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(१२६) बाजुबंध देकर और चंदनादिकसे कामदेवका पूजन करे ॥ ४६ से ४९ ॥ स्त्री सहित कामदेवकी मूर्ति बनवा कर गुडसे भरे हुए पात्र पर स्थापित कर उसके आसनकी जगह तांबेके पत्र लगा कर सुवर्णके नेत्र युक्त वस्त्र पहराय कांसीके पात्र समेत ईख ( इक्षु ) सयुंक्त कर आगे लिखे हुए मंत्रसे उसका दान करे और एक उत्तम दुधकी गौका भी दान करे ।। ५०-५१ ॥
मंत्रका भाव यह है कि मैं विष्णुमें और कामदेवमें कुछ अंतरका भाव भेद नहीं रखती हूँ। इसी प्रकार सदैव विष्णु भगवान् मेरे मनोरथोंको सिद्ध करो ॥ ५२ ॥
हे केशव भगवन् ! जैसे कि लक्ष्मीजी तुम्हारे शरीरसे कभी पृथक् नहीं रहती है, उसी प्रकार मुझे भी आप अपने शरीरमें लीन करो ॥ ५३ ॥ इसके पीछे सुवर्णकी मूर्तिको ग्रहण करता हुआ ब्राह्मण-" क इंदं कस्मादिति "-ऐसे वेद के मंत्रको उच्चारण करे ॥५४॥ फिर प्रदक्ष गा करके ब्राह्मणका विसर्जन कर देवे और शय्या आसनादि ब्राह्मणके घर पहुंचावे ॥ ५५॥ ___इस उपरके लेखके पढनेसे यह साफ तौर पर जाहिर हो जाता है कि, ब्राह्मणोने स्वार्थ सिद्ध करनेके साधन रूप पुराण बना लिये हैं, इस्में परमार्थका लेश भी हो ऐसा हमारा मानना नहीं है. अगर चे कितनीक वैराग्यकी बातें भी पुराणोंमें मिलती है, मगर वे बातें पक्षीओंको जालमें लेनेके लिये जूवारकी तरह भद्रिकोंको मुग्ध कर-फंसानेके लिये ही है ऐसा हमारा मन्तव्य है. इन लोगोंने दुनियांकी सर्व वस्तुएं दानमें देनेके लिये लिखी है सो तो हम प्रथम जाहिर कर ही चुके हैं. मगर अब एक और
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