Book Title: Mat Mimansa Part 01
Author(s): Vijaykamalsuri, Labdhivijay
Publisher: Mahavir Jain Sabha

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Page 219
________________ ( १९७ ) ये लोग मांसादि स्निग्ध पदार्थके तो इतने लोभीये कि, भंगीके पात्रमेंसे भी लेनेमें दोष नहीं मानते थे. देखिये ! " आई मांसं घृतं तैलं स्नेहाच फलसंभवाः । अन्त्य भांडस्थितास्त्वेते, निष्क्रान्ताः शुद्धिमाप्नुयुः ॥ २४९॥” अत्रि - स्मृति-पृष्ठ-४४ । भावार्थ – गीला मांस, घृत, तैल, फलसे उप्तन्न हुए तैलादि अन्त्यज - भंगीके पात्रमें रक्खे भी हो; परंतु निकाल लेने पर शुद्ध हो जाते हैं ।। २४९ ॥ देखा ! एक तो अपवित्र मांस फिर भंगीके पात्रका वाह ! धर्म शास्त्र ! तेरी खूबी क्या कहूं ? " क्रतौ श्राद्धे नियुक्तो वा अनश्नन् पततिद्विजः । मृगयोपार्जितं मांस-मम्यर्च्य पितृदेवताः ॥ ५६ ॥ " व्यास - स्मृति-पृष्ठ २५ । भावार्थ-यज्ञ और श्राद्धमें नियुक्त हुआ ब्राह्मण मांसको नहीं खाता हुआ भ्रष्ट हो जाता है तथा पितृदेवताओंका पूजन कर शीकारसे हांसल किये मांसको नहीं खाता हुआ भ्रष्ट बन जाता है || देखा ! शिकारका मांस १ इन लोगोंको मांस तो इतना प्रिय था कि, यज्ञमें नहीं देखते थे मनुष्यको और नहीं देखते थे गौको. देखो ! मनुष्य के विषय में - मूल - ( १ ) वाचे पुरुषमालभते । (२) आशायै जामिम् । (३) प्रतीक्षायै कुमारीम् । ' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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