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(१५६) अर्थ-अनाथ गरीब ब्राह्मण तथा धनाढ्य ब्राह्मणको जो इस तीर्थ पर विवाह देता है, वह जितने उस ब्राह्मणके शरीर पर रोम होते हैं और उसकी संतान पर भी जितने रोम होते हैं. उतने ही हजार वर्ष तक शिवलोकमें वास करता है ॥ ३७-३८॥
क्या बात है ? जहां पर ऐसे स्वार्थीजन लेखक हो, वहां पर सत्यधर्म पर परदा डालनेमें आवेतो आश्चर्य ही क्या है ?. आगे मत्स्यपुराणके २३८ वे अध्यायमें देवताआको प्रसन्न रखनेके लिये पशु हिंसा करनेका जिकर है, सो युक्त नहीं है. क्यों कि, पशुहिंसा जैसे नीच कर्मसे देवता प्रसन्न हो यह युक्ति युक्त नहीं है. अस्तु. कदाचित् कोई नीच देवता प्रसन्न हो तो भी क्या ?. नोचकर्मसे तृप्त होनेवालोंको नीच कर्मसे भी तृप्त करना यह सत्य शास्त्रका कथन नहीं है, किन्तु बनावटी कल्पना जालसे भरे हुये कुशास्त्रोंका ही कथन मानना चाहिये. बस-ऐसे शास्त्रोंसे विमुख होकर न्याय शास्त्रसे प्रेम बद्ध होना यही मुक्तिका साधन है. मगर पूरी जांच किये वगैर किसी शास्त्रको न्यायी शास्त्र मान लेना यह भी भ्रम संसारको बढानेवाला है, मुक्तिमद किसी तरह नहीं सो खयाल रहै.
हिंसा एक नीचकर्म है जिसके करनेसे मनुष्य घातक आदि उपनामोंको धारण करता है. तो फिर परमात्मा हिंसक सिद्ध होवे ऐसे शास्त्रोरलेख सत्य किस तरह ठहर सकते हैं?. अगर शास्त्रोल्लेख सत्य ठहरे तो परमात्मा पामरात्मा
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