके सन्मुख किया, मुखसे मुख मिला, बस घोडीके मुखसे तीन पुत्र पैदा हुएं, उनमेंसे एक पुत्र घोडा पर चडा हुआ हाथमें ढाल तरवार तथा बाण तूण युक्त जन्मा, इत्यादि वर्णन है, इन गप्पोंको कोई भी बुद्धिमान् सत्य नहीं मान सकता. तथा ७८ वा अध्याय पत्र २०३ वे में बयान है कि
मधु तथा कैटभ नामके दो दैत्य विष्णुके कानके मेल से उत्पन्न हुए, जब ब्रह्माजीको मारने को तैय्यार हुए तब ब्रह्माजीने निद्रादेवीकी स्तुति करी, भगवान् जाग उठे, जब वे दैत्य ब्रह्माजी के मारनेको उद्यत हुए, तब भगवान् विष्णुने उन दैत्योंके साथ पांच हजार वर्ष बाहु युद्ध किया, यह गप्प गोला भी बुद्धिमान के मानने लायक नहीं हैं, भले ! मिध्यादृष्टि इसके नीचे दबे रहे मगर सम्यक्त्व रूप सूर्यकी अरुणिमा भी इस गप्पगोले रूप तिमिरको क्षण मात्रमें हटा देती है. विष्णुपुराण पांचवे अंशके त्रवीश वे अध्याय मेंकाल पवन सेनाको ले कर युद्ध करनेको आया, वख्त श्रीकृष्ण विचार करते हुए, सो नीचे मुजब —-
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मागधस्य बलं क्षीणं, स कालः पवनो बली । हन्ता तदिदमायातं यदूनां व्यसनं द्विधा ॥ १० ॥ तस्माद्दुर्ग करिष्यामि, यदूनामतिदुर्जयम् । स्त्रियोऽपि यत्र युद्धयेयुः, किं पुनः वृष्णिपुङ्गवाः ॥ ११ ॥
"
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(९६) मयि मत्ते प्रमत्ते वा, सुप्ते प्रवसिते तथा । यादवाभिभवन् दुष्टा, मा कुर्वन्त्वरयोऽधिकाः ॥१२॥ इति संचिंत्य गोविन्दो, योजनानि महोदधिम् । ययाचे द्वादशपुरी, द्वारकां तत्र निर्ममे ॥ १३ ॥
इस उपरके लेखसे सिद्ध हुआ कि श्रीकृष्ण काल यवनादिकोंसे यादवोंको भय जान कर समुद्रके बीचमें द्वारका नगरी वसावते भये, जब श्रीकृष्ण परमेश्वर और संपूर्ण शक्तिमान् है तो अपनी शक्तिसे काल यवनादिको यादवोंका भक्त बना देते कि जिससे सर्व कालयवनादि यादवोंके आधिन हो जातें तो फिर अपनी मथुरानगरी छोड कर द्वारका नगरी क्यों वसानी पडती ?, वास्ते सिद्ध हुआ कि श्रीकृष्ण संपूर्ण शक्तिमान् नहीं थे और नाही परमात्मा थे, क्यों कि सर्व शक्तिमान् परमात्मा किसीसे नाश भाग नहीं कर सकता, अगर कहा जावे कि परमात्माने यह सा लीला की थी, इससे उनके परमात्मपदमें कुछ वाब नहीं, तो यह भी कथन महा अज्ञानताका है, क्यों कि जो परमात्मा हो सो किसी तरहकी लीला कर ही नहीं सकता, लीला करना मोही अज्ञानी तथा इन्द्रजालिओंका काम है और ऐसे तो कोई पामर भी कह देगा कि मैं परमात्मा हूं और जब उसके परमात्मा होनेमें विरोध दिखलायेंगे कि तू दरिद्र है, भीख मांग कर पेट भरता है,
आज्ञानताका पूतला है, दूसरेसे डरता है, विषय विकारों में मरा पड़ा है इस लिये तूं परमात्मा नहीं है, तब वो भी कह सकता है कि यह सब मेरी लीला है, मैं बराबर परमात्मा हूं, बस-इस पामरके उत्तर जैसा ही अंधभक्तोंका उत्तर है, जो प्रकटतया ब्रह्मा विष्णु महेश आदि देवोमें उन पूर्वोक्त दूष
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(80)
णाको देखते हुए भी लीला लीला कह कर आंखें मीच लेते हैं और सत्यमार्गको भूल कर उलटे ही रास्ते चले जाते हैं. और भ्रमणाकी ठोकरें खाते हुए अनंतकाल व्यतीत करते हैं, मगर सत्य जैनधर्मरूप सूर्यके प्रकाशसे प्रकाशित मार्गमें नहीं आने से मुक्ति से वंचित रह जाते हैं.
उन जीवों पर हमारी अहोनिश भाव दया रहा करती है और यह विचार आता है कि हाय ! दुष्ट मिध्यात्व ! तूंने उन जीवोंका नाश क्यों मारा है १, इन्होने तेरा क्या त्रिगाडा है १. जो विचारोंको रास्ते पर नहीं आने देता, इससे भी ज्यादा दुःख तो हम इस बातका है कि जो उल्टे रास्ते पर चलते हुए भी सच्चे जैनधर्मसे द्वेष रखते हुए और अपने हृदयगत प्रज्वलित वैरको शांत करने के लिये किसी पुस्तकमें ज्युं आवे त्युं जैनधर्म के बारेमें बकवाद करते हैं, जैसे ' अनंगभद्रा ' अथवा वल्लभीपुरनो विनाश ! ' नामके पुस्तकमें एक मिथ्यांध ठक्कर नारायण विसनजी " नामक व्यक्तिने किया है, मचकुर किताब के पृष्ठ ४० पर लिखा है कि- “ घएगा परा ઘણા જૈન સાધુએ પણ એ તાંત્રિક ધર્મના ઉપાસક થયા ता. " यह फिकरा लिखकर उसकी फुटनोटमें—
4
44
“ જ્યારથી બહુ સખ્ય જૈન સાધુઓએ તાંત્રિકક્રિયાને સ્વિ કારી તે મલીન જપાપ તથા માંસ બલિદાન આદિથી દેવી પિશાચ તથા વૈતાલ આદિની, જારણુ મારણ અને વશીકરણુ આદિ સિદ્ધિ માટે સાધના मुश्या भांडी.. એટલે પછી જે સાધુશ્મા શુદ્ઘરિત્ર અને પવિત્ર હતા. તેમણે એ ભ્રષ્ટ જેનસાથી પેાતાની ભિન્નતાને દર્શાવવા भाटे श्वेतवस्त्रने पहले पीतवस्त्र परिधान श्वा भांडयां, ............
બૈધ પ્રમાણેજ જૈનધર્મમાં પણ તે સમયમાં ભિન્ન ભિન્ન અનેક વિભાગે પડી ગયા હતાં, તેમાંના દિગમ્બર શ્વેતાંબર અને સ્થાન કવાસી
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मुन्य हता.
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(९८) इत्यादि लिखा है, अव्वल उनकी यह मिथ्यांधता है कि तांत्रिकमतका असर बौद्ध और जैनधर्ममां हुआ, ऐसे लिख कर वैदिकधर्मको किनारे ही रक्खा, क्या चारों तर्फसे जलता हुआ तांत्रिकमत दावानल वैदिकोंका रिस्तेदार-संबंधी था ? जो उसमें असर नहीं हुआ और जैनमें हो गया, दूसरी यह मिथ्यांधता है कि जैनधर्म जैसे पाक असूलोंको माननेवाले उस समयके-ईस्वीसन् आठवी शताब्दिके यतियोंमें इतनी पवित्रता थी कि वे किसी तरहसे मांस बलिदान जैसे अधमकर्त्तव्यको कर ही नहीं सकते थे तथापि उनमें विना प्रमाण मांस बलिदानका रीवाज लिख मारा, आधार वगैर 'आधेय हो ही नहीं सकता, क्यों कि जब तांत्रिकमतमें
जैनोंकी अभिरुचि किसी भी प्रमाणसे किसो कालमें भी साबित नहीं होती तो फिर उस मतकी नीचक्रियाका तो होना ही असंभाव्य है, हाँ, व्यक्तिगत दोष संभाव्य हो सकता है परंतु समष्टि आश्रित जैनसमाजमें तांत्रिकमतकी असर लिखनी ऐसा है जैसे ठक्कुर कहे कि-" मम माता वंध्यासीत्, अर्थात् मेरी माता वंध्या थी, क्यों कि उस समयमें -ईस्वीसन्की आठवी शताब्दिमें चैत्यवास करनेवालोंका अस्तित्व था और वो कितने ही काल तक चला, इनकी इस शिथिलताका भी बड़े जोरो शोरसे उस वख्तके त्यागी मुनि
ओंने खंडन किया था जिसका जिक्र शास्त्रोंमें आता है, ऐसे ही अगर तांत्रिकवादियोंकी टुकडी जैनमतमें उत्पन्न हुई होती तो अवश्य उसका भी खंडन उस वक्त शुद्धक्रिया करनेवाले महात्मा लिखतें मगर ऐसा जिक्र कहीं भी नहीं देखनेसे ठक्कुरकी यह द्वेषमय प्रवृत्ति है और ऐतिहासिक विष
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यकी बिलकूल अनभिज्ञता ही सिद्ध होती है, तिसरी मिथ्यांधता यह है कि तांत्रिकमतके असरसे भ्रष्ट जैनसाधुओंसे भिन्न होनेके लिये पीतवस्त्रकी कल्पना करते हैं, पीतवस्त्र विक्रमकी अठारहवी शताब्दिमें मात्र आंतरिक सामान्य बाबतसे धारण किये हैं, उसको ईस्वीकी आठवी शताब्दिमें महाअसत्य दोषारोपण करने हेतुरूप बतलाना यह कितनी अज्ञानताकी बात है ? सो विचारशील पाठक गण विचार करेंगे, “ उस समय श्वेतांबर दिगंबर और स्थानकवासी मुख्य विभाग थे ” यह बात लिख कर तो अच्छे अच्छे इतिहासज्ञोंके भी कान काट लिये, वाह ! रे ! वाह ! इतिहासज्ञोंकी पंक्तिमें नाम रखनेवाले ठक्कुर ! वाह !, जिस वक्त जिस समाजका नाम निशान भी नहीं था उस समयमें उस समाजके उल्लेख करनेवालेमें असत्य लिखनेका लेश भी डर हो ऐसा कौन बुद्धिमान् मान सकता है ?, जरा अक्षरके वख्तकी तवारीखकी गर्ज सारनेवाली 'आईनअक्बरी' देखी होती तो भी मालूम हो जाता कि उस वख्त तो क्या मगर अबरके बक्तमें भी ढूंढकसमाज नहीं था, अस्तु, जिसने महामिथ्यात्वके नशेमें सन्निपात ज्वरितकी तरह ज्यू आवे त्यू प्रमाण वगैर लिखना है उसको ऐतिहासिकप्रमाण मिले चाहे न मिले क्या प्रवा है ?, जैसे इसी किताबके ४४-४५ वे पृष्ठ पर लिख दिया है कि-" सलीनगरमा ते वेगास मने બૌદ્ધવિહારે અને જૈનમંદિરે અસ્તિત્વ ધરાવતાં હતાં અને તે સર્વ ધર્મસ્થાનને બદલે અધર્મનાં સ્થાનો થઈ પડેલાં खोपाथी" त्यादि, यहां पर बुद्धिमान् लोक तुरत ही समज जायंगे कि ठक्कुरकी द्वेषप्रणालिकामें कितना गंदा पानी
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(१००) बिन प्रमाण बहता है कि पवित्र जैनदेवालयों में अद्यावधि ऐसा अनुचित वर्ताव कदापि न होनेका जैनोंको ही नहीं बल्के मध्यस्थ इतिहासज्ञ जेनेतरोंको भी पूर्ण विश्वास है और जैनतरोंके मंदिरोंमें रात्रिको जल्दी उठ कर स्त्रीयोंका जाना और वहां कृष्णलीलाका अनुभव लेना मध्यस्थ जैनतर भी कबूल करते हैं ऐसे उनके कृष्णालय शिवालय तो तांत्रिकमतके असरसे खाली रह गये और धर्मस्थान ही बने रहे
और बौद्ध तथा जैनमंदिर अधर्मस्थान हो गये थे, द्वेषकी भी कुछ सीमा है, वाहरे ! मिथ्यात्व ! तूं तो सचमुच उल्लु ही बना देता है, अन्यथा प्रकाशको अंधकार और अंधकारको प्रकाश कैसे कहें १, भला! जिस शंकराचार्यको जैनमतके तत्त्वकी गंध भी नहीं लगी थी ऐसा उनके जैनतत्त्वों पर लिखे हुए विवेचनसे सिद्ध होता है, उस शंकराचार्यके नामसे जैन भडके यह सफेद झूठ नहीं तो और क्या है ?, पृष्ठ ५२ पर “ एक यतिने वल्लभीनगरके मध्यमें रहे हुए शिवालयको तुडवाकर और उसके बराबर चांदी देकर जैनमंदिर बनवाया" यह बेपायेदार बात लिखी है ऐसा हमारा अनुभव हमको साक्षी देता है और यह लेख दूसरे लोकोंको भडकानेके लिये लिखा गया हो ऐसी कल्पना करता है, ठकुर शंकराचार्यके रंगमें ऐसे रंगे गये हैं कि उनकी तारीफके पूल बांधनेके लिये ही शायद यह नोवेल रचा गया हो तो भी अत्युक्ति नहीं मगर साथमें उनको नहीं माननेवाले बौद्ध जैनको खूब बुरा भला न कह लेवे वहां तक वो पूल मजबूत नहीं बन सकता था, अतः वो भी काम कर लिया पवित्र जैनधर्मको वाममार्गका समूलोच्छेद करनेवाले जैनधर्मको
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वैदिक हिंसाके कारन वैदिकतत्त्वको नहीं माननेवाले जैनधर्मको वाममार्गीका असर हुआ ,, इत्यादि लिख कर वैरानल शान्त किया, अस्तु, कुछ हानि नहीं, हमारे 'ठक्कुर' शांत तो हुए, इतनी ही हमको खुशी मानना चाहिये, बेशक, खुश होना चाहिये मगर उनकी इस पाप कर्मसे होनेवाली बुरी गतिका खयाल खुश नहीं होने देता, तथा ४२-४३ वें पृष्ठ पर-" Qरायाय ने तेमनी माताना ये वर्णश २ સંતાન તરીકે ઓળખાવે છે. અને તેમની માતા શ્રી મહાદેવીને વર્ણશંકર પ્રજાને ઉત્પન્ન કરવાના અપરાધ માટે જાતિ બહિષ્કૃત થવું પડ્યું હતું એમ જણાવેલું છે, પરંતુ આ વિધાનમાં અધિક સત્યાંશ હોય એવી અમારી માન્યતા નથી.” ઈત્યાદિ, ऐसे अपने माने हुए विषयमें दोष आवे तो 'भारी मान्यता नथी' ऐसा लिख देना और मेरुतुंगाचार्य महाराजने शिला. दित्यको जैनराजा लिखा है इस सत्यांशको भी अपनी मनोकल्पनासे विरुद्ध होनेके कारण कह दिया कि काल्पनिक है, पक्षपातकी भी कुछ हद है !, अरे मिथ्यात्व ! तूं क्या क्या नाच नहीं नचाता ?, भगवन् ! वे लोक भी वस्तुको वस्तु समझ कर रास्ते पर आवे और सत्य द्वेषको जलांजलि देवे यही अभिलाषा है लो अब टाईम बहुत हो गया है इस लिये अब तो बन्द रखते हैं.
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( १०२) चतुर्थ-दिवस.
चौथे दिन सूरीश्वरजी महाराजने प्राभातिक कृत्योंसे
निवृत्त हो कर जब अपने स्थानको सुशोभित किया तब वह श्रद्धाशील श्रावक महाशय भी आ पहुंचा, विधि सहित वंदन करनेके बाद हाथ जोड सन्मुख बैठ गया और कहने लगा कि पूज्यपाद गुरुदेव ! आपने जैसी आगे इस दास पर कृपा की है ऐसे आज भो करें और आगेका वर्णन सुनावें.
सूरीश्वरजी-पद्मपुराण प्रथम सृष्टिखंड अध्याय १७ वे के ५० वे पत्र पर जिकर है कि
ब्रह्माजीने दूसरी स्त्री कर ली, जिससे प्रथमकी स्त्री सावित्री क्रुद्ध हुई, ब्रह्माजीने उसके चरणों में शिर धरा इत्यादि, देखो" पत्नी विना न होमोऽत्र, शीघ्र पत्नीमिहानय । शणैषा समानीता, दत्तेयं मम विष्णुना ॥ ४२ ॥ गृहीता च मया सुच!, क्षमस्वैतं मया कृतम् । न चापराधं भूयोऽन्यं, करिष्ये तव सुव्रते ! ॥ ४३ ॥ पादयोः पतितस्तेऽहं, क्षमस्वेह नमोऽस्तु ते । एवमुक्ता तदा कुद्धा, ब्रह्माणं शप्तुमुद्यता ॥ १४ ॥"
भावार्थ-स्त्रीके वगैर यहां होम नहीं हो सकता तब मैने ग्रहण की, हे अच्छी भ्रवाली !, हे अच्छे व्रतवाली ! मेरे अपराधकी क्षमा कर फिर ऐसा नहीं करूंगा ॥४३॥ हे देवि ! तेरेको नमस्कार हो, मैं तेरे चरणोंमें पडा हूं, क्षमा कर,
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(१०३) ऐसे कहे जाने पर भी क्रुद्ध होकर ब्रह्माजीको शाप देनेको उद्यत हुई. ॥ ४४॥
यह बनाव ब्रह्माजीको किस दर्जेके कामी साबित करता है ? सो हमारे पाठक स्वयं समझ जायेंगे और ऐसे स्त्रीओंके पांवमें पडनेवाले और भागवत तृतीय स्कंध अध्याय ३१ के पत्र ९८ के ३३ वे श्लोक" प्रजापतिः स्वां दुहितरं, दृष्ट्वा तद्रूपधर्षितः ।
रोहितभूतां सोऽन्वधाव-दृक्षरूपी हतत्रपः ॥ ३३ ॥"
के अनुसार अपनी पुत्रीके साथ भी भोग करनेको तत्पर होनेवाले, शिवपुराण ज्ञानसंहिता अध्याय १८ श्लोक ६२ -६३-६४ वे में
" प्रदक्षिणं तथा चाने-श्चतुर्धा च कृतं तदा । ब्रह्मणः स्खलनं जातं, शिवांगुष्ठप्रदर्शनात् ।। ६२ ।। तद्गोपितं तदा तेन, ह्युत्संगे. पतितं च यत् । ततो जातास्त्वसंख्याता, बटुका ब्रह्मसूत्रकाः ॥ ६३ ।। जटादंडधरास्ते च, बद्धकच्छाः सहस्रशः । नमस्कृत्य च ब्रह्माणं, स्थितास्ते तु तदग्रतः ॥ ६४ ॥"
लिखे मुजब महादेवजी के लग्नमें पार्वतीके अंगुठेके रूपको देखकर अति कामसे वीर्य निकाल देनेवाले परमात्मा है या कामात्मा १. सो भी विचार लेंगे, हमको सख्त अफसोस इन ग्रंथोंके रचनेवालों पर है कि जिसे प्रभु मानते हैं उसे ऐसे चरित्र लिख कर पामर बना डाला है और मिथ्यात्वने पूरी सहायता दी है जिससे अपने गड्डेको अभी तक चलाये जाते हैं भन्यथा जरा भी विज्ञान
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(१०४) वाला मनुष्य हो तो तुरत समज सके कि अरे ! ये लोक क्या गप्पे हांक रहे हैं, देखिये ?, शिवपुराण विद्येश्वर संहिता अध्याय ६ वे में लिखा है कि-एक दिन ब्रह्माजी कृष्णजीके पास गये, सोते हुए कृष्णको कहा, अरे ! क्यों सोता पडा है ?, तूं उन्मत्त जैसे दिखता है, में तेरा नाथ आया है और तूं आराधना नहीं करता, इससे तूं प्राय श्चित्तविधिके योग्य है, इस बातको सुन कर कुपित कृष्ण कहता है, वत्स ! आ, इस पीठ पर बैठ, तब ब्रह्माजी बोले, अरे ! कालयोगसे मानमें आ गया है, हे वत्स ! मैं ही तेरा त्राता हूं और जगत्रक्षक भी में ही हूं, विष्णु कहता है मैं हूं, वो कहता है मैं प्रभु और वो कहता है मैं, इस प्रकार 'हूं' 'तूं' करते करते लड पडे, एक एकको जानसे मारडालनेको भी तत्पर हो गये, आखिर ऐसा युद्ध हुआ कि देवता भी भयभीत होकर शिव चरण के शरणमें गये.
अब बतलाईये ! क्या ये बातें उनको परमात्मा सावित करती हैं कि पामरात्मा ?, अगर कहा जावे कि ये तो सब कल्पित पुराणोंके गप्पे हैं इससे हमारे धर्ममें क्या हानि ? तो भी भूल है, क्यों कि जिन लोकोंने ऐसे काम करने वालोंको भी परमात्मा कबूल किया, उन लोकोंने वेद वेदांगादि सब ही ग्रन्थोंको कल्पित ही रच लिया हो तो उसमें संदेह ही क्या है ?, अर्थात् ऐसे लेखकोंकी जहां पर व्याख्या. ओंकी गंध भी हो वहां सत्यतत्त्व लेशमात्र भी नहीं ठहर सकता, वास्ते ब्राह्मणग्रंथोंसे हाथ मुंह धोकर जिन शास्त्रोमें जरा भी ऐसी मनोकल्पनाको स्थान नहीं मिला उन शास्त्रोंसे प्रेमबद्ध होकर आत्मोद्धार कर लेना चाहिये, मगर क्या
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(१०५) करें ? यह षडी कठीन बात है कि सतशास्त्रकी तर्फ प्रेम बढे. प्रथम तो-" दृष्टिस्नेहो हि दुस्त्यजः " यह बात अक्षरशः सत्य है, अगर किसी तरहसे किसीका दिल सत्यशास्त्रोंकी तर्फ हो भी जाय तो उसके प्रतिबंधक वर्णन ऐसे कल्पित बना लिये हैं कि दूसरेका दिल जमे ही नहीं. देखिये--. शिवपुराण ज्ञानसंहिता अध्याय २१ वा जिस्में लिखा है कि____ अच्युत-कृष्णने अपने शरीरसे एक मायावी पुरुषको उत्पन्न करके दैत्योंको खोटा उपदेश देना,-यानि उन्हे वेदधर्मसे रहित करना ऐसी आज्ञा की, इस आज्ञाको पाकर उस मायावी पुरुषने हजारों दैत्योंको वेदधर्मसे भ्रष्ट किया, इत्यादि वर्णन है. जिसके पडनेसे यही मालूम होता है कि इस पुराणको रचनेवालोंने किसी तरह लोक जैन तत्त्वोंको सुनकर सावधान न हो जावे इस वास्ते प्रथमसे ही यह कल्पना कर ली कि जैनधर्म मायापुरुषका चलाया हुआ है और दैत्योंको दुर्गति देनेके लिये ही रचना हुई है. भला ? इस बातको कौन सत्य मान सकता है ? कि मायावीपुरुष ऐसे सत्यतच कथन कर सके कि जिसके साथ टक्कर लेनेमें दुनियांके समस्तधर्म असमर्थ हैं, अगर पक्षपातको जलांजलि देकर विचार करेंगे तो साफ तौर पर मालूम हो जायगा कि अपने कल्पित मार्गकी कलइ (पोल) ना खुल जावे, इस लिये सत्यमार्गके लिये यह बनावट खडी कर दी है, जिसको पढकर अविचारक वर्ग कदापि जैनधर्मके समीप भी ना जावे और हमारा कल्पित मार्ग हमेशह निरंतराय बना रहे ऐसे ही इरादेसे भागवत पंचमस्कंध अध्याय ६ के पत्र २० वे में भी ऐसी
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ही कल्पना की है सो सर्वथा अयौक्तिक है. ऐसे ही पद्मपुराण प्रथमसृष्टिखंड अवतारचरित नाम त्रयोदशवें अध्यायमें ऐसा वर्णन है कि-बृहस्पतिने कृष्णका चितवन किया, कृष्णजीने मायावीपुरुष पैदा कर दिया और कहा कि यह मायापुरुष सकलदैत्योंको वेदधर्मसे भ्रष्ट कर देगा.
आगे चलकर इस मायापुरुषके वेषका वर्णन किया है सो दिगंबर वेष है, इससे साबित होता है कि पद्मपुराणका कर्ता दक्षिण देशमें हुआ होगा, क्यों कि वहां दिगंबरोंकी पुष्कल वस्ती है. शिवपुराणके कर्ताने जो मायावी पुरुषका भेष वर्णन किया है सो श्वेताम्बरके अनुकूल है इससे उसका कत्तों गुजरात मारवाड आदि जहां श्वेताम्बरोंकी घीच वस्ती है वहांका होना चाहिये, इससे पुराणोंका कर्त्ता एक ही व्यास है यह प्रथा असत्य सिद्ध होती है. और परस्पर इतने विरोध आते हैं कि तटस्थ होकर विचार करें तो तुरत ही समझ जाय कि यह अल्पज्ञोंके कल्पित कथन हैं और सर्वज्ञका कथन कहीं अन्यत्र ही है.
भागवत दश० स्कंध उ० अध्याय ६३ वे में शिवजी और कृष्णचंद्रजीका परस्पर युद्ध होनेका बयान है. जिस युद्ध के देखनेसे उन दोनों देवोंमें दया ज्ञान शक्ति और मध्यस्थ ताका अभाव साबित होता है, जिससे वे परमात्मा किसी तरहसे साबित नहीं होते हैं. ___ अब ब्राह्मणलोग मांस खाते थे, हिंसा करते थे, दूसरोंको इन बातोंका उपदश करते थ, मांसादि भोजन देने वालेकी प्रशंसा करते थे, श्राद्धमें मांस विधेय है ऐसा कथन 'करते थे. और न खानेवालेको नरकमें भेजते थे सो स्मृति इति
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(१०७) हास पुराणादि शास्त्रोंसे दिखाते हैं, देखकर विचार कर लेना कि ये बातें शास्त्रत्वको सिद्ध होने देती है या रोकती हैं ?. ___पद्मपुराण प्रथमसृष्टिखंड अध्याय ३३ के पत्र ९७ वे में वर्णन है कि ऋषिलोगोंने रामचन्द्रजीको उपदेश दिया कि तुम-राजा दशरथका श्राद्ध करो, जिस्में पवित्र मांस तथा धान्यादिसे ब्राह्मणोंको भोजन कराओ, इत्यादि. देखो" अमी च ऋषयः सर्वे, तव भक्ताः कृतक्षणाः ।
अहं च जमदग्निश्च, भारद्वाजश्च लोमशः ॥ ७७ ।। देवरातः शमीकश्च, षडैते वै द्विजोत्तमाः । श्राद्धे च ते महाबाहो !, संभाराँस्त्वमुपाहर ॥ ७८ । मुख्यं चेंगुदिपिण्याकं, बदरामलकैः सह । श्रीफलानि च पकानि, मूलं चोच्चावचं बहु ॥ ७९ ॥ मार्गेण चाथ मांसेन, धान्येन विविधन च । तृप्तिं प्रयच्छ विप्राणां, श्राद्धदानेन सुव्रत ! ॥ ८० ॥ पुष्करारण्यमासाद्य, नियतो नियताशनः । पित॒स्तर्पयते यस्तु, सोऽश्वमेधमवाप्नुयात् ॥ ८१ ।। स्नानार्थ तु वयं राम !, गच्छामो ज्येष्ठपुष्करम् । इत्युक्त्वा ते गताः सर्वे, मुनयो राघवं नृप । ॥ ८२ ॥ लक्ष्मणं चाब्रवीद्रामो, मेध्यमाहर मे मृगम् । शुद्धक्षणं च शशकं, कृष्णशाकं तथा मधु ।। ८३ ॥ परिपक्कं च जानक्या, सिद्धं रामे निवेदितम् । स्नात्वा रामो योगवाप्यो (१), मुनीस्ताननुपालयन् ॥८॥" इत्यादि
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(१०८) . उपरके लेखसे अच्छी तरहसे सिद्ध हो गया कि ऋषि ब्राह्मणलोग अपने मुंहसे कहकर मांसका खुराक भी खाया करते थे जैसे रामचंद्रजीसे उन लोगोंने कहा, उन्होंने लक्ष्म णजीसे कहा कि मांस वगैरह भोजनकी सामग्री तैय्यार करो, उसी वख्त लक्ष्मणजी खरगोश आदि जानवरोंको मारकर ले आये, दूसरी सामग्री भी तैय्यार की, तब सीताजीने रसोई बनाई, ऋषि ब्राह्मणलोग जमदग्नि भारद्वाज आदि स्नान करके आये और उस पूर्वोक्त भोजन को जिमकर दक्षिणा लेकर चले गये.
पद्मपुराण प्रथम सृष्टिखंड अध्याय १० वे के पत्र २१ वे में बयान है कि
कौशिकऋषिके सात पुत्रोंने गौको मारा और श्राद्ध करके उसका मांस भक्षण किया. देखोउस विषयका उल्लेख श्लोकोंमें यूं किया है- . " तदा गत्वा विशङ्कास्ते, गुरवे च न्यवेदयन् । व्याघ्रण निहता धेनु-र्वत्सोऽयं प्रतिगृह्यताम् ॥ ५७ ॥ एवं सा भक्षिता धेनुः, सप्तभिस्तैस्तपोधनैः। वैदिकं बलमाश्रित्य, क्रूरे कर्मणि निर्भयाः ॥ ५८ ॥"
भावार्थ कि-गौका मांस खाकर शंका विहीन होकर गुरुको निवेदन करने लगे, हे गुरुदेव ! गौको व्याघ्र खा गया और यह बछडा बच गया है सो ग्रहण करो, इस तरहसे उन सातोंने वैदिक बलका आश्रय लेकर क्रूरकर्ममें निर्भय होकर 'गो' को खा लिया.
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इस पाठका यहां पर उल्लेख करनेसे यह मतलब है कि ऐसे हत्यारे कर्म करनेमें भी वैदिक हमने यह किया है, ऐसा विचार एक तो चोरी और उसके साथ सीना जोरी जैसा मामला है, उस वेदमें धर्ममार्ग है ऐसा कौन कबूल कर सकता है ?.
