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(१४७) " शुभो वचो विष्णुमुखानिशम्य, निमिश्च निष्पेष्टुंमियेष विष्णुम् ।
गदामथोदम्य निमिः प्रचण्डो, जघान गाढा गरुडं शिरस्तः .. ॥३३॥
शुंभोऽपि विष्णुं परिघेण मूर्तीि, प्ररुष्टरत्नोपविचित्रभासा।
तो दानवाभ्यां विषमैः प्रहारैः, निपेतुरुया प्रनपावकामौ ॥३४॥
तत् कर्म दृष्ट्वादितिजास्तु सर्वे, जग रुचैः कृतसिंहनादाः।
धषि चास्फोव्य खुराभिघातैयंदारयन् भूमिमपि प्रचण्डाः।
वासांसि चैवादुधुवुः परे तु, दध्मुश्च शंखा नकगौमुखौघान् ॥ ३५ ॥ अथ संज्ञामवाप्याशु, गरुडोऽपि सकेशवः । पराङ्मुखो रणात्तस्मात्, पलायत महाजवः ॥ ३६ ॥"
इस उपरके लेखसे साफ सिद्ध हो गया कि, विष्णुको तथा गरुडको दैत्योंने एसी मार मारी जिससे गरुड समेत विष्णुजी मूर्छित हो गए तथा मूर्छाके दूर हो जाने पर युद्ध भूमिसे भाग गए. अब विचारना चाहिये कि, जिसको प्रथम यह ज्ञान नहीं था कि मुझे दैत्योंसे मार खा कर भागना पडेगा. वह सर्वज्ञ नहीं हो सकता और इस तरहसे असामर्थ्यवाले' सर्वशक्तित्व भी सिद्ध नहीं हो सकता और इन दोनों गुणोंके,
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