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( १८७) उत्पन्न हो जावे तब तो कुछ अच्छी गतिक चिह्न भी कहे जावे मगर यह बात युक्तिसहित विचारमें आकाश कुसुम जैसी भासती है. अतः कोई भी मध्यस्थ इस बातको कबूल नही कर सकता. अगर वैदिक ऋषियोंके मनमें भी इस बातका सन्देह नहीं था, तो फिर केवल अपने माता पिता पुत्र परिवारके यज्ञका विधान क्यों नहीं किया?.बिचारे गरीब जानवरोका होम ही सस्ता देखा ?.
कितनेक बेसमझ ऐसे कह देते हैं कि, जिस युगमें यज्ञमें जीवोंको मारते थे, उस युगमें उनको जीला देते थे, यह भी केवल गप्पगोला है. क्यों कि, जब जीलाना ही है तो मारना क्यों ?. पहिले किसी लडकको थप्पड मारी और पीछेसे उसे गुड दिया यह अकलमंदीकी बात नहीं है. अव्वल तो 'मरा हुआ कभी जीता नही हैं ' इस नियमको ही वे लोग भूले हुए हैं और दूसरे अपने धर्मशास्त्रका भी उनको पूरा पता नहीं है.
देखो-भागवत चतुर्थ स्कंधके २५ वें अध्यायमें नारदने 'प्राचीनबर्हि' राजाको उपदेश दिया है. उसमें मतलब यह है कि. 'यज्ञमें जिन पशुओंको निर्दय हो कर तूंने मारे हैं परलोकमें क्रुद्ध हुए लोहेकी मुद्गरोंसे तेरे सिरको छेदन करनेकी इच्छासे तेरी राह देख रहे हैं.'
इस मतलबका लेख क्या सिद्ध करता है ?. मालूम हुआ! यही कि यज्ञ जो प्राणी मरते हैं वो खुशीसे नहीं मरते और वैर लेनको भी तैय्यार रहते हैं कि-यज्ञमें हमको मारनेवाला
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