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(१४८) अभावसे वैदिक संप्रदायकी मान्यतासे भी कृष्णजीमें ईश्वरत्व नहीं हुआ.
मत्स्यपुराणके १८७ में अध्यायमें महादेवजीने त्रिपुरको भरम किया इस विषयका बयान है सो यहां लिखते हैं. ___ मार्कडेयजी बोले हे युधिष्ठिर ! आपने जो मुझसे पूछा है उसको सुनो-जिस स्थानमें नर्मदा नदीके तट पर महादे. वजी स्थित हुए थे वहां महेश्वर नाम त्रिलोकीमें विख्यात स्थान होता भया. उसी स्थानमें महादेवजी त्रिपुरके वध करनेका उपाय चितवन करते भये ॥ १-२ ॥ वहां स्थित हुए महादेवजीने अपने गांडीव धनुषको मन्दराचल पर्वतके समान उंचा करके उसमें वासुकी सर्पको रस्सी स्वामी कार्तिक शरका स्थान विष्णुको उत्तम बाणके अग्र भागमें अग्निको स्थापित कर बाणके मुख पर वायुका प्रवेश करके चारों वेदोंको घोडे और वेदमय ही रथ बना कर घोडोंकी बाग -लगाम अश्विनी कुमारको, रथकी धूरि इंद्रको और शिवजीने अपनी आज्ञासे रथके तोरणमें कुबेरको स्थित किया ॥३-५।। शिवजीके दक्षिण हाथमें धर्मराज, वाम हाथमें दारुण काल,
और रथके चक्रमें देवता और गंधर्वांकी स्थिति होती भई. ब्रह्माजी सारथी हुए, इस प्रकार महादेवजी सब देवताओंका रथ बना कर हजारों वर्ष पर्यत स्थित होते भये. फिर जिस समय पुष्पयोग पा कर यह तीनों इकडे हो गए, उसी सम.
पर महादेवजी उस 'त्रिपुर'पर नाणोडते भये, तब उस त्रिपुरकी स्त्री तेजसे और बलसे रहित जाती भई और उस परमें हजारों उत्पात होते भये-अर्थात् त्रिपुरके विनाशके
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