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(२९) लेश भी उपयोग नहीं लेते, पैसा और स्त्रीसे हरदम परहेज करते हैं, और कहीं एक जगह पर डेरा बांधकर नहीं रहते, किसी भी जीवकी हिंसा न हो इस वास्ते स्वयं रसोइ भी नहीं बनाते, भिक्षावृत्तिसे ऐसा भोजन लेते हैं कि जिसमें उनका निमित्त न हो, ऐसे गुरुको गुरुबुद्धिसे माननेवाला त्यागके अनुमोदनसे अपना भला कर सकते हैं न कि भोगी ओंका उपासक, ऐसे विचारोंसे त्यागी गुरुओंकी सेवा करनी चाहिये, ऐसे ही दयामय धर्मका परीक्षा पूर्वक स्वीकार करना चाहिये, दयामय जैन धर्म ही है, अन्य धर्मों में कितनेक कुरबानी द्वारा महाहिसाका करना इसे धर्म कहते हैं, तो कितनेक यज्ञसे हिंसक कार्य करनेकों धर्ममानते हैं, ऐसे हिंसात्मक धाँको छोडकर दयामय जेन धर्मका स्वीकार करना चाहिये कि जिससे यह आत्मा जन्म मरणके चक्रसे छूट जावे, देवगुरु धर्मका स्वरूप वैदिक संप्रदाय वालोमें कैसा बिगडा हुआ है और उनके धर्मशास्त्र किस तरहके कल्पित विचारोंसे भरे पडे हैं, इस विषयका स्वरूप उनके ही शास्रोंके उल्लेखसे दिखाया जाता है, गौरसे देखो, मगर यह खयाल जरुर करना कि मेरेको जरा भी उनसे या उनके शास्त्रसे द्वेष नहीं है, मात्र उनमेंसे मध्यस्थ प्रकृतिवाले कितक प्राणी मेरे इस लेखसे कुमार्गको छोड़कर सुमार्गपर आरूढ़ हो या अनुमोदनसे अपने लिये जन्मांतरमें बोधिबीजकी सुलभता करे और तुम्हारे लोगोंको श्रद्धा सत्य धर्मपर है इससे विशेष उदिप्त हो बस यही कारण है, लो अब वख्त बहुत हो गया है इस लिये आज इस विषयको यहांही रखता हूं, ज्ञानीदृष्ट भाव होगा तो पुराणोंका उद्देश कलरोज सुनाया जायगा.
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