भागवत चतुर्थस्कंध अध्याय ४ पत्र १० वेसे सिद्ध हो जाता है कि-यज्ञमें ब्राह्मण लोग अपने हाथोंसे वध करते थे. देखो" आब्रह्मघोषोर्जितयज्ञवेशसं,
विप्रर्षिजुष्टं विबुधैश्च सर्वशः । मृदावय:कांचनदर्भचर्मभि
नि:सृष्टभांडं यजनं समाविशत् ॥ ६॥" भावार्थ कि-जहां चहूं औरसे ब्राह्मण लोग वेदध्वनि करके यज्ञके पशुओंको मार रहे हैं तथा पूजन कर रहे हैं, चारों और देवता विराजमान हैं, मृत्तिका काष्ट लोहा सुवर्ण कुश और चमें इनके बनाये हुए पात्र जहां पर यज्ञशालामें घरे हैं, उस यज्ञमें सती पहुंची ॥ ६ ॥
जिस समय ब्राह्मणलोग अपने ही हाथोसे ऐसे काम करते थे, उस वख्तके ब्राह्मणोंने धर्मसे हाथ धोया था, इस लिए उनके सहवासमें रहनेवाले भी धर्मसें विमुख ही रहे, इतना ही नहीं अधर्मकार्यमें द्रव्य सहाय कर अधोगति के भी पात्र बने, उन लोगोंने जो ग्रन्थ नये लिखे हैं. और पुराणे ग्रंथोंके टीकारूप मागे बनाये हैं, उनके अवलंबनसे अब तक भी जो लोग उनके वचनोंको सत्यरूप मानकर अंधेरे मार्गमें
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(११०)
चले जाते हैं, अधोगतिके पात्र बनेंगे. परंतु हमारे इस लेख से किसी भी जीवकाउ हो और सन्मार्गमें चले यही इरादा हमें इस कार्यको करा रहा हैं, नहीं तो कितने ही भोले श्रद्धालु इस पुस्तकसे भडकेंगे और हमको इस विषय में कित नोक बाबत सहन भी करनी पडेगी, ऐसे जानते हुए हम इस प्रयत्नको कदापि नहीं कर सकते थे.
॥ ८ ॥
महाभारत वन पर्व अध्याय २०८ वे में" राज्ञो महानसे पूर्व, रन्तिदेवस्य वै द्विज ! | द्वे सहस्रे तु वध्येते, प्रशूनामन्वहं तदा अहन्यहनि वध्येते, द्वे सहस्रे गवां तथा । समांसं ददतो ह्यन्नं, रन्तिदेवस्य नित्यशः ॥९॥ अतुला कीर्तिरभव - न्नृपस्य द्विजसत्तम ! | चातुर्मास्ये च पशवो वध्यन्त इति नित्यशः ॥ १० ॥ "
भावार्थ - हे ब्राह्मण ! रंतिदेव राजाके महानस - रसोडेमें निरन्तर दोहजार अन्य पशु और दोहजार गाएं मारी जाती थीं और हमेशह मांसके साथ अन्न दिया जाता था, जिससे उस राजाकी अतुलकीर्ति सर्वत्र फैली हुई थी.
देखिये ! कैसी बुरी बात है ? और वैदिकोंके शास्त्रों की अस्त व्यस्त व्यवस्था कैसी बिगड़ गई है ?, एक तरफ गौ रक्षाका उपदेश और एक तरफ दोहजार गाएं मरानेवाले रंतिदेवकी अतुलकीर्त्ति हुई थी कहकर पापकर्मका अनुमोदन करना कितने अफसोसकी बात है ?.
अगाडीके श्लोकोमें ब्राह्मणलोग अपने हाथोंसे पशुओंका वध करते थे. ऐसा उल्लेख है तथा ब्राह्मणको मांस लेनेका
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( १११ )
विधान है, इन बातोंसे दयाका अभाव आर हिंसाका भाव बतलाता हुआ यह विधान इन शास्त्रोंको कुशास्त्ररूप साबित करता है, अरे ! पुराणों को छोड दो, वेदोंमें भी कहां कमी रक्खी है, देखो - शंकर दिग्विजय के २६ वे प्रकरणमें आनंदगिरि लिखता है कि
श्रुत्याचारतत्परैरंगीकरणीया,
" पशुहिंसा हिंसा कर्त्तव्येत्यत्र वेदाः सहस्रं प्रमाणं वर्त्तने, ब्रह्म-क्षत्र - वैश्य - शूद्राणां वेदेतिहासपुराणाचारः प्रमाणमेव, तदन्यः पतितो नरकगामी चेति अनिष्टोमादिक्रतुः छागादि पशुमान् यागस्य धर्मत्वात् सर्वदेवतृप्तिमूलकत्वाच्च तद्द्वारा स्वर्गादिफलदर्शनत्वाच्च ."
इस उपरके पाठ में लिखा है कि हजारों श्रुतिएं हिंसा करनेका आदेश करती हैं, इस लिये वैदिकहिंसा कर्त्तव्य है, इस लिये वेदकी भी हजारो श्रुतिएं हिंसामयी पुराण के लेखको सिद्ध करती हैं ऐसा साबित हुआ, अब बुद्धिमानों को विचार करना चाहिये कि जहां पर मूल ग्रंथ उत्तरग्रंथ सभी में ऐसी क्रूर बातें लिखी हों उन ग्रंथों पर चलनेवालों का भला कैसे हो सके ?. अगर कोई कहे कि उन बातोंके उल्लेखवाले पाठोंको छोड कर अच्छो बातें जिन पाठोंमें लिखी हों उन पाठको ठीक माने फिर तो कल्याण हो सकता है, १ तो यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि विषमिश्रित अन्नको पृथक् कर भक्षण करनेवालेको जैसा उसका पृथक्करण दुर्घट मालूम होता है और भक्षणसे मरणका अनुभव करना पडता है, ऐसे ही मिथ्यामोहितोंके रचे हुए शास्त्रोंके विषयमें भी समझ लेना चाहिये.
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(११२) देखिये-पद्मपुराण क्रियायोगसारे सप्तमखंड गंगासामरसंगम माहात्म्य वर्णन नाम अध्याय ६ पत्र १४ वे में लिखे हुए श्लोकसे भी वेदोमें हिंसा करना साबित है. देखो
" वेदा विनिन्दिता येन, विलोक्य पशुहिंसनम् । सकृपेन त्वया येन, तस्मै बुद्धाय ते नमः ॥"
भावार्थ-चेदोंमें पशुओंकी हिंसाका बहुत बयानहोनेसे विष्णुने पशुओंकी हिंसाको देखकर पशु पर दया लाकर बुद्धावतार धारण किया और वेदोंकी निन्दा की. - इस पद्मपुराणके पाठसे भी वेद हिंसकक्रियाके निरूपक सिद्ध हुए, ऐसे ही
देवीभागवत महापुराणके प्रथम स्कंधके १८ वे अध्यायमें शुकजीने राजा जनकसे जो कथन किया है, उस कथनसे भी वेदोंमें जानवरोंका मारना, मदिरा पान करना, जूआ खेलना, मांस भक्षण करना इत्यादि साबित होता है, तथा यज्ञमें इतने जानवर मरते थे कि जिनके चमडोंका पहाड बन जाता था.
पद्मपुराण ब्रह्मखंड ४ अध्याय १२ वेमें गालव नामके मुनिने नरमेध यज्ञ करनेका उपदेश किया है, बारवा अध्याय इसी विषयको वर्णन करता है, इससे सिद्ध होता है कि ब्राह्मणोंके ऋषिलोग नरमेध यज्ञ (मनुष्यका मारने )को भी अत्यंत ही अच्छा मानते थे, ऐसी बडी बडी हत्याओंका उपदेश जिन शास्त्रोंमें किया है उन शास्त्रोंको सत्य मानकर वेद बडे हैं, बड़े हैं, ऐसे पुकारे जाना क्या फायदा ?, ये लोग
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१३. )
ऐसी विपरीत बातोंको देखते नहीं करते थे, इतना ही नहीं बल्के था ऐसे परमपवित्र आतशास्त्रों को भी कुशास्त्र लिखते थे
पर उनसे पटनेका प्रयत्न सत्यधर्मका जिनमें कथन
देखो - कूर्मपुराण पूर्वार्द्ध देव्या माहात्म्य नामक अध्याय १२ के पत्र २२ वे में नीचे लिखे हुए श्लोक हैं
46.
न च वेदाहते किंचि-च्छास्रं धर्माभिधायकम् । योऽन्यत्र रमते सोऽसौ न सम्भाष्यो द्विजातिभिः ॥ २६० ॥ यानि शास्त्राणि दृश्यंते, लोकेऽस्मिन् विविधानि तु । श्रुतिस्मृतिविरुद्धानि, निष्ठा तेषां हि तामसी ॥ २६१ ॥ कापालं भैरवं चैव, यामलं वाममार्हतम् ।
एवं विधानि चान्यानि, मोहनार्थानि तानि तु ॥ २६२ ॥ ये कुशास्त्राभियोगेन, मोहयन्तीह मानवान् । मया सृष्टानि शास्त्राणि, मोहायैषां भवान्तरे ॥ २६३ ॥
17
भावार्थ
वेदके सिवाय धर्म कथक कोई शाख नहीं है जो वेद सिवायके धर्मको मानता है उसके साथ संभाषण करना ब्राह्मणको मुनासिव नहीं है || २३० ॥ श्रुति स्मृति विरुद्ध जो शास्त्र लोगों में दिखते हैं सो तामसी हैं ॥ २६१ ॥ कापालिक भैरव यामल वाम तथा आर्हत-जैन दर्शन ये सब लोगोंको व्यामोह पैदा करानेवाले हैं || २६२|| जो लोग कुश -- त्रके योगसे मनुष्यों को मोहित करते हैं उनको भवांतर में हित करनेके लिये मैंने ही उन कुशास्त्रोंको बना साथ
लकि हमने यहां नहीं
अब विचारना चाहिये कि त्रि मारनेका, शराब पीनेका, जुआ
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( १९४) मार मार कर उनके चमडोंका पहाड बनानेका जिकर हो उन शास्त्रोंको कुशास्त्र कहना चाहिये कि अहिंसामय परमपवित्र जैनशास्त्रोंको ?. जिन लोगोंकी बुद्धिका इतना* विपर्यय हो गया हो कि, सुन्नेको पीतल और पीललको सुन्ना कहे उनके वचन पर विश्वास करना अकलमंदोंका काम नहीं.
प्रायशः ब्राह्मणलोगोंने अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये ही ब्राह्मणग्रंथ बनायें हैं. जैनग्रंथ परमार्थमार्गको दिखाते हैं. इन ग्रंथोंके पढनेसे विवेकचक्षु प्रफुल्लित होने पर लोग हमारी पोल देख न ले इस लिये उन्होंने जैनमतके लिये बूरा भला लिख कर लोगोंको उस सत्यमार्गसे वंचित रक्खा है.
देखो उनके स्वार्थपोषक कथनका नमूना--
वराहपुराण-अगस्त्यगीता सुशान्तिवत नामके ६० वे अध्यायमें लिखा है कि
" एवं संवत्सरस्यान्ते, ब्राह्मणान् भोजयेत् ततः।"
भावार्थ इस प्रकार सुशांतिव्रत करके वर्षकी अंतमें ब्राह्मणों को जोमाना चाहिये । इत्यादि अनेक अध्याय इस वराहपुराणमें लिखें हैं, उनमें प्रायः करके अमुक व्रत करके
* देखो उनकी बुद्धिविर्ययका नमुना-शिवपुराणमें गणपतिकी उत्पत्ति पार्वती के मेलसे लिखी हैं और वराहपुराग २२ वे अध्यायमें पेष्ठिक मुखसे लिखी है और लिखा है कि, उसके रूपको देख
हित हो गई, जिससे महादेवजीको क्रोध आया और उपदेश जिन शास्त्रोमा
दिया. ऐसे विरुद्ध वर्णनवाले पुराणादि ग्रंथोंको वेद बडे हैं, बडे हैं, ऐसे पुष
ब्राह्मण
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१११५) ब्राहाणको अमुक वस्तुका दान देना और अमुक व्रत करके अमुक, सो दिखाते हैं.
वराहपुराण श्वेतविनीताश्वोपाख्यान तिलधेनुदान माहात्म्य नामके ९९ में अध्यायमें ब्राह्मणको तिलोंकी गौ बना कर देनेका जिकर है
विनीताश्वोवाच" कथं सा दीयते ब्रह्म-स्तिलधेनुजिगिषुभिः । भुंक्ते सर्वां च विप्रेन्द्र, तन्ममाचक्ष्वपृच्छतः ॥९०॥" होतोवाचविधानं तिलधेनोश्च, त्वं शृणुस्व नराधिप । चतुर्भिः कुडवैश्चैव, प्रस्थ एकः प्रकीर्तितः ॥ ९१ ॥ सा तु षोडशभिः कार्या, चतुर्भिर्वत्सको भवेत् ।। नासा गंधमयी कार्या, जिह्वा गुडमयी शुभा ॥ ९२ ॥ पुच्छे प्रकल्पनीया सा, घंटाभरणभूषिता । ईदृशी कल्पयित्वा तु, स्वर्णशृंगीं च कारयेत् ॥ ९३ ॥ कांस्यदेहां रौप्यखुरां, पूर्वधेनुविधानतः । कृष्वा तां ब्राह्मणायाशु, दद्याच्चैव नराधिप ! ॥९४॥"
सारांश कि-विनीताश्वने कहा कि, तिलधेनु किस तरह दी जाय जिससे स्वर्ग फल प्राप्त हो, तब होताने जवाब दिया सोलह शेर तिलोंकी बनानी और चार शेरका बछडा, उसके शृंम स्वर्ण के बना कर बांदीके खूर रत्नोंके डोरेके साथ . १ रत्म शब्द आगेके श्लोकमें है सो श्लोक हमने यहां नहीं
उद्धृत किया है,
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( ११६) ब्राह्मणको देवे, देखिये ! कुछ कसर रक्खी है ?, सोना चांदी रत्न वगैरह सब सामग्री लिख दी, अरे ! यह बात तो दूर रही परंतु इसी वराहपुराणके ६८ वे अध्यायमें-" चतुर्गामी भवेद् विप्रः" ब्राह्मण चारों वर्णकी स्त्रीओंका गमन कर सकता है वहां तक भी लिखा गया है.
इस पुराणमें लिख ते हैं कि रुद्रने विष्णुकी तारीफकी और सर्वसे उत्तम देव उसको कहा, और शिवपुराणमें लिखते थे कि विष्णुने महादेवजीकी तारीफ करी, और उनकुं बडा माना, क्या इससे पुराणाकी काल्पनिकता सिद्ध नहीं होती।
वराहपुराण श्वेतविनीताश्व उपाख्यान नामके सौवें अध्यायमें जलधेनु देनेकी विधि है, जिसमें भी पांच पाणीके घडे में रत्न डालने लिखे हैं, लोभका भी कुछ सुमार है?, ऐसे लोभी उनके स्वार्थनाशक परमार्थपथप्रकाशक वैराग्यमार्ग विकाशक और मोक्षमार्गके पोषक जैनधर्मकी तारीफ कैसे कर सकते हैं .
वराहपुराण श्वेतविनीताश्व उपाख्यान रसधेनुदान माहात्म्य नामके १०१ वे अध्यायमें लिखा है कि
" रसधेचुविधानं ते, कथयामि समासतः। . . अनुलिप्ते - महीपृष्ठे, कृष्णाजिनकुशास्तरे ॥१॥
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१ रुद्रगीता सुवैराजवृत्त नामके ७३ वे अध्यायमें,
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( ११७)
रसस्य तु घटं राजन् ! सम्पूर्ण स्वक्षवस्तु । तद्वत् संकल्पयेत् प्राज्ञ-चतुर्थाशेन वत्सकम् ॥ २ ॥ " इत्यादि ।
भावार्थ - रसकी गौके दानका विधान संक्षेपसे कहता हूं, लिंपी हुई तथा कृष्ण वर्णका चर्म और दर्भ जिसमें बीछाया है ऐसी भूमीमें इक्षुरसका घडा रखना, इसी तरह बुद्धिमान् चौथे भागमें बछडेकी कल्पना करे ॥ १-२ ॥ इत्यादि रसकी गौको देनेकी विधिमें भी सोनेके सींग वगैरहका वर्णन आता है, मतलब ब्राह्मण लोगोंने सुखसे आजीविका चलानके लिये गृहव्यवहारमें जिन जिन वस्तुओंकी जरूरत पडती है उन सब वस्तुओंका दान लिख मारा है, देखो १०२ और १०३ वे अध्यायमें गुडधेनु और शर्कराधेनुका दान देनेका जिकर है, - एक ठिकाने गौकी आंखें सच्चे मोतीकी बनानी लिखा है, १०४ से ११२ वे अध्याय तक सिर्फ लोभका ही पोषण करनेवाला उल्लेख किया गया है.
इसके बाद इसी पुराण के ११९ वे अध्यायमें अमुक अमुक वस्तुके चढानेसे मैं खुश होता हूं ऐसा बराहजी कहते हैं, तथा हि
" एतानि प्रतिगृह्णामि, यच्च भागवतं प्रियम् । मार्गमांसं वरं छागं, शासं समनुयुज्यते ॥ १२ ॥ "
“ भागो ममास्ति तत्रापि, पशूनां छागलस्य च । माहिषं वर्जयेन्मह्यं, क्षीरं दधि घृतं ततः ॥ १४ ॥ "
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" लावकं वार्तिकं चैव, प्रशस्तं च कपिञ्जलम् ।
एते चान्ये च बहवः, शतशोऽथ सहस्रशः ॥ १७ ॥ मम कर्मणि योग्या ये, ते मया परिकीर्तिताः ।
यस्त्वेतत्तु विजानीयात् , कर्मकर्ता तथैव च ॥ १८ ॥" . इन श्लोकोंमेंसे मांसांदिकसे मैं प्रसन्न होता हूं ऐसा
भाव निकलता है, तो क्या ऐसा काम करनेवाले कभी देव हो सकतें है १. कहना ही होगा कि नहीं, सिर्फ तांत्रिकोंने अपने पेट भरनेके लिये ही ऐसा दुराचार फैलाया है.
इसके बाद इसी पुराणके मायाचक्र नामके १२५ वे अध्यायके ५०-५१ वे श्लोकमें" मम मायावलं होत-येन तिष्ठाम्यहं जले।
प्रजापतिं च रुद्रं च, सृजामि च वहामि च ॥ ५० ॥ तेऽपि मायां न जानन्ति, मम मायाविमोहिताः।। अयो पितृगणाश्चापि, य एते सूर्यवर्चसः ॥ ५१॥"
विष्णु कहते हैं कि प्रजापतिको तथा रुद्रको मैं ही पैदा करता हूं तथा मैं ही धारण करता हूं, और प्रजापति
और रुद्र मेरी मायासे विमोहित हुए हुए मेरी मायाको नहीं जान सकते । इस कथनसे सिद्ध हो गया कि, इस वराहपुराण के रचनेवालेने ब्रह्मा शिवजी मूर्यादि सब देवोंसे विष्णुको ही बडा माना है।
हमको आश्चर्य होता है कि, यह क्या बात है ?, यहां पर सर्व देवोंको नीचे दरजेमें रख कर विष्णुको बढ़ाया और
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( ११९ )
शिवपुराण में शिवजीको बड़ा कहा और विष्णुने अपने नेत्रसे भी उनकी पूजा की, क्या ये शास्त्र है या लडकोंका खेल है?, जैसे धूलिक्रिडामें लडके किसी एक लडकेको राजा बना कर स्वयं सेवक बनते हैं, दूसरी दफा सेवक लडका राजा बनता है और राजा सेवक बन जाता है, इसी तरह किसी पुराण में शिवजीको सबसे बड़ा साबित करते हैं वो किसी में विष्णुको, क्या यह देवोंकी धूलिक्रीडा है या पौराणिकोंकी?, सो वाचक वर्गको स्वयं विचार कर लेना चाहिये.
वराहपुराण अध्याय १६० वेसे श्रीकृष्ण छूत क्रीडा भी किया करते थे ऐसा सिद्ध होता है, देखो
" तस्मादुत्तरकोटिं च दृष्ट्वा देवं गणेश्वरम् । द्यूतक्रीडा भगवता, कृता गोपजनैः सह ॥
५२ ॥
"
इस लोकका मतलब गोवालियोंके साथ भगवान् ने जूआ खेला, भला ! जो लोग अपने भगवान्को जूए बाज लिखें उन लोगोंने सत्य रास्ता पाया है ऐसा कौन बुद्धिमान् स्विकार कर सकता है ?
इसके बाद वराहपुराणके धरणी वराह संवाद फल श्रुति नामका २१७ वे अध्यायमें वराहपुराणकी इतनी तारीफ की है कि, जिसका हद हिसाब नहीं | तारीफ सार्थक है या निरर्थक इसका पता आगे पीछे मध्यस्थ भावसे वराहपुराण विचारनेवाला ही जान सकता है.
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गरुडपुराण - पूर्व खंड प्रथमांशाख्य कर्मकाण्ड एतत्पुराण प्रवृत्ति निरूपण नामके प्रथम अध्यायमें ईश्वर खुद
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( १२० )
अवतार धारण करता है और उसने कौनसे अवतार धारण किये उस विषयका जिकर है सो युक्ति सिद्ध नहीं है, कारण कि, ईश्वरको सर्व शक्तिमान् माना है सो अपनी शक्ति से ही सब काम कर सकता है तो फिर नाहक अपवित्र गर्भस्थान में आना, उसमें नौ मास निवास करना और अवतार धारण करके हजारोंका नाश करना क्या फायदा 2. इससे या तो ईश्वर असमर्थ सिद्ध होता है या यह कल्पना झूठी सिद्ध होती हैं.
गरुडपुराण - पूर्व खंड प्रथमांशाख्य आचारकांड श्री गरुड महापुराणोत्पत्ति निरूपण नामके दुसरे अध्यायमें—
शिवजी कहते हैं कि, 'मैं परमपरमेश्वर विष्णु भगवान्का ध्यान करता हूं, ' इससे शिवजी में परमेश्वरपना साबित नहीं होता, तथा विष्णुने अपने आप अपनी बड़ी ही तारीफ की है, सब कुछ मैं हूं और जगत् की स्थितिका बीज भी मैं हूं और धर्मका रक्षक भी मैं हूं इत्यादि कथन है,
यहां पर बुद्धिमानोंको प्रश्न उत्पन्न होता है कि, जब जगत्का कर्ता विष्णु है तब तो जगत्मै चौर जार कसाई तथा गौवाँके मारनेवाले संचाबनानेवाले म्लेच्छलोग तथा डाका मारने वाले एवं अनेक प्रकारसे अनेक जुल्मोंके करनेवाले जगत्में ही है, उन सबका रचनेवाला विष्णु ही हुआ तब तो विष्णु ही घोरपापों के करानेवाला है एसा सिद्ध हो गया, अगर कोई कहे कि विष्णुने तो उन जीवोंको शुद्ध ही रचा था, परन्तु पीछे से उनकी दुष्ट बुद्धि हो जानेसे वे दुष्टकृत्य करने लग गये, ऐसे कहनेवालोंको पूछना कि, विष्णुने जब जगत्की
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( १२१ )
रचना करी तब विष्णु सर्वज्ञ था या असर्वज्ञ १, अगर वो ऐसा कहे कि, विष्णु तो सदा ही सर्वज्ञ है, तत्र तो विष्णु जानता ही होगा कि- मैं जिन जीवोंको रचता हूं उन जीवोंमेंसे अमुक अमुक जीव आगे जाकर अत्यंत दुष्टकृत्य करेंगे, ऐसे जानते हुए भी उन दुष्टकृत्य करनेवालोंको विष्णुने उत्पन्न किया तब तो जगत् में जो जो दुष्टकृत्य हो रहें हैं उन सब दुष्टकृत्यों का करानेवाला विष्णु ही सिद्ध हो गया, जब ऐसा है तब तो विष्णु में परमात्मपना दयालुता तथा सज्जनताका लेश भी सिद्ध नहीं होता, तत्र विष्णुको परमात्मा समझ के जो लोग पूजन करते हैं उन लोगोंको कैसा फल मिलेगा?, इस बावत का विचार बुद्धिमान लोग स्वयमेव करेंगे. तथा विष्णु ही धर्मका रक्षक है तो फिर धर्मका रक्षण विष्णु क्यों नहीं करता है ? देखो - जैन बौद्ध मुसलमान इशाई और आर्यसमाजी वगैरा मतोंवाले वैष्णव तथा शैव मतका खंडन करते हैं उनको विष्णु शिक्षा क्यों नहीं करता १, तथा खंडन करनेवाले लोगों को क्यों नहीं रोकता ? । इत्यादिक हेतुओंसे पुराणादिकका कथन हमारी समझ मुजिव तो असत्य है । क्यों कि स्वार्थी लोगोंने अपने स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये मनोकल्पनासे पुराणादिक कितने ही ग्रंथोकी रचना कर ली है और उन शास्त्रोंको सुननेका हद पार माहात्म्यका गान किया है जिससे भोले लोग फँस कर मन माना दान देवें और वे लोग अपना सुख से गृहव्यवहार चला लेवें, इसके सिवा और कुछ विशेष तत्त्व मालूम नहीं होता.
मत्स्यपुराण - तृतीय अध्याय - पत्र १० वे में वयान है कि, ब्रह्माजी काम से पीडित हो कर 'शतरूपा नामकी स्त्रीसे देवताओंके सौ सौ वर्ष पर्यंत रमण करते भये.
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( १२२) क्या यह परमात्माका लक्षण है कि, सौ सौ वर्ष तक भोग भोगते रहना?. जवावमें कहना ही पडेगा कि, कामसे पीडित सामान्य मनुष्यसे भी गिरे हुए कर्त्तव्य करनेवालेमें कदापि परमात्मपना साबित नहीं हो सकता.
मत्स्यपुराण:-अध्याय ४५ वा में बयान है किश्रीकृष्ण शिकार करनेको गये. वांचो नीचेका श्लोक" अथ दीर्पण कालेन, मृगयां निर्गतः पुनः । यदृच्छया च गोविन्दो, विलस्याभ्यासमागमत् ॥१२॥"
बस-परमात्मा शिकार करे यह असंभाव्य विषय होनेसे या तो यह बात गलत लिखी है या वो परमात्मा नहीं थे इन दो बातोंमेंसे एक बात उनके परमभक्तको भी कबूल करनी ही होगी.
मत्स्यपुराण अध्याय ४७ वे में लिखा है कि-श्रीकृष्णने भृगुऋषिकी स्त्रीका यानि शुक्राचार्यजीकी माताका मस्तक काट डाला. देखो नीचेके श्लोक
" ऐषा त्वां विष्णुना सार्द्ध, दहामि मघवन् ! बलात् । मिषतां सर्वभूतानां, दृश्यतां मे तपो बलम् ॥ ९७ ॥ तयाभिभूतौ तौ देवा-विन्द्रविष्णू बभूवतः । कथमुच्येव सहितौ, विष्णुरिन्द्रमभाषत ॥ ९८ ॥ इन्द्रोऽब्रवीजही ना, यावन्नौ न दहेत प्रभो ! विशेषेणाभिभूतोऽस्मि, त्वत्तोऽहं जहि मा चिरम् ॥ ९९ ।। ततः समीक्ष्य विष्णुस्तां, स्त्रीवधे कृच्छ्रमास्थितः । अभिध्याय ततश्चक्र-मापदुद्धरणे तु तत् ॥ १० ॥
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(१२३) ततस्तु त्वरया युक्तः, शीघ्रकारी भयान्वितः। ज्ञात्वा विष्णस्ततस्तस्याः, क्रूरं देव्याश्चिकीर्षितम् ॥१०१॥"
भावार्थ-है इन्द्र ! मैं अपने सामार्थ्य के बलसे विष्णु समेत तुझको सब प्राणाओंके देखते हुए ही भस्म कर दंगी, ऐसा मुझमें तपोबल है ॥ ९७ ॥ उसके ऐसे वचनको सुन कर विष्णु और इन्द्र दोनों यह विचारते भये कि-अब क्या होगा ?, तब इन्द्रसे विष्णु बोले कि अब इससे कैसे छुटेंगे?, उस समय इन्द्रने कहा हे विभो ! जब तक यह हमको भस्म न करे इससे प्रथम ही आप इसको मार डालो ॥ ९८ ।।
और हे विष्णुजी ! मैं तो आप हीसे रक्षित हूँ, इसको शीघ्र मारो, विलंब न करो. तब विष्णुने स्त्रीको मारनेका इरादा किया, परंतु तो भी विपत्ति दूर करनेके लिये अपने सुदर्शन चक्रको उठाया ।। १०० ॥ और शीघ्र ही भयसे युक्त हो कर विष्णु भगवान् उसके क्रोध के कर्तव्यको विचार कर अपने क्रोधसे डरते हुए भी अपने चक्रसे उसका सिर काटते भये ॥ १०१॥ " तं दृष्ट्वा स्त्रीवधं घोरं, चुक्रोध भृगुरीश्वरः । ततोऽभिशप्तो भृगुणा, विष्णुर्भायर्यावधे तदा ॥ १०२ ॥ यस्मात् ते जानतो धर्म-मवध्या स्त्रीनिषदिता । तस्मात्त्वं सप्तकृत्वेह, मानुषेषूपपत्स्यसि ॥ १०३ ॥"
भावार्थ--उस स्त्री के घोर वधको देख कर भृगुऋषि क्रोध कर भायों वधमें तत्पर विष्णुको शाप दिया ॥ १०२ ॥ जो कि, धमको जानते हुए तूने अवध्य स्त्रीको मारा इस लिये तूं सात दफे मनुष्योंमें उत्पन्न होगा ॥ १०३ ॥
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(१२४.) इस उपरके लेखको वांच कर निष्पक्षपाती जन तुरत समझ जायेगे कि, विष्णुजी स्त्रीयोंसे भी डरते थे और डरके मारे उनका वध भी करते और कराते थे, इससे परमात्मा किसी तरह साबित नहीं हो सकते हैं.
मत्स्य पुराण अध्याय ४७ वे में लिखा है कि" पिशिताशाय सर्वाय, मेघाय विद्युताय च ।
व्यावृत्ताय वरिष्ठाय, भरिताय तरक्षवे ॥ १४४॥" .. शुक्राचार्यने शिवजीकी उपरोक्त श्लोकोंसे स्तुति करी है जिसका अर्थ यह है कि-" मांसके आहार करने वाले सर्व मेघ विद्युत् व्यावृत्त वरिष्ठ पुष्टि करनेवाले और रक्षा करनेवाले ऐसे तुमको नमस्कार है।' इस उपरके श्लोकसे साफ सिद्ध हो गया कि, शिवजी मांस भी खाया करते थे। " इस श्लोकका अर्थ मत्स्यपुराणके भाषांतर में " ब्राह्मणलोगोंने जैसा किया है ऐसा ही हमने यहां दाखल किया है.
