Book Title: Mat Mimansa Part 01
Author(s): Vijaykamalsuri, Labdhivijay
Publisher: Mahavir Jain Sabha

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Page 211
________________ (१८९) यहांपर ५५ वे श्लोकसे मांसका खाना दोषवाला सिद्ध होता है और ५३ वा मांस मदिरा और मैथुन सेवनमें कुछ दोष नहीं है ऐसा कहता है. क्या यह परस्पर अक्षम्य विरोध नहीं है ?. महाशय ! इन दो श्लोंकोंको ले कर परस्पर विरोध है इसे भी जाने दीजिये. सिर्फ ' न मांसभक्षणे दोषो' इसी एक श्लोकको ही लीजिये. इसमें भी परसर महान् विरोध आता है. क्यों कि प्रथमके तीन पादका यह अर्थ है कि -जीवोंकी प्रवृत्ति होनेसे मांस मदिरा और मैथुन सेवनमें कुछ दोष नहीं है। ऐसा अर्थ होता है. और चौथे पदका अर्थ यह है कि-' इनसे हटना महान् फलवाला है. यहां पर विचार करना चाहिये कि, जिनके सेवनमें पाप नहीं उनसे हटनेमें महान् फल किस तरहसे हो सकता है? बस-यही विरोध है. ___अब ' याज्ञवल्क्यस्मृति' तरफ निगाह देते हैं तो वो स्मृति भी मांस विधानसै दुष्ट पाई जाती है. तथा हि"काकोवाक्यं पुराणं च, नाराशंसीश्च गाथिकाः। इतिहासाँस्तथा विद्याः, शक्त्याधीते हि योऽन्वहम् ॥४५॥ ___मांसक्षीरोदनमधु-तर्पणं सदिवौकसाम् । करोति तृप्तिं कुर्याच्च, पितृणां मधुसर्पिषा ॥ ४६॥" या-स्मृ-अ--१॥ भावार्थ- जो द्विज दिन दिन प्रति प्रश्नोत्तरवाले वेद वाक्योंको पढ़ता है और ब्राह्म आदि पुराणोंका पाठ करता हैं और मनु आदि धर्मशास्त्र, रुद्र दैवत्य मंत्र यज्ञोंकी कथा भारत आदि इतिहास विद्या इनको शक्तिके अनुसार नित्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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