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(१३०) हुई वो स्वर्णयष्टि भी कुमारको दो. मंत्रीने उत्तर दिया. महाराजा ! वो तो महादुर्लभ गहिने हैं, आपने भी आपकी उम्रमें नहीं पहिने वो कैसे दिये जावे ?. याचक लोग बड़े लुच्चे हैं और कुमार भोला हैं। एकदम कह देगें कि कुमार साहिब ! ये गहिने तो लोहे के हैं, तब कुमार तुर्त उतार कर दे देंगे। इस लिये ऐसे. अपूर्व गहिने नहीं दिये जायेंगे. अब कहना ही क्या था ?. उसी वख्त कुंवरने कहा कि-मंत्रिजी ! मेरेको वो ही गहिने दो जो बडी मुद्दतसे किप्तीने नहीं पहिने. मैं ऐसा भोला नहीं हूं जो लुच्चोंकी बातको सत्य मानूं. आप जल्दी मुझे वो गहिने पहिना दो और उस हीरेकी जडी हुई स्वर्णयष्टिसे मेरे हाथको सुशोभित बना दो; मैं उन अपूर्व गहिनोंको अपने अंगसे कभी भी अलग नहीं करूंगा. मंत्री कहने लगा-कुमार ! देखना ! उसमें गरबड न हो. नहीं जी नहीं कभी गरबड नहीं होगी. बस-उसी वख्त मंत्रीने रातको तैय्यार कराये हुए लोहेके आभूषण पहिना दिये और लोहेकी यष्टि हाथमें दी. बादमें कुमारने भोजन किया. जब सेरको निकले तब अंधकुमार तो मानता है कि, मैंने आज अद्वितीय आभूषण प्राप्त किया है। मगर याचकोंके चहेंरे कुमारको देखते ही फीके पड गये और कहने लगे क्योंजी ! आज लोहेके गहिने पहिने हैं?. नज़दीकमें जा कर फिर कहने लगे; क्या ऐसे गहिने पहिननेमें आपकी शोभा है?. अभी ये अक्षर तो पूरे याचकके मुंहसे निकलने पाये ही नहीं थे कि, एकदम लोहेकी सोटी याचकके शिर पर धडाक देकर पडी और लोहुंकी धारा छुटी; याचक राड़ पाड़ कर ज़मीन पर गिर पड़ा. ऐसे दो चार याचकोंकी उस दिन दुर्दशा हुई.
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