अब सज्जनगणको सोचना चाहिये कि, ऐसे मांस भक्षण जैसे नीच कर्मको करनवाला परमात्मा कभी कहा जा सकता है ?, कहना ही होगा कि नहीं नहीं, यह काम परमात्माओंका नहीं किन्तु पामरोंका ही है.
मत्स्यपुराण के ६९ वे अध्यायसे और प्रथमके कितनेक अध्यायसे अनेक तिथिओंके व्रतोंका वर्णन हैं जिनमें ब्राह्मणोंकों अनेक प्रकारके दान देने लिखें हैं, उन तिथिओंको व्रत पालनेसे और ब्राह्मणोंको अमुक अमुक वस्तुओंके दान देनेसे स्वर्गमें उर्वशी अप्सराओंके संग रमण करता है, इत्यादि लिखा है.
इन लेखोंको वांच कर विचार आता है कि, ब्राह्मण लोगोंने
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(१२५) अपनी कल्पनासे कैसे कैसे फल दिखाकर भोले लोगोंको किस तरह भरमायें हैं ? इस बातका पता मध्यस्थ दृष्टिसे इस पुराणके पढ़ने वालेके सिवाय अन्यको लगना कठीन है. भला! घर. बारी ब्राह्मणलोगोंके दान देनेसे स्वर्ग मिले इस बातको कौन कबूल कर सकता है १. शुद्धाचारी ब्रह्मचर्यनिष्ठ पूर्ण सन्यस्त त्यागी पुरुषोंको अन्नादिक योग्य दान देनेसे ही महाफल हो सकता है न कि संसारके सब ही कार्योंमें फंसे हुए को. - और मत्स्यपुराणके ६९ वे अध्यायमें वेश्याके कर्म करनेवाली स्त्रीयोंको शुद्ध करनेके व्रतका विधान है कि, वेदके पारके जाननेवाले धर्मज्ञ व्यंग अंग सहित ब्राह्मणको बुला कर पुष्प धूप दीप और नैवेद्यादि पदार्थोंसे स्त्री पूजें ॥ ४२ ॥ और उसी ब्राह्मणके अर्थ घृत पात्र संयुक्त एक शेर चावलोंको भरे पात्रको 'माधव भगवान् प्रसन्न हो' यह कह कर दान करें ॥४३॥
और उसी उत्तम ब्राह्मणको अपने चित्तसे कामदेवके समान मानकर इच्छा पूर्वक भोजन करवावे ।। ४४ ॥ और जिस जिस वस्तुकी वह ब्राह्मण इच्छा करे वह सब उस सुंदर हास्यवाली स्त्रीको आत्मभावसे उसकी तृप्ति पर्यंत देना चाहिये ॥ ४५ ॥ इस रंतिसे हर रविवारके दिन सुंदर आचरण करती हुई तेरह महिने तक प्रत्येक रविवारको एक शेर चावलोंका दान करती रहे, जब तेरहवा महिना आवे तब उसी ब्राह्मणके निमित्त सर्व सामग्री समेत शय्या दान करे । अर्थात् शय्या उपर उत्तम तकीया बीछौना दीपक जुत्तीका जोडा छत्री खटाउ-पादुका धोतीका जोडा आसन इन सब वस्तुओंसे शोभित करी हुई शय्याको स्त्री समेत होकर सपत्नीक ब्राह्मणको दे देवें । इस सिवाय उत्तम रेशमी वस्त्र, सुवर्णके भूषण,
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(१२६) बाजुबंध देकर और चंदनादिकसे कामदेवका पूजन करे ॥ ४६ से ४९ ॥ स्त्री सहित कामदेवकी मूर्ति बनवा कर गुडसे भरे हुए पात्र पर स्थापित कर उसके आसनकी जगह तांबेके पत्र लगा कर सुवर्णके नेत्र युक्त वस्त्र पहराय कांसीके पात्र समेत ईख ( इक्षु ) सयुंक्त कर आगे लिखे हुए मंत्रसे उसका दान करे और एक उत्तम दुधकी गौका भी दान करे ।। ५०-५१ ॥
मंत्रका भाव यह है कि मैं विष्णुमें और कामदेवमें कुछ अंतरका भाव भेद नहीं रखती हूँ। इसी प्रकार सदैव विष्णु भगवान् मेरे मनोरथोंको सिद्ध करो ॥ ५२ ॥
हे केशव भगवन् ! जैसे कि लक्ष्मीजी तुम्हारे शरीरसे कभी पृथक् नहीं रहती है, उसी प्रकार मुझे भी आप अपने शरीरमें लीन करो ॥ ५३ ॥ इसके पीछे सुवर्णकी मूर्तिको ग्रहण करता हुआ ब्राह्मण-" क इंदं कस्मादिति "-ऐसे वेद के मंत्रको उच्चारण करे ॥५४॥ फिर प्रदक्ष गा करके ब्राह्मणका विसर्जन कर देवे और शय्या आसनादि ब्राह्मणके घर पहुंचावे ॥ ५५॥ ___इस उपरके लेखके पढनेसे यह साफ तौर पर जाहिर हो जाता है कि, ब्राह्मणोने स्वार्थ सिद्ध करनेके साधन रूप पुराण बना लिये हैं, इस्में परमार्थका लेश भी हो ऐसा हमारा मानना नहीं है. अगर चे कितनीक वैराग्यकी बातें भी पुराणोंमें मिलती है, मगर वे बातें पक्षीओंको जालमें लेनेके लिये जूवारकी तरह भद्रिकोंको मुग्ध कर-फंसानेके लिये ही है ऐसा हमारा मन्तव्य है. इन लोगोंने दुनियांकी सर्व वस्तुएं दानमें देनेके लिये लिखी है सो तो हम प्रथम जाहिर कर ही चुके हैं. मगर अब एक और
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( १२७)
अजब पता मिलता है, सो यह है कि अगर ब्राह्मण भोग करना चाहे तो वेश्या उसके उस मनोरथको भी पूरा करे. ऐसे प्रायश्चित्तविधि के बतानेवाले पुराणके रचनेवालेमें धार्मिक भावनाका लेश भी हो ऐसा कौन कबूल कर सकता है ?. देखो - इसी ६९ वे अध्याय के श्लोक
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ततः प्रभृति यो विप्रो, रत्यर्थ गृहमागतः । स मान्यः सूर्यवारे च स मन्तव्यो भवेत्तदा ॥ ५६ ॥ एवं त्रयोदश यावन्मासमेवं द्विजोत्तमान् । तर्पयते यथाकामं, प्रोषितेऽन्य समाचरेत् 1190 11" भावार्थ - इसके अनंतर जो ब्राह्मण रमण करनेके निमित्त रविवार के दिन इन स्त्रीयों - प्रायश्चित्त लेनेवाली वेश्याओंके घर पर आ जावे तो उसका मान करके उसका प्रसन्नता पूर्वक पूजन करना योग्य है ।। ५६ ।। इस रीति से तेरह महिनों तक उत्तम ब्राह्मणोंको इच्छा पूर्वक तृप्त करती रहे और वह ब्राह्मण कदाचित् कहीं परदेशमें चला जाय तो इसी प्रकार दूसरे अन्य ब्राह्मणसे आज्ञा लेकर विघ्न रहित अपनेको प्रिय ऐसा जो ब्राह्मण रूपवान् हो और अभ्यागत हो उसको पूजे ॥ ५७ ॥
इत्यादि वर्णनसे वेश्याओं को काममें लेनेके नीच लोभसे भी पुराणके रचनेवाले मुक्त नहीं थे, यही कारण है कि, वैश्या जैसी नीचवृत्तिको करनेवालीओं को भी विष्णुलोंग प्राप्त होनेका प्रलोभन देकर अपनी सर्व प्रकारसे पूजा कराने के लिये प्रोत्साहन किया है.
श्रावक - भगवन् ! इस प्रकार वेश्याके प्रायश्चित्त अधि कारके सुननेसे तो अजब ही अनुभव मिलता है। भला !
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( १२८ )
वेश्या भोग द्वारा भी ब्राह्मणको प्रसन्न करे इस मतलबवाले पाठको दूसरे लोग किस तरहसे सत्य मान लेते होंगे ?.
सूरीश्वरजी - भाई ! धर्माध आदमी इन बातों का खयाल ही नहीं रखते कि, यह बात सत्य है या असत्य ? और जिन ग्रंथोंमें ऐसी ही बातों का वर्णन किया हो वे ग्रंथ चालाकोंने बनायें है या महात्माओंने १, अगर सब ही ऐसा विचार करने लगेंगे तो फिर मिथ्यात्व कहां रहेगा ? | इस लिये जो मिथ्यात्व के नशेमें चकचूर या विवेकनेत्रके नष्ट होनेसे अंध हो रहें हों इन बातोंकी तर्फ ध्यान नहीं देते, नहीं ! नहीं ! ! मै भूलता हूँ, बिलकूल देखते ही नहीं. मिथ्यात्व के उदयसे पठितोंकी भी राजपुत्र जैसी दशा हो जाती है.
श्रावक - प्रभो ! वह राजपुत्र कौन था ? और उसकी क्या दशा हुई थी ?.
सूरीश्वरजी - एक ' परिभ्रमण ' नामक पत्तनमें मोहक - महाराजा ' राज्य कर रहे थे, उनका ' विषयसहायक ' नामक मंत्री था, राजा वृद्ध हुआ मगर पुत्रके मुखदर्शन से वंचित ही रहा. एक दिन ऐसा नशीब खिला कि, राणीने गर्भके सुसमाचारसे राजाको प्रसन्न किया. अनुक्रमसे दिन पूरे होने पर लडकेका जन्म हुआ नाम 'प्रति श्रद्धान' रक्खा गया. खुशीका पार न रहा मगर अफसोस इस बातका रहा कि, लडका जन्मांध था. जब लडका बारह वर्षका हुआ तब उसको दानका इतना शौख बढ़ गया कि, जब बहार हवा खोरीको नीकलता कोई याचक बदन परके किसी भी गहिनेका नाम ले कर मांगे तुर्त उतार कर दे देवें, इस तरह एक दी
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( १२९ )
दिनमें बदन परके सब गहिने उतार कर देता था. याचकों का बज़ार दिन ब दिन गरम हो गया. दूसरे दिन जब राजा कुमारको भोजन के लिये कहता तब कुमार कह देता था कि, मुझे गहिने पहिनाओ फिर जिमुंगा. राजाका प्राणसे भी अधिक प्रिय पुत्र था, अतः जो कुछ कहता था राजाको करना पडता था. इस तरह रोज़ नये गहिने पहिनने और दूसरे दिन दानमें ख़तम कर देनें मंत्रीको नागवार गुजरा. उसने राजासे एकान्तमें कहा कि, इस तरह काम किस तरहसे चल सकेगा १, ऐसे तो खजारा ही खाली हो जायगा और भीख मांगने का समय आ जायगा. उस राजाने कहा, भीख मांगना बेहतर है मगर मैं कुँवरको नाराज नहीं कर सकता. मंत्रीने कहा - भला ! कुंवर भी खुश रहे और गहिने भी बचे रहे तब तो मंजुर है न १. राजाने कहा- हां, फिर क्या हरकत है?.
मंत्री - मैं कलरोज़ उसके भोजन के समय आऊंगा और वो गहिने माँगे उस समय आपने मुझसे अमुक शब्द कहने, फिर देखना सब ही ठीक हो जायगा. मंत्रीने रात ही रातमें लोहेके गहिने और एक छडी तैय्यार करा दिए. दूसरे दिन टाईम पर मंत्री राजभवनमें चला गया. उस समय राजा पुत्रको खानेके लिये आग्रह कर रहा था और पुत्र गहिने माँग रहा था. प्रत्युत्तरमें राजा कहता था कि, आज गहिने तैय्यार नहीं हो सके हैं, तब लड़का कहता है मैंने खाना ही नहीं. राजा मंत्रीको कहता है कि, मंत्रीजी ! वे गहिने जो खजाने में सेंकडो वर्षों से यूँके यूं पडे है. शायद हमारे किसी पुण्यशाली (१) पूर्वज ने ही पहिने होंगे, दूसरे तैय्यार नहीं ह तो आज कुमारको वो ही पहिना दो और हीरे से जड़ी
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(१३०) हुई वो स्वर्णयष्टि भी कुमारको दो. मंत्रीने उत्तर दिया. महाराजा ! वो तो महादुर्लभ गहिने हैं, आपने भी आपकी उम्रमें नहीं पहिने वो कैसे दिये जावे ?. याचक लोग बड़े लुच्चे हैं और कुमार भोला हैं। एकदम कह देगें कि कुमार साहिब ! ये गहिने तो लोहे के हैं, तब कुमार तुर्त उतार कर दे देंगे। इस लिये ऐसे. अपूर्व गहिने नहीं दिये जायेंगे. अब कहना ही क्या था ?. उसी वख्त कुंवरने कहा कि-मंत्रिजी ! मेरेको वो ही गहिने दो जो बडी मुद्दतसे किप्तीने नहीं पहिने. मैं ऐसा भोला नहीं हूं जो लुच्चोंकी बातको सत्य मानूं. आप जल्दी मुझे वो गहिने पहिना दो और उस हीरेकी जडी हुई स्वर्णयष्टिसे मेरे हाथको सुशोभित बना दो; मैं उन अपूर्व गहिनोंको अपने अंगसे कभी भी अलग नहीं करूंगा. मंत्री कहने लगा-कुमार ! देखना ! उसमें गरबड न हो. नहीं जी नहीं कभी गरबड नहीं होगी. बस-उसी वख्त मंत्रीने रातको तैय्यार कराये हुए लोहेके आभूषण पहिना दिये और लोहेकी यष्टि हाथमें दी. बादमें कुमारने भोजन किया. जब सेरको निकले तब अंधकुमार तो मानता है कि, मैंने आज अद्वितीय आभूषण प्राप्त किया है। मगर याचकोंके चहेंरे कुमारको देखते ही फीके पड गये और कहने लगे क्योंजी ! आज लोहेके गहिने पहिने हैं?. नज़दीकमें जा कर फिर कहने लगे; क्या ऐसे गहिने पहिननेमें आपकी शोभा है?. अभी ये अक्षर तो पूरे याचकके मुंहसे निकलने पाये ही नहीं थे कि, एकदम लोहेकी सोटी याचकके शिर पर धडाक देकर पडी और लोहुंकी धारा छुटी; याचक राड़ पाड़ कर ज़मीन पर गिर पड़ा. ऐसे दो चार याचकोंकी उस दिन दुर्दशा हुई.
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(१३१) अब रोजने रोज अनजान याचक कुंवर के हाथसे घायल होने लगे, कितनेक दिन बाद कुंवरसे कोई भी याचक किसी तरहकी बात नहीं करता था. मंत्रीकी अकलने बड़ा ही काम किया; हमेशहका द्रव्य व्यय हट गया और लोहेके गहिनेसे कुंवरजी आनंद मानते रहे.
जैसे उस कुंवरको लोहेके गहिने ऐसे ढंगसे दिये गये कि, वह सब गहिनोंसे अपने गहिनोंको उत्तम मानने लगा. इसी तरहसे तालंबाज लोगोंने कल्पितमत रूप पंजरेमें लोगोंको ऐसे फंसा रक्खे हैं कि, जरा भी कोई उनके मतके विषयमें कुछ बोले तुरत राजकुंवर जितनी अगर सत्ता हो तो उसके जैसे ही कड़ी सजा देनेको तैय्यार हो जावे; इस्मे जरा भी संदेह नहीं. जब राजपुत्रकी आंखका ईलाज दिव्यौ. षधिसे अगर कोई करे तब वह जान सके कि, हाय ! हाय !! मै तो लोहा ही उठा फिरा-बस-अन्यधर्मावलंबियोंका भी यही हाल है. इस लिये कोई उच्चज्ञानी सद्गुरु द्वारा अपूर्व ज्ञान औषधिसे विवेक नेत्र खुल जाय तब तो समझ सके कि, जिनेंद्रप्रभुने जगत्के उद्धारके लिये जो परमार्थ मार्ग बतलाया है वो ही सत्य है परंतु जिनके विवेकनेत्र मिथ्या रोगसे बंध है वे तो राजपुत्रको तरह जैन पुस्तकोंको पढ़ कर अगर उसमें उनके मतके बाबत कितनीक वास्तविक त्रुटिएं दिखा दी गई हो तो एकदम घबरा उठते हैं और उस परो. पकारमय उपदेशका फल सीधे रास्ते पर चल कर नहीं निकालते किन्तु एकदम उस पवित्र धर्मका किसी तरह खंडन करने लग जाते हैं. सिधी रोतिसे न होवे तो नाटक
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चेटक बना कर उसमें पवित्र धर्मको नीचा बतलानेके लिये कल्पित घटनाएं खड़ी कर देते हैं. देखो म म नवलराम लक्ष्मीराम नामके शख्सने एक 'वीरमती' नामका नाटक बनाया है सो संवत् १९७७ की सालमें छपा हुआ मेरेको उपलब्ध हुआ है. उसकी अंदर जो बातें दाखल की हैं प्रत्यक्षतया असत्य ज्ञात होती हैं. जिसे पढ़ कर लोहके गहिनेवाले राजपुत्रके दृष्टांतका स्मरण हो आता है. देखो पृष्ट १४--
हेप-(धीमेथी ) मा न भुयाने भान शाह आपो छ। ?" ___ नाटककार इन अपमान वाचक शब्दोंका प्रयोग चाहे अन्य पात्रके मुखसे निकलवाते हैं तथापि समझदार समझ सकते हैं कि यह नाटककारके हृदयमें जलती हुई द्वेषरूप होलिका ही नतीजा है. हमारे प्रेमी नाटककार इस द्वेषाग्निमें इतने व्यग्र हुए थे कि, बेहोशीमें हेमचन्द्राचार्यके गुरुका नाम ' ज्ञानविजयमूरि' लिख मारा. किसी भी जैनशास्त्र या प्रामाणिक इतिहासकारके पुस्तकमसे मजकुर सूरीश्वरजीके गुरुजीका नाम 'ज्ञानविजय' नहीं नीकल सकता. उनके गुरुजीका नाम 'श्री देवचंद्राचार्य था. जिस भडकती हुई द्वेषामिमें नाम भी भूल जाय, या कल्पित बना कर लिखा जावे इस द्वेषाग्निसे लिखी हुई अन्य बातोंकी असत्यताका तो कहना ही क्या ?. सो ही दिखाते हैं.- देखो पृष्ठ १५
- लय
१-२०॥ भूतना शमां नास्तिनो मेसो ?'
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अगर इस नाटककारको मिथ्यात्वने नहीं दवाया,होता तो उसको मालूम हो जाता कि, मैं स्वर्णको पीचल कह रहा हूं और राजपुत्रकी तरह मेरी मान्यता रूप लोहे को सोना मान रहा हूं. परन्तु जहां मिथ्यात्वने जन्मांध राजपुत्र जैसा बना रक्खा हो वहां क्या सूझे ?. इसी पृष्ठ पर 'ज्ञानविजय 'के वास्ते उतारा करनेके लिये उसके नोकर वृक्षकी डालीओंके साथ चंदोवा बांधत्ते हैं, यह भी बडी गप्प लगाई है. जैन साधु वृक्षके शाखाओंका दोरडे बांधनेमें आवे ऐसे आश्रयके कभी भी मुकाम नहीं करते. इससे जैन साधुओंके व्यवहारसे भी नाटककार कितना अज्ञान है सो भली प्रकार मालूम होता है. ऐसे अज्ञजन जैनसिद्धांतके विषयमें कुछ लिखने लगे तो वह सत्य लिख सके ऐसा कोई बुद्धिमान् नहीं मान सकता.
पृष्ठ १७ में ' पाणी लरी सा' 8 पाथरे।' '20 अधी शेयसी वणी छे.' 'पा तुन ४ अय'--आदि बाबत भी बीलकुल कपोल कल्पनासे खडी की गई है, क्यों कि जैन साधु कच्चा-अनुष्ण पानी तथा जाजम आदि काममें नहीं लेते.
इसके बाद २२-२३-२४-२५-२९-३०-३३ वे पृष्ठों पर जो जो उल्लेख किये हैं बिल्कुल प्रमाणशून्य बकवाद किया है. जब ज्ञानविजय नाम ही झूठा दिया है तो फिर इस विष
१ हम एक वचनका प्रयोग इस लिये करते हैं कि- हेमचंद्राचार्य महाराजसे संबंध धरानेवाली 'ज्ञानविजय' नामक कोई भी व्यक्ति हुई ही नहीं हैं.
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( १३४ )
aat aant लंबाना व्यर्थ समझ कर और हेमचंद्राचार्यजी जैसे परम पवित्र पुरुषके गुरुके मुखसे ऐसे शब्द कदापि नहीं निकल सकते जो एक चार्वाकके मुखसे निकले. ऐसा मान कर इस विषय में ज्यादा नहीं लिखते हुए सिर्फ इतना ही जाहिर करना चाहते हैं कि, पूर्वोक्त पृष्ठों पर किये हुए उल्लेखसे नवलरामने एतिहासिक ग्रंथोंसे अपनी बिलकुल नावाफफियत साबित कर दीखलाई है।' कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्राचार्यजी महाराजके गुरु श्रीमान् देवचन्द्राचायजी महाराज थे. उनकी पवित्रता ऐसी अद्वितीय थी जिसका हिसाब नहीं. अगर इस बातका पता लगाना हो तो 'कुमारपाल - प्रबंध 'का भाषांतर जिसको बौदा निवासी श्रीयुत वैद्य मगनलाल द्वारा श्रीमंत गायकवाड सरकारने करवा कर प्रसिद्ध कराया है देख लेना. फिर नवलरामकी असत्य लेखिनीका और साथ साथ उसकी द्वेषिणी प्रकृतिका पूरा पता लग जायगा और श्रीदेवचन्द्राचार्यजीके पवित्र चरित्रकी वाक्फियत मिलने से वे महानुभाव कैसे एकांतसेवी और दुनियांकी सर्व तरह की खटपटसे दूर रहनेवाले थे, इस बाबत का विचार करनेसे नाटक रचनेवाले मिध्यांध महानुभावने ९३९५-९६-९८-९९-१००-१०९-११०-१११-११७.१४१ - २४५ तथा २४७ वे पृष्ठों पर जो कुछ प्रलाप किया है अरण्यरुदनवत् मालूम हो जायगा और जिस अंबाजीके वर्णनमें झूठे तरंगी घोडे दौडायें हैं वो अंबिका खास सूरीश्वरजीके चरणमें मस्तक झुकावे ऐसे पवित्र सूरीश्वरजीके लिये सिद्धराजको समझाना और बाबरेको तैय्यार करना आदि कल्पना इतनी असत्य प्रतीत होगी जिससे समझ
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-(१३५)
दार तुर्त समझ जायगा कि नवलरामको यह रचना गर्दभ शृंगकी तरह सर्वथा अर्थ शून्य है.
हा ! मिध्यात्व !, तूं भी एक बुरी बला है. नवलराम जैसे एक अच्छे सुन्दर कविताकारकी भी बुद्धिको तूंने ही खराब की, जिससे वे पवित्र पुरुषोंके चरित्रामृतका पान नहीं कर सके, अरे ! पान नहीं कर सके इतना ही नहीं बल्के महात्माओंके लिये अगडं बगडं उटपटांग लिख कर पापकी गठडी शिरपें घर कर इस असार संसारसे कुच कर गये
श्रावकवर्य ! अब वेलातिक्रम हो साधु सामाचारी के अन्य कार्य करने हैं, रखते हैं.
रहा है, हमको भी अतः आज यहां ही
पंचम - दिवस.
पांचवें दिन षडावश्यक प्रतिलेखनादि साधु समाचारीके शुभकृत्योंसे निवृत्त हो कर सूरीश्वरजी अपने स्थान पर स्थित हो कर धर्मध्यानकी धूनमें बैठे हुए हैं. थोडे समय के बाद वह भव्यात्मा श्रावक सूरीश्वरजी के समीपमें आ पहुंचा और भावना सहित वंदन करके उचितासन पर बैठ गया और बडे विनयसे विज्ञप्ति की कि, भगवन् ! आगेका हाल सुनानकी कृपा करें. सूरीश्वरजी
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मत्स्यपुराण १५२ वे अध्यायमें तारकासुर दैत्यके साथ देवताओंका बड़ा भारी युद्ध हुआ, उसमें परस्पर दोनों सेमामें बहोत ही मारे गए. अन्तमें इन्द्रादि लोकपालोंको तथा विष्णुको बांध कर और रथमें बैठ कर तारकासुर अपने स्थानमें चला. गया. देखो" ततो रथादवप्लुत्य, तारको दानवाधिपः ।
जघान कोटिशो देवान् , करपाणिभिरेव च । हतशेषाणि सैन्यानि, देवानां विप्रदुद्रुवुः ॥ २२३ ॥ दिशो भीतानि सन्त्यज्य, रणोपकरणानि.तु लोकपालाँस्ततो दैत्यो, बबन्धेन्द्रमुखान् रणे ॥ २२४ ॥ सकेशवान् दृडैः पाशैः, पशुमारः पशूनिच । स भूयो रथमास्थाय, जगाम स्वकमालयम् - ॥ २२५ ।। सिद्धगंधर्वसंघुष्ट-विपुलाचलमस्तकम् ।। स्तूयमानोदितिसुतै-रप्सरोभिर्विनोदितः ॥२२६ ॥ त्रैलोक्यलक्ष्मीस्तदेशे, प्राविशत् स्वपुरं यथा । निषसादासने पद्म-रागरत्नविनिर्मिते ॥२२७ ।। ततः किन्नरगंधर्व-नागनारीविनोदितः।। क्षणं विनोद्यमानस्तु, प्रचलन्मणिकुण्डलः २२८॥"
अर्थ-इसके पीछे तारकासुर दैत्य रथसे नीचे उतर कर अपने हाथोंसे और पैरोंकी एडीओंसे करोडो देवताओंको मारता भया. फिर शेष बची हुई देवताओंकी सेना भयभीत हो कर रणको त्याग दशो दिशामें भाग गई ॥ २२३ ॥ तब वह दैत्य रणके मध्यमेंसे इन्द्रादिक सब लोकपालोंको बांद लेता भया और विष्णु आदिको भी ऐसे बांदता भया जैसे कि, व्याध पुरुष
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(१३७)
पशुओंको बांद लेता है ॥ २२४-२२५ ॥ इसके पीछे वह तारकासुर रथमें बैठ कर अपने स्थानमें जाता भया. सिद्ध गंधर्व दैत्य और अप्सरा इत्यादिक सब दैत्यकी स्तुति करते भये. इन सब समेत प्रसन्नता पूर्वक वह दैत्य त्रिलोकीकी संपत्तिओंसे युक्त हुआ अपने पुरमें प्रवेश करता भया ।। २२६२२७ ॥ वहां जाकर पुखराज आदिक रत्नोंसे जड़े हुए आसन पर बैठ गया और किन्नर गंधर्वादिकोंकी स्त्रियोंसे क्रीडा करते उसके कुंडल और मुकुटकी महाशोभा होती भई ॥ २२८ ॥
इस उपरके लेखके देखनेसे विचारशीलोंको अवश्य विचार आवेगा कि, विष्णुको तारकासुर ऐसे बांद कर ले गया कि जैसे व्याध पशुको बांद कर ले जाता है तो फिर विष्णु सर्वशक्तिमान् और परमेश्वर है ऐसा कैसे कह सकते हैं १. तथा विष्णुजी देवताओंके पक्षमें हो कर तारकासुरके साथ युद्ध करनको आये तो भी तारकासुरने करोडों देवताओं को मार डाला तथा इन्द्रादिक लोकपाल और विष्णुको बांदके ले गया. इससे विष्ण ज्ञान शून्य भी सिद्ध हुए, अगर विष्णु ज्ञानी होते तो जान लेते कि, देवताओंके पक्षमें हो कर तारकासुरके सामने युद्ध करनेको मैं जाता तो हूं मगर तारकासुर जबरदस्त दैत्य है मेरे जानेसे भी देवताओंकी जीत नहीं होगी और क्रोडों ही देवताओंको वह दैत्य मार डालेगा, शेष रहे हुए देवता युद्ध से भाग जायेंगे तथा इंद्रादिक लोकपालोंको और मेरेको वह दैत्य बांद कर ले जायगा, इससे मेरी बडी फजेती होगी, इस बातका नहीं जानना इसीका नाम शान शून्यता है..
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( १३८)
मत्स्यपुराण अध्याय १५३ वे में ब्रह्मा विष्णुको जन्म करके पीडित है ऐसा लिखा है. देखो नीचे के
मृत्यु
जरा और श्लोक
44
॥ १८० ॥
॥। १८१ ॥
॥ १८२ ॥
न स जातो महादेवो, भूतभव्यभवोद्भवः । शरण्यः शाश्वतः शास्ता, शङ्करः परमेश्वरः ब्रह्मविष्विन्द्रमुनयो, जन्ममृत्युजरार्दिताः । तस्यैते परमेशस्य, सर्वे क्रीडनकागिरे आस्ते ब्रह्मा तदिच्छातः संभूतो भुवनप्रभुः । विष्णोर्युगे युगे जातो, नानाजातिर्महातनुः मन्यसे मायया जातं, विष्णुं चापि युगेयुगे । आत्मनो न विनाशोऽस्ति, स्थावरान्तोऽपि भूधर ! ॥ १८३॥ संसारे जायमानस्य, म्रियमाणस्य देहिनः । नश्यते देह एवात्र नात्मनो नाश उच्यते ॥ १८४ ॥ ब्रह्मादिस्थावरांतोऽयं, संसारो यः प्रकीर्त्तितः । सजन्ममृत्युदुःखार्त्तो, ह्यवशः परिवर्त्तते ॥ १८५ ॥ महादेवोऽचलः स्थाणु-र्न जानो जनको जरः । भविष्यति पतिः सोऽस्याः, जगन्नाथो निरामयः || १८६ ॥ " अर्थ - भूत भविष्यद् और वर्त्तमान इन सबके ईश्वर शरण्य शाश्वत शास्ता शंकर महादेव परमेश्वर हैं. ये कभी जन्में नहीं हैं ॥ १८० ॥ ब्रह्मा विष्णु इंद्र और मुनि यह तो जन्म मृत्यु और जरा अवस्था इनसे पीडित होते हैं और महादेवजी के ये सब क्रीडाके स्थान हैं, उन ही महादेजीकी . इच्छा से ब्रह्मा अपने भुवनके पति हो रहे हैं. विष्णु युगमें युगमें अनेक जातियोंमें महान् शरीरोंको धारण करते हैं । १८१ - १८२ ॥ मायाके वशीभूत युग युगमें जन्मे हुए विष्णु
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( १३९) के भी आत्माका नाश नहीं होता है. हे हिमाचल ! मरणेवाले देहधारीका शरीर संसारमें नष्ट हो जाता है परन्तु आत्माका कभी भी नाश नहीं होता है. ब्रह्मासे ले कर स्थावर वृक्षादि पर्यंत सब संसार जन्म मरणके दुःखसे पीडित है, महादेवजी अचल हैं. स्थाणु हैं, कभी जन्म नहीं लेते हैं, अमर हैं और रोगोंसे भी रहित हैं ऐसे जगन्नाथ महादेवजी इस तेरी पुत्रीके पति होवेंगे ॥ १८३-१८६ ॥
यह उपरोक्त लेख पुराणोंकी पूर्ण अव्यवस्थाको सिद्ध करता है, क्योंकि विष्णुपुराणमें महादेवजीने विष्णुकी उपासना की ऐसा वर्णन है और यहां पर महादेवजी ही अजर अमर और अविनाशी और ब्रह्मा विष्णु सजर समर और सविनासी है. ऐसे उन्मत्त वचनवत् बहुत स्थल पर परस्पर विरुद्ध उल्लेख दृष्टिगत होते हैं जिसका सरवैया यही निकलता है कि, ये तीनों ही देव ईश्वर नहीं.
