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________________ (१६३) पांचसौ रुपये ही हैं उस शाकवालेने कहा कि, आप हमारे मित्र बन गये हो तो आपका भला करना हमारा फर्ज है, इस लिये औरसे सातसौ रुपये लेता हूं परंतु आपसे पांचसौ ही लूंगा. इस बातके सुननेसे उस दुर्भागीकी खुशोका पार न रहा और झट पांचसौ रुपये देकर उस कोल्हको घोदेका अंडा समझ कर खरीद लिया. तब उस धृत्तं शाकवालेने कहा कि देखना ? इसको ज़मीनकी या दूसरी चीजको ठोकर न लगे ऐसे रखना. अगर कच्चा फुट जायगा तो सिवाय छोटे छोटे बीजके और कुछ नहीं निकलेगा. इस लिये अच्छी तरहसे इसकी रक्षा करना, कितनेक कालके बाद उसमेंसे स्वयं घोडा निकलेगा. अब वह दुर्भागी उस कोल्हेको लेकर अपने देशकी तरफ लोटा. एक दिन किसी वनमें रसोई करने लगा तब वृक्ष पर चढ कर जिस कपडेसे अपनी जानकी तरह कोल्हको बचा रहा था एक वृक्षकी मजबूत डालीसे उस कपडेको गांठ लगा कर उस कोल्हेको लटकाया गया उसके नीचे ऐसी घनी झाडी थी जिसमें अगर कोल्हा गिर जय तो पत्ता लगाना भी मुश्किल हो जाय. दैवयोगसे ढीली दी हुई गांठ खोसक गई और कोल्हा उस झाडीमें गिर गया. उसके पडनेके शब्दसे भडक कर उस झाडोमें रहा हुआ एक खरगोश निकल कर दूसरी तरफ भागता हुआ उस दुभांगीने देखा और उसके पीछे दौड़ने लगा. परन्तु खरगोश-ससलाकी दौडके आगे उसकी दौड ही क्या थी? जिससे वह पहुंच सके. अब वह मूढ विचार करने लगा कि, हाय ! हाय ! यह कच्चे अंडेसे निकला हुआ छोटासा घोडा भी इतनी तेज चालसे दौडता है अगर परिपक दशाको प्राप्त हुए अंडेसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034555
Book TitleMat Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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