Book Title: Mat Mimansa Part 01
Author(s): Vijaykamalsuri, Labdhivijay
Publisher: Mahavir Jain Sabha

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Page 210
________________ (१८८) कब आवे और उसका सिर फोडे. अगर कोई कहे कि, मनुजी कुछ और कहते हैं और नारदजीका उपदेश कुछ और दिशा दिखलाता है तो हमको कौनसी बात माननी चाहिये? तो उनको समझ लेना कि, जिन शास्त्रोंमें परस्पर विरोध न हो ऐसे दयामय पवित्र वीतरागोक्त शास्त्रोंको मानना चाहिये. वैदिक शास्त्रोंमें बहुत ठिकाने अच्छी वैराग्यकी बातें भी आती हैं मगर उपर नीचेकी बातोंने उस वैराग्यको अभंग नहीं रहने दिया. मतलब सन्निपातमें मनुष्य कभी शांतिका तो कभी अशांतिका- कभी दयाका तो कभी हिंसाका भाव जाहिर करता है. इसी तरहकी स्थिति जिनशास्त्रोंकी हो वहां वास्तविक स्वरूपका निवास दुर्घट है. अनेक शास्त्रोंमें परस्पर विरोधको जाने दीजिये सिर्फ एक ही मनुस्मृति' उसमें भी एक ही अध्याय (पांचवा ), उसमें भी उपर नीचेके श्लोकमें ही विरोध देखिए" मांस भक्षयिताऽमुत्र, यस्य मांसमिहाम्यहम्।। एतन्मांसस्य मांसत्वं, प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ ५५ ॥ . " न मांसभक्षणे दोषों, न मद्ये न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां, निवृत्तिस्तु महाफला ॥६॥ " म-अ-५। भावार्थ-जिसका मांस मैं यहां खाता हूं वो दूसरे लोगमें मुझे खायगा.विद्वानों यह मांस शब्दका निरुक्तार्थ कहेते हैं ॥ ५५ ॥ मांस खानों, मद्य पीनेमें और मैथुनके सेवनमें दोष नहीं है. क्यों कि प्राणियोंकी यह प्रवृत्ति है. परंतु इन तीनों कामसे निवृत्तिका होना महान् फलवाला है ॥ १६ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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