मत्स्यपुराण १५३ वे अध्यायमें गणेशको उत्पति जिस तरह लिखी है सो प्रथम बताऐ हुए प्रकारसे विरुद्ध होनेसे पुराणोंकी पारस्परिक विरुद्धताका खयाल दिलाती है.
मत्स्यपुराण १५४ वे अध्यायमें बयान है कि
महादेजीने पार्वतीको कृष्णा कहा इससे गुस्सेमें आ कर पार्वती शिवजीके पाससे जाने लगी, तब शिव ने उसे बहुत समझाई और आखर ऐसा भी कहा कि, मैं तूझको सिरसे प्रणाम करता हूं और सूर्यको ओर हाथ जोडता हूँ इत्यादि वचनोंसे पार्वतीको बहुत खुशामत करी परंतु पार्वतोने
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(१४०)
शिवजीका वचन नहीं माना और गौरी होनेके लिये तपस्या करनको चल पडी.
इस उपरके लेखसे सिद्ध हुआ कि महादेजी स्त्रीके बडे आधीन थे.
मत्स्य पुराणके १५७ और १५८ के अध्यायसे कार्तिकेयकी उत्पत्तिका बयान लिखते हैं सो वांचोसूत उवाच" प्रसन्ना तु ततो देवी, वोरकस्येति संस्तुता। प्रविवेश शुभं भर्तृ-भवनं भूधरात्मजा ॥ २० ॥ द्वारस्थो वीरको देवान् , हरदर्शनकाक्षिणः । व्यसर्जयन स्वकान्येव, गृहाण्यादरपूर्वकः ॥ २१ ॥ नास्त्यत्रावसरो देवा, देव्या सह वृषाकपिः । निभृतः क्रोडतीत्युक्ता, ययुस्ते च यथागतम् ॥ २२ ॥ गते वर्षे सहस्र तु, देवास्त्वरितमानसाः । ज्वलनं चोदयामासु-ज्ञातं शंकरचेष्टितम् ॥ २३ ॥ प्रविश्य जालरन्ध्रेण, शुकरूपी हुताशनः । ददृशे शयने शर्व, रतं गिरिजया सह ॥ २४ ॥ ददृशे तं च देवेशो, हुताशं शुकरूपिणम् । तमुवाच महादेवः, किञ्चित् कोपसमन्वितः ॥ २५ ॥ यस्मात्तु त्वत् कृतो विघ्न-स्तस्मात् त्वय्युपपद्यते । इत्युक्तः पाश्चलिर्वहि-रपिबद्वीर्यमाहितम् ॥ २६ ॥ तेनापूर्यत देवाँस्तत्-तत्कार्यविभेदवः । विपाव्य जठरं तेषां, वीर्य माहेश्वरं ततः ॥ २७ ॥
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(१४१) निष्क्रान्तं तप्तहेमाभं, वितते शङ्कराश्रमे । तस्मिन् सरो महज्जातं, विमलं बहुयोजनम् ॥२८॥ प्रोत्फुल्लहेमकमले, नानाविहगनादितम् । तच्छ्रुत्वा तु ततो देवो, हेमद्रुमं महाजलम् ॥ २९ ॥ तत्र कृत्वा जलक्रीडां, तदब्जकृतशेखरा । उपविष्टास्ततस्तस्य, तोरे देवी सखीयुता ॥ ३० ॥ पातुकामा च तत्तोयं, स्वादु निर्मलपंकजम् । अपश्यन् कृत्तिकाः स्नाताः, षडद्युतिसन्निभम् ॥ ३१ ॥ पद्मपत्रे तु तद्वारि, गृहित्वोपस्थिता गृहम् ।। हर्षादुवाच पश्यामि, पद्मपत्रे स्थितं पयः ॥ ३२ ॥
ततस्ता ऊचुरखिलं, कृत्तिका हेमशैलजाम् । कृत्तिका ऊचुःदास्यामो यदि ते गर्भ-संभूतो यो भविष्यति ॥ ३३ ॥ सोऽस्माकमपि पुत्रः स्या-दस्मन्नाम्ना च वर्त्तताम् । भवेल्लोके सुविख्यातः, सर्वेष्वपि शुभानने ॥ ३४ ॥ इत्युक्तोवाच गिरिजा, कथं मद्गात्रसंभवः । सर्वैरवयवैर्युक्तो, भवतीभ्यः सुतो भवेत् ॥ ३५ ॥ ततस्तां कृत्तिका ऊचु-विधास्यामोऽस्य वै वयम् । उत्तमान्युत्तमांगानि, यद्येवं तु भविष्यति ॥ ३६ ॥ उक्ता वै शैलजा पाह, भवत्वेवमनिन्दिताः । ततस्ताः हर्षसम्पूर्णाः, पद्मपत्रस्थितं पयः ॥ ३७ ॥ तस्यै ददुस्तया चापि, तत्पीतं क्रमशो जलम् । पोते तु सालेले तस्मि-स्ततस्तस्मिन् सरोवरे ॥ ३८ ॥
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(१४२) विपाट्य देव्याश्च ततो, दक्षिणां कुशिमुद्गतः । निश्चक्रामाद्भुतो बालः, सर्वलोकविभासकः ॥ ३९ ॥ प्रभाकरप्रभाकारः, प्रकाशकनकप्रभः । गृहीतानमलोदग्र-शक्तिशुलः षडाननः ॥ ४०॥ दीतो मारयितुं दैत्यान् , कुत्सितान कनकच्छविः । एतस्मात् कारणाद्देवः, कुमारश्चापि सोऽभवत् ।। ४१ ॥"
भावार्थ-सूतजी कहते हैं जब वीरभद्रने इस प्रकारसे स्तुति करी तब प्रसन्न हो कर पार्वतीजी अपने पति शिवजीके मंदिरमें प्रवेश करती भई ॥ २० ॥ फिर द्वार पर खडा हुआ वीरभद्र शिवजीक दर्शन करनेके लिये आये हुए देवताओंकों अपने अपने घरोंको भेजता हुआ और यह कहने लगा कि हे देवताओ! अब दर्शन करनेका अवसर नहीं है. कारण कि शिवजी पार्वतीके संग रमण कर रहें हैं. इन वचनोंको सुन कर देवता अपने अपने स्थानको चले गयें ॥ २१-२२ ॥ जब हजार वर्ष व्यतीत हो चुके तब देवता शीघ्रता करके शिवजीके समाचार लेनेके लिये अग्निदेवताको भेजते भये ॥२३ ॥ अग्नि तोतेका रूप धारके स्थानके किसी छिद्रके द्वार स्थानमें प्रवेश करके पार्वतीके संग रमण करते हुए महादेवजीको देखता हुआ, तब कुच्छ क्रोध करके महादेवजी उस तोतसे बोले कि, तेरा किया हुआ यह विघ्न है. इस लिये यह विघ्न तुझहीमें प्राप्त होगा, ऐसा कहा हुआ अग्नि अंजलि गंद कर महादेवजीके वोर्यको पीता भया ॥ २४ से २७ ॥ फिर उस वीर्यसे तृप्त हुआ अग्नि देवताओंको तृप्त करता भया, उस समय वह शिवजीका वीर्य उन देवताओंके उदरको
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(१४३) फाड कर बहार निकलता भया और शिवजीके समीप प्राप्त होता भया, वहां एक सरोवर बन गया. बडा खच्छ और. बहुत योजन विस्तृत सुवर्ण किसी कांतिवाला फुले हुए कमलोंसे शोभित उस सरोवरको सुन कर पार्वतीदेवी सखीयोंसे युक्त हो उसके-सरोवरके जलमें क्रीडा करती हुई
और तीर पर स्थित हो उस जलको पीनेकी भी ईच्छा करी. उस समय स्नान करती 'कृत्तिका' भी छः छः सूर्योके समान उस जल को देखती भयी. तब पार्वती कमलके पत्ते पर स्थित हुए उस जलको ग्रहण करके आनंदसे बोली कि कमल पत्र पर स्थित हुए इस जलको मैं देखती हूं ॥ २७-से ३२ ॥ ऐसे पार्वतीके वचनको सुन कर 'कृत्तिका' पार्वतीसे बोली कि हे शुभानने ! इस जलसे जो तुमारे गर्भ रह जावे तो वह हमारे नामसे प्रसिद्ध हमारा ही पुत्र संसारमें प्रसिद्ध होवे ऐसी प्रतिज्ञा करे तो हम इस जलको देवें. यह सुन कर पार्वतीजी बोली कि, मेरे अवयवोंसे युक्त हुआ बालक तुह्मारा पुत्र होवेगा ॥ ३३-से-३५ ॥ जब पार्वतीने यह बचन कहा तब कृत्तिका बोली कि हम उसके उत्तम उत्तम अंगोंका विधान कर देवेंगी. यह बात सुन कर पार्वतीने कहा कि अच्छा इसी प्रकार हो जायगा. तब वह कृत्तिका प्रसन्न हो कर उस जलको पार्वतीके निमित्त देती भई, तब पार्वतीने भी वह जल पी लिया. इसके अनंतर उस जलका गर्भ पार्वतीकी दाहिनीकोखको फाड कर बाहिर निकला और उसमेंसे सब लोगोंको प्रकाशित करनेवाला अद्भुत बालक निकला. सूर्यके समान तेजस्वी, कंचनके समान देदीप्यमान शक्ति और शूलको ग्रहण किये हुए छ। मुखवाला वह अद्भुत
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(१४४)
बालक होता भया, सुवर्ण किसी कातिवाला वह बालक दुष्ट दैत्योंको मारनेवाला होता भया ।। ३६-से-४१॥
मत्स्यपुराणके १५७ वे अध्यायमेंसे स्वामि कार्तिककी यह उत्पत्ति लिखी है
सूतजी बोले. इसके अनंतर" वाम विदार्य निष्क्रान्तः, सुतो देव्याः पुमः शिशुः । स्कंदाच वदने वह्नः, शुक्रात् सुवदनोऽरिहा ॥१॥ कृत्तिका मेलनादेव, शाखाभिः सविशेषतः । शाखा भिधाः समाख्याताः, षट्सु वक्त्रेषु विस्तृतः ॥२॥ यतस्ततो विशाखोऽसौ, ख्यातो लोकेषु षण्मुखः । स्कंदो विशाखः षड्वक्त्रो, कार्तिकेयश्च विश्रुतः ॥ ३ ॥ चैत्रस्य बहुले पक्षे, पंचदश्यां महाबलो। संभूतावसदृशौ, विशाले शरकानने ॥४॥ चैत्रस्यैव सिते. पक्षे, पञ्चम्यां पाकशासनः । बालकाभ्यां चकारक, मत्वा चामरभूतये ॥ ५ ॥ तस्यामेव ततः षष्ठया-मभिषिक्तो गुहः प्रभुः। सर्वैरमरसंघातै-ब्रह्मेन्द्रोपेन्द्रभास्करैः ॥ ६ ॥ गंधमाल्यैः शुभै पै-स्तथा क्रीडनकैरपि । - छत्रैश्चामरजालैश्च, भूषणैश्च विलेपनैः ॥ ७ ॥
अभ्यचितो विधानेन, यथावत् षण्मुखःमः। सुतापस्मै ददौ शक्रो, देवसेनेति विभुताम् ॥८॥ पल्यर्थ देवदेवस्य, ददौ विष्णुस्तदायुधान् । यक्षाणां दश लक्षाणि, दह धनाधिपः ॥९॥"
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( १४५ )
भावार्थ- सूतजी बोले. इसके अनंतर अनिके वीर्यके प्रभावसे पार्वती देवोके बायें स्कंधको फाड कर दूसरा बालक निकला, तब कृत्तिकाने उन दोनों बालकोंको संधि और शाखाओं में मिला दिया, तभी से इनके नाम विशाख - षण्मुख स्कंध और कार्त्तिकेय आदिक संसार में प्रसिद्ध होते भये, चैत्र शुक्ल पंचमी के दिन शरोंके वनमें सूर्यके समान कांतिवाले दोबालक उत्पन्न हुए. उसी पंचमी के दिन दोनों बालकको एक कर दिया और उसी महिनेको पष्ठीको ब्रह्मा इन्द्र और सूर्य इत्यादि देवताओंने स्वामि- कार्त्तिकेयका अभिषेक कर दिया || १ से ६ ॥ फिर गंध पुष्प सुगंधित धूप छत्रचामर और आभूषण आदिकोंसे पूजित किये हुए इस स्वामीकार्त्तिकके निमित्त इन्द्र विधिपूर्वक 'देवसेना' नाम अपनी पुत्रीको विवाह देता भया. विष्णु भगवान् ने उसको शस्त्र दिये. कुबेर दश लक्ष यक्ष देता भया. अग्नि अपने तेजको देता भया. वायु वाहन देता भया. और त्वष्टा देवता कामस्वरूपी मूर्गा उसको खेलनेको देता भया ७ ॥ से १० ॥
महादेवजीका इतने लंबे विकार, अनिको पीलाये हुए ताला की कल्पनासे कार्त्तिकेय
काल तक उत्पन्न हुआ कामवीर्यका इतना विस्तार; और स्वामीकी उत्पत्तिका विचार, अगर थोडा भी विचारवाला मनुष्य हो तो समझ सकता है कि, भंगडोंकी कल्पनाके सिवाय जरा भी सत्यताको धारण नहीं करता.
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मत्स्यपुराण अध्याय १७८ में अंधकनामा दैत्यके
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साथ शिवजीका बडा भारी युद्ध हुआ मगर शिवजीकी कुछ पेश नहीं चली तब शिवजी विष्णुके शरण गए. देखो नीचे के श्लोक
" तासु तृप्तासु सम्भूता, भूय एवान्धकपनाः । ___ अदितस्तैर्महादेवः, शूलमुद्गरपाणिभिः ॥ ३४ ॥
ततः स शंकरो देव-स्त्वंधकैर्व्याकुलीकृतः।। जगाम शरणं देवं, वासुदेवमजं विभुम् ॥ ३५ ॥ ततस्तु भगवान् विष्णुः, सृष्टवान् शुष्करेवतीम् । या पपौ सकलं तेषा-मन्धकानामसृक् क्षणात् ॥ ३६॥ यथा यथा च रुधिरं, पिबन्त्यन्धकसम्भवम् । तथा तथाधिकं देवी, संशुष्यति जनाधिप! ॥ ३७ ॥ पीयमाने तथा तेषा-मकानां तथाऽसृजि । अन्धकास्तु क्षयं नीताः, सर्वे ते त्रिपुरारिणा ॥३८॥ मूलान्धकं तु विक्रम्य, तदा शर्वत्रिलोकधुक् । चकार वेगाच्छूलाग्रे, स च तुष्टाव शंकरम् ॥ ३९॥"
इस उपरके लेखसे साफ सिद्ध हो गया कि, विष्णुप्ते महादेवजी ज्ञानमें हीन है, इसी वास्ते शिवजीने विष्णुका शरण लिया तो फिर शिवजीको परमात्मा तथा सर्वशक्तिमान् कैसे कह सकते हैं .
मत्स्यपुराण १५१ के अध्यायके अंतमें बयान है कि
'शुभ' तथा ' निमि' नामक दैत्योंसे विष्णुका युद्ध हुआ उसमें विष्णु दैत्योंसे मार खा कर युद्धमेंसे भाग निकले. तथा हि
का
.
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(१४७) " शुभो वचो विष्णुमुखानिशम्य, निमिश्च निष्पेष्टुंमियेष विष्णुम् ।
गदामथोदम्य निमिः प्रचण्डो, जघान गाढा गरुडं शिरस्तः .. ॥३३॥
शुंभोऽपि विष्णुं परिघेण मूर्तीि, प्ररुष्टरत्नोपविचित्रभासा।
तो दानवाभ्यां विषमैः प्रहारैः, निपेतुरुया प्रनपावकामौ ॥३४॥
तत् कर्म दृष्ट्वादितिजास्तु सर्वे, जग रुचैः कृतसिंहनादाः।
धषि चास्फोव्य खुराभिघातैयंदारयन् भूमिमपि प्रचण्डाः।
वासांसि चैवादुधुवुः परे तु, दध्मुश्च शंखा नकगौमुखौघान् ॥ ३५ ॥ अथ संज्ञामवाप्याशु, गरुडोऽपि सकेशवः । पराङ्मुखो रणात्तस्मात्, पलायत महाजवः ॥ ३६ ॥"
इस उपरके लेखसे साफ सिद्ध हो गया कि, विष्णुको तथा गरुडको दैत्योंने एसी मार मारी जिससे गरुड समेत विष्णुजी मूर्छित हो गए तथा मूर्छाके दूर हो जाने पर युद्ध भूमिसे भाग गए. अब विचारना चाहिये कि, जिसको प्रथम यह ज्ञान नहीं था कि मुझे दैत्योंसे मार खा कर भागना पडेगा. वह सर्वज्ञ नहीं हो सकता और इस तरहसे असामर्थ्यवाले' सर्वशक्तित्व भी सिद्ध नहीं हो सकता और इन दोनों गुणोंके,
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(१४८) अभावसे वैदिक संप्रदायकी मान्यतासे भी कृष्णजीमें ईश्वरत्व नहीं हुआ.
मत्स्यपुराणके १८७ में अध्यायमें महादेवजीने त्रिपुरको भरम किया इस विषयका बयान है सो यहां लिखते हैं. ___ मार्कडेयजी बोले हे युधिष्ठिर ! आपने जो मुझसे पूछा है उसको सुनो-जिस स्थानमें नर्मदा नदीके तट पर महादे. वजी स्थित हुए थे वहां महेश्वर नाम त्रिलोकीमें विख्यात स्थान होता भया. उसी स्थानमें महादेवजी त्रिपुरके वध करनेका उपाय चितवन करते भये ॥ १-२ ॥ वहां स्थित हुए महादेवजीने अपने गांडीव धनुषको मन्दराचल पर्वतके समान उंचा करके उसमें वासुकी सर्पको रस्सी स्वामी कार्तिक शरका स्थान विष्णुको उत्तम बाणके अग्र भागमें अग्निको स्थापित कर बाणके मुख पर वायुका प्रवेश करके चारों वेदोंको घोडे और वेदमय ही रथ बना कर घोडोंकी बाग -लगाम अश्विनी कुमारको, रथकी धूरि इंद्रको और शिवजीने अपनी आज्ञासे रथके तोरणमें कुबेरको स्थित किया ॥३-५।। शिवजीके दक्षिण हाथमें धर्मराज, वाम हाथमें दारुण काल,
और रथके चक्रमें देवता और गंधर्वांकी स्थिति होती भई. ब्रह्माजी सारथी हुए, इस प्रकार महादेवजी सब देवताओंका रथ बना कर हजारों वर्ष पर्यत स्थित होते भये. फिर जिस समय पुष्पयोग पा कर यह तीनों इकडे हो गए, उसी सम.
पर महादेवजी उस 'त्रिपुर'पर नाणोडते भये, तब उस त्रिपुरकी स्त्री तेजसे और बलसे रहित जाती भई और उस परमें हजारों उत्पात होते भये-अर्थात् त्रिपुरके विनाशके
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(१५९) . अर्थकालरूप उपद्रव होते भये, काष्टके घोडोंकी मूर्ति अट्टहास करने लगी, आंखोंको भी खोलने और मींचने लगी और सब दैत्य सुपने में अपने आत्माको लाल वस्त्रोंसे विभूषित देखने लगे. जो पुरुष सुपनेमें विपरीत वस्तु देखता है उसके बलबुद्धि शिवजीके कोपसे नष्ट हो जाते हैं. उसके अनंतर सांवर्तक नाम युगकें अंतवाला वायु चलता भया ॥६-१४॥ उस वायुके चलनेसे अनि उत्पन्न हो त्रिपुरके वृक्ष दग्ध हो कर पृथ्वी पर गिरते भये, सर्वत्र हाहाकार होता भया. शिघ्र ही उसके सब बगीचे नष्ट हो जाते भये ।। १५-१६ ॥ अग्निके कोपसे सब जलते हुए वृक्ष और घर उस वायुने क्षण मात्रमें ही नष्ट कर दिये और अग्निका समूह दसों दिशाओंमें अत्यंत बढता भया और उसकी ज्वलित ज्वालाओंसे संपूर्ण पुरके मूके वर्णके समान रक्त हो कर प्रकाशित होता भया॥१७-१९॥ धूमके निबिड अंधकारके कारण वे सब दैत्य एक घरसे दूसरे घरको नहीं जा सके. इस प्रकार शिवजीके कोप रूपी अग्निसे दग्ध हुआ वह सब पुर महादुःखित होता भया. सब दिशा
ओंमें हजारों महल जल कर पृथ्वीमें गिर पडे ॥ २०-२१ ।। उसी दीप्त अग्निसे अनेक प्रकारके चित्र विचित्र विमान और अनेक प्रकारके रमणीक स्थान भी भस्म हो कर गिर पडे. वहांके सब जन उन घरों से निकल निकल कर देवताओंके. स्थानाकी ओर जाते भये और हजारों दानव अनेक स्वरोंसे रुदन करते हुए दग्ध होते भये ॥ २२-२४ ॥ और हंस कारंडवादि पक्षिओंसे युक्त कमलिनी और कमलों सहित. बगीचे, जलकी वावडी, ये सब आग्निसे दग्ध हुए दीखते. भये. उस पुरमें उत्तम कमलोंसे आच्छादित एक योजनके
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(१५०) विसृत पर्वतके शिखरके उंचे रत्नोंसे जडित हुए महल अग्निसे भस्म हो कर ऐसे गिरते भये जैसे कि थोथे बादल गिरते हैं. उस शिवके कोपकी अग्निने दया रहित होके उत्तम स्त्री बालक गौ पक्षी और घोडोंको दग्ध कर हजारों सोते और हजारों जागते पाणीओंको भी भस्म कर दीया ॥ २५-२८ ॥ त्रिपुरकी अप्सराओंके समान स्त्रियां अपने अपने पुत्रोंको दृढतासे पकड कर अग्निकी ज्वालाओंसे दग्ध हो कर पृथ्वीमें गिर पडती ।।२९।। कोई स्त्रियां मोतीओंकी मालाओंसे विभूषित और नीलमणिकी मालाओंसे अलंकृत धुएंसे व्याकुल अग्निकी ज्वालाओंसे दग्ध हो कर पृथ्वीमें गिरती भई ॥ ३०-३१ ॥ कोई सूर्यके समान कांतिवाली स्त्री अपने पतिको गिरा हुआ देख कर घरके उपर ही से अपने पतिके उपर गिरती भई और गिरते ही वह स्त्री अग्निसे भस्म होगई, परन्तु वह उसका पति दानव हाथमें खङ्ग ले कर खड़ा हो गया और थोडे ही समयमें वह भी अग्निके तेजसे दग्ध हो कर पृथ्वी पर गिर पडा, कोई मेघके समान वर्णवाली हार तथा बाजु बंधोंसे भूषित हो कर, कोई श्वेतवर्णवाली अपने बालकको स्तन पीलाती हुई अग्निमें दग्ध हो गई. कोई अपने बालकको दग्ध हुआ देख कर मेघके समान उच्च स्वरसे रुदन करती भई. तब शिवजोके क्रोधसे उत्पन्न हुई अग्नि उस बालकको भी दग्ध कर देती भई. कोई हीरे पन्ने आदिके भूषणोंसे भूषित चंद्रमासीकी कांतिवाली स्त्री अपने बालकको गोदीमें लिये हुए दग्ध हो कर पृथ्वीमें गिरती भई कोई शशिवदना युवति अपने घरमें सोइ हुई और घरको जलता हुआ देख कर अपने दग्ध हुए पुत्रका विलाप करती भई ।। ३२-३८ ।। कोई सुवर्ण भूषणोंसे अलंकृतं स्त्री दग्ध हुए बालकको गोदोमें
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( १५१) ले कर गिरी, कोई स्त्री धृएँसे व्याकल हुई सखीका हाथ पकड पृथ्वीमें गिरी ॥ ६९-४० ॥ कोई स्त्री अग्निसे मोहित हो शिरके उपर हाथोंकी अंजली बांध कर अग्निसे यह प्रार्थना करती भई ।। ४१ ॥ हे भगवन् अग्नि ! जो तुह्मारा कोप अपकारी पुरुषों पर है तो घरमें रुकी हुई पिंजरेकी कोकिलाओंके समान स्त्रियोंका कौन अपराध है १ ॥ ४२ ॥ हे पापी ! निर्दयी ! निर्लज ! स्त्रियोंके उपर तेरा क्या क्रोध है. तूं चतुरतासे रहित लज्जासे विहीन, सत्य और शूरताको त्याग रहा है ।। ४३ ॥ ऐसे ऐसे वचनोंसे तिरस्कार करती भई. कि, हे पापी ? ने संसारमें क्या यह नहीं सुना है कि शत्रुओंकी स्त्रियोंको नहीं मारना चाहिये ? ॥ ४४ ॥ दग्ध करना तो तुझमें गुण है परन्तु ' दया''करुणा'
और ' तुरता' कुछ भी नहीं है ।। ४५ ॥ जलती हुई स्त्रीको देख कर म्लेच्छको भी दया आ जाती है-अर्थात् उनको भी दुर्वार कष्ट होता है. ॥ ४६ ॥ यह जलानेका गुण भी तूझमें व्यर्थ है, यह केवल तेरा दुराचार है क्योंकि, स्त्रियोंके मारनो तेरेको कौनसी फल है ? ॥ ४७ ॥ हे दुष्ट ! निर्लज्ज ! निर्दयी ! मंदभाग्य अग्नि ! तूं बडा दुर्भाग्य है, हमको बलसे जलाता है ॥४८॥ ऐसा बहुत प्रकारका विलाप करती हुई स्त्री क्रुद्ध हो बालकोंका शोक करती हुई मोहित हो गई ॥ ४९ ॥ पूर्वजन्मके शत्रु के समान क्रोधित हुआ अग्नि नदियोंको और कूप वापीओंकों भी भस्म कर देता भया ॥ ५० ॥ हे म्लेछ ! तूं हमको दग्ध करके किस गतिको प्राप्त होगा ? ऐसे ऐसे वचन उनके सुन कर अग्नि बोला कि, हे स्त्रीओ ! मैं अपने वशसे तूमको दग्ध नहीं करता, मैं तो नाश ही
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(१५२) करनेको पैदा हुआ हूं, मैं कभी अनुग्रह नहीं कर सकता, मैं शिवजीकी इच्छासे अपनी इच्छा पूर्वक प्रवेश होता हूं. इसके अनंतर ' बाणासुर भी अपने त्रिपुरको जलता हुआ देखता भया ॥ ५१-५३ ॥ और सिंहासन पर बैठ कर यह वचन बोला कि, थोडे पराकवाले दुराचारी देवताओंने मेरा नाश. किया है यह निश्चय शिवजीका ही प्रभाव है ॥ ५४ ॥ शिवजीने परीक्षा किये बिना ही मुझको दग्ध कर दिया है, शिवजीके विना मुझको कोई भी मारनेको समर्थ नहीं है. ॥ ५५॥ ऐसे कह कर बाणासुर अपने पुत्र मित्रादिकोंको त्याग अपने शिरके उपर शिवके लिंगको स्थापित कर नगरके बाहिर निकला ॥५६॥ ___ इस पूर्वोक्त लेखसे शिवजीने कितने ही निरापराधी हंस कारंडवादि पक्षिओंको, स्त्री बाल बच्चोंके समूहको तथा इसी तरह अनेक अन्य प्राणी गणोंको जला कर भस्म कर दिये, क्या इस कर्मको कोई भी दयालु न्यायीहृदय अच्छा कह सकता है ?. इस घातक कर्मसे शिवजीको किस पंक्तिमें रखना चाहिये ? या फैसला न्यायी-हृदयवाले मनुष्यों पर ही रखना समझ कर मैं इस विषयमें कुछ नहीं लिखता.
