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सूचक जवाब देता है. इस तरह पापको बूरा मानना यह बात कथंचित् सद्गुण रूप है. वो भी सद्गुण वैदिक रीतिसे प्राप्त नहीं हो सकता. क्यों कि विधिसे मांसभक्षण करनेवाले .: कभी उस कर्मका पश्चाताप नहीं कर सकते. अरे ! पश्चात्ताप तो दूर रहा किंतु उस नीचकर्म में भी धर्मका ढोंग रखनेसे अधमकर्मको उपार्जन करते हैं. धर्मढोंग भी कहां तक लिखें १. देखो उसका नमूना -
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नियुक्तस्तु यथान्यायं, मांसं नात्ति हि मानवः । समेत्य पशुतां याति संभवान् एकविंशतिम् ॥ ३५ ॥”
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भावार्थ - श्राद्ध और मधुपर्क में शास्त्रमर्यादानुकूल जुडा हुआ जो मनुष्य मांसको नहीं खाता वो मर मर कर एकवीस जन्म तक पशु होता है ॥ ३५ ॥
देखा ? मांस न खावे तो २१ वार पशु होवे.
जुल्म, जब घोरपापका उदय हो तत्र ऐसी पापमय प्रवृत्तिमें श्रद्धा होती है; प्रत्यक्षतया प्रतीत होता है कि. दुराचारी मांसाहारी विद्वानों सिवाय ऐसी बातें सदाचारीसे कैसे लिखी जा सकती हैं. अपने दुराचारोंको छिपानेके लिये कितनेक दांभिकोंने धर्मके नामसे ये ढोंग चलाये हैं; तथापि इन बातोंवाले शास्त्रोंको सत्य मानना सिवाय मोहोदय के नहीं बन सकता. इस विषयकी पुष्टिमें जो श्लोक हैं सो भी युक्तिशून्य मालूम होते हैं. जैसे कि
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यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयम्भुवा ।
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यज्ञस्य भूत्यै सर्वस्य तस्मात् यज्ञे वधोऽवधः ॥ ३९ ॥
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