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चेटक बना कर उसमें पवित्र धर्मको नीचा बतलानेके लिये कल्पित घटनाएं खड़ी कर देते हैं. देखो म म नवलराम लक्ष्मीराम नामके शख्सने एक 'वीरमती' नामका नाटक बनाया है सो संवत् १९७७ की सालमें छपा हुआ मेरेको उपलब्ध हुआ है. उसकी अंदर जो बातें दाखल की हैं प्रत्यक्षतया असत्य ज्ञात होती हैं. जिसे पढ़ कर लोहके गहिनेवाले राजपुत्रके दृष्टांतका स्मरण हो आता है. देखो पृष्ट १४--
हेप-(धीमेथी ) मा न भुयाने भान शाह आपो छ। ?" ___ नाटककार इन अपमान वाचक शब्दोंका प्रयोग चाहे अन्य पात्रके मुखसे निकलवाते हैं तथापि समझदार समझ सकते हैं कि यह नाटककारके हृदयमें जलती हुई द्वेषरूप होलिका ही नतीजा है. हमारे प्रेमी नाटककार इस द्वेषाग्निमें इतने व्यग्र हुए थे कि, बेहोशीमें हेमचन्द्राचार्यके गुरुका नाम ' ज्ञानविजयमूरि' लिख मारा. किसी भी जैनशास्त्र या प्रामाणिक इतिहासकारके पुस्तकमसे मजकुर सूरीश्वरजीके गुरुजीका नाम 'ज्ञानविजय' नहीं नीकल सकता. उनके गुरुजीका नाम 'श्री देवचंद्राचार्य था. जिस भडकती हुई द्वेषामिमें नाम भी भूल जाय, या कल्पित बना कर लिखा जावे इस द्वेषाग्निसे लिखी हुई अन्य बातोंकी असत्यताका तो कहना ही क्या ?. सो ही दिखाते हैं.- देखो पृष्ठ १५
- लय
१-२०॥ भूतना शमां नास्तिनो मेसो ?'
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