श्रावक-भगवन् ! ऐसे ऐसे कर्म करनेवाले देवों पर इन लोगोंकी श्रद्धा किस तरहसे जमी रहती है ? यह एक बडा भारी सवाल. मुझको बार बार विचार चक्रमें फंसा देता है, परंतु आपने प्रथमके व्याख्यानोमें मिथ्यात्वका चित्र खींच कर ऐसी खूबीसे दिखलाया है कि जिस पर ध्यान. जानेसे तुरत समाधान हो जाता है कि, मिथ्यात्व हलाहल
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(१५३)
ज़हरको अमृत और अमृतको जहर पने मालूम कराता है
और पान करनेवालोंको सदैव जन्म मरणके चक्रमें अनंतकाल व्यतीत करना पडता है. आपने साफ साफ उनके शास्त्रके नाम अध्याय श्लोक आदि ठिकाने लिख लिख कर बतलाया है कि देखो-तुम्हारे देवकी लीला. उसमें भी यह बडी खूबी रक्खी है कि, उनके ग्रंथके भाषांतर भी उनके मतके विद्वान् पंडितोंने जिस प्रकार किये हैं उसी प्रकार अक्षरशः लिख दिये हैं. इससे उन लोगोंको यह भी बात कहनेका समय नहीं मिल सकता कि, कौन जाने भाषांतरमें गरबड हुई होगी?. वास्तवमें इस प्रकारसे लिखे हुए लेख ही प्रमाणभूत हो सकते हैं अन्यथा द्वेषानलसे दग्ध हुए अप्रामाणिक मनुष्य जैसे विना प्रमाण ज्यूं मनमें आवे त्यूं लिख मारते हैं, उनके लेखमें
और प्रामाणिक मध्यस्थ महात्माओंके लेखमें फर्क ही क्या रहे?. देखिये !-द्वेषानलसे दग्ध हुए मनुष्योंके लेखमें कितनी अप्रमाणिकता और कहीं के उल्लेख दिये वगैरे मनस्वी विचारोकी दुर्गधता होती है सो'घनश्याम' नामक पुरुषके बनाये हुए 'पाटणनी प्रभुता' नामके नौवेलके देखनेसे सम्यग्तया ज्ञात हो जाती है. उक्त कितावके १४५ वे पृष्ठ पर जैनधर्मके जतिकी हलकाई दिखलाने के लिये वगैर सबूतीके लिखा है कि-" पाटाम५ ना सरसी सरस्वती (નદી) વહેતી હતી ત્યાં તે ગયે, અને નજર ફેરવી ઘણું ધ્યાનથી જોતાં કોટમાં એક મોટું બકેરું દેખાયું. એક પળ પણ વધારે ગાળ્યા વિના, એક જમૈયા શિવાય પોતાનાં હથિયાર દૂર ફેકી, તેણે સરસ્વતીમાં ઝંપલાવ્યું, અને તરતે તરત તે બાકારા તરફ ગયે. બાકોરામાંથી ગલીચ પાણી નદીમાં પડતું
२०
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(૨૫) હતું પણ તેના તરફ જતિએ ધ્યાન આપ્યું નહીં. તેણે જોયું તે તેમાંથી અંદર પેસાય એમ હતું. મહામુશ્કેલીએ, આખા શરીરને મહાકષ્ટ થયું તે, ગંધાતા પાણીથી ગુંગળાતો તે બાકોરામાં થઈ તે અંદર આવ્યું, અને ખાળ કુંડીમાં ઉભે થયે, અને મહેડા ઉપરને ગંદવાડે સાફ કર્યો. પાસે એક કુ હતું અને તેના થાળામાં કાંઈ પાણી હતું, તેના વતી તેણે હાથ મહીં જોયાં, અને માહાલયમાં ફરવા માંડયું. ત્યાં બધુ રમશાન સમું શાંત હતું જાણે થોડીક વાર ઉપર કે હર્યું, એ ભાસ થયે. તે હાસ્ય જતિનું ઝનુન વધારે પ્રદીપ્ત કર્યું ઉપર જઈ લઢવામાં કાંઈ સાર દેખાયે નહિ, અહીં કેટલાં માણસ છે, તે જાણ્યા વિના પિતાનાં માણસ અંદર પેસાડવાં, એતે મૃત્યુના મોંમાં જવા જેવું હતું. દરેક પળે વલ્લભસેન પાસે આવતા હતા. જે કરવું હોય તે કરવાને ગણત્રીની પળોજ હતી. તેણે ઝપાટા ભેર આમ તેમ જોવા માંડયું, કઈ રીતે મંડલેશ્વરને સંહાર કરે એને જ વિચાર તેણે કરવા માંડે, એટલામાં દૂરથી ઘેઓના પગલાંના ભણકારા વાગ્યા, કાન દઈ સાંભળતાં વલ્લભસેન પાસે આવી લાગે છે, એમ તેને લાગ્યું. શું કરવું? શું કરવું?, તેણે આસ પાસ જોયું. સામી રૂદ્રમહાલયની મૈશાળા જોઈ. પાસે મહાલયના મકાનની સાથે સચેલી ઘાસની ઉંચી ગંજી જોઇ. એક રાક્ષસી વિચાર તેને સૂજે. તે આમ તેમ દેડ, તેનું ચાલત તે અગ્નિદેવતાનું આવાહન કરવા તે ત્યાં બેસી જાત. એક સરી પર એક રબારી હુકકે મૂકી ઉંધી ગયું હતું. તેની ચલમની ગંધ જતિને આવી. તે તે તરફ દયો. લેભી ધન લે તેવી તરાપ મારી તેણે ચલમ ઝાલી, અને તેને ફેંકતે તે આગળ આવે,
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(१५५) એક પળમાં તેણે ચલમને દેવતા ગંજીની અંદર મૂક્યો અને કુંક મારી બળતું કર્યું, જતિ દૂર જઈ હરખમાં હાથ ચળવા भी गयो." देखलो साहिब ! है कुछ प्रमाण १ कि, जिससे घनश्यामकी मेघसमान श्याम-काली बुद्धिमेंसे निकली हुई यह कल्पना रंच मात्र भी सत्य सिद्ध हो सके. जैसे आपश्रीने मत्स्यपुराणके १२७ वें अध्यायकी सहारत देकर महादेवजीने हजारों निरापराधी प्राणियोंको जला कर भस्म कर दिया ऐसा दिखलाया. अगर घनश्यामकी बुद्धि श्यामघनकी तरह श्याम न हुई होती तो वह भी जतिके उपरोक्त वर्णनमें कुछ न कुछ प्रमाण देता कि, अमुक पुस्तकके आधारसे में लिखता हूं. फिर विचार किया जाता कि, उस पुस्तकका कर्ता प्रामाणिक है या अप्रामाणिक ?. बादमें सत्यासत्यका निर्णय हो सकता था परंतु जहां बिना ही प्रमाणके मात्र हृदयगत द्वेषको ही शांत करना हो वहां तो जैसे कोई घनश्यामका शत्रु उसके लिये ऐसा लिखे कि, घनश्याम किसीके घरमें घुसनेके लिये रास्ता न मिलनेसे जाजरुके अधोद्वार ( जहां परसें भंगी गंदकी उठा ले जाते हैं ) से प्रवेश करके अमुककै घरमें गया
और वहां पर एक मूत्र कुंड था, उसमें पड कर शरीरको साफ किया. उसके बाद एक महानीचकर्म किया सो अवाच्य है. बस- इसी तरह जैनधर्मके शत्रु घनश्यामने भी कल्पना की है. यतिका नदीमें पडना, अग्निका छ्ना, और गंजीको जला कर खुश होना किसी तरहसे भी संभाव्य नहीं. हां, अगर कोई व्यक्ति अपने धर्मकर्मसे भ्रष्ट हो कर ऐसा काम करे तो कर सकता है, परंतु ऐसा भी किसी प्रमाण सिवाय नहीं लिखा जा सकता.
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(१५६ ) सूरीश्वरजी-महाशय ! सबूर करो. उस जीव पर भी भावदयाकी दृष्टिसे निहालो. उस · विचारेने ऐसे पवित्र जैन धर्मकी लघुता करनेके संकल्पसे यह काम किया होगा तब तो महान् घोर कर्म बांद लिया होगा. उस कर्मको भुगतनेके समय उस जीवको असह्य पीडा होगी उधर ध्यान दो. क्यों किजिस समयमें परमपुनीत चारित्र पात्र यति हो उस समयके उल्लेखमें ऐसी न हुई व्यक्ति की कल्पनासे द्वेषपोषक पात्र खडे करनेवालेका भविष्य अतीव शोचनीय होता है, यह बात अगर तुम्हारे लक्षमें रहेगी तब तुमको उस पर दया आवेगी.
श्रावक-मुनीश्वर! आपका कथन सत्य है. परंतु हमारे । घनश्यामने असत्य लिखनेमें कसर नहीं रक्खी है. मैं मात्र उसकी असत्यता ही दिखलाना चाहता हूं. मुझे कुछ उससे द्वेष नहीं है हां, मेरे अक्षर कठीन है मगर भावना अच्छी है. देखो-घनश्यामने "प्रथमे ग्रासे मक्षिकापातः " की तरह प्रथम पृष्ठ पर ही "श्राव। ५९॥ स्वछ । थया ता" वगैरह शब्दो लिख कर अपने हृदयमें जलती हुई होलीकाका प्रथमसे ही दर्शन कराना शुरू किया है, क्यों कि किताबके दूसरे पृष्ठ पर
શ્રાવકોને પોતાના રાજાઓના રક્ષણ નીચે નિર્ભયપણે વ્યાપાર ७२वानी 24 परी ती. " लिखा हुआ यह वाक्य श्रावक राज्यमर्यादाके पालक थे ऐसा सिद्ध करता है, फिर उनको स्वच्छंद कहना लेखककी उन्मत्तता नहीं तो और क्या कहा जाय. पृष्ठ १० पर- " अति ?, २स्ते भन्या तात १." इत्यादि लिखाण स्वप्न छायावत् है. क्यों कि, इस बातमें कुछ भी प्रमाण दिखलाया नहीं है. पृष्ठ ११ वें पर जति और मंडलेश्वरकी वा रूप कल्पना दलील वगैरकी
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( १५७ )
શ્રાવકાને છૂંદી ”
गगनं कुसुम जैसी असत्य प्रतीत होती है. मात्र उस पृष्ठ परकी बातों से घनश्यामके हृदयमें श्रावकों पर बडा द्वेष है यही बात सत्यतया भास होती है, क्यों कि वह मंडलेश्वर के मुंहसे ऐसे शब्द निकलवाता है कि- " सहुपयोगमा भेट हे जनशे સદુપયોગમાં એટલુ જ કે तेटसा श्रावाने छुट्टी नामीश. " न उस वख्तके श्रावकों पर मंडलेश्वरको इस प्रकार द्वेष होनेका कुछ साधन लिखा है और नाहीं सहारत. इससे मंडलेश्वरकी यह नीचभावना तो किसी तरह साबित नहीं होती, मगर घनश्यामकी बुद्धि पर द्वेषानलकी श्यामता ऐसी चढ़ी हुई है कि, अगर उसको पावर मिले तो अवश्य मंडलेश्वर के नामसे निकाले हुए अपने नीच हृदय के शब्दों को अमल में रक्खे यह तो साबित होता है, मगर बिल्ली और सर्पको पांखें कहांसे ? कुदरतकी यही खूबी है.
पृष्ठ १३ वें पर -- "तिना तर भेड तीक्ष्ण नजर नाजी તેણે ( મુજાલે ! નમસ્કાર કર્યાં, અને હીંચકાપર બેસવા તેને સૂચવ્યુ, પાતે પાસે પડેલા પાટલાપર જઇને બેઠો. બીરાજો नमस्कार मंत्रि महाशन ! उही यानं हसूरि . " यहां पर इस काल्पनिक कथाकी पोल खुल जाती है. क्यों कि, मुंजाल मंत्री जैसा ज्ञात श्रावक जतिको हींडोले पर बैठनेको कदापि नहीं कह सकता तथा यति जिसको सूरिके नामसे प्रसिद्ध किया है मंत्रीको नमस्कार किसी तरह नहीं कर सकता, इससे नोवेल बनानेवालेने गप्पगोले चलायें हैं. ऐसा सिद्ध होता है. इसके उपरांत आनंदसूरि नामका जति उस वरूत हुए हुए महात्माओकी पट्टावलीओंमें निकलना चाहिये, जब नाम ही न निकले फिर असत्यताका कहना ही क्या ? लेखकको उचित था
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(१५८) कि, ऐसे कल्पित पात्र बनाते समय जरा विचार करता कि मेरी असत्यता जाहिर होने पर मैं अप्रमाणिक ठहरुंगा. परंतु जहां द्वेष भर जाता है, वहां पर विचार नहीं रहता और साथ यह भी खयाल रक्खा होगा कि आखिर तो नोवेल ही है ?. इसमें कल्पना प्राधान्य तो प्रसिद्ध है और दूसरे धर्म पर द्वेष हो उसकी सफलता ऐसे नोवेलों द्वारा सुगमतासे हो सकती है. बस, झट कलम पकड ली और श्वेत पर श्यामता करने लगा होगा.
पृष्ठ १९ वें पर-" भानण माने प्रणाम ४२वानु २यु छ." जतिक मुंहसे निकलवाये ये शब्द भी मन घईत ही है, क्यों कि इस तरह यतिकी खुशामत जैन राणी मीनल देवीको पसंद पडे यह असंभाव्य है और मुंजाल मंत्री जैसे जैन महाशय के पास जति ऐसे शब्द बोल ही नहीं सकता है. __ पृष्ठ २४.." तिने शसेवानी या छ.” २५-" આનંદસૂરિએ પ્રણામ કર્યા. ર૬-“જીને ભગવાનને ભગવો વાવ ઉડતી કરું.” ૨૭મીનલ દેવીગેરી સાધ્વીને બેલાવે છે.” પ૧–બ આનંદસૂરિ તિલક કરવા આવતા હોય તેમ मागण याव्या." इत्यादि लिखाण सर्वथा युक्ति शून्य होनेसे सामान्य विचारक भी उसकी असत्यता समझ सके ऐसा है. उसमें भी पृष्ठ २६ वें में-01 लापाननी मग पावट! sal ३." इस वाक्यके उल्लेखसे तो घनश्यामने स्पष्टतया अपनी उन्मत्तता प्रकाशित की है, क्यों कि " जिन भगवान्नो भगवो वावटो" ये शब्द उन्मत्तके मुख सिवाय विचारकके मुखसे निकल हो नहीं सकते.
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पृष्ठ ६४ वें में-ममत२ सन्तो मे २४पूतना वेषभा એક પુરૂષ અંદર આવે, તેનું મહતું એવું બાંધેલું હતું કે એકાએક ઓળખાય નહીં, કેણ આનંદસૂરિજી? રાણીએ સાર્ય પુછયું, હા બા હુંજ મહેંઢાપરથી ફેટાને છેડે કહાડી નાંખતાં मानसूरिय यु." ऐसा लिख कर घनश्यामने झूठा अंधेर फैलाया है, क्यों कि इस प्रकारकी स्थिति उस समयमें तो क्या परंतु अद्यावधि नहीं बनी है, फिर ऐसी गप्प मारनेमें क्या फायदा ? किसी मतकी तौहीन करनेके इरादेके सिवाय ऐसे गप्पगोले चलानेमें अन्य कुछ प्रयोजन नहीं बन सकता लेखकने यह नहीं विचारा कि जैसे कोई सनिपातके साहचयसे ज्यूं त्यूं बकवाद करे, यूं विना प्रमाण मैं बकवाद करता हूं इसको कौन सत्य मानेगा ?, जब यह बनावटी बात लोगोंमें असत्यतया प्रतीत ही बनी रही तो मेरा लिखना मुझे जनतामें अप्रमाणिक बनानेके सिवाय विशेष फल प्रदाता नहीं बन सकता. मूर्खके शिर पर कुछ शींगडे.नहीं उगते ?, विना विचारे काम करना यही मूर्खताकी निशानी है. ऐसे अप्रामाणिक मनस्वी लेखक बहुत हो गये हैं. अतः पाठकोंको ध्यान रखना चाहिये कि, कोई भी पुस्तक देखना तो उसमें जिस मतकी लघुताके लिये जो कुछ लिखता है सो उस मतके पुस्तकके आधारसे या अन्य मध्यस्थ वर्गकी सूचनासे ?, या तो दलीलसे ?. इन तीन तरीकोंमेंसे कौनसे तरीकेसे काम लेता है ? इत्यादि ध्यान दिये वगैर एकदम ऐसे द्वेषिओंके बनाये हुए नोवेलोंसे किसी बातको हृदयमें जमा लेनी ठीक नहीं क्यों कि, घनश्याम जैसे सैंकडो श्यामबुद्धिके मनुष्य किसी धर्मके विरुद्ध मनमें आवे ऐसे पुस्तक लिख मारते हैं, इस लिये जिस पुस्तकमें
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(१९०) युक्ति प्राधान्य हो उसी पुस्तकका मानना योग्य है.
पृष्ठ ७९ और ९७ पर भी इसी तरह जतिके वेष परावर्तनकी खोटी कल्पना की है. आगे पृष्ठ १४० तथा १४१ वें में जतिके साथ एक पूजारीका संवाद भी अपने देवोंकी महत्वता बढ़ानेके लिये काल्पनिक बना लिया है, सो भी प्रमाणशून्य है. किंबहुना ?. ora नभत ?' इस प्रकरणका शिर्षक ही लेखकके शिरस्थ द्वेषभावकी परिपूर्णताको बताता है. ऐसी द्वेष भावना.. वाले मनुष्य प्रमाण पर दृष्टि रख कर लिखें यह तो पानीमेंसे मक्खनकी प्राप्ति जैसा है. जतिको जमदूत बनानेकी चेष्टाने तो सत्यका खून करनेसे लेखकको ही जमदूत बना दिया है. जमदूत अंधकार मूर्ति होता है. इस किंवदन्तीसे घनश्याममें यमरंगका रूपक भी घट सकता है और इस नोवेलमें ठिकाने ठिकाने पर सत्यका खून किया है, अतः कर्मसे भी जमदूतका रूपक घनश्याममें घट सकता है..
जतिने आलेखी-" इतरा, राममा२, ४॥4४," आदि शब्दो मंडलेश्वरके मुखसे निकलवाये हैं. ये शब्दो भी घनश्याम के श्यामहृदयका पूर्ण परिचय दिलाते हैं.
इस प्रकार कहीं लश्कर ले कर जति आया. कहीं मंडले. श्वरको नदीमें डुबा दिया. इत्यादि उस पुस्तकमें प्रमाणशून्य सनिपातिक मनुष्यकी तरह असंभाव्य प्रलाप किया है.
गुरुदेव ! इस नोवेलके विषयमें मैंने मेरे ये विचार गत दिन 'पाटणनी प्रभुता ' को देख कर कितनेक यद्वा तद्वा बोलनेवाले मनुष्योंको समझाएं वे ऐसे मध्यस्थ थे कि, तुरत
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समझ मए कि दर असलमें यह नोवेल जैनधर्मगत द्वेषको शत करनेके लिए ही घनश्यामने बनाया है. मैं उन लोगोंको सत्यमार्गफी तरफ आकर्षित कर सका यह आपकी कृपाका ही फल है. आपके पास अनुभूत लाभके वर्णनके लिये ही इतना बोल कर आपका अमूल्य समय लिया सो क्षमा करें और आगेका हाल सुना कर दासको कृतार्थ करें..
सूरीश्वरजी- तुम अन्य भाईओंको समझा कर ठिकाने पर लाये सो ठीक किया. 'पाटणनी प्रभुता' नामके नोवेलके बकानेवालेने सच्चे जैनधर्मका अनुमोदन तो क्या करना था परंतु जतिकी कल्पित बारत लिख कर सच्चे धर्मको लघुता करनेका साहस किया है. सो मिथ्यात्वशल्यके कारनसे समझना. यह शल्य विपरीत ज्ञान कराता है. अर्थात् इसके उदयसे पूर्वोक्त दूषणवाले देवको परमात्मा कहते हैं और वीतराग जिन प्रभुको परमात्म स्वरूप नहीं मानते. अरे ! मानना तो दूर रहा मगर कितनेक अज्ञानी उस पवित्रप्रभुके लिये भी यद्वा तद्वा लिख मारते हैं सो उनके दुर्भाग्य का पूर्ण उदय है. इस पुस्तकको इसी लिये लिख रहे हैं कि-इसके पठनसे जीवोंका मिथ्यात्वशल्य दूर हो जावे. ___ श्रावा-साहित्र ! मिथ्यात्वशल्यको किसी उदाहरणसे घय कर बतलाईये और उस शल्यके होनेसे कैसी दुर्दशा होती है ? सो फरमाईये.
सूरीश्वरजी-देखिये ! मिथ्यात्वशल्य किस तरह दुःखदायी होता है उसका एक दृष्टांत द्वारा फोटो खींचता हूं.
किसी आदमीके पास प्रथम बहूत धन था परंतु पीछेसे भाग्यने पलटा खाया और आहिस्ता आहिस्ता सब धन नष्ट
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(१६१) हो गया, मात्र पांचसो रुपये उसकी पास बाकी रह गए थे तब उसने विचार किया कि, विदेशमें जाकर कुछ अपूर्वचीजोंको खरीद लाऊं. जिसको देशमें बेचनेसे अच्छा नफा रहे. वह दुर्भागी मनुष्य जिस देशमें रहता था उस देशमें 'कोल्हा' फल नहीं होता था और खरगोश-ससला भी नहीं होता था. तदनंतर वह विदेशमें गया और देखा तो किसी एक नगरके शाक बाज़ारमें एक आदमी कोल्हे बेच रहा था. उसको उसने प्रथम अपनी बात सुना दी कि, मुझे पांचसौ रुपयेका. ऐसा माळ खरीदना है कि जिसको मैं अपने देशमें बेचुं तो दूना दाम पैदा हो. उसकी बातको सुन कर वह शाकबेचनेवाला समझ गया कि, यह कोई बेवकूफ आदमी है इसको अच्छी तरहसे ठगे. ऐसा विचार करके बहुत मीठे शब्दोंमें उस दुर्भागीके साथ बातचीत करनी शुरू की. वह दुर्भागी उसे अपना मित्र समझने लगा. थोडोसी बातचीत चलनेके बाद उस अभागोने उससे प्रश्न किया कि, इस टोकरीमें क्या है ?. उसने कहा ये घोडेके अंडे हैं. जब उस मूर्खने किम्मत पूछी तब उस धूर्त्तने सातसौ रुपयेको किम्मत बतलाई. वह विदेशी चौंक कर पूछता है कि, हैं ? इतनी किम्मत क्यों ?, शाकवालेने उत्तर दिया कि इस अंडेमेंसे घोडा निकलेगा तब वह एक हजार रुपयों का होगा और दो चार महिनें इसको माल मसाला खिलानेमें आवेगा तो चौदहसौकी किम्मत भी हो जायगी. इस बातको सुन कर उस विदशीका मन उसे खरीदनेका हुआ परतु उसके पास रुपये मात्र पांचसौ ही थे, इस लिये चित्त घबराता था. अंतमें बढ़ो अधीरतासे उसन कहा कि, मेरा दिल इस चीज़को ले जानेका है परंतु क्या करूं? मेरे पास
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(१६३)
पांचसौ रुपये ही हैं उस शाकवालेने कहा कि, आप हमारे मित्र बन गये हो तो आपका भला करना हमारा फर्ज है, इस लिये औरसे सातसौ रुपये लेता हूं परंतु आपसे पांचसौ ही लूंगा. इस बातके सुननेसे उस दुर्भागीकी खुशोका पार न रहा और झट पांचसौ रुपये देकर उस कोल्हको घोदेका अंडा समझ कर खरीद लिया. तब उस धृत्तं शाकवालेने कहा कि देखना ? इसको ज़मीनकी या दूसरी चीजको ठोकर न लगे ऐसे रखना. अगर कच्चा फुट जायगा तो सिवाय छोटे छोटे बीजके और कुछ नहीं निकलेगा. इस लिये अच्छी तरहसे इसकी रक्षा करना, कितनेक कालके बाद उसमेंसे स्वयं घोडा निकलेगा. अब वह दुर्भागी उस कोल्हेको लेकर अपने देशकी तरफ लोटा. एक दिन किसी वनमें रसोई करने लगा तब वृक्ष पर चढ कर जिस कपडेसे अपनी जानकी तरह कोल्हको बचा रहा था एक वृक्षकी मजबूत डालीसे उस कपडेको गांठ लगा कर उस कोल्हेको लटकाया गया उसके नीचे ऐसी घनी झाडी थी जिसमें अगर कोल्हा गिर जय तो पत्ता लगाना भी मुश्किल हो जाय. दैवयोगसे ढीली दी हुई गांठ खोसक गई और कोल्हा उस झाडीमें गिर गया. उसके पडनेके शब्दसे भडक कर उस झाडोमें रहा हुआ एक खरगोश निकल कर दूसरी तरफ भागता हुआ उस दुभांगीने देखा और उसके पीछे दौड़ने लगा. परन्तु खरगोश-ससलाकी दौडके आगे उसकी दौड ही क्या थी? जिससे वह पहुंच सके. अब वह मूढ विचार करने लगा कि, हाय ! हाय ! यह कच्चे अंडेसे निकला हुआ छोटासा घोडा भी इतनी तेज चालसे दौडता है अगर परिपक दशाको प्राप्त हुए अंडेसे
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(१६४) इसका जन्म होता तो न मालूम किस हवाई चालसे चलता. बेशक ! मेरे मित्रके कथनानुसार चौदहसौ तो क्या ? लेकिन दो हज़ार रुपयोंमें खरीदनेवाले भी हजारों ग्राहक मिलते परंतु हाय ! मेरा उतना भाग्य कहां ? जो वह फल मुझको मिलें ?. अस्तु, अब मैं इसे जंगलमेंसे ढूंढ निकालूं. कहीं न कहींसे वह छोटा घोडा हाथमें आ जायगा तो उसे खीला पीला कर मैं बडा बना लूंगा और मेरा मनोरथ पूर्ण हो जायगा. इस विचारसे वो मूर्ख सारे जंगलमें भटकता फिरता है. कोई उसकी वात्ताको सुन कर सत्यस्वरूप पा लेता है तो उसे समझाता है कि, अरे मूर्ख ! तूंने किसी धूर्तसे ठगा कर पांच सौ रुपयोंमें सैफ आठ आनेकी कीम्मतवाला कोल्हा ही लिया होगा और जिसे तूं घोडा समझता है वह खरगोश होना चाहिये. नाहक जंगलमें भटक भटक कर क्यों मरता है ?. इत्यादि अनेक प्रकारसे समझाने पर भी वह उस कोल्हको घोडेका अंडा और खरगोशको घोडा ही समझता रहा और समझानवालोंको असत्यवादी मानता रहा और सारी उमर भटक भटक कर मर गया.
महाशय ! जैसे उस मूढके मनमें शल्य भर गया, जिससे कोल्हाको अंडा और ससको घोडा मान लिया, तथा सत्यवादी जनोंको असत्यवादी और शाक बेचनेवाले उस असत्यवादी ठमको सत्यवादी समझता रहा, जिससे सारी उम्रके लिये दुःखो बन गया. बस, इसी तरह जिसके हृदयमें मिथ्यात्वशल्य भर गया हो उसकी भी ऐसी ही दशा होती है. जैसे उस दुर्भागी मनुष्यने अपनी मूर्खतासे उस कोल्हेको घोडेका अंडा समझा ऐसे ही मिथ्यात्वशल्यके कारण घनश्यामकी
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बुद्धिमें भी विषमता उत्पन्न होनेसे पवित्र चारित्रपात्रोंको भी होन चारित्रपात्र सिद्ध करनेकी उसने कोशीश की है. . ____ अच्छा ! अब यहां ही रखते हैं, आगेका बयान ज्ञानी दृष्टभाव हुआ तो कलरोज सुनानेमें आयगा.
“षष्ठ-दिवस."
छ । वे दिन सूरीश्वरजीने जिस समय अपनी नियNRN मित धार्मिक क्रियाओं करके निज स्थानको सुशोमित किया है उसी समय वह धर्मामृतका पिपासु गृहस्थ भी आ पहुंचा और आचार्य भगवान्को वंदन करके यथास्थान बैठा और पूज्यपाद महाराजने भी आपना वक्तव्य शुरू किया.
सूरश्विरजी-धर्मके अभिलाषी सद्गृहस्थ ! आगे तुमको ब्राह्मणोंकी स्वार्थवृत्तिके विषयमें सुनाया था, उसमें एक संख्याकी वृद्धि करनेवाला पाठ मत्स्यपुराणका भी सुनाता हं. देखो!.
मत्स्यपुराण-अध्याय १९१ पृष्ठ ७२२ वे में सूचित किया है कि" अनाथं दुर्गतं विमं, नाथवन्तमथापि वा । उद्वाहयति यस्तीर्थे, तस्य पुण्यफलं शृणु ॥ ३७ ॥ यावत्तद्रोमसंख्या च, तत्प्रसूति कुलेषु च । तापद्वर्ष सहस्राणि, शिवलोके महीयते ॥ ३८ ॥"
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(१५६) अर्थ-अनाथ गरीब ब्राह्मण तथा धनाढ्य ब्राह्मणको जो इस तीर्थ पर विवाह देता है, वह जितने उस ब्राह्मणके शरीर पर रोम होते हैं और उसकी संतान पर भी जितने रोम होते हैं. उतने ही हजार वर्ष तक शिवलोकमें वास करता है ॥ ३७-३८॥
क्या बात है ? जहां पर ऐसे स्वार्थीजन लेखक हो, वहां पर सत्यधर्म पर परदा डालनेमें आवेतो आश्चर्य ही क्या है ?. आगे मत्स्यपुराणके २३८ वे अध्यायमें देवताआको प्रसन्न रखनेके लिये पशु हिंसा करनेका जिकर है, सो युक्त नहीं है. क्यों कि, पशुहिंसा जैसे नीच कर्मसे देवता प्रसन्न हो यह युक्ति युक्त नहीं है. अस्तु. कदाचित् कोई नीच देवता प्रसन्न हो तो भी क्या ?. नोचकर्मसे तृप्त होनेवालोंको नीच कर्मसे भी तृप्त करना यह सत्य शास्त्रका कथन नहीं है, किन्तु बनावटी कल्पना जालसे भरे हुये कुशास्त्रोंका ही कथन मानना चाहिये. बस-ऐसे शास्त्रोंसे विमुख होकर न्याय शास्त्रसे प्रेम बद्ध होना यही मुक्तिका साधन है. मगर पूरी जांच किये वगैर किसी शास्त्रको न्यायी शास्त्र मान लेना यह भी भ्रम संसारको बढानेवाला है, मुक्तिमद किसी तरह नहीं सो खयाल रहै.
हिंसा एक नीचकर्म है जिसके करनेसे मनुष्य घातक आदि उपनामोंको धारण करता है. तो फिर परमात्मा हिंसक सिद्ध होवे ऐसे शास्त्रोरलेख सत्य किस तरह ठहर सकते हैं?. अगर शास्त्रोल्लेख सत्य ठहरे तो परमात्मा पामरात्मा
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ठहरता है. " इतो व्याघ्र इतस्तटी" जैसा जहां न्याय हो वहां कल्याण किस तरह हो सकता है?..
देखो मत्स्यपुराणके २४८ वे अध्यायमें जहां यही न्याय चरितार्थ होता है.
ब्रह्माजीके कथनसे दानवोंको साथ मिला कर देवताओंने समुद्रका मथन किया. इस काममें विष्णुजीने सहायता की. इस मथन क्रियासे हजारों ही हाथी वगैरह जानवरोंका नाश होता भया ऐसा जिकर है. इससे या तो मत्स्यपुराणको कुशास्त्र या कृष्णजीमें कुंदेवत्व दो बातोंमेंसे एक बात तो अवश्य कबूल करनी पडेगी.
मत्स्यपुराण अध्याय २५० वे में कृष्णजीने मोहिनी रूप बनाकर दैत्योंको ठगकर उनके पाससे अमृत लेकर देवताओंको पिलाया और युद्धमें सुदर्शनचक्र द्वारा हजारों दैत्योंका विनाश किया. इस तरह खून ठगाई वगैरा काम कृष्णजीको उच्च दर्जेवाला साबित नहीं होने देता. मला ! ये शास्त्र ही किस कामके ? जो लोगोंको अनीति सीखावे.
इस पुराणके २६० वे अध्यायमें वास्तुकी बलिमें मांस रुधिरका चढाना योग्य समझा गया है. क्या यह अनीति नहीं है ?
