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(१२३) ततस्तु त्वरया युक्तः, शीघ्रकारी भयान्वितः। ज्ञात्वा विष्णस्ततस्तस्याः, क्रूरं देव्याश्चिकीर्षितम् ॥१०१॥"
भावार्थ-है इन्द्र ! मैं अपने सामार्थ्य के बलसे विष्णु समेत तुझको सब प्राणाओंके देखते हुए ही भस्म कर दंगी, ऐसा मुझमें तपोबल है ॥ ९७ ॥ उसके ऐसे वचनको सुन कर विष्णु और इन्द्र दोनों यह विचारते भये कि-अब क्या होगा ?, तब इन्द्रसे विष्णु बोले कि अब इससे कैसे छुटेंगे?, उस समय इन्द्रने कहा हे विभो ! जब तक यह हमको भस्म न करे इससे प्रथम ही आप इसको मार डालो ॥ ९८ ।।
और हे विष्णुजी ! मैं तो आप हीसे रक्षित हूँ, इसको शीघ्र मारो, विलंब न करो. तब विष्णुने स्त्रीको मारनेका इरादा किया, परंतु तो भी विपत्ति दूर करनेके लिये अपने सुदर्शन चक्रको उठाया ।। १०० ॥ और शीघ्र ही भयसे युक्त हो कर विष्णु भगवान् उसके क्रोध के कर्तव्यको विचार कर अपने क्रोधसे डरते हुए भी अपने चक्रसे उसका सिर काटते भये ॥ १०१॥ " तं दृष्ट्वा स्त्रीवधं घोरं, चुक्रोध भृगुरीश्वरः । ततोऽभिशप्तो भृगुणा, विष्णुर्भायर्यावधे तदा ॥ १०२ ॥ यस्मात् ते जानतो धर्म-मवध्या स्त्रीनिषदिता । तस्मात्त्वं सप्तकृत्वेह, मानुषेषूपपत्स्यसि ॥ १०३ ॥"
भावार्थ--उस स्त्री के घोर वधको देख कर भृगुऋषि क्रोध कर भायों वधमें तत्पर विष्णुको शाप दिया ॥ १०२ ॥ जो कि, धमको जानते हुए तूने अवध्य स्त्रीको मारा इस लिये तूं सात दफे मनुष्योंमें उत्पन्न होगा ॥ १०३ ॥
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