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'परमगुरु-न्यायां निधि- श्रीमद्विजयानंद सूरीशेभ्यो नमः । "
मत-मीमांसा. ”
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प्रा
तःकालका परमशांत समय है, योगीजनो शांत योगोसे आत्मज्योतिमें मुग्ध हो रहे हैं, ज्ञानीजनो विशेष ज्ञानाभ्यासकी धूनमें लगे हुए हैं, रोगीयोंको भी कुछ एक शांतिका अनुभव हो रहा है, पक्षियोंकी मीठी मीठी गीत ध्वनि कर्णको आकृष्ट कर रही है, भोगीयोके भोगश्रमने उन्हें ऐसे पवित्र समय में भी अचेतन सा बना रक्खा है, पनिहारिएं द्रव्यजीवन के लिए शिरपर मटका उठाकर कूँओंकी तरफ जा रही हैं और कितनीक आरही हैं, श्रद्धाळु क्रियामन श्रावक श्राविकाएं प्रायः प्रतिक्रमण पूरा कर मंदि रोंमें दर्शनको जा रही हैं, जिनभवनों में मुनि आदि वर्ग मधुर स्वरसे चैत्यवंदन कर रहा है कितनेक ज्ञानाभ्यास के शोखी महाशय व्याकरण न्यायालंकार साहित्य सिद्धांतोंका अवलोकन कर रहे हैं, जमानेकी धूनमें फंसे हुए कितनेक दैनिक सप्ताहिक तथा मासिक पत्रोंके बर्के ( पाने ) उथला रहे हैं, शीत शीतं पवनका प्रचार हरएक कार्यो के करनेवाले मनुष्यों को मदद दे रहा है, वनस्पति जलसे तर हो रही है, ऐसे समय में
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