अध्याय १७ वें में श्रादमें मांस खानेका उल्लेख है. तथाहि" अनं तु सदधिक्षीरं, गोघृतं शर्करान्वितम् ।
मांसं प्रीणाति वै सर्वान् , पितृनित्याह केशवः ॥ ३०॥ . १ परमात्म पदका अभाव.
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(१९८) द्वौ मासा मत्स्यमांसेन, क्रिमासान् हारिणन तु औरभ्रेणाथ चतुरः, शाकुनेनाऽथ पंच वै ॥ ३१ ॥ षण्मासं छागमांसेन, तृप्यन्ति पितरस्तथा । पार्षतैः सप्त मासेन, तथाऽटावेणजेन तु ॥ ३२ ॥ दश मासांस्तु तृप्यंते, वराहमहिषामिषैः।। शशकूर्मजमांसेन, मासानेकादशैव तु ॥ ३३ ॥ संवत्सरं तु गव्येन, पयसा पायसेन च । रौरवेण च तृप्यन्ति, मासान् पंचदशैव तु ॥ ३४ ॥ व्याघ्रयाः सिंहस्य मांसेन, तृप्तिद्वादश वार्षिकी। कालशाकेन चानंता, खड्गमासेन चैव हि ॥ ३५ ॥ यत्किचिन् मधुसंमिश्र, गोक्षीरं घृतपायसम् ।
दत्तमक्षयमित्याहुः, पितरः पूर्वदेवताः ॥ ३६॥". ___ अर्थ- दही दुध घृत खांड इनोंसे युक्त अन्नका भोजन करानेसे पितर एक महिने तक तृप्त रहते हैं ॥ ३०॥ और मत्य मांससे दो महिने तक, हिरणके मांससे तीन महिने तक, मेढेके मांससे चार महिने तक, पक्षिओंके मांससे पांच महिने तक ॥ ३१ !! बकरके मांससे छः महिने तक और बिंदुओंवाले हिरणके मांससे सात महिने तक, एण संबक मृगके मांससे आठ महिने तक, सूअर असा इनके मांससे दश महिने तक, शशा कच्छुआ इनके मांससे ग्यारह महिने तक ॥३२.३३।। गोके दुध वा क्षीरके भोजनसे वर्ष दिन तक, रौरव संज्ञक हिरणके मांससे पंद्रह महिने तक ॥ ३४ ॥ मेंढा और सिंह इनके मांससे बारह वर्ष तक, कालशाक और गेंडके मांससे अनंत वर्षों त पितर तृप्त रहते हैं ॥ ३५ . और देवता
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(१९९) संज्ञक पितरोंका यह भी वचन है कि जो सहद-मध आदिक मिष्ट पदार्थसे बने हुए पदार्थ है, उनसे वा गौके दुध और उसी दुधकी तस्मै-रवीरके भोजन कराता है वह उसके पितरोंको अक्षय गुण होकर प्राप्त होता है. ॥ ३६॥
. इस प्रकार उपरोक्त भावार्थवाले श्लोकोंके शिक्षणमें जरा भी धार्मिक शिक्षणका अंश होवे ऐसा कौन सहृदय स्वीकार कर सकेगा ?. ... कौशिक ऋषिके सात पुत्रोंने गौको मार कर खा लिया
और गुरुके पास झूठ बोले कि, गौको व्याघ्र - भक्षण कर गया. ऐसा जिकर हम आगे लिख चुके हैं, सो ही जिकर इस पुराणके २० वे अध्यायमें आता है. ... विष्णुपुराण चतुर्थाश दूसरे अध्यायके चौथे पत्र पर
वर्णन है कि... मनुको छींक आई और उसकी नाशिकामेंसे 'इक्ष्वाकु' नामका पुत्र उत्पन्न हुआ. " क्या इस बातको कोई मान सकता है कि छींक आनेसे नाशिकामेंसे लड़का गिरे ?. हां, श्लेष्म जरूर गिरा होगा.. ... आगे यहहाल है कि उस इक्ष्वाकुने अपने ' विकुक्षी' नामा पुत्रके पास अष्टका श्राद्धके लिये मांसकी जरूरत बतलाई तब उसने वनमें जाकर अनेक मृगादि जानवरोंको जानसे मार डाला. ... ' अब विचारना चाहिये कि इस प्रकारके श्राद्धके बोधक शास्त्र मांसाहारीओंके बनाये हुए क्या नहीं सिद्ध होते?, और इन बातोंमें धर्मका होना क्या बन सकता है?, कहना ही
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(१७०) होगा कि, नहीं ! नहीं ! !. इन बातोंका करना तो महाअधर्म है ही है मगर इन बातोंकों सत्य मानना भी पापके लिये होता है.
विष्णुपुराण अंश ४ अध्याय १३ के २८ वे पृष्ठ पर 'स्यमंतकमणि' के लिये कृष्णजीने शतधन्वाको जानसे मार डाला. जिस बातका उल्लेख प्रथम लिख चुके हैं सो ही विषय है. मात्र इतना ही फर्क है कि, कृष्णजीने जब बलभद्रजीको कहा कि शतधन्वाको मारा मगर मणि उसके पास नहीं निकली. तब बलभद्र समझे कि, कृष्ण मणिके लोभसे मेरे पास झूठ बोलते हैं। इस वास्ते उनका भाईसे वैमनस्य हो गया. कृष्णजीने सोगन खाया मगर उनोने नहीं माना और विदेहपुरीमें चले गये और श्रीकृष्णद्वारकामें आ गये.
विष्णुपुराण अंश ४ अध्याय १९ के ३७ वे पत्रमें कथन है कि
सुंदर अप्सराओंको देख कर सत्यधृतिका वीर्य निकल पडा और सरकने पर पडनेसे आधा एक तरफ और आधा एक तरफ हो गया. एक तरफके वीर्यसे लडका उप्तन्न हुआ
और दूसरी तरफके वीर्यसे लडकी उप्तन्न हुई. उस समय शांतनु शिकार करनेको आया था सो इन दोनोंको दया करके ले गया. लडके का नाम 'कृप' और लडकीका नाम 'कृपी' रक्खा. मो द्रोणाचार्यकी स्त्री और अश्वत्थामाकी माता होती हुई. देखो ! कैसी असत्य कल्पना है!. ऐसी कपोल कल्पनाको बतानेवाले शास्त्र धर्मके रहस्यको किसी तरह प्रकाशित नहीं कर सकते हैं. अतः इन बनावटी शास्त्रोंको जलांजलि देकर सत्यशास्त्रोंकी तरफ झुक जाना चाहिये.
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, विष्णुपुराण अश ५ अध्याय १० के २० वे पत्रश्रीकृष्णने ब्रजवासीओंको गोवर्धन पर्वतका यज्ञ पूजन कर नेका उपदेश किया है" तस्मागोवर्धनः शैलो, भवद्भिर्विविधाहणैः । अर्ग्यतां पूज्यतां मेध्यं, पशुं हत्वा विधानतः ॥ ३८ ॥"
भावार्थ-इस लिये विविध प्रकारकी सामग्रीसे गोवर्द्धन पर्वतका अर्चन करो और पशुको मार कर उस पर्वतकी पूजा करो ॥ ३८ ॥ " तथा च कृतवन्तस्ते, गिरियनं व्रजौकसः ।
दधिपायसमांसाद्यैः, ददुः शैवबलिं ततः ॥ ४४ ॥ द्विजाँश्च भोजयामासुः, शतशोऽथ सहस्रशः।"
भावार्थ-कृष्णजीके उपदेशको मान कर ब्रजवासीओंने दहि दुध मांस आदि पदार्थोंसे शैल-पर्वतको बली दी ॥४४॥ और सैंकडों हज़ारों ब्राह्मणोंको भोजन कराया ।
इस उपरके श्लोकोंसे सिद्ध हो गया कि, दुध दही तथा पशुको मार कर उसके मांससे गोवर्धन पर्वतका पूजन करनेका उपदेश देनेवाले कृष्णजीमें दयाका अभाव था, अन्यथा ऐसा उपदेश कभी नहीं देते और जिन सैंकडो. हजारों ब्राह्मणोंने वहां पर भोजन जिमा उनको भी महाकठोर हृदयवाला कहना चाहिये. उन कठोर हृदयोंसे प्रगट हुए शास्त्र दया भावका पोषण करे यह सर्वथा ही असंभाव्य है. . .
विष्णुपुराण पांचवे अंशके २३ वे अध्यायमें महादेवजीका कृष्णजीकी साथ युद्ध हुआ जिसमें महादेवजी हार
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( १७२ )
गए. कृष्णजीने महादेवजीके भक्त बाणासुरको सुदर्शनचक्रसे परलोकमें पहुंचाने का इरादा किया, तब महादेवजीने कृष्णजी की स्तुति की तब प्रसन्न वदन कृष्णजीने उसको छोड दिया. यह वर्णन लड़कोंके खेल जैसा है. जैसे लडके खेलमें एक राजा बनता है तो दूसरा कैदी और किसी समय कैदी राजा बनता है और राजा कैदी; ऐसा ही हाल हिंदु पौराणिक देवोंका है. अथवा नाटकीयोंकी दशा जैसी इनके अवतारोंकी दशा है. शिवपुराणमें कृष्णजीने शिवजीकी स्तुति की और उसे प्रसन्न किया. यहां पर महादेवजीने कृष्णजीकी स्तुति की और इन्हें प्रसन्न बनाया. इस प्रकार पारस्परिक असामर्थ्य दिखलानेसे दोनोंमेसे परमात्मपना नाबुद होता है. इतना ही नाहीं परंतु इन शास्त्रोंकी परस्पर विरुद्धता इन शास्त्रोंको कुशास्त्रकी कोटिमें स्थापन करती है.
विष्णुपुराणके पूर्व अंशके ३४ वे अध्यायमें - कृष्णजीने सुदर्शन चक्र से काशीपुरको भस्म कर डाला.
अब यहां विचारना चाहिये कि, निरापराधी हजारों नर नारीएं तथा हस्ति अश्वादि संख्यातीत जानवरोंका नाहक • विनाश करनेवाले कृष्णजीको कौन अकलमंद अच्छे आदमी
में सुमार कर सकता है; जब तक कि यह शास्त्र असत्य है ऐसा कहने में न आवे.
तथा इसी अध्याय से महादेवजी की पूर्ण अनभिज्ञता साबित होती है. क्यों कि, काशीराजाका मस्तक श्रीकृष्णने काट डाला ऐसा मालूम होनेसे काशीराजाके पुत्रको बडा भारी कोध चहा और शंकरकी आराधना की, जिससे
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शंकर उस काशीराजाके पुत्र पर प्रसन्न होकर कहने लगे.. वर मांग. उस राजकुंवरने वर मांगा कि, मेरे पिताको मारनेवाले जो श्रीकृष्ण है उसका वध करनेके वास्ते यह 'कृत्या' आपके प्रसादसे उठो शंकरने कहा ऐसा ही होगा. ऐसा कहनसे वो कृत्या अग्निरूप उठ कर कृष्ण कृष्ण बोलती हुई कृष्णको भस्म करनेके लिये द्वारकामें पहुंची. द्वारकावासी लोग घबराकर श्रीकृष्णके शरणमें गए. उसी वख्त श्रीकृष्णने सुदर्शन चक्र उस शंकरकी कृत्या उपर फेंका, उसी वख्त वो कृत्या वहांसे पीछेको भागी; और काशीपुरीमें दाखिल हो गई. सुदर्शनचक्र भी. उसकी पीछे लगा हुआ गया; तब काशीराजाका सैन्य तथा महादेवजीका प्रमथ गण भीजो शास्त्रास्त्र छोडनेमें बडा चतुर था-बो सुदर्शनचक्रको पीछा हटानेके लिये सामने आया; परन्तु अग्निकी ज्वाला.
ओंसे जटिल उस सुदर्शनचक्रने काशीराजाके सैन्यको तथा महादेवजीके प्रमथ गणको भी भस्म कर डाला.
इस पूर्वोक्त उल्लेखसे विदित होता है कि, महादेवजी अनभिज्ञ थे. अन्यथा जान लेते कि, कृत्यासे श्रीकृष्णका वध नहीं होगा; बल्के कृत्याको नाश करनेके वास्ते श्रीकृष्ण चक्र चलावेगा उसके डरसे भाग कर कृत्या काशीपुरीमें घुस जायगी और चक्र आकर मेरे प्रथम गण समेत काशीको भस्म करेगा और मेरा दिया हुआ वर भी झूठा हो जायगा. ऐसा नहीं जाना और काशीराजपुत्रको वर दे दिया इससे साफ साबित हुआ कि, शंकर पूरे अनभिज्ञ थे. ऐसे अनभिज्ञ
और दया शून्योंकों ये लोग परमात्मा किस तरह कह सकते हैं ?. इसका सत्य उत्तर उन लोगोंका अंतगत्मा देवे और ये
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(१७४ )
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लोग सच्चे स्वरूपको समझ लेवे बस हमारा यही इरादा है. बाकी हमको किसी तरहका द्वेष भाव नहीं हैं. हम मानते हैं कि, कृष्णजी के बारेमें जैसा इन्होंने लिखा है वैसे काम उन्होने नहीं किये हैं. वे ऐसे न्यायी राजा थे कि, जिन्होंने देवके साथ अधम युद्ध करने का भी साफ इन्कार किया था सो बात जैन दृष्टिसे कृष्णजीकी स्थितिका विचार करनेवालेकों ज्ञात हो सकती हैं और उनके वासुदेव पदके खयाल आनेसे भावी स्थितिका आरोप वर्त्तमानमें करने से हट सकते हैं परन्तु इस विषयकी सत्य हकीकत जाननेके लिये मध्यस्थ भाव से बहुत जैनशास्त्रों के अवलोकनकी तथा अनेक तत्त्वज्ञ महाशयोंकी बार बार मुलाकात की खास जरूरत हैं. परन्तु यह याद रहै कि, स्वार्थी ब्राह्मण लोगोंको मालूम न नहीं तो जैनधर्म जैनगुरु और जैनदेवके विषयमें द्वेषके सुनायेंगे कि, जिसका हिसाब न रहेगा. क्यों कि जैनियोंके परिचय में आया हुआ एकदम समझ जाता है कि, अमुक २ बातें स्वार्थियोंने दाखल की है और इस समझसे उन लोगोंका नुकसान होता है. अतः वे अनेक तरहसे प्रपंचोंसे भी अपने अनुयायियों को अपनी जालसे नहीं छुटने देंगे; यह खास अनुभवकी बात है. देखो इनके स्वार्थका नमुना
हो.
मारे इतने बुरे शब्द
मनुस्मृति प्रथम अध्याय पृष्ठ ३८ वा में लिखा है कि
" यस्यास्येन सदाश्नन्ति हव्यानि त्रिदिवौकसः । कव्यानि चैव पितरः, किंम्भूतमधिकं ततः ॥ ९५ ॥"
भावार्थ -- जिस ब्राह्मणके मुखमें बैठ कर देवता हव्य
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(१७५)
और पितर कव्य सदैव खाते हैं उससे अधिक प्राणी कौन
" भूतानां प्राणिनः श्रेष्ठाः, प्राणिनां बुद्धिजीविनः । बुद्धिमत्सु नराः श्रेष्ठा, नरेषु ब्राह्मणाः स्मृताः ॥ ९६ ॥"
भावार्थ-थावर जंगमोंमे प्राणवाले और प्राणवालोंमें बुद्धिवाले और बुद्धिवालोंमें मनुष्य और मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ है ॥ ९६ ॥ . . . " विद्वाँस्तु ब्राह्मणो दृष्ट्वा, पूर्वोपनिहितं निधिम् । अशेषतोप्याददीत, सर्वस्याधिपतिहि सः ॥ ३७ ॥
म० अ० ८ अर्थ-विद्वान् ब्राह्मण तो किसीकी रक्खी हुई निधिको देख कर सबको ग्रहण कर ले. क्यों कि वह विद्वान् ब्राह्मण सबका प्रभु है ॥ ३७॥ " यं तु पश्यनिधि राजा, पुराणं निहितं क्षितौ ।। तस्माद द्विजेभ्यो दत्त्वाई-मई कोशे प्रवेशयेत् ॥ ३८ ॥"
भावार्थ-पृथ्वीमें गड़ी हुई पुराणी निधिको राजा देखे. अर्थात् राजाको मिले उस निधिर्मसे आधा धन ब्राह्मणको दे कर आधा अपने कोशमें रख दे ॥ ३८ ॥
देखा? इन उपरके श्लोकोंमें ब्राह्मण लोगोंने अपने स्वार्थकी किस कदर पुष्टि की है ?. " मौण्ड्यं प्राणान्तिको दण्डो, ब्रामणस्य विधीयते । इतरेषां तु वर्णानां, दण्डः प्राणान्तिको भवेत् ॥१३९॥"
में अ-८॥
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- भावार्थ-ब्राह्मणका प्राणांतिक दंड मुंडन ही शास्त्रमें कहा है और ब्राह्मणसे इतर तीनों वर्गों का प्राणांति-मारण ही दंड होता है ।। ३७९॥ . ___ मतलब यह कि, चाहे ऐसा अपराध ब्राह्मण कर लेवे तो भी उसको फांसी या मूली आदि साधनोंसे प्राणांतिक दंड देना उचित नहीं किंतु सिर्फ उसका सिर मुंडवाना यही उत्कृष्ट दंड है. बाकी अन्य तीन कोमोंको अपराधकी विशेष तामें प्राणांतिक दंड भी हो सकता है. क्या यह ब्राह्मणशाही नहीं है ?. " न जातु ब्राह्मणं हन्यात्, सर्वपापेष्वपि स्थितम् । राष्ट्रादेनं बहिष्कुर्यात् , समग्रधनमक्षतम्॥३८०॥"
म-अ-८॥ भावार्थ-संपूर्ण पापोंमें स्थित भी ब्राह्मणको कदाचित् न मारे किंतु संपूर्ण धन सरित और देहमें घावोंसे रहित इस पापी ब्राह्मणको राजा देशसे बहार निकाल दे ॥ ३८० ॥ " न ब्राह्मणवधाद् भूया-नधर्मो विद्यते भुवि । तस्मादस्य वधं राजा, मनसापि न चिन्तयेत् ॥३८१॥"
म-अ-८॥ भावार्थ-ब्राह्मणक वधसे अधिक अधर्म पृथ्वी पर नहीं है. तिससे संपूर्णपापोंके करनेवाले भी ब्राह्मणके वधकी चिंता राजा मनसे भी न करे ॥ ३८१ ॥ " पुत्रेण लोकाञ्जयति, पौत्रेणानंत्यमश्रुते। अथ पुत्रस्य पौत्रेण, अध्नस्यामोति विष्टपम् ।। १३७॥"
म-अ--९॥
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( १७७) इस उपरके श्लोकमें अपना स्वार्थ साधनेके लिये प्रामगोंने मृषोक्ति लगाई है. स्वार्थ यह कि, इस श्लोकको सुन कर दुनियांके लोग विवाह करेंगे तब लग्न कराती वख्त तथा सीमंत वख्त पैदाश होगी और जिमन भी मिलता रहेगा, फिर लडका लडकीका जन्म होगा उस वख्त भी ब्राह्मणोंको पैदाश होगी तिसके बाद उन लडके लडकियोंकी सगाई--नाता तथा विवाह में भी लाभ होता रहेगा. इत्यादि स्वार्थ साधनेके वास्ते ही उन्होंने ऐसे श्लोक बना लिये हैं. इतना ही नहीं किन्तु मरे बाद लडके होंगे तो अपने माता पिता दादा आदिका श्राद्ध करेंगे तब भी हम' ब्राह्मणोंको मिष्टान्नका जिमन तथा दक्षणा मिलेगी " कितवान् कुशीलवान् कुरान्, पाषण्ड स्याँश्च मानवान् । विकर्मस्थान् शौण्डिकाँश्च, क्षिप्रं निर्वासयेत् पुरात् ॥२२५॥"
म-अ-९॥ भावार्थ-द्यूत आदि करनेवाले कितव नर्तक और गानेवाले क्रूर और पाखंडी, वेदके विरोधी, विकर्ममें स्थित -अर्थात् श्रुति और स्मृतिसे बाह्य व्रतके धारी और शौडिक- मद्यप, इन सबको राजा अपने पुरसे निकास दे ॥ २२५ ।।
यहां पर जूआरी आदिकको नगरसे निकालना लिखासो ठीक है परन्तु यह जो लिखा है कि, वेदके विरोधी और श्रुति स्मृतिसे बाह्य व्रतके धारीको भी पुरमेंसे राजा निकास दे सो कथन पक्षपातसे भरा हुआ है. कारण कि, वेद स्मृति और पुराणोंमें लिखे मूजब पशु और पक्षियोंको मारके देवताओंका पूजन करनेवाले तथा श्राद्ध करके मांसका भक्षण करनेवाले
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(१७८) जिन पाप शास्त्रोंसे बन सकते हैं उन शास्त्रोंके मानने वालोंको तो देशसे वा नगरसे बाहर नहीं निकालना और इन पूर्वोक्त शास्त्रोंको नहीं माननेवाले धर्मात्मा दयालुजनोंको पुरसे या देशसे बहार निकास दे यह महा दुःखदायी क्रूरतासे परिपूर्ण स्वार्थसाधक पक्षपात नहीं तो और क्या है?. " परामप्यापदं प्राप्तो, ब्राह्मणान्न प्रकोपयेत् । ते ह्येनं कुपिता हन्युः, सद्यः सबलवाहनम् ॥ ३१३ ॥ यैः कृतः सर्वभक्ष्योऽग्नि-रपेयश्च महोदधिः । क्षयो चाप्यायितः सोमः, को न नश्येत् प्रकोप्य तान् ॥३१॥
भावार्थ-परम आपदाको प्राप्त हुआ भी ब्राह्मणको कोपायमान न करे. क्यों कि, कुपित हुए ब्राह्मण बल वाह. नके साथ इसका नाश करे. जिन्होंने अग्निको सर्व भक्षी और समुद्रको अपेय और चंद्रमाको हानि वृद्धिवाला बनाया है, उनको कोपायमान करके नाशको कौन नहीं प्राप्त होता ? ॥ ! ३१३-३१४ ॥
देखिये ! कुद्रतसे अग्निका सर्वभक्षी यानि सर्वको भस्म कर देना और समुद्रका क्षारके कारन अपेय होना, चन्द्रमाका द्रव्य संयोग वश न्यूनाधिक्य होना अनादि सिद्ध स्वभाव है सो ब्राह्मणोंने किया है लिखना कितना मृषावाद है ?. और इस लिये इनसे डरना; वे चाहे इतनी कठोरता करे मगर उनको कोपायमान नहीं करना, अगर किया तो सत्यानाश कर डालेंगे ये बातें अपनी सत्ताको सार्वभौम बनानेके लिये हो. दक्ष भूदेवोंने मनःकल्पित बना ली हैं. यह जरा भी अकल
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रखनेवाला मध्यस्थ मनुष्य समझ सके ऐसा विषय है इस लिये नहीं लंबाया जाता और इसी प्रकारके इसके साथ दो श्लोक और ब्राह्मणी सत्ताके स्थापक हैं सो अकलमंदको ईशारा काफी समझ कर नहीं लिये जाते.
श्रावक-महाराजा ! अगर वो लोग ऐसा कहे कि, जैसे कोई ऋषि तपस्वी महात्मा पूज्य होता है और उसको कोपायमान करनेवाला दुःखी हो जाता है. इसी तरह अच्छे कर्म करनेवाले ब्राह्मणोंको पूज्य माना जावे और उनको कोपित करनेसे नुकसान होवे तो उसमें आश्चर्य क्या?.
सूरीश्वरजी-नहीं नहीं, ऐसा ही नहीं है, किन्तु मूर्ख तथा चाहे ऐसे पतित ब्राह्मणको भी पूज्य समझना चाहिये-यही इन लोगोंका मतलब है. साक्षीके लिये नीचेके श्लोकोंका अवलोकन करो. " अविद्वांश्चैव विहाँश्च, ब्राह्मणो दैवतं महत् ।
प्रणोतश्चाप्रणीतश्च, यथाग्निर्दैवतं महत् ॥ ३१७ ॥ स्मशानेष्वपि तेजस्वी, पावको नैव दुध्यति । हृयमानश्च यज्ञेषु, भूय एवाभिवर्द्धते ॥ ३१८ ॥ एवं यद्यप्यनिष्टेषु, वर्त्तन्ते सर्वकर्मसु । सर्वथा ब्राह्मणाः पूज्याः , परमं दैवतं हि तत् ॥ ३१९॥"
भावार्थ-शास्त्रोक्त विधिसे स्थापन की हुई वा नहीं स्थापन की हुई अग्नि जैसे महान् देवता होती है. इसो प्रकार मूर्ख और पंडित ब्राह्मण भो परम देवतारूप होता है ( इससे किसी प्रकारके ब्राह्मणका भी अपमान न करे) ॥ ३१७ ।।
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(१८०) तेजस्वो अरिन स्मशानमें मुर्देकी दहन क्रिया करता हुआ भी दूषित नहीं होता किन्तु यज्ञमें बुलाया हुआ भी बढता है ॥३१८ ॥ इसतरह यद्यपि ब्राह्मण सर्व कुत्सित कौंको चाहे करें तथापि सब प्रकारसे पूजने योग्य हैं. क्यों कि वे ब्राह्मण परमदेवता रूप हैं । ३१९॥ " दत्त्वा धनं तु विप्रेभ्यः, सर्व दण्डसमुत्थितम् ।। पुत्रे राज्यं समासृज्य, कुर्वांत प्रायणं रणे ॥ ३२३ ॥"
भावार्थ-जिस समय राजाको उत्तम ज्ञान हो अथवा चिकित्साके अयोग्य व्याधि हो जाय उस समय मृत्युको समीप देख कर महापातकीक दंडसे भिन्न जो संपूर्ण दंडका धन होउसको ब्राह्मणोंको अर्पण करके और पुत्रको राज्यकारभार देकर उत्तम फलकी प्राप्तिके लिये संग्राममें अपने प्राणोंका त्याग राजा करे. यदि संग्राम न होय तो भोजनको त्याग कर प्राणोंको त्यागे ॥ ३२३ ॥ ___ 'इस श्लोकमें दंडका सर्व धन ब्राह्मणको देकर प्राणका त्याग करे. बस-यही विचारणीय विषय है कि स्वार्थका कुछ पारवार है ?. ____ इन ग्रंथोंका मध्यस्थ भावसे विचार करते हैं तो मालूम होता है कि, इनके रचयिताने अकलसे काम नहीं लिया है. पुरावेमें नीचेके श्लोक देखो" हत्वा लोकानपीमास्त्री-नश्ननपि यतस्ततः । ऋग्वेदं धारयन् विप्रो, दैनः प्रामोति किंचन ॥२६॥"
म-अ-११॥
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भावार्थ-इन तीन लोकोंका विनाश करके और जिस किसीके अनको खाता हुआ भी ऋग्वेदको धारण करता ब्राह्मण जरा भी पापसे लिप्त नहीं होता है ।। २६१ ॥
जहां पर ऐसे ही पापका नाश होना लिखा हो या नया पाप नहीं लगनेका जिकर हो वहां ही अनेक तरहके पापका प्रचार होता है. जैसे कि" पितॄणां मासिकं श्राद्ध-मन्वाहार्य विदुर्बुधाः । तच्चामिषण कर्तव्यं, प्रशस्तेन समंततः ॥१२३॥"
म-अ-३॥ भावार्थ-पितरोंके मासिक श्राद्धको पंडित जन अन्वहार्य जानते हैं अर्थात्-कहते हैं. इस श्राद्धको सब प्रकारसे
श्रेष्ठ मांससे करना ।। १२३ ॥ __आगे तिसरे अध्यायके २६७ वे श्लोकसे २७२ वे श्लोक तक किस जातिके जानवरोंके मांससे पितर कितने पहिने तक तृप्त होते हैं और किस जातिसे कितने वर्ष तक, सो पाठ मत्स्यपुराणमें आगे लिख आये हैं उस पाठसे मिलता झुलता है इस लिये नहीं लिखा जाता. १-" तिलै/हियवैर्मासै-रद्भिर्मूलफलेन वा ।
दत्तेन मासं तृप्यन्ति, विधिवत् पितरो नृणाम् ॥ २६७ ॥ द्वौ मासौ मत्स्यमांसेन, त्रिमासान् हारिणेन तु ।
औरभ्रणाथ चतुरः, शाकुनेनाथ पंच वै ॥२६८ ॥ . षण्मासैश्छागमांसेन, पार्षतेन च सप्त वै। अष्टावेणस्य मांसेन, रौरवेण नवैव तु ॥२६९ ॥
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(१८२)
" श्वाविध शल्यकं गोधां, खड्गकूर्मशशास्तथा । भक्ष्यान् पंचनखेष्वाहु-रनुष्ट्रां श्चैकतोदतः ॥ १८॥"
म-अ-६॥ भावार्थ- श्वाविध (सेह ) शल्य सेहकी तुल्य बडे बडे रोमवाला गोधा गेंडा कच्छप और शशा पंच नखोंमें ये पांच, और उंटको छोड कर एक ओर ( तरफ ) दांतवाले भक्षणके योग्य मनुजीने कहे हैं ! १८॥ .
