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तत आह बलो नूनं, स मणिः शतधन्वना । कस्मिंश्चित्पुरुषे न्यस्त-स्तमन्वेष पुरं व्रज ॥ २३"
भावार्थ:-भगवान् श्रीकृष्णने तीक्ष्ण धारवाले चक्र द्वारा शतधनुका शिर छेदन किया और उसके कपडे फरोले, मगर मणि नहीं मिला, तब बलभद्रजीकी पास आ कर कहने लगा कि मैने नाहक शतधनुको मारा कारणकि मणि नहीं मिला, बलभद्रने जवाब दिया कि किसो आदमीको उसने मणि दी होगी, आगे जाओ और तलास करो.
इस लेखसे श्रीकृष्ण अल्पज्ञानी साबित हुए, अगर उनको संपूर्ण ज्ञान होता तो मणि कहां है ? जान लेते और ऐसी हत्या नहीं करते, लोभके वश निरापराधी पाणी ओंकी जान लेनेवालेमें परमेश्वरत्व कदापि सिद्ध नहीं हो सकता, अज्ञानी लोभी तथा हिंसकको देव माननेवाले मियादृष्टि कैसे उन्मत्त है ? कि शुद्धस्वरूप परमपवित्र जिनेश्वरदेवके कथन करे हुए शुद्धतत्वोंसे घृगा करके अपने पूर्ण दुर्भाग्यसे ऐसे मलीन तत्त्वोंमें सूकरवत् पयःपानको छोड कर अपवित्र पदार्थकी रुवी करते हैं, अरे ! मिथ्यात्व ! तेरी गति अजब है, मनुष्य जब तक तेरे फंदेमे फंसे हुए हैं, वहां तक हमे यह दृढ निश्चय है कि वे उल्लुकी तरह जैनधर्मरूपी सत्य सूर्योदयके कभो दर्शन नहीं कर सकेंगे.
भागवत दशम स्कंध उत्तरार्द्ध अध्याय ५१ पत्र. १८३ में राजा मुचुकुंदको श्रीकृष्णने उपदेश किया है, उससे साफ सिद्ध हो जाता है कि राजालोगोंको शिकार वगैरहके कर
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