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(१०) चिह्न नहीं होते, ज्ञानमें कम नहीं, ऐसे सामान्यकेवली एक कालमें इतने ही होवे ऐसा नियम नहीं है, इस प्रकार अतीत-गयेहुए कालमें अनंत तीर्थकर हो चुके हैं, और अगामी-आनेवाले कालमें अनंत होंगे, इस तरह ईश्वर जीवसे बनते हैं मगर एक अनादि नहीं होता, पद आनादि हैं, इनमेंसे चाहें जिसका भजन करो बेडा पार होजायगा.
श्रावक-महाराजश्री ! आपका फरमान सत्य है परंतु एक इश्वरवादिओंके मनमें ऐसे समाया हुआ है कि अनेक परमात्मा जगतका आधिपत्य कैसे कर सकते हैं?, एकके हाथमें दुनियाकी लगाम रहे तो ठीक नहीं तो काम नहीं चल सकता, सब मिलकर गरबड कर देगें और सबसे बड़ा तो एकहोका होना ठीक है.
मूरीश्वर-भाई ! प्रथम तो उन लोगोंको जगत्की मायाका काबू परमात्माके हाथ है, ऐसा विपरीतज्ञान हुआ है, जगत् के किसी भी जंजालमें परमात्माका हाथ नहीं है, जीव अपने कर्मोंसे सुख दुःख स्वयं भोग सकते हैं, अगर ऐसा कोई कहे कि जडकर्म सुख दुःख कैसे दे सकेंगे ?, तो उनको विचारना चाहिये कि जैसे अफीम जड है मगर जो खाता है उसे स्वयं मारता है, तीसरेकी जरुरत नहीं. ऐसे ही जो पुष्टि कारक औषध लेता हैं, वह स्वयं पुष्ट बनाता है, जैसे उपरोक्त जड पदार्थ सुख दुःख स्वयं दे सकते है, ऐसे सब बातें किये हुए कर्मसे बन सकती है, तो फिर ईश्वरको बिचमें डालनेसे क्या मतलब?, और जब ईश्वर बिचमें होवे तो कमें करते ही क्यों न रोके ?, जब रोकनेकी शक्ति होवे
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