इस उपरके लेखसे मनुस्मृतिको धर्मशास्त्र और उसके कत्ताको धार्मिक मनुष्य कहना पापको पुण्य मानने जैसा है. क्यों कि, जो शास्त्र इन उपरोक्त पंच नखवाले तथा एक तरफ दंतवाले जानवरोंको खाने लायक बतलावे, उससे ज्यादह और पापशास्त्र क्या होगा?. तथा ऐसे शास्त्रके रचनेवालेसे और ज्यादह अधर्मी किसे कह सकते हैं ? ; सो बात अच्छी तरहसे समझमें आवे ऐसी है. नीचेका उल्लेख भी इसी बातको सिद्ध करता है. " यज्ञार्थ ब्राह्मणैवंध्याः, प्रशस्ता मृगपक्षिणः । भत्यानां चैव वृत्त्यर्थ-मगस्त्यो ह्यचरत् पुरा ॥ २२ ।। बभूवुर्हि पुरोडासा, भक्ष्याणां मृगपक्षिणाम् । पुराणेष्वपि यज्ञेषु, ब्रह्मक्षत्रसवेषु च ॥ २३ ॥"
दश मासांस्तु तृप्यन्ति, वराहमहिषामिषैः । " शशकूर्मयोस्तु मांसेन, मासानेकादशैव तु ॥२७० । संवत्सरं तु गव्येन, पयसा पायसेन च । ' वार्कीणसस्य मांसेन, तृप्तिादशवार्षिकी ॥२७१ ।। कालशाकं महाशल्का-खड्गलोहामिषं मधु । . आनन्त्ययैव कल्प्यन्ते, मुन्यन्नानि च सर्वशः ॥ २७२ ॥ "
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(१४३) भावार्थ-ब्राह्मणोंको यज्ञके लिये और पालन करने योग्य माता पिता आदिकी पालना करनेके लिये प्रशस्त (शास्त्रोक्त ) मृग और पक्षी मारने योग्य हैं. क्यों कि अगस्त्य मुनिने पहिले ऐसे ही किया है ॥ २२ ॥ पहिले भी ऋषियोंके किये यज्ञोंमें और ब्राह्मण और क्षत्रियोंके यज्ञोंमें शास्त्रोक्त मृग और पक्षियों के मांससे - 'पुरोडास' हुए हैं. इससे आधुनिक मनुष्य भी. यज्ञके लिये प्रशस्त मृग. और पक्षियोंको मारें ॥ २३ ॥ ____आगे चल कर ऐसे श्लोक लिखे है कि, जो एक आर्य मनुष्यके मुंहसे निकले हो ऐसी संभावना करनेसे भी दिल संकुचित होता है. "प्राणस्यानमिदं सर्व, प्रजापतिरकल्पयत्।। स्थावरं जगमं चैव, सर्व प्राणस्य भोजनम् ॥ २८ ॥ . चराणामन्नमचरा, दंष्ट्रिणामप्य दंष्ट्रिण । अहस्ताश्च सहस्तानां, शूराणां चैव भीरवः ।। २९ ॥ नात्ता दुष्यत्यदन्नाद्यान्, प्राणिनोऽहन्यहन्यपि । धात्रैव सृष्टा ह्याद्याच, प्राणिनोऽत्तार एव च ॥ ३० ॥"
म-अ-५।। भावार्थ-ब्रह्माने यह संपूर्ण प्राण (जीव ) का अन्न रचा है स्थावर व्रीहि आदि और जंगम पशु आदि, संपूर्ण प्राणीका ही भोजन है. अर्थात्-पाणकी रक्षाके निमित्त ही भक्षण करे सर्वदा नहीं ॥ २८ ॥ चरों (मृगादिकों) का अन्न अचर (तृणादि ) हैं और दंष्ट्रावाले व्याघ्रादिकोंका अन्न विना दंष्टावाले मृगादिक है, और हाथवालं मनुष्यादि
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(१८४) कोंका अन्न विना हाथवाले मत्स्यादिक हैं. और शूरवीर ( पराक्रमी ) सिंहादिकोंके अन्न भीरु हाथी आदि है. अर्थात् एकका एक भक्ष्य है ॥ २९ ॥ खानेवाला मनुष्य खाने योग्य पाणियाँको खाता हुआ दूषित नहीं होता. क्यों कि खानेवाले सब प्राणी ब्रह्माने ही रचे हैं ॥ ३० ॥
ऐसे अनार्यों जैसा कथन करनेवाले कुशाखों पर चलने. वालोंको देख कर हमको दया आती है कि, इन विचारोंकी बुद्धि पर पड़ा हुआ पड़दा कब खुलेगा ? और भव भ्रमणाके मिटानेवाले वीतराग प्ररूपित सत्यशास्त्रके तत्त्वज्ञान रूप ज्योतिःके दर्शन कब करेंगे.
" कृत्वा स्वयं वाप्युत्पाद्य, परोपकृतमेव वा । - देवान पितॄश्चार्चयित्वा, खादन् मांसं न दुष्यति ॥३२॥"
.
भावार्थ-मांसको मोल लेकर वा स्वयं पैदा करके अथवा किसीने आन कर दिया हो अथवा देवता और पितर . इनको पूजन करके मांसको खाता हुआ मनुष्य दोषका भागी नहीं होता है ॥ ३२ ॥ ____ आगे चल कर अविधिसे मांसका निषेध किया है
और धर्मबुद्धिसे खाना लिखा है. सो भी महा अज्ञानताको सिद्ध करता है. कभी पापके उदयसे पापी मनुष्य मांस खाता हो तो भी कोई सज्जन कहता है कि यह तूं ठीक नहीं करता, तब वह कहता है यह बात ठीक है, मैं पापोदयसे महा अधर्मका काम करता हूं; मेरा बुरा हाल होगा मगर क्या करूं ? वह पाप मेरेसे नहीं छूटता. इस तरहसे पश्चात्ताप
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(१८५)
सूचक जवाब देता है. इस तरह पापको बूरा मानना यह बात कथंचित् सद्गुण रूप है. वो भी सद्गुण वैदिक रीतिसे प्राप्त नहीं हो सकता. क्यों कि विधिसे मांसभक्षण करनेवाले .: कभी उस कर्मका पश्चाताप नहीं कर सकते. अरे ! पश्चात्ताप तो दूर रहा किंतु उस नीचकर्म में भी धर्मका ढोंग रखनेसे अधमकर्मको उपार्जन करते हैं. धर्मढोंग भी कहां तक लिखें १. देखो उसका नमूना -
""
.
नियुक्तस्तु यथान्यायं, मांसं नात्ति हि मानवः । समेत्य पशुतां याति संभवान् एकविंशतिम् ॥ ३५ ॥”
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म- अ -५ ।
भावार्थ - श्राद्ध और मधुपर्क में शास्त्रमर्यादानुकूल जुडा हुआ जो मनुष्य मांसको नहीं खाता वो मर मर कर एकवीस जन्म तक पशु होता है ॥ ३५ ॥
देखा ? मांस न खावे तो २१ वार पशु होवे.
जुल्म, जब घोरपापका उदय हो तत्र ऐसी पापमय प्रवृत्तिमें श्रद्धा होती है; प्रत्यक्षतया प्रतीत होता है कि. दुराचारी मांसाहारी विद्वानों सिवाय ऐसी बातें सदाचारीसे कैसे लिखी जा सकती हैं. अपने दुराचारोंको छिपानेके लिये कितनेक दांभिकोंने धर्मके नामसे ये ढोंग चलाये हैं; तथापि इन बातोंवाले शास्त्रोंको सत्य मानना सिवाय मोहोदय के नहीं बन सकता. इस विषयकी पुष्टिमें जो श्लोक हैं सो भी युक्तिशून्य मालूम होते हैं. जैसे कि
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यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयम्भुवा ।
"
यज्ञस्य भूत्यै सर्वस्य तस्मात् यज्ञे वधोऽवधः ॥ ३९ ॥
२४
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( १८६ )
औषध्यः पशवो वृक्षा - स्तिर्यचः पक्षिणस्तथा । यज्ञार्थं निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युत्मृतीः पुनः ॥ ४० ॥
म-अ-५ ।
"
भावार्थ - ब्रह्माने स्वयं ही यज्ञके लिये और संपूर्ण सिद्धि के निमित्त पशु रचे हैं, तिससे यज्ञके विषे जो वध है वह वध नहीं है ||३५|| यज्ञके लिये नाशको प्राप्त हुई व्रीहि आदि औषधि पशु वृक्ष कूर्म आदि तिर्यग्जीव और कपिंजल आदि पक्षी फिर भी जन्ममें उत्तम जन्मको प्राप्त होते हैं ॥ ४० ॥ यज्ञमें मरने से ही मरनेवालेका उत्तम जन्म- स्वर्ग होता हैं' इस कथनमें और ' अग्नि शीतल है ' इस कथनमें कुछ भेद नहीं हैं. अर्थात् - यह कथन युक्ति शून्य है. कोई भी बुद्धिशाली इस बातको कबूल नहीं कर सकता है कि, किसीको किसी स्थानमें मरने मात्र से स्वर्गकी प्राप्ति हो जावे. स्वर्ग प्राप्ति तो उच्चकर्म करनेसे है न कि मरने से.
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हाँ, यज्ञमें मरे हुए पशु महाआर्त्त रौद्र ध्यानके वश हो कर दुर्गतिको प्राप्त करें यह तो संभव है.
श्रावक - साहिब ! अगर वे लोग ऐसा कहे कि, यज्ञमें मंत्र संस्कारसे वध्यप्राणियोंको तकलीफ नहीं होती और उच्चगतिको चले जाते हैं, तो इसका क्या उत्तर १.
सूरीश्वरजी - भाई ! उन जीवोंको दुःख नहीं होता तो यज्ञमें मरते वरून महा आराटि मार मार कर रुदन क्यों करते हैं ? जब वे तो दुःखकी अंदर गरकाव हो रहे हैं फिर विना परिणाम शुद्धिके आर्त्त प्राणी कैसे अच्छी गति पा सकते हैं ?. हां, अगर मरनेवालोंमें वैर भावना न रहे और धार्मिक वृत्ति
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( १८७) उत्पन्न हो जावे तब तो कुछ अच्छी गतिक चिह्न भी कहे जावे मगर यह बात युक्तिसहित विचारमें आकाश कुसुम जैसी भासती है. अतः कोई भी मध्यस्थ इस बातको कबूल नही कर सकता. अगर वैदिक ऋषियोंके मनमें भी इस बातका सन्देह नहीं था, तो फिर केवल अपने माता पिता पुत्र परिवारके यज्ञका विधान क्यों नहीं किया?.बिचारे गरीब जानवरोका होम ही सस्ता देखा ?.
कितनेक बेसमझ ऐसे कह देते हैं कि, जिस युगमें यज्ञमें जीवोंको मारते थे, उस युगमें उनको जीला देते थे, यह भी केवल गप्पगोला है. क्यों कि, जब जीलाना ही है तो मारना क्यों ?. पहिले किसी लडकको थप्पड मारी और पीछेसे उसे गुड दिया यह अकलमंदीकी बात नहीं है. अव्वल तो 'मरा हुआ कभी जीता नही हैं ' इस नियमको ही वे लोग भूले हुए हैं और दूसरे अपने धर्मशास्त्रका भी उनको पूरा पता नहीं है.
देखो-भागवत चतुर्थ स्कंधके २५ वें अध्यायमें नारदने 'प्राचीनबर्हि' राजाको उपदेश दिया है. उसमें मतलब यह है कि. 'यज्ञमें जिन पशुओंको निर्दय हो कर तूंने मारे हैं परलोकमें क्रुद्ध हुए लोहेकी मुद्गरोंसे तेरे सिरको छेदन करनेकी इच्छासे तेरी राह देख रहे हैं.'
इस मतलबका लेख क्या सिद्ध करता है ?. मालूम हुआ! यही कि यज्ञ जो प्राणी मरते हैं वो खुशीसे नहीं मरते और वैर लेनको भी तैय्यार रहते हैं कि-यज्ञमें हमको मारनेवाला
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(१८८) कब आवे और उसका सिर फोडे. अगर कोई कहे कि, मनुजी कुछ और कहते हैं और नारदजीका उपदेश कुछ और दिशा दिखलाता है तो हमको कौनसी बात माननी चाहिये? तो उनको समझ लेना कि, जिन शास्त्रोंमें परस्पर विरोध न हो ऐसे दयामय पवित्र वीतरागोक्त शास्त्रोंको मानना चाहिये. वैदिक शास्त्रोंमें बहुत ठिकाने अच्छी वैराग्यकी बातें भी आती हैं मगर उपर नीचेकी बातोंने उस वैराग्यको अभंग नहीं रहने दिया. मतलब सन्निपातमें मनुष्य कभी शांतिका तो कभी अशांतिका- कभी दयाका तो कभी हिंसाका भाव जाहिर करता है. इसी तरहकी स्थिति जिनशास्त्रोंकी हो वहां वास्तविक स्वरूपका निवास दुर्घट है. अनेक शास्त्रोंमें परस्पर विरोधको जाने दीजिये सिर्फ एक ही मनुस्मृति' उसमें भी एक ही अध्याय (पांचवा ), उसमें भी उपर नीचेके श्लोकमें ही विरोध देखिए" मांस भक्षयिताऽमुत्र, यस्य मांसमिहाम्यहम्।।
एतन्मांसस्य मांसत्वं, प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ ५५ ॥ . " न मांसभक्षणे दोषों, न मद्ये न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां, निवृत्तिस्तु महाफला ॥६॥ "
म-अ-५। भावार्थ-जिसका मांस मैं यहां खाता हूं वो दूसरे लोगमें मुझे खायगा.विद्वानों यह मांस शब्दका निरुक्तार्थ कहेते हैं ॥ ५५ ॥ मांस खानों, मद्य पीनेमें और मैथुनके सेवनमें दोष नहीं है. क्यों कि प्राणियोंकी यह प्रवृत्ति है. परंतु इन तीनों कामसे निवृत्तिका होना महान् फलवाला है ॥ १६ ॥
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(१८९)
यहांपर ५५ वे श्लोकसे मांसका खाना दोषवाला सिद्ध होता है और ५३ वा मांस मदिरा और मैथुन सेवनमें कुछ दोष नहीं है ऐसा कहता है. क्या यह परस्पर अक्षम्य विरोध नहीं है ?. महाशय ! इन दो श्लोंकोंको ले कर परस्पर विरोध है इसे भी जाने दीजिये. सिर्फ ' न मांसभक्षणे दोषो' इसी एक श्लोकको ही लीजिये. इसमें भी परसर महान् विरोध आता है. क्यों कि प्रथमके तीन पादका यह अर्थ है कि -जीवोंकी प्रवृत्ति होनेसे मांस मदिरा और मैथुन सेवनमें कुछ दोष नहीं है। ऐसा अर्थ होता है. और चौथे पदका अर्थ यह है कि-' इनसे हटना महान् फलवाला है. यहां पर विचार करना चाहिये कि, जिनके सेवनमें पाप नहीं उनसे हटनेमें महान् फल किस तरहसे हो सकता है? बस-यही विरोध है. ___अब ' याज्ञवल्क्यस्मृति' तरफ निगाह देते हैं तो वो स्मृति भी मांस विधानसै दुष्ट पाई जाती है.
तथा हि"काकोवाक्यं पुराणं च, नाराशंसीश्च गाथिकाः।
इतिहासाँस्तथा विद्याः, शक्त्याधीते हि योऽन्वहम् ॥४५॥ ___मांसक्षीरोदनमधु-तर्पणं सदिवौकसाम् । करोति तृप्तिं कुर्याच्च, पितृणां मधुसर्पिषा ॥ ४६॥"
या-स्मृ-अ--१॥ भावार्थ- जो द्विज दिन दिन प्रति प्रश्नोत्तरवाले वेद वाक्योंको पढ़ता है और ब्राह्म आदि पुराणोंका पाठ करता हैं और मनु आदि धर्मशास्त्र, रुद्र दैवत्य मंत्र यज्ञोंकी कथा भारत आदि इतिहास विद्या इनको शक्तिके अनुसार नित्य
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पढ़ता है. तथा मांस दुध भात इनसे देवताओंकी वृप्ति करता है और सहद तथा घृतसे पितरोंकी तृप्ति करता है ।।४५-४६॥
" भक्ष्याः पञ्चनखाः सेधा, गोधाकच्छपशल्लकाः । शशश्च मस्त्येष्वपि हि, सिंहतुण्डकरोहिताः ॥ १७७ ॥ तथा पाठीनराजीव, सशल्काश्च द्विजातिभिः।"
या-स्मृ-अ-१। भावाथे--पंच नखोंबाले जीव जंगली संह गोह कच्छूआ सेह मूसा सिंह सिंहसरीखे मुखबाला मत्स्य लालवर्णबाली मच्छी, इन सबका यज्ञ आदिमें नियुक्त किये हुएका भोजन करें। ऐसा कहा है ॥ १७ ॥ और पाठीन संज्ञक मच्छी, राजीव संज्ञक मच्छी, सोपीके आकारवाला जलका जीव, ये सब जीव श्राद्ध आदिकोंमें द्विजातियोंको भक्षण करने कहे हैं। " प्राणात्यये तथा श्राद्ध, प्रोक्षितं द्विजकाम्यया । देवान् पितॄन् समभ्यर्च्य, खादन् मांसं न दोषभाक् ॥१६९॥
भावार्थ-अन्नके अभावमें अथवा बीमारी में जो मांस भक्षण किये विना प्राण निकसते होवे तो नियमसे मांस भक्षण करे. श्राद्धमें निमंत्रित किया हुआ मांसका और मोक्षण नामवाला वेदोक्त संस्कार हुए पशुके मांसका यज्ञमें भक्षण करे और देवता तथा पितरोंका पूजन करके बाकी रहे मांसको खाता हुआ पुरुष दोषको नहीं प्राप्त होता है ॥ १६९ ॥ ___मांसाहारी ब्रह्माणोंने मांस खाने वास्ते कैसा सीधा रास्ता निकाला है कि, मांस भी हम खाते हैं और जगत्में हमारी निन्दा भी न होवेः इस लिये लिख दिया कि देवता और
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(१९९) पितरादिकका पूजन करके मांस खानेवालेको दोष नहीं लगता, वाह रे वाह! ब्राह्मणो ! तुम्हारी चतुराईको. खैर. यहां तो मांसको खाकर भी शास्त्रकी आडसे भक्त जनोंमें निंदित न हुए मगर परलोकमें इन कर्मोंसे बड़ी भारी दुर्दशा होगी; सो भी खयाल करना चाहिये था. "कुशाः शाकं पयो मत्स्या, गन्धाः पुष्पं दधि क्षितिः । मांसं शय्यासनं धाना :, प्रत्याख्येयं न वारि च ॥ २१४ ।"
या. स्मृ. अ. १ । भावार्थ- कुशा शाक दुध मच्छी-माछली गंध पुष्प दहि मिट्टी मांस शय्या आसन धान-अर्थात् भुने हुए जव और जल इनको ग्रहण कर लेवे. नटे ( हटे) नहीं. इनका दान लेनेका कुछ दोष नहीं है ॥२४॥
इस उपरके श्लोकसे साफ सिद्ध हो गया कि, मांस तथा मच्छीका दान ब्राह्मणोंको कोइ देवे तो ना नहीं कहनी, उस मांस तथा मच्छीको ले लेनी कारण कि, उनके लेने में दोष नहीं लगता ऐसा याज्ञवल्क्यका कथन, ब्राह्मगोंके ऋषिको तथा उनके शास्त्रको कैसा अपवित्र सिद्ध करता है सो प्रत्यक्ष है.
इसके आगे किन किन वस्तुओंसे कहां तक पितर तृप्त रहते हैं सो जिकर है-जैसे-~" हविष्यान्नेन वै मासं, पायसेन तु वत्सरम् । मात्स्यहारिणकौरभ्र-शाकुन छागपार्षतैः ॥ २५८ ॥ ऐणरौरववाराहशाशै-मांसैर्यथाक्रमम् । मासवृद्धयाभितृप्यन्ति, दत्तैरिह पितामहाः ॥ १५९ ॥"
या-स्मृ-अ-१।
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(१९२ )
भावार्थ - तिल जब उse आदि हविष्य असे ब्राह्मणोंको भोजन करवावे तो पितरोंकी तृप्ति एक महिने तक रहती है. और क्षीरका भोजन करवानेसे एक वर्ष तक तृप्ति रहती है. और मच्छ लाल-हरिण मोढा पक्षी बकरा बिंदुओंवाला मृग रोझ जंगली सूअर शशा इनके मांसोंसे यथाक्रमसे एक एक महिनेकी वृद्धिके क्रमसे पितरोंकी तृप्ति रहती है. जैसे हार्वष्य अन्नसे एक महिना मच्छके मांससे दो महिने लाल हरिणके सांससे तीन महिने, मढाके मांससे चार महिने इसी क्रमसे जान लेना. ।। २५८-२५९ ॥
66
खद्गा मिषं महाशार्क, मधु मुन्यन्नमेव च । लोहामिषं महाशाकं, मांसां वार्डीणसस्य च ॥ २६० ॥ यद्ददाति गयास्थय, सर्वमानंत्यमश्रुते । तथा वर्षात्रयोदश्यां मघासु च विशेषतः ॥ २६ ॥ "
या स्मृ- अ-१ |
भावार्थ - और गेंडेका मांस महाशल्क मच्छका मांस सहद श्यामाक आदि मुनियोंका अन्न, लाल बकराका मांस, कालशाक, बूढा सफेद वर्णवाला बकराका मांस, इनको जो पितरों के वास्ते देता है और गयाजीमें जो कुछ शाक फलादि पितरोंके वास्ते दिया जाता है वह सब अक्षय गुण हो जाता है. और जो भाद्रपद वदी तेरस के दिन अथवा मघा नक्षत्र युक्त इस त्रयोदशीमें पितरोंके वास्ते कुछ दान देता है वह सब अनंत गुण हो जाता है ।। २६०-२६१ ॥
आगे गणेशजीकी भेटमें अमुक अमुक वस्तुएं धरनी. सो यह है
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( a )
" कृताकृतास्तंडुला, पललोदनमेव च । मत्स्यान् पक्कास्तथैवामान, मांसमेतावदेव तु ॥ १५ ॥ पुष्पं चित्रं सुगन्धं च सुरां च त्रिविधामपि । मूलकं पूरिका पूपं तथैवडेकरूजः ॥ २८८ ॥ दध्यन्नं पायसं चैव, गुडपिष्टं समोदकम् । एतान् सर्वान् समाहृत्य, भूमौ कृत्वा ततः शिरः || २८९॥ या स्मृ-अ १ ।
भावार्थ - पकाये हुए और विना पकाये हुए चावल तिलोंकी पीठीमें मिला हुआ अन्न, मत्स्य, पके हुए मांस, कच्चे मांस, विचित्र प्रकारके पुष्प, सुगंध, तीनों प्रकारकी मदिरा, मूलि. पूरि, पुढे, फलोरियोंकी माला, दहि, भात, गुडसे मिली हुई खीर, लड्डु, इन सर्वोको इकट्ठे कर गणेश जी की भट दें गणेशजी की तथा पार्वतीकी स्तुति करें और पृथ्वीमें शिर नवायके प्रणाम करें ।। २८७-२८८-२८९ ॥
इस प्रकारको भेटले तो यह बखूबी सिद्ध हो जाता है कि, स्वयंतो अपवित्र वस्तुके संयोगसे भ्रष्ट बने सो बने; मगर अपने माने हुए गणेशजीको भी भ्रष्ट बना दिया. स्वार्थके वशीभूत जनोंने अपने अधर्मकर्मको लोक निंदित न होने देनेके लिये ही यह अधर्म चलाया है. इनके स्वार्थका यद्यपि आगे अनेक बार उल्लेख किया गया है, फिर भी देखो याज्ञवल्क्य स्मृति से भी इनके जीवनका परीचय कराया जाता है. “राधान्याभयोपान -च्छत्रमाल्यानुलेपनम् ।
यानं वृक्षं प्रियं शय्यां दवान्त्यन्तं सुखीभवेत् ॥ २११ ॥
,
या. स्मृ. अ. १ :
२५
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( १९४ )
भावार्थ - घर धान्य अभय जूति जोडा छत्री पुष्प चंदन स्वारी वृक्ष अपने आपको प्रिय वस्तु शय्या, इनका दान करनेवाला अत्यंत सुखी होता है | २११ ॥
जिस आदमी पर ग्रह हो उसको अमुक अमुक ग्रहमें अमुक अमुक ब्राह्मणको दान देना. इस विषयका जिकर नीचे मूजब है
" गुडौदनं पायसं च, हविष्यं क्षीरषाष्टिकम् । दध्यौदनं हविचूर्ण, मांसं चित्रान्नमेव च ।। ३०४ ॥ दद्यात् ग्रह क्रमादेव, द्विजेम्यो भोजनं द्विजः । शक्तितो वा यथालाभं, सत्कृत्य विधिपूर्वकम् ॥ ३०० ॥"
भावार्थ - गुडसे मिला हुआ भोजन, खीर, घृतका भोजन, दुध, साठी चावल, दहि भात, घृत सहित ओदन, तिलोंकी पिठी सहित भोजन, मांस, अनेक प्रकारके भोजन, इस प्रकार यथा क्रमसे सूर्यादि नव ग्रहोंकी प्रीतिके वास्ते ब्राह्मणों को भोजन करावे. अथवा शक्तिके अनुसार जसा मिले तैसा भोजन विधिपूर्वक सत्कार करके ब्राह्मणों को जिमाना चाहिये || ३०४-३०५ ॥
इन ग्रहोंकी प्रीति के लिये अनुक्रमसे यह दक्षिणा लिखी है" धेनुः शंखस्तथानड्वान्, हेमवासो हयः क्रमात् । कृष्णा गौरायसं छाग, एता वै दक्षिणाः स्मृताः ॥ ३०६ ॥ " या स्मृ-अ- १ । भावार्थ - दुध देनेवाली गौ १, शंख २, बैल ३, सुवर्ण ४, पीला वस्त्र ५, घोडा ६, काली गौ ७, लोहा ८, बकरी
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९, ये सब यथाक्रमसे सूर्य आदि नव ग्रहझेकी दक्षिणा देनी चाहिये ॥ ३०७ ॥
" भोगाँश्च दत्त्वा विप्रेभ्यो, वसूनि विविधानि च। __ अक्षयोऽयं निधी राज्ञां, यद्विप्रेषूपपादितम् ॥३१५॥"
या-स्मृ-अ-१। भावार्थ-ब्राह्मणोंको भोग सुख देवे, अनेक प्रकार के सुन्ना चाँदी आदि द्रव्योंका दान देवें. क्यों कि ब्राह्मणोंके अर्थ जो द्रव्य दिया जाता है वह राजाओंका अक्षय गुण खजाना हो जाता है ॥ ३१५॥ . " नातः परतरो धर्मो नृपाणां यद्रणार्जितम् । विप्रेम्यो दीयते द्रव्यं, प्रजाभ्यश्चाभयं सदा ॥ ३२३ ॥
या. स्मृ. अ. १ । भावार्थ-जो राजा युद्धमें द्रव्यको संचित करके प्रामणके अर्थ देता है और प्रजाके अर्थ जो अभय देता है। इससे अधिक राजाओंका परमधर्म नहीं है ॥ २२३ ॥ " राजा लब्ध्वा निषिदद्यात्, द्विजेभ्योऽध द्विजः पुनः । विद्वानशेषमादद्यात् स सर्वस्य प्रभुर्यतः ॥ ३३४ ॥"
या-स्मृ-अ २। । भावार्थ-राजाको कहीं दबा हुआ खजानाका धन मिल जावे तो राजा उस धनमेंसे आधा धनको ब्राह्मणोंके वास्ते बांर देवे. और जो विद्वान् ब्राह्मणको कहीं धन मिल जावे तो उस संपूर्ण धनको आपही रखलेवे. क्यों कि यह ब्राह्मण - संपूर्ण धनोंका प्रभु है ।। ३३४ ॥ . . इस प्रकार अनेक तरहसे दानका जिकर आता है. कहीं ।
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( १९६)
कपिल गौके दानसे उस पर जिक्ते रोम हैं उतने युग तक स्वर्ग में रहनेका लोभ दिया है तो कहीं कुछ कहीं जमीनका दान कर खत करवा देनेसे बड़ा लाभ वर्णन किया है. मतलब - स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये अनेक तरहकी कोशिशें की गई हैं.
""
नियुक्तस्तु यदा श्राद्धे देवे वा मांसमुत्सृजेत् । यावन्ति पशुरोमाणि तावन्नरकमृच्छति ॥ ३१ ॥ " वशिष्ट स्मृति - पृष्ठ- ४३ । भावार्थ - जब श्राद्ध में निमंत्रण स्वीकार करके यजमानके यहां मांस बनाया परोसा जाय और उसको त्याग देवे तो पशुके शरीर में रोम होवे उतने वर्षों तक नरक में वसता है ॥ ३१ ॥ इस पाठसे तो ब्राह्मणोंका हत्याकांड पराकाष्टाको प्राप्त हो गया. - आगे
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" अथापि ब्राह्मणाय वा राजन्याय वा अभ्यागताय वा महोक्षं वा महाजं वा पचेदेवमस्यातिथ्यं कुर्वन्तीति ॥ ८ ॥
99
" - व - स्मृ - पृ- २०-२१ ।
भावार्थ - और जो श्रुतिमें लिखा है कि, आये हुए ब्राह्मण क्षत्रिय राजा वा अतिथिके लिये बडे बैल वा बडे बकराको पकावे, ऐसेही ब्राह्मणादिकका अतिथि सत्कार
•
करते हैं ॥ ८ ॥
इस वशिष्ट स्मृतिके पाठसे भी ब्राह्मण धर्मकी कलई खुल जाती है.
१ यह अर्थ पंडित भीमसेन इटावानिवासीने किया है ऐसाही हमने यहाँ दिया है क्यों कि वशिष्टादि स्मृतिएं उन्होंने छपाई हैं सर्वत्र ब्राह्मण पंडितों के किये हुए भाषार्थको ही हमने रजु किया है.
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( १९७ )
ये लोग मांसादि स्निग्ध पदार्थके तो इतने लोभीये कि, भंगीके पात्रमेंसे भी लेनेमें दोष नहीं मानते थे. देखिये ! " आई मांसं घृतं तैलं स्नेहाच फलसंभवाः ।
अन्त्य भांडस्थितास्त्वेते, निष्क्रान्ताः शुद्धिमाप्नुयुः ॥ २४९॥” अत्रि - स्मृति-पृष्ठ-४४ ।
भावार्थ – गीला मांस, घृत, तैल, फलसे उप्तन्न हुए तैलादि अन्त्यज - भंगीके पात्रमें रक्खे भी हो; परंतु निकाल लेने पर शुद्ध हो जाते हैं ।। २४९ ॥ देखा ! एक तो अपवित्र मांस फिर भंगीके पात्रका वाह ! धर्म शास्त्र ! तेरी खूबी क्या कहूं ?
" क्रतौ श्राद्धे नियुक्तो वा अनश्नन् पततिद्विजः । मृगयोपार्जितं मांस-मम्यर्च्य पितृदेवताः ॥ ५६ ॥ " व्यास - स्मृति-पृष्ठ २५ ।
भावार्थ-यज्ञ और श्राद्धमें नियुक्त हुआ ब्राह्मण मांसको नहीं खाता हुआ भ्रष्ट हो जाता है तथा पितृदेवताओंका पूजन कर शीकारसे हांसल किये मांसको नहीं खाता हुआ भ्रष्ट बन जाता है || देखा ! शिकारका मांस १
इन लोगोंको मांस तो इतना प्रिय था कि, यज्ञमें नहीं देखते थे मनुष्यको और नहीं देखते थे गौको. देखो ! मनुष्य के विषय में -
मूल - ( १ ) वाचे पुरुषमालभते । (२) आशायै जामिम् । (३) प्रतीक्षायै कुमारीम् ।
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( १९४ )
( सायण - भाग्य 1 )
( १ ) वाग्देवतायै पुरुषं पूरकं स्थूलशरोर मित्यर्थः । ( २ ) आशायै अलभ्यवस्तु विषय तृष्णाभिमानिमानित्यजार्मि निवृत्तरजस्कां भोगायोग्यां- स्त्रियम् ।
(३) प्रतीक्षायै लब्धव्यस्य वस्तुनो लाभप्रतीक्षणा भिमानिन्यै कुमारोमनूढां कन्यामालभते ।
ब्राह्मणादयः कुमार्यन्ताः प्रोक्ता मनुष्य विशेषरुपाः परावोsस्मिन् पुरुषमेधे पञ्चाहे. सोमयागविशेषे मध्यमेऽहनि सवनीयपशुभिः समुच्चित्यालब्धव्याः ।
'पूनाका छपा हुआ कृष्णयजुर्वेदका तैत्तिरीय ब्राह्मण ' पृष्ठ-९७२-९७३ |
भावार्थ - ( १ ) वाग्देवताके लिये पुरूषका आलंभ अर्थात् वध किया जाता है.
(२) तृष्णाभिमानिनीदेवता - आशा उसके लिये जामि अर्थात् ऋतुधर्म जिसका निवृत्त हुआ हो और भोग करनेके योग्य न हो ऐसी स्त्रीका आरंभ ( वध ) किया जाता है. (३) मवीक्षा के लिये कुमारी अर्थात जिसकी शादी न हुई हो ऐसी लडकीका आलंभ-वध किया जावे.
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इस पुरुषमेधपंचा हसोमयागमें ' ब्राह्माणादि कुमारी पर्यंत मनुष्य विशेष रूप पशुओंका आरंभ वध किया जावे.
अब कोई कहे कि ' आलंभ ' शब्दका अर्थ हिंसा है इसमें कोई प्रमाण है १ तो उसके उत्तरमें विदित होवे कि," आश्वलायनीय गृहसूत्र गार्ग्य नारायणीय दृत्ति' के पृष्ठ ६८१ वे में लिखा है कि
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" यदि कारयिष्यन्मारयिष्यन् भवति तदाच दाता 'आलभेत' एवं वदेत् ।'
इससे स्पष्ट हुआ कि जहां मारना हो वहां ' आलभेत' यह प्रयोग किया जाता है . ___अनरकोष द्वितीय कांड क्षत्रवर्ग श्लोक ११२- तथा अभिधानपिंतागणि मर्त्यकांड श्लोक-३५ इन दो प्रसिद्ध कोशोंमें भी ' आलंभ' शब्दका वध अर्थ किया हुआ है.
ऐतरेय ब्राह्मण पुष्ठ ८५१ तकमें · शुनः शेप ' की कथा लिखी हुई है.
वशिष्ठ विश्वामित्र जमदग्नि प्रभृति ऋषियों के अध्वयु होता ब्रह्मा आदि होते हुए. अजीगतके द्वारा ' शुनः शेप' स्तंभसे बंधवाया गया. तथा तलवारके द्वारा काटनेका समय आया तब 'शुनः शेपने देखा कि, ब्राह्मण वशिष्ठादि ऋषि मारनेके लिये सम्मत है, अत एवं वरुणकी प्रार्थना करने लगा. पीछे उसक बंधन तुटने लगे इत्यादि. ____ यदि ' नरमेध-वेद' में न होता तो फिर वसिष्ठ जी जैसे ब्रह्मर्षि यज्ञ करने के लिये क्यों तैय्यार होते ?. ___ इसी तरह 'महाभारत' के वनपर्वमें भी नरभेषका जिकर है.
अब गौके विषयमें देखिये !
" पुरुषस्य सयावरि वि ते प्राणमसिस्रसं, शरीरेण महीमिहि स्वधयेहि पितृनुप प्रजयाऽस्मानिहावह ।"
। तैत्तिरीय-आरण्यक प्रपाठ ६ अनुवाक १ मंत्र-११) '. पदार्थ:-रे (पुरुषस्य ) मृतपुरुषकी... ( सगावरी)
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रोजगवी अर्थात् गा (ते ) तेरे (पाणम्) प्राणोंको व्यसिस्रसम् ) मैं शिथिल कर चुका हुं ( शरीररेण ) तूं अपने शरीरसे ( महीं ) पृथ्वीको (इहि ) प्राप्त हो ( स्वधया) अमृत अर्थात् हविः स्वरूपसे (पितृन् ) पितरोंको ( उपेहि ) प्राप्तहो (इह) इस लोकमें (प्रजया) सन्तान समेत (अस्मान्) हम लोगोंको ( आवह ) कल्याण प्राप्त कर ॥
यह पदार्थ सायण भाष्यके अनुसार लिखा है. विशेष सायणभाष्यसे जान लेना.
" अथ य इच्छेत्पुत्रो मे पण्डितो विजिगीतः समितिगमः शुश्रूषितां वाचं भाषिता जायेत सर्वा वेदाननुब्रुवीत सर्वमायुरियादिति मांसौदनं पाचयित्वा सर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरा जनयित वा औक्षण वा ऋषभेण वा।" (बृहदारण्यकोपनिषत्-अध्याय ८ ब्राह्मण ४ मन्त्र१८) ___ भावार्थ-जो पुरुष चाहता हो कि, मेरे ऐसा पुत्र उत्पन्न हो, जो कि पंडित विद्वान् और संस्कृत वाणी बोलनेवाला तथा सर्ववेदोंका वक्ता और पूर्ण आयुवाला हो तो, वो पुरुष मांस मिश्रित चावलोंका भोजन पकवा कर
और उसमें घृत डाल कर अपनी स्त्री सहित खावे. मांस उक्ष अर्थात् बडे बैलका हो अथवा ऋषम अर्थात् उसके अधिक उम्र वाले बैलका हो । ____ यह अर्थ 'शंकरभाष्य' के अनुसार किया है। आगे"क्षालनं दर्भकून, सर्वत्र स्रोतसां पशोः । - तूष्णीमिच्छा क्रमेण स्या-द्वपार्थे पाणदारूणि ॥१॥
सप्त तावन्मूर्धन्यानि तथा स्तन चतुष्टयम् । .
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नाभिः श्रोणिरपानं च, गोत्रोतांसि चतुर्दश ॥ २॥ क्षुरो मांसावदानार्थः, कृत्स्ना स्विष्टकृदाता । वपामादाय जुहुयात्, तत्र मन्त्रं समापयेत् ॥ ३ ॥ हजिहा क्रोडमस्थीनि, यकृवृक्को गुदंस्तनाः । श्रोणिस्कंघसटापाच, पश्चंगानि प्रचक्षते ॥ ४॥ एकादशानामङ्गाना-मवदानानि संख्यया । पार्श्वस्य वृक्कसक्थ्नोश्च, द्वित्वादाहुश्चतुर्दश ॥५॥ चरितार्थी श्रुतिः कार्या, यस्मादप्यनु कल्पशः । अतोऽटर्चेन होमः स्या-च्छागपक्षे चरावपि ॥ ६ ॥ अवदानानि यावन्ति, क्रियेरन् प्रस्तरे पशोः।। तोवतः पायसान् पिण्डान्, पश्वभावेऽपि कारयेत् ॥ ७॥"
. (कत्यायन स्मृति पृष्ठ ७६ ) । 4-भीमसनकृत
भावार्थ-यज्ञ संबंधी पशुके इंद्रिय वा छिद्रोंका दाभक कुचेसे अपनो इच्छानुकूल क्रमसे ( तूष्णी ) विना मंत्र पढ़े प्रक्षालन करे और वंपाश्रयणी नामक यज्ञपात्र (जिस पर रखके वपा पकाई जाती है ) ढाकके पत्तोंकी वा काष्टकी होनी चाहिये. गौके शरीरमें चौदह छिद्र होते हैं. सात तो उपर शिरमें चार थन-नाभि-योनि और गुदा ॥ १-२ ॥ मांसके टुकडे करनेके लिये छुरा होता है. प्रधानके बाद क्रमसे वपाको ले कर सर्व 'स्विष्टकृत् ' पर्यंत. होम करे और उस समय मंत्रको समाप्त करे. अर्थात्-प्रधान याग और स्विष्टकृत दोनों मंत्रोंको मिला कर एकही वारवपाकी आहुति देवे. हृदयजिहा-गोडा हड्डी-जिगरं-वृषण-गुदा-स्तन-श्रोणि-स्कंधे और सटाके दोनों पार्श्व ये पक्षुके अंग' कहाते हैं।॥४॥ इन
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(२०२)
ग्यारह अंगोंके 'अवदान' नाम टुकडे लेखानुसार गिनती से होते हैं और पार्श्व - वृषण ( अंडकोश ) और सक्थि जांघ ये दो दो होते हैं. इससे पशुके चौदह अंग कहे हैं ॥ ५ ॥ प्रत्येक कल्पोक्त कामोनें श्रुतिको चरितार्थ करना चाहिये. इससे बकरा और चरु दोनों पक्षोंमें आठ ऋचाओंसे होम करना चाहिये ॥ ६ ॥ यज्ञ पशुके अंगों के जितने अवदान नाम टुकडे प्रस्तर नामक कुशों पर करके रक्खे जाय उतने ही पायस नाम खीरके पिंड पशु न हो तब भी करावें ॥ ७ ॥
पंडित ' सत्यव्रत सामश्रमी ' की व्याख्यासे अलंकृत क्षत्रिय कुमार श्रीमदुदयनारायण वर्मा कृत भाषानुवाद सहित मधुपुरस्थ शास्त्र प्रकाश कार्यालय में संवत् १९६३ के वर्ष में छपे हुए सामवेद कौथुमी शाखा गृह्यकर्म प्रतिपादक गोभिल
सूत्रके तिसरे प्रपाठकके दशवे खंडमें - पृष्ठ १६४ वे से भी पुरातन वैदिकोंकी दया रसातलमें प्रवेश कर गई थी इस बात का पता मिलता, है सो देखिये ! -
" तैष्या ऊर्द्धमष्टम्यां गौः १४ । "
" ता ँ संधिवेला समीपं पुरस्तादग्नेरवस्थाप्यो पस्थितायां जुहुयाद्यत्पशवः प्रध्यायतेति १५ ।”
"
* कलकत्ता ' वाप्तिस्तमिषणयंत्र में ईस्वी सन् १८८० में. छपे हुए चन्द्रकान्ततर्कालंकारकृतभाष्यसे अलंकृत ' गोभिल - गृधसूत्र जो कि बडोदा सेंट्रल लायब्रेरी में है उसमें इस सूत्रकी संख्या १८ लिखि है. इससे 9 सूत्रका फर्क आखिर तक है. महाराजश्रीने जिस पुस्तकसे पाठ लिखा है वो यहां पर न होनेसे निर्णय नहीं हो सका है.
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(२०३) व्याख्या-तैय्याः पौषपौर्णमास्याः कई परस्तात् अष्टम्यां कृष्णपक्षीयायां गौः आलब्धव्येति शेषः ।। १६ ।।।
व्याख्या--संधिवेला समीपं मूर्योदयकालात् किंचित् पूर्वमेव तां गां अग्नेः पुरस्तात् अवस्थाप्य उपस्थितायां तस्यां संधिवेलायां सूर्योदयक्षणे इति यावत् यत् पशवः प्रध्यायत मनसा हृदयेन च वाचा सहस्रपा यथा मयि बध्नामि वो पनः ॥ ८ ॥ म० ब्रा० २, २, ८) इति मंत्रेण तत्रैवानो जुहुयात् घृतमिति ॥ १५॥"
भावार्थ-पौष मासकी पूर्णिमाके पीछे अष्टमी तिथिको गोमांस द्वारा मांसाष्टका करे ॥ १४ ॥ संधिवेला ( रात और दिनका संयोग समय ) के कुछक पहिले अग्निके पूर्वभागमें उस गौको लाकर रक्खे. पीछे संधिवेला होने पर-" यत् पश्व प्रध्यायत" इस मंत्रसे घीकी आहुति देकर कार्यारंभ करे ॥१५॥ "हुत्वा चानुमंत्रयेतानुत्वामाता मन्यतामिति ॥१६॥"
व्याख्या हुत्वा कार्यारंभद्योतिकामाहुतिं पूर्वोक्तां च अपि तां गां अनुत्वा मातामन्यतामनुपितानु भ्रातानुसगर्यो - मुसखा सयूथ्यः । ॥९॥ (म. ब्रा. २।३।९॥" इति मन्त्रेण अनुमन्त्रयेत संझपनार्थ निमंत्रयेदिति ॥ १६ ॥"
भाषार्थ-कार्यके आरंभ सूचक पूर्वोक्त आहुति देवे. परं इस समय यव मिला जल, पवित्र कुरा, शाखा विशाखा बर्हि इध्म आज्य-दो समिधा और स्तुव ये सब भी अपने पास आवश्यकतानुसार ठीक रक्खे. “ अनुत्वा" इस मंत्रका पाठ करते हुए मौको मारनेके लिये निमंत्रण देवे.॥ १६ ॥ . . . .
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(२००४)
" यवमती मिरद्भिः प्रोक्षेदष्टकायै स्वा जुष्टां मोक्षामीति ॥ १७ ॥ *
व्याख्या—-अष्टकायै अष्टकानां देवतायाः तुष्ट्यर्थ त्वा जुष्टां प्रीतिसेवनीयां गां मोक्षामि अहं इति मैत्रं पठन् यवमतीभिः अद्भिः प्रोक्षेत् तामालब्धव्यां गामिति ॥ १७ ॥
भाषार्थ - ' अष्टका देवताकी प्रीतिके लिये प्रीतिपूर्वक सेवनीय तुम्हें धोता हूं. ' यह मंत्र पढते हुए उस वध्य गौको वसे भीगा जलसे धोवे ॥ १७ ॥
"उल्मुकेन परिहरेत् परिवाजपतिः कविरिति ॥१८॥' अपः पानाय दद्यात् ॥ १९ ॥
46
"
व्याख्या - परिवाजपतिः कविः ( छ, आ. १, १, १३, १० ) इति मत्रं पठन् उल्मुकेन प्रज्वलिताग्निना परिहरेत् 'प्रदक्षिणी कुर्यात् तां गामिति ॥ १८ ॥ "
व्याख्या - तस्यै गवे इति शेषः ॥ १९ ॥
भावार्थ - " परिवाजपतिः " ( छ. आ. १, १, १३, १०) इस मंत्र को पढ कर एक मुट्ठी ख ( ड ) रजला कर उस जलते (ड) से उस गौकी प्रदक्षिणा करे ॥ १८ ॥ उस गौको एक पात्रमें जल पीनको देवे ॥ १९ ॥
Sr
“ पीतशेषमधस्तात् पशोरवसिंवेदात्तं देवेभ्यो हविरिति ॥ २० ॥"
+
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L
व्याख्या - पीतशेषं पानावशिष्टमुदकं आतं देवेभ्यो, इविः १० (म. बा. १, २, १०) इति मंत्रं पठन, पशोः तस्यैव अधस्तात् सिंवेत् नीचैः सिंचनं कुर्वीत ॥ २० ॥
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( २०५ )
भाषार्थ - पीनेसे जो पानी बचे उसमें " आतं देवेभ्यो हविः " इस मंत्रको पढ कर उस गौके अधो भागको सींचे
॥ २०
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अथैनामुदगुतसृप्य संज्ञपयन्ति ॥ २१ ॥
ܕ
""
" माकुशिरससुदकपदी देवदैवत्ये ॥ २२ ॥ " दक्षिणाशिरसं प्रत्यरूपदीं पितृदैवत्ये ॥ २३ ॥” व्याख्या - अथ अनंतरं एनां गां उदक् अग्नेरुत्तरतः उत्सृप्य उत्सर्पणेन नीत्वा संज्ञपयन्ति हन्युः शासितार: ऋत्विज इति ॥ २१ ॥
व्याख्या -- तत्र च देवदैवत्ये कार्ये तां प्राक्शिरसं उदकपदीं किन्तु पितृदैवत्ये कार्ये दक्षिणा शिरसं प्रत्यक्पदीं संज्ञपयेयुः इति ॥ २२-२३ ॥
प
भाषार्थ - अनंतर मारनेके लिये प्रस्तुत ऋत्विकू गण उस गाँको अग्निके उत्तर लाकर काट डाले || २१ ||
यदि कार्य निमित्त गौ मारी जावे तो पशुका मस्तक पूर्व दिशामें रक्खे और चारों पैर उत्तर ओर रक्खे ओर यदि पितृकार्य के लिये गौवध हो तो पशुका मस्तक दक्षिण दिशामें रक्खे और उसके पैर सब पश्चिम ओर रक्खें ।। २२-२३ ॥ " संज्ञप्तायां जुहुयाद्यत्प्रशुर्मारकृतेति ॥ २४ ॥ व्याख्या - संज्ञप्तायां तस्यां यत् पशुर्मायुमकृतोरीवापदभिराहतअभिमतस्मादेनसो विश्वामुञ्चत्व हसः " ॥ ११ ॥ ( म. बा. २, २, ११ ) इति मन्त्रेण जुहुयात् आज्यमिति शेषः ॥ २४ ॥
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भावार्थ-उक्त गां मारे जाने पर ::: " मंत्रसे होम करे ॥ २४ ॥
" पस्नी चोदकमादाय पशोः सर्वाणि स्रोतांसि प्रक्षालयेत् ॥ २५ ॥" .: व्याख्या-च अपि तदवपत्नी यजमानस्य उदकं आदाय पशोः संज्ञप्तस्य सर्वाणि स्त्रोतांसि चक्षुरिंद्रियादीनि पक्षालयेत् ।। २५ ॥ . . . . . .
- भाषार्थ-एवं यजमानकी स्त्री जलसे उस कटे शिरवाली गौके नेत्र आदि इंद्रिय अच्छे प्रकार धोवे. 'माथेमें नेत्रादि साथ, चार स्तन, नाभि, कटीदेश, गुरदेश, ये चौदह स्थान हैं ॥२५॥ ___ " अग्रेण नाभिं पवित्रे अन्तर्धायानुलोममाकृत्य वपामुद्धरन्ति ॥ २६ ॥”
व्याख्या-अग्रेण नाभि नामेरग्रतः नाभिसमीपे पवित्र अंतर्धाय अनुलोमं यथास्यात्तथा आकृत्य क्षुरेण निम्नाभिगामि कर्त्तनं कृत्वा ततः वां मेदसं उद्धरन्ति उद्धरेयुः
॥ २६॥ . ... भावार्थ-नाभिक समीप पवित्र द्वय छीपा कर लोमानु
सरण क्रमसे छुरेसे निन्नगामिचालनसे काट कर उसमेंसे वपा ( चरखी ) निकाले ॥ २६ ॥
" ताशाखाविशाखयोः काष्ठयोरवसज्याभ्युक्ष्य अपयेत् ॥ २७॥" - "प्रच्युतितायां विशसथेति भूयात् ॥ २८ ॥ " .
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(१००)
व्याख्या - शाखा विशाखयोः एतन्नामक पात्रयोः काष्टयोः पलाश निर्मितयोः ऊद्धाधो मुखीभावावस्थितयोः आवाराच्छादनयोः मध्ये तांत्रपां अवसज्य संस्थाप्प अम्पुक्ष्य जलपातैः श्रपयेत् पचेदिति ॥ २७ ॥
व्याख्या - प्रश्च्युतितायां प्रक्षारितायां तस्यां वपायां विशसथ गां विगतचरमां कुरूथ इति ब्रूयात् ॥ २८ ॥
भाषार्थ - और निकाली हुई वपाको शाखा विशाखा नामक पलाशकी लकडीका बनाया हुआ ढक्कन के आधार पर रख कर जलसे सामान्य रुपसे धोकर अग्निसे सिद्ध करे ॥ २७ ॥ इधर उस गौके नाभिके समीपसे काट कर मेद निकाल इस गौके चमडा निकालने की आज्ञा करे ॥ २८ ॥
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यथा न प्रांगनेभूमि शोणितं गच्छेत् ॥ २९ ॥ ” ५८ ताम मिघ यदगुद्वास्य प्रत्यभिघारयेत् ॥ ३० ॥ " स्थाली पाकावृता वपामवदाय? स्विष्टकृदावृता a. sष्टकायै स्वाहेति जुहोति ॥ ३१ ॥ "
व्याख्या - परंतंत्र विशशने सात मिदंमवलस्व्यं अग्नेः प्राक् पुरतः भूमिं शोणितं यथा न गच्छेत् इति ॥ २९ ॥
व्याख्या–चितां पक्कां वपां अमिघार्य घृतेन उदक् अग्ने उत्तरतः उद्वास्य संस्थाप्य प्रत्यभिघारयेत् पुनघृतेनैवाभिघारण कुर्यात् ॥ ३० ॥
व्याख्या - ततः शैत्येन कठीनीभूतां तांवपां स्थालीपाक त्या स्विष्टकृत्या वा अवदानेन अवदाय कर्त्तयित्वा कत्ति - तमंश गृहीत्वा " अष्टकायै स्वाहा " इति मन्त्रेण तत्र अग्नौ जुहोति जुहुयात् ॥ ३१ ॥
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(२०४) भाषार्थ-परन्तु चमडा छुडावे समय ऐसा न हो कि अग्निके आगे होकर रुधिर वह चलें ॥ २९॥ __इस वपाके तैय्यार होने पर उसमें घीका दार देकर उसे अग्निके उत्तर भागमें उतार कर रक्खे और पुनः उसमें घीका ढार देवे । ३०॥
__ अनंतर उस आगमें पकी ववा जो ठंडेके कारण जम जायगी उसे स्थालीपाककी रीतिसे या स्विष्टकृत् की रीतिसे चाकुसे काट कर उसमेंसे लेकर " अष्टंकायै स्वाहा” इस . मंत्रसे होम करे ॥ ३१ ॥
जिनके धर्मग्रंथ एसी बिभित्स बातोंसे भरे पडे हैं. जिनका शिक्षण अंत्यज क्रियाके सदृश चरम उधेडना, मांसके टुकडे करना, देखना, खून न बह चले ऐसा हो, उन ग्रंथों पर चलनेवाले तथा पवित्र न होने पर भी उन्हें पवित्र माननेवाले आत्मकल्याणके मार्गमें है ऐसा कौन कह सकता है ? उचित है कि इन ग्रंथोंके माननेवाले एकांतमें इस विषयका विचार कर वीतरागोक्त शास्त्रोंका मध्यस्थभावसे मनन कर निःसंकोवचासभे सत्यतत्त्वको स्वीकार करें.
लो- अब मैं मेरे इस निबंधसे जनताका भला हो ऐसी आशा रख कर आज यहां पर ही रखता हूं. " शिवमस्तु सर्वजगतः, परहितनिरता भवन्तु भूतगणा: । दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखीभवन्तु लोकाः ॥ १॥"
. शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।
इति मतमीमांसा प्रथम भाग-प्तमास ।
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प्रथम ग्राहक होनेवाले सद्गृहस्थोंके मुबारिक नाम ।
. . बड़ौदा-(२६१) । १, मोहनलाल करसनदास ५१ झवेरी लीलाभाई रायचंद । १,, दलसुखभाई कीलाभाई ५१ झवेरी लालभाई कल्याणभाई ,, साकरचंद दलपतभाई ३५ वैद्यराज हीराभाई दलपतभाई। १ ,, दलसुखभाई जमनादास २५ झवेरी हीराचंद ईश्वरदास । १, त्रिभुवनदास रणछोड़भाई १५ झवेरी अंबालाल नानाभाई ,, मनसुखलाल मोतीलाल २५ गांधी अमथालाल नानाभाई वतरा-(५१). १५ शाह केशवलाल जीवचंद
शेठ लल्लुमाई जेचंद . ११ मास्तर मगनलाल माणेकचंद
(शेठ रतनचंद जेचद ११ शाह मुनीलालजी चुनीलालजी ५ पटवा नाथाभाई नानशाभाई ।।
___ वटादरा-(११)
११ ११ शेठ चुनीलाल मूलजीभाई ५ शाह पुखराजजी
खेडा-(४९) १ म्हेता डाह्याभाई मोतीलाल
१ शेठ चुनीलाल लालुभाई १ मास्तर · मणिलाल रेवाशंकर
१ शा. भगुभाई गोकळदास अमदावाद-( १०१)
१ शा. बेचर कुबेरदास १००. शाह शिवाभाई हरिलाल
१ शा. मथुर हीराचंद सत्यवादी
१ शा. नानचंद फुलचंद . १. शाह रुपवंद केसरीमलजी
.१ शा. हीरालाल चकुभाई .. छाणी-(१०)
१ शा. चीमनलाल हीराचंद १ शाह नगीनदास बापुलाल १ बाई माणक ६, चुनीलाल गरबडदास १ शा. जेचंद कस्तुर · .. १ ,, केशवलाल हरगोविंददास १ शा. भायचंद कपुरचंद १. , कस्तुचंद हरिभाई । १. शा. माणेकलाल सकरचंद
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१ शा. नाथालाल नरोतमदास । १ शेठ मगनलाल कस्तुरचंद १ शेठ भाईलाल अमृतलाल | १ शा. जेठालाल गुलाबचंद १ शेठ साकरचंद चुनीलाल १ शा. भगुभाई चतुरसी १ शा. नगीनदास मानचंद १ पटेल मोतीलाल चतुरसी शा. मणीलाल बापाभाई
१ शा. गोकळदास रणछोड १ शा. केशवलाल डाह्याभाई
१ शा. बालाभाई फतेचंद १ भा. ललुभाई अमीचंद
१ शा नाथालाल अमीचंद १ शा. वीरचंद सोमचंद
१ शेठ डाह्याभाई दामसी १ भा. सोमचंद धुलीदास
१ शा. अमृतलाल नरोत्तम १ भा. आत्माराम सामल
१ शा. जेसंगभाई झवेर १ भा. डाह्याभाई लालचंद
१ शेठ साकरलाल मगनलाल १ भा. छनुभाई ललुभाई
पाटण-(३५) १ भा. संकरचंद बापुजी
२५ शाह वाडीलाल हीराचंद १ भा. गीरघर हीराचंद १ भा. मगनलाल केवळदास
१० ,, रतनचंद मूलचंद १ भा. जेचंद मगनलाल
कपडवंज (५२) १ भा. नानचंद मानचंद
२५ चुनीलाल माणकचंद दोशी १ भा. ईश्वर खुशाल
५ गीरधरलाल रतनजी तेली १ भा. भेरवदास गणपत
५ शाह नाथालाल केवलदास १. शा. बापुभाई रतनचंद
१ ,, रतनचंद कुबेरदास १ शा. चंदुलाल मनसुख
१० मीठाभाई गुलालचंदनो उपाश्रय १ भा. हरीभाई गबड १ शा शामळभाई शिलाल १ भा. मथुर जगजीवन
गोधरा-(१) . १ भा. मगनलाल वीठल पालीताणा-(१०) १ भा. मोहोलाल बावाजी ५ सीबुमल हुकमचंद १ भा. मोहोलाल हीराचंद १ शाह लालचंद लीलाधर १ भा. दामोदर वीठल १ , घेलचंद मगनलाल
गावर
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२ , नाथालाल पटवा १ श्रीजैनकुमार-समा मेसाणा-(२)
सनखतरा-(५) 1 जैन श्रेयस्कर मंडल ५ भावडा अनंतराम
झंडीयाला-(५) हा. शाह वेणीचंद सूरचंद । ५ लाला खरायतिमल्ल लक्ष्मणदास घीणोज-(१)
अंबाला-(१) १ शाह दुलवचंद वखतचंद
१ लाला संतराम मंगतराम मुंबाई-(२२)
रतलाम--( २६ ) १० शेठ सोमचंद ओतमचंद | २५ शेठ ऋषभदेवजी केसरी१० शेठ ओतमचंद हीरजी
मलजी-जैनसंघ-पेढी १ शाह मनरुपचंद जवानमलजी
१ उपा०-सुमतिसागरजी : शाह दानमलजी देवीचंदजी
प्रतापगढ-(३) बुहारी-(२)
३ घीयाजी लक्ष्मीचंदजी २ शाह.मोटाजी गलालजी पेढी रांदेर-(१)
महेंदपुर-(२६) १ शेठ भीखाभाई धर्मचंद ५ धूलजी गणेशजी . लींच-(१)
५ पन्नालालजी रुंडवाल १ शीवलाल ताराचंद शाह १ चुनीलालजी मालवी
बीकानेर-(१०) १ चांदमलजी संकलेचा १० शेठ सुमेरमलजी सूराणा
१ माणेकलालजी वच्छावद जीरा-(५)
१ केशरीमलजी लुंकड १ लाला राधामलजी नाथुराम
१ नेमाजी लुंकड
| १ सेतानमलजी रुंडवाल १ ,, लालुमल्ल मेलामल्ल १ केशरीमलजी भणशाला १ . ,, बसंवरमल्ल बनारसीदास १ लखमीचंदजी नवलखा १ , शंकरदास खेतुराम । १ टेकचंदजी नवलखा
जैनी
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________________ 1 केसरीमलजी भटेवरा 2 मेता माधवलाल हकमचंद 1 हीरालालजी कोचर गुजरांवाला (30) 1 छोगमलजी कोचर 10 लाला नृसिंहदास बुटामल 1 जडावचंदजी असाडीवाला 5 लाला जगन्नाथ दिवानचंद 1 मोतीलालजी मालवी 5 लाला पन्नालाल हीरालाल -1 फत्तेचंदजी कोचर 5 लाला नानकचंद हीरालाल 1 हरखचंदजी खीमसरा ५.लाला चैतराम गौकलचंद पांडवाडा (1) 5 लाला चरनदास मकनलाल 1 शाह भगवानजो तेजमलजी / 4 लाला भोलाशाह खजान• धरमावरम (1) चीलाल 2 लाला मथुरादास दीनानाथ 1 शाह चुनीलालजी भूरमलजी 2 लाला गणपत रायरलचंद आदोनी. (1) 2 लाला गणेशदास प्यारालाल 1 शाह जवानमलजी ताराचंद 2 लाला मानकचंद रलाराम अहमदनगर (102) 2 लाला ठाकरदास सुंदरदाल 25 मणीयार. वाडीलाल लखमीचंद 1 लाला दुनीचंद जमीतराय 11 वखारीया देवचंद मुळचंद 1 बाबू दिवानचंद मनोहरलाल 11 शाह रतनचंद जीवराज 1 बाबू हरभगवानदास मेहरचंद 11 नथमल दलीचंद बोरा 1 लाला प्रभुदयाल पंजुमल्ल 12 माणेकचंद मोतीचंद भंडारी 1 लाला नंदलाल चुनीलाल 7 वखारीया शरुषचंद धरमचंद 1 लाला लालचंद भगवानदास 5 गांधी हीरालाल कस्तुरचंद 1 लाला भूपामल गंडुमल 5 शाह नथुराम झवेरचंद 5 शाह दलसुखराम मानचंद 1 लाला कोटु शाह 6 वखारीया वाडीलाल देवचंद 1 लाला छजुमल्ल अमरनाथ 5 शाह घेलाभाई जेठीराम 1 लाला जवंदामल मुंशीराम 2 शाह लीलाचंद हाथीभाई / 1 लाला सुंदरदास वधावामल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com