________________
( ९ )
या कम नहीं, ऐसे ही उत्सापॅणीके लिये समझ लेना, तीर्थंकर मकी पदवीको पानेवाले जीव कितनेक जन्म पहिले जबरदस्त त्यागके धारी होते हैं, विकारोंको पुनः पुनः जलांजलि देते हैं, वीशस्थानकोंकी या उनमेंसे एकाद स्थानककी आराधना करते हैं, बुरे करनेवालों पर भी द्वेष नहीं करते, उलटा इनकी क्या गति होगी ? इत्यादि भावदया विचारते हैं, ऐसे अनेक भवोंके शुद्धसंस्कारसे तीर्थंकरपद प्राप्त होता है, और तीर्थकरके जीवोंकी करणी भी ' त्रिषष्टिशला कापुरुष for 'देखो कैसी अद्भूत होती है?, इसतरह राग द्वेषसे रहित परमपवित्र जगत् विकार शून्य होनेसे केवलज्ञानकी ज्योतिः जिसमें प्रकाशित हुई है ऐसे परमात्मा ही पूजन करने के लायक होते हैं, दूसरे सामान्यकेवलीप्रभु वे तीर्थंकरप्रभुसे पुण्याइमें कम होते हैं, मगर ज्ञानमें फरक नहीं होता है, उभयका ज्ञान सामान है परंतु तीर्थंकर भगवान्की मधुर मालकोश रागमें देशना योजनतक सुनाई देती है, और जघन्यसे भी कोटि देवता निरंतर जिनके चरणोंकी सेवा करते हैं, और रूप ऐसा अद्भुत होता है कि इन्द्रकारुप भी इनके आगे तुछ मालूम पडता है, हमेशह अशोक वृक्ष, देवोंकी तर्फसे फूलांकी वर्षा, देवोंकी जयनादरूप ध्वनि, चमका विझाना, रत्न स्वर्ण रजतके तीन कोट सहित सिंहासनपर विराजमान होकर देशना देना, इत्यादि आठ महापातिहा का होना इत्यादि अनेक पुण्याइको नतीजे तीर्थकर प्रभुमें होते हैं, सो सामान्य केवलीमें नहीं होते, शासन के प्रस्थापक तीर्थंकरप्रभुं होते हैं, अतः वे प्रथम नंबर में उपकारक माने जाते हैं, और सामान्य केवली में वे पुण्यके
2
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com