Book Title: Mat Mimansa Part 01
Author(s): Vijaykamalsuri, Labdhivijay
Publisher: Mahavir Jain Sabha

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Page 215
________________ ( a ) " कृताकृतास्तंडुला, पललोदनमेव च । मत्स्यान् पक्कास्तथैवामान, मांसमेतावदेव तु ॥ १५ ॥ पुष्पं चित्रं सुगन्धं च सुरां च त्रिविधामपि । मूलकं पूरिका पूपं तथैवडेकरूजः ॥ २८८ ॥ दध्यन्नं पायसं चैव, गुडपिष्टं समोदकम् । एतान् सर्वान् समाहृत्य, भूमौ कृत्वा ततः शिरः || २८९॥ या स्मृ-अ १ । भावार्थ - पकाये हुए और विना पकाये हुए चावल तिलोंकी पीठीमें मिला हुआ अन्न, मत्स्य, पके हुए मांस, कच्चे मांस, विचित्र प्रकारके पुष्प, सुगंध, तीनों प्रकारकी मदिरा, मूलि. पूरि, पुढे, फलोरियोंकी माला, दहि, भात, गुडसे मिली हुई खीर, लड्डु, इन सर्वोको इकट्ठे कर गणेश जी की भट दें गणेशजी की तथा पार्वतीकी स्तुति करें और पृथ्वीमें शिर नवायके प्रणाम करें ।। २८७-२८८-२८९ ॥ इस प्रकारको भेटले तो यह बखूबी सिद्ध हो जाता है कि, स्वयंतो अपवित्र वस्तुके संयोगसे भ्रष्ट बने सो बने; मगर अपने माने हुए गणेशजीको भी भ्रष्ट बना दिया. स्वार्थके वशीभूत जनोंने अपने अधर्मकर्मको लोक निंदित न होने देनेके लिये ही यह अधर्म चलाया है. इनके स्वार्थका यद्यपि आगे अनेक बार उल्लेख किया गया है, फिर भी देखो याज्ञवल्क्य स्मृति से भी इनके जीवनका परीचय कराया जाता है. “राधान्याभयोपान -च्छत्रमाल्यानुलेपनम् । यानं वृक्षं प्रियं शय्यां दवान्त्यन्तं सुखीभवेत् ॥ २११ ॥ , या. स्मृ. अ. १